मैं बचपन से ही
अत्यंत सहिष्णु हूं। इसका श्रेय मुझे कम और मेरे मास्टर साहब लोगों को ज्यादा है।
भारत में सहिष्णुता की ट्रेनिंग प्राइमरी स्कूल से ही शुरू हो जाती है। जनकवि बाबा
नागार्जुन की एक कविता की पंक्तियां हैं..
बरसा-बरसा कर
बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पांच तमाचे
इसी तरह दुखहरन
मास्टर गढ़ते आदम के सांचे।
मेरी जिंदगी में
कक्षा पांच से कक्षा दस तक कई दुखहरन मास्टर आए। मुर्गा बनाना, दो लड़को से एक-दूसरे को तमाचे लगवाना, जिसकी पिटाई
करनी हो उसी को भेजकर कांटो वाली गुलाब की छड़ी मंगवाना, छड़ी
की क्वालिटी उत्तम न पाए जाने पर सज़ा में दो छड़ी अतिरिक्त लगाना, दो उंगलियों के बीच पेंसिल रखकर पूरी ताक़त से दबा देना, सहिष्णु बनाने ये सब कुछ खास नुस्खे थे। कम सहिष्णु या यूं कहें तो
असहिष्णु बच्चे सरकारी स्कूलो से भाग जाते हैं। आगे चलकर रिक्शा या ठेला चलाते हैं,
मैं जिस इलाके का हूं, वहां इस तरह के ड्रॉप
आउट बच्चे नक्सली भी बनते हैं। लेकिन मुझे यह सब कुछ नहीं बनना था, मुझे एक आदर्श नागरिक बनना था, परमानेंट सहिष्णु
अपने पूज्य पिताजी की तरह। इसलिए मास्टर साहब लोगो की बेंत को हमेशा प्रसाद माना।
नतीजा ये हुआ कि सहिष्णुता की परीक्षा में इस कदर पारंगत होता गया कि कभी दिमाग़
में कभी यह सवाल ही नहीं आया कि असहिष्णुता भी कोई चीज़ होती होगी।
बहुत ताज्जुब
होता है जब आजकल विदेशी अख़बारों की ख़बरें देखता हूं। अमेरिका में हर साल चाइल्ड
हेल्पलाइन पर हज़ारो शिकायतें आती हैं। किसी बच्चे को उसका बाप गुस्से में आकर एक
तमाचा भी लगाये तो बच्चा फौरन सरकार से शिकायत कर देता है और बाप को पुलिस के
चक्कर काटने पड़ते हैं। लानत है ऐसे मुल्कों पर। सहिष्णु हूं इसके बावजूद खून खौल
उठता है, यह सुनकर कि अमेरिका जैसा मुल्क भारत में बढ़ रही
तथाकथित असहिष्णुता पर चिंता जता रहा है। अगर अमेरिकी राष्ट्रपति हमारे
प्रधानमंत्री के जिगरी दोस्त न होते और दोनो मुल्को के बीच खरबों रुपये का कारोबार
न होता तो मैं फौरन कड़ी कार्रवाई और ज़रूरत पड़ने पर राजनायिक रिश्ते खत्म करने
की मांग करता। लेकिन ऐसा करूंगा नहीं क्योंकि ऐसी मांग भी शायद कुछ लोगों की
नज़रों में असहिष्णुता हो।
विदेश तो
छोड़िये इधर आजकल अपने देश में भी कई लोग असहिष्णुता की रट लगाने लगे हैं। शोर
इतना बढ़ गया है कि मैं भी इस सोच में डूब गया हूं कि असहिष्णुता आखिर है किस
चिड़िया का नाम? मेरे एक सहकर्मी कहा करते थे—ठंड
और बेइज्जती दो ऐसी चीज़ें हैं, जितना महसूस करो उतना ही
महसूस होती हैं। कितनी गहरी बात है। इस लिस्ट में असहिष्णुता को भी शामिल कर लिया
जाना चाहिए। महसूस करेंगे तो महसूस होगी और आपको महसूस होगी तो फिर आपके पड़ोसियों
को भी महसूस होगी और फिर पूरे देश को महसूस होने लगेगी। इस तरह तो पूरा देश ही
असहिष्णु हो जाएगा। इसलिए सबसे बेहतर यही है कि कुछ महसूस ही मत कीजिये।
मैं सिर्फ अपनी
बात नहीं कर रहा, मुझे लगता है कि पूरा
भारतीय समाज गजब का सहिष्णु है। बचपन में आप मास्टर साहब के तमाचे खाते हैं। फिर
नौकरी के लिए धक्के खाते हैं। नौकरी मिल जाती है, दफ्तर में
रोजाना अपनी बॉस की डांट खाते हैं, लेकिन उफ तक नहीं करते।
ये मत समझिएगा कि आपका बॉस असहिष्णु है, वह भी बंद कैबिन में
अपने बॉस की गालियां खाता है और जवाब देने के बदले हां में हां मिलाता है। दफ्तर
के अलावा घर में भी आप रोजाना अपनी बीवी की डांट खाते हैं। लेकिन आप यह कहने नहीं
जाते कि असहिष्णुता बढ़ गई है.. मैंने तो सिर्फ दाल में नमक ज्यादा होने की बात
कही थी, बदले में तुमने मेरी तीन पीढ़ियों को याद क्यों किया?
आप जानते हैं कि
तकरार का कोई फायदा नहीं है। बीवी बदले में यही पूछेगी.. जिस दिन दाल अच्छी बनी थी, तब कहां थे, उस दिन तारीफ क्यों नहीं की थी? आसान भाषा में सहिष्णुता का अर्थ सहनशक्ति है। सहना यानी नज़रअंदाज़ करना,
कोई गाली दे तो इस तरह बचकर निकल जाना जैसे आपने कुछ सुना ही नहीं।
बापू के तीन बंदर न जाने कब से पूरे देश को सहिष्णु होने की शिक्षा दे रहे हैं।
लोगों ने इन शिक्षाओं का पालन भी किया है। लेकिन कुछ लोग ज़रूरत से ज्यादा चालाक
होते हैं। पहले मुंह खोलकर धाराप्रवाह गालियां देते हैं और इससे पहले कि जवाब आए
अपने कान बंद कर लेते हैं। पूछो तो कहते हैं, बापू के बंदर
ने बुरा सुनने के लिए मना किया था। कभी-कभी सरकारें भी ऐसा करती हैं। आंख और कान
बंद कर लेती हैं और सिर्फ मुंह खुला रखती हैं। कुछ पूछा जाए तो कहती हैं... क्या
यह सहना.. सहना नहीं है। आंख और कान बंद कर लिए हैं, अब इससे
ज्यादा क्या करें?
देखा जाए तो
इसमें गलत कुछ भी नहीं है। व्रत भी अपनी सहन शक्ति के हिसाब से किए जाते हैं। कोई
निर्जला एकादशी करता है और कोई फलाहार। अपनी-अपनी क्षमता और श्रद्धा है। सहिष्णुता
एक ऐसी परीक्षा है, जिसमें हर आदमी को
अपना सेल्फ अप्रेजल करना पड़ता है। मैं अपने आकलन में खुद को शत-प्रतिशत अंक देता
हूं। मैंने किसी बस के पीछे लिखा देखा था-- मनुष्य अपने दुख से नहीं बल्कि औरो के
सुख से दुखी है। बात सच है.. जमाना खुश है तो खुश रहे। आप ज़बरदस्ती सबको क्यों
बताना चाहते हैं कि सहिष्णुता कम हो गई है। मैं यह मानकर चलता हूं कि जब आप घर में
बीवी के ताने झेल सकते हैं, ऑफिस में बॉस की लताड़ सह सकते
हैं तो थोड़ा प्रसाद अगर समाज और यहां तक कि सरकार से भी मिल जाए तो क्या हर्ज है?
इसलिए सहे जाओ और कहे जाओ-- वृंदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना
है!
बदलते वक्त में रिश्ते और समाजिक आचार विचार भी बदल रहे हैं. शिष्टाचार और अदब की बहुत किल्लत पैदा हो गई है..बहुत उम्दा लिखा है सोहराब भाई...
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