Friday, January 30, 2015

गाँधी या गोडसे: हरिशंकर परसाई


महात्मा गाँधी को चिट्ठी पहुँचे


यह चिट्ठी महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी को पहुंचे. महात्माजी, मैं न संसद-सदस्य हूँ, न विधायक, न मंत्री, न नेता. इनमें से कोई कलंक मेरे ऊपर नहीं है. मुझमें कोई ऐसा राजनीतिक ऐब नहीं है कि आपकी जय बोलूं. मुझे कोई भी पद नहीं चाहिये कि राजघाट जाऊँ. मैंने आपकी समाधि पर शपथ भी नहीं ली.
आपका भी अब भरोसा नहीं रहा. पिछले मार्च में आपकी समाधि मोरारजी भाई ने भी शपथ ली थी और जगजीवन राम ने भी. मगर बाबू जी रह गए और मोरारजी प्रधानमंत्री हो गए. आख़िर गुजराती ने गुजराती का साथ दिया.
जिन्होंने आपकी समाधि पर शपथ ली थी उनका दस महीने में ही ‘जिंदाबाद’ से ‘मुर्दाबाद’ हो गया. वे जनता से बचने के लिए बाथरूम में ही बिस्तर डलवाने लगे हैं. मुझे अपनी दुर्गति नहीं करानी. मैं कभी आपकी समाधि पर शपथ नहीं लूँगा. उसमें भी आप टाँग खींच सकते हैं.
आपके नाम पर सड़कें हैं- महात्मा गाँधी मार्ग, गाँधी पथ. इनपर हमारे नेता चलते हैं. कौन कह सकता है कि इन्होंने आपका मार्ग छोड़ दिया है. वे तो रोज़ महात्मा गाँधी रोड पर चलते हैं.
इधर आपको और तरह से अमर बनाने की कोशिश हो रही है. पिछली दिवाली पर दिल्ली के जनसंघी शासन ने सस्ती मोमबत्ती सप्लाई करायी थी. मोमबत्ती के पैकेट पर आपका फोटो था. फोटो में आप आरएसएस के ध्वज को प्रणाम कर रहे हैं. पिछे हेडगेवार खड़े हैं.
By R.K. Lakshman
एक ही कमी रह गयी. आगे पूरी हो जायेगी. अगली बार आपको हाफ पेंट पहना दिया जायेगा और भगवा टोपी पहना दी जायेगी. आप मजे में आरएसएस के स्वयंसेवक के रुप में अमर हो सकते हैं. आगे वही अमर होगा जिसे जनसंघ करेगा.
कांग्रेसियों से आप उम्मीद मत कीजिये. यह नस्ल खत्म हो रही है. आगे गड़ाये जाने वाले में कालपत्र में एक नमूना कांग्रेस का भी रखा जयेगा, जिससे आगे आनेवाले यह जान सकें कि पृथ्वी पर एक प्राणी ऐसा भी था. गैण्डा तो अपना अस्तितव कायम रखे है लेकिन कांग्रेसी नहीं रख सका.
मोरारजी भाई भी आपके लिए कुछ नहीं कर सकेंगे. वे सत्यवादी हैं. इसलिए अब वे यह नहीं कहते कि आपको मारने वाला गोडसे आरएसएस का था.
यह सभी जानते हैं कि गोडसे फांसी पर चढ़ा, तब उसके हाथ में भगवा ध्वज था और होठों पर संघ की प्रार्थना- नमस्ते सादा वत्सले मातृभूमि. पर यही बात बताने वाला गाँधीवादी गाइड दामोदरन नौकरी से निकाल दिया गया. उसे आपके मोरारजी भाई ने नहीं बचाया.
मोरारजी सत्य पर अटल रहते हैं. इस समय उनके लिए सत्य है प्रधानमंत्री बने रहना. इस सत्य की उन्हें रक्षा करनी है. इस सत्य की रक्षा के लिए जनसंघ का सहयोग जरूरी है. इसलिए वे यह झूठ नहीं कहेंगे कि गोडसे आरएसएस का था. वे सत्यवादी है.
तो महात्माजी, जो कुछ उम्मीद है, बाला साहब देवरास से है. वे जो करेंगे वही आपके लिए होगा. वैसे काम चालू हो गया है. गोडसे को भगत सिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रह रही है. गोडसे ने हिंदू राष्ट्र के विरोधी गाँधी को मारा था.
गोडसे जब भगत सिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जायेगा, तब तीस जनवरी का क्या होगा? अभी तक यह ‘गाँधी निर्वाण दिवस है’, आगे ‘गोडसे गौरव दिवस’ हो जायेगा. इस दिन कोई राजघाट नहीं जायेगा, फिर भी आपको याद जरूर किया जायेगा.
जब तीस जनवरी को गोडसे की जय-जयकार होगी, तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि उसने कौन-सा महान कर्म किया था. बताया जायेगा कि इस दिन उस वीर ने गाँधी को मार डाला था. तो आप गोडसे के बहाने याद किए जायेंगे. अभी तक गोडसे को आपके बहाने याद किया जाता था.
एक महान पुरुष के हाथों मरने का कितना फयदा मिलेगा आपको? लोग पूछेंगे- यह गाँधी कौन था? जवाब मिलेगा- वही, जिसे गोडसे ने मारा था.
एक संयोग और आपके लिए अच्छा है. 30 जनवरी 1977 को जनता पार्टी बनी थी. 30 जनवरी जनता पार्टी का जन्म-दिन है. अब बताइये, जन्मदिन पर कोई आपके लिए रोयेगा? वह तो खुशी का दिन होगा.
आगे चलकर जनता पार्टी पुरी तरह जनसंघ हो जायेगी. तब 30 जनवरी का यह महत्त्व होगा- इस दिन परमवीर राष्ट्रभक्त गोडसे ने गाँधी को मारा. इस पुण्य के प्रताप से इसी दिन जनता पार्टी का जन्म हुआ, जिसने हिंदू राष्ट्र की स्थापना की.
आप चिंता न करें, महात्माजी! हमारे मोरारजी भाई को न कभी चिंता होती है और न वे कभी तनाव अनुभव करते हैं. चिंता क्यों हो उन्हें? किसकी चिंता हो? देश की? नहीं. उन्होंने तो ऐलान कर दिया है- राम की चिड़िया, राम के खेत! खाओ री चिड़िया, भर-भर पेट! तो चिड़िया खेत खा रही है और मोरारजी को कोई चिंता, कोई तनाव नहीं है.
बाकी भी ठीक चल रहा है. आप जो लाठी छोड़ गए थे, उसे चरण सिंह ने हथिया लिया है.
चौधरी साहब इस लाठी को लेकर जवाहरलाल नेहरू का पीछा कर रहे हैं. जहाँ नेहरू को पा जाते हैं, एक-दो हाथ दे देते हैं. जो भी नेहरू की नीतियों की वकालत करता है, उसे चौधरी आपकी लाठी से मार देते हैं.
उस दिन चंद्रशेखर ने कहीं कह दिया कि नेहरू की उद्योगीकरन की नीति सही थी और उससे देश को बहुत फायदा हुआ है.
चरण सिंह ने सुना तो नौकर से कहा- अरे लाना गाँधीजी की लाठी!
लाठी को लेकर चंद्रशेखर को मारने निकल पड़े. बेचारे बचने के लिए थाने गए तो थानेदार ने कह दिया- पुलिस चौधरी साहब की है. वे अगर आपको मार रहे हैं तो हम नहीं बचा सकते.
आप हरिजन वगैरह की चिन्ता मत कीजिये. हर साल कोटा तय रहता है कि इस साल गाँधी जयंती तक इतने हरिजन मरेंगे. इस साल ‘कोटा’ बढ़ा दिया गया था, क्योंकि जनता पार्टी के नेताओं ने राजघाट पर शपथ ली थी.
उनकी सरकार बन गयी. उन्हें शपथ की लाज रखनी थी. इसीलिये हरिजनों को मारने का ‘कोटा’ बढ़ा दिया गया. खुशी है कि ‘कोटे’ से कुछ ज्यादा ही हरिजन मारे गए. आप बेफिक्र रहें, आपका यश किसी ना किसी रुप में सुरक्षित रहेगा.
आपका
एक भक्त
साभार: परसाई रचनावली-4

Thursday, January 08, 2015

pk से आखिर कौन डरा हुआ है?


हिंदू संगठनों के विरोध और अपनी रिकॉर्ड कमाई के चलते फिल्मकार राजकुमार हिरानी की फिल्म 'पीके' आज सुर्खियों में है। संगठनों का आरोप है कि यह फिल्म हिंदू धर्म का मजाक उड़ाती है और 'लव जिहाद' को बढ़ावा देती है। लेकिन विवादों, विरोध-प्रदर्शनों के बावजूद समाज के बड़े तबके को यह फिल्म पंसद आ रही है और यह बड़ा तबका किसी और का नहीं बल्कि हिंदुओं का है। सवाल है कि समाज के इस बड़े तबके को जब यह फिल्म पसंद आ रही है तो इसका विरोध करने वाले लोग कौन हैं। ये वही लोग हैं जो धर्म और अंधविश्वास की आड़ में अपनी दुकानें सदियों से चलाते आए हैं। हिरानी ने अपनी फिल्म के जरिए इन्हीं लोगों को अपने निशाने पर लिया है। 'पीके' धर्म और आस्था पर चोट नहीं करती बल्कि आडंबरों एवं कर्मकांडों की उस अंध परिपाटी को निशाने पर लेती है जो मनुष्य को सदियों से धर्म से दूर करती आई है।


धर्म और आस्था के प्रति मनुष्य की जड़ें बहुत गहरी होती हैं और इनकी आलोचना करना जोखिम भरा काम होता है। अपनी फिल्म के माध्यम से हिरानी ने लोगों की सामाजिक चेतना को झकझोरने की कोशिश की है। 'पीके' की भूमिका में आमिर खान ने आस्था और मान्यता से जुड़ीं बातों को बड़ी सहजता से उठाया है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर और गुरुद्वारे के व्रत, नेम-नियम, अनुष्ठान एवं विधान से हम सभी परिचित हैं। विभिन्न मतों से संबंध रखने वाले ज्यादातर लोगों को भी आस्था और अंधविश्वास के बीच फर्क पता होता है। लेकिन समाज अपनी आस्था के चलते धर्म की आड़ में फैलाए जा रहे अंधविश्वास के प्रति सवाल करने से हिचकता है। लेकिन 'पीके' सवाल करता है। 'पीके' दूसरी दुनिया का है। उसे भगवान, धर्म, धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं के बारे में कुछ भी पता नहीं है। वह इस समाज का नहीं है। अपना 'रिमोट' पाने के लिए वह सभी धर्मों के पूजा-अनुष्ठान की विधियों से गुजरता है। कहीं से मदद नहीं मिलने पर वह बहुत 'फ्रस्टेट' होता है और इसके बाद वह सवाल करता है।

'पीके' फिल्म का प्रदर्शन ऐसे समय हुआ है जब 'लव जिहाद', धर्मांतरण के मुद्दे चर्चा में हैं और स्वयंभू बाबाओं के कारनामों से लोगों की आस्थाओं पर चोट पहुंची है। आमिर खान जैसा 'पर्फेक्शनिस्ट' अभिनेता जब अपनी फिल्म के जरिए जब मुद्दों से टकराता है तो उसका संदेश दूर तक जाता है। ऐसा नहीं है कि धर्म केंद्रित यह पहली फिल्म है। इससे पहले भी धर्म, आस्था पर सवाल करने वाली फिल्में बनी हैं लेकिन उन फिल्मों में उतनी सहजता से इस 'गोले' की आडंबरों को नहीं उठाया गया है जितनी सहजता से 'पीके' उन्हें बेनकाब करती है।

दूसरा, आमिर आज के समय के बड़े 'कम्यूनिकेटर्स' में से एक हैं। वह जो बात कहते हैं वह बात समाज में असर पैदा करती है। उनकी फिल्मों में एक संदेश होता है। 'पीके' का संदेश साफ है। यह संदेश लोगों को पसंद आया है और आ रहा है। कमाई के लिहाज से फिल्म का तीन सौ करोड़ रुपए को पार कर जाना फिल्म की स्वीकार्यता को दर्शाता है। केवल एक धर्म के लोगों द्वारा देखे जाने से कोई फिल्म इतनी कमाई नहीं कर सकती। जाहिर है कि यह फिल्म सभी मजहब के लोगों को पंसद आई है।

फिल्मों के सेंसर बोर्ड से पारित हो जाने के बाद उसे थिएटर से उतारे जाने की बात बेमानी है। धार्मिक भावनाएं आहत होना ही फिल्मों की प्रस्तुति का सर्टिफिकेट बन जाएगा तो शायद ही कोई फिल्म रिलीज हो पाएगी क्योंकि किसी न किसी चीज को लेकर हर कोई व्यक्ति संवेदनशील होता है। 'पीके' का विरोध करने वाले लोग कौन हैं उन्हें आप भी जानते हैं, हम भी जानते हैं। और शायद वे भी जानते होंगे जो इसका विरोध कर रहे हैं। 

~आलोक कुमार राव