Tuesday, July 31, 2012

असम में भड़की हिंसा के बहाने लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण



असम में बोडो आदिवासी बहुल इलाकों में भड़की हिंसा के बहाने सांप्रदायिक राजनीति फिर उफान पर है। मीडिया की खबरों और रपटों में इस हिंसा को असम के हिंदुओं के विरुद्ध घुसपैठिया मुसलमानों के आक्रमण बताकर पूरे देश में मुसलमान विरोधी शरणार्थी विरोधी माहौल तैयार किया जा रहा है जो बेहद खतरनाक है। मूल समस्या आदिवासी बहुल इलाकों में संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर और संविधान के तहत पांचवी व छठी अनुसूचियों में आदिवासियों के हक हकूक को दशकों से नजरअंदाज किये जाने की है। पर माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि एक तरफ मुसलमानों को इस दंगे के लिए एकतरफा जिम्मेवार बनाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ बोडो आदिवासियों की स्वयात्तता और जल जंगल जमीन के हकहकूक को खारिज करने की साजिश हो रही है। राजनीति न मुसलमानों के पक्ष में है और न आदिवासियों के हक में। हिंदुओं के हक में भी नहीं। यह तो आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नये सिरे से कोशिश है, जिससे न सिर्फ असम बल्कि पूरे देश में जल जंगल जमीन से बेदखली और कॉर्पोरेट वर्चस्ववादी राज कायम रह सकें। वैसे भी असम समस्या कभी हिंदू मुसलमान सांप्रदायिक समस्या नही रही है। बल्कि हमेशा इसे सांप्रदायिक रंग देकर हकीकत को रफा दफा किया जाता रहा है। हमने मेरठ और उत्तर प्रदेश के दूसरे शहरों के महीनों दंगों की आग में जलते देखा है। किसी खास इलाके में योजनाबद्ध ढंग से हिंसा हो और उसपर काबू पाने की कोशिश ही न हो, बल्कि दंगों की आग भड़काने के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति हो, यही दंगों की असलियत है, जो सत्ता प्रायोजित सत्ता संचालित होती है।
नब्वे के दशक में हमने अपनी लंबी कहानी उनका मिशन में दंगों के भूगोल का पोस्टमार्टम किया था कि कैसे उद्योग धंधों, आजीविका और कारोबार से आम लोगों को बेदखल करने और कारोबार में वर्चस्व बनाने के लिए सुनियोजित तरीके से दंगे कराये जाते हैं। सिर्फ मेरठ ही नहीं, उत्तर प्रदेश के दूसरे छोटे बड़े शहरों कानपुर, इलाहाबाद,वाराणसी, आगरा, अलीगढ़, मुरादाबाद, बरेली, फिरोजाबाद और अन्यत्र हम सबने इसे प्रत्यक्ष देखा है। राम जन्म भूमि आंदोलन के दरम्यान देश भर में सांप्रदायिकता के उफान से बाजार का भूगोल बदल गया और कारोबार से आम लोगों, ख़ासकर कमजोर तबके को बेखल कर दिया जाता रहा। सांप्रदायिक उन्माद से ही बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज कायम करने में मदद मिली है। गुजरात में यही प्रयोग वैज्ञानिक तरीके से हुआ, जहां अनुसूचियों और पिछड़ों के हिंदुत्व के पैदल सेना मे तब्दील हो जाने से पूरे राज्य में कारपोरेट राज कायम हो गया है और इसी उपलब्धि पर नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्रित्व पर दावा है।
१९६० के दंगों में पीड़ितों के बीच मेरे दिवंगत पिता ने काम किया था कामरुप, कछार, नौगांव समेत उपद्रवग्रस्त इलाकों में। १९८० के असम छात्र आंदोलन में भी जनसंख्या का बदलता हुआ चरित्र सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। पिताजी शरणार्थियों के राष्ट्रीय नेता रहे हैं और हमारा उनसे हमेशा विवाद इस बात को लेकर रहा है कि वे अल्पसंख्यक होने की मजबूरी में क्यों जीते हैं। जबकि शरणार्थियों की इसी असुरक्षा बोध की वजह से उनका वोट बैंक बतौर इस्तेमाल होता है। शुरू से शरणार्थी समस्या सुलझाने की भारत सरकार या राज्य सरकारों की कोई कोशिश नहीं रही है। इसके लिए न कोई राजनीतिक और न राजनयिक प्रयास किये गये। जिससे पूरे देश में यह समस्या प्रबल हो गयी। जान बूझकर आदिवासी इलाकों में शरणार्थियों की आबादी बसाने की नीति अपनायी गयी ताकि विकास के बहाने और मानविक कारण दर्शाते हुए पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के तहत आदिवासियों के हक हकूक खत्म कर दिया जाये। प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के नैसर्गिक अधिकारों को भारत सरकार मानती ही नहीं है। इसके उलट आदिवासी इलाकों में तमाम प्राकृतिक संसाधन औद्योगिक घरानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट तत्वों के हवाले कर दिया गया। प्रतिरोध करने वाली आबादी को सर्वत्र अलगाववादी उग्रवादी नक्सली माओवादी कहा जाता रहा। बंगाल, झारखंड, ओड़ीशा, मध्य प्रदेश, आंध्र, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, महाराष्ट्र गुजरात में इसका अंजाम हम देख रहे हैं , जहां आदिवासी भूगोल के विरुद्ध राष्ट्र ने युद्ध छेड़ा हुआ है। आदिवासी क्षेत्रों में 5 वीं , 6 वीं अनुसूचि का स्वायत्तता नहीं होने के कारण जल जंगल और जमीन से बेदखल होना पड़ रहा है।
गौरतलब हो कि ब्रिटिशकाल में स्वायत्तता, स्वतंत्रता और जल जंगल जमीन के हक हकूक के लिए देशभर में बार बार आदिवासी विद्रोह होते रहे। सत्तावर्ग ने इस इतिहास के मद्देनजर आदिवासियों के जल जंगल के हक हकूक को  मंजूर नहीं किया है और न आदिवासी इलाकों में भूमि सुधार लागू करने की कोई पहल की है। और तो और, देशभर के ज्यादातर आदिवासी गांवों को राजस्व गांव की मान्यता नहीं है। उनकी मिल्कियत दखल पर आधारित है। एक बार गांव छोड़ते ही आदिवासी हमेशा के लिए अपनी जमीन, अपने घर गांव  से बेदखल हो जाते हैं। आदिवासी इलाकों में युद्ध परिस्थियियां बनाया रखना सत्ता के बिल्डर प्रोमोटर कारपोरेट माफिया वर्ग की सोची समझी रणनीति है, ताकि आदिवासियों की बेदखली को उनके अलगाव का फायदा उठाते हुए जायज ठहराया जा सकें। समरस हिंदुत्व  बहिष्कार और अस्पृश्यता जाति व्यवस्ता की बुनियाद पर खड़ा है, जहां समता, समान अवसर और न्याय का निषेध है। इस समरस हिंदुत्व में आदिवासियों को समाहित करने का अभियान का नतीजा गुजरात नरसंहार तक सीमाबद्ध नहीं है, असम की हिंसा और मुसलमानों के खिलाफ, शरणार्थियों के विरुद्ध दिनोंदिन तेज होते प्रचार अभियान और ध्रूवाकरण की राजनीति से साफ जाहिर है।
पूर्वोत्तर में जहां ब्रिटिश राज के दौरान मिजरम, मेघालय, नगालैंड, अरुणाचल और असम के तमाम आदिवासी इलाके अनुसूचित क्षेत्र रहे हैं जहां सरकारी कारिंदों, फौज और दूसरे समुदायों के प्रवेश की मनाही थी। आजादी के बाद इन इलाकों में अनुसूचित क्षेत्र वाली पाबंदी खत्म कर दी गयी और विकसित समुदायों को वहा कारोबार करने की, रिहायश की छूट दे दी गयी। पांचवीं और छठी अनुसूचियों के तहत मिलने वाले अधिकारों से भी आदिवासी वंचित कर दिये गये। जब इन इलाकों में, खासतौर पर भारत में विलय के बाद मणिपुर में स्वायत्ता और आत्म निर्णय के अधिकार की मांग प्रबल होती गयी, तो पूरे पूर्वोत्तर में विशेष सैन्य अधिकार कानून लागू कर दिया गया। १९५८ से यह कानून लागू कर दिया गया और पिछले बारह साल से इरोम शर्मिला इसके विरुद्ध आमरण अनशन पर है। जो लोग बोड़ो आदिवासियों को हिंदू बताकर मुसलमानों के खिलाफ घृणा अभियान छेड़ रहे हैं, उन्हें आदिवासियों की स्वायत्तता की मांग अलगाववादी और उग्रवादी लगती है और वे इसके विरुद्ध सलवा जुड़ूम और सैनिक दमन की नीति अपनाने से बाज नहीं आते। विशेष सैन्य कानून भी जारी रखने के वे पक्षधर हैं। इनका एकमात्र ध्येय आदिवासियों को हिंदू बनाकर हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील करने की है, उनको उनके हक हकूक बहाल करने से कोई मतलब नहीं है। तमाम वनवासी कल्याण कार्यक्रम दरअसल आदिवासियों के विरुद्ध कारपोरेट अश्वमेध यज्ञ के ही कार्यक्रम हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14(4), 16(4), 46, 47, 48(क), 49, 243(घ)(ड), 244(1), 275, 335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूची के अनुसार अनुसूचित जनजातियों के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक विकास जैसे कल्याणकारी योजनाओं के विशेष आरक्षण का प्रावधान तथा राज्य स्तरीय जनजातीय सलाहकार परिषद की बात कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नहीं कर पाना वाकई सरकार के लिए चिंता का विषय है। यह सर्वविदित है कि आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध खनिज संसाधनों से सरकार को अरबों रुपए के राजस्व की प्राप्ति होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के स्रोत इन आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनिज संसाधन ही हैं, परंतु इस राजस्व का कितना प्रतिशत हिस्सा उन अनुसूचित क्षेत्रों के राजनैतिक, सामाजिक व आथिक विकास में खपत किया जाता रहा है। संस्कृति के नाम पर उन पर ब्राहम्णवादी संस्कृति थोपी जा रही है। आदिवासी की परंम्परागत धर्म संस्कृति एवं भाषा को जड़ से उखाड़ फेंकने की साजिश रची जा रही है। आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से षडयंत्र के तहत बेदखल किया जा रहा है।
हैरानी की बात है कि धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली ताकतें भी असम की समस्या को महज हिंदू मुसलिम समस्या मानते हैं, वर्चस्ववादी साजिश को बेनकाब करने में उनकी भी कोई रुचि नहीं हैं, क्योकि इनकी अगुवाई करनेवाले लोग भी अंततः सत्तावर्ग से हैं। संयुक्त राष्ट्र, जिनेवा द्वारा आदिवासी अधिकारों के प्रति विश्व स्तर पर जागरूकता के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में घोषित किया गया है। यहां आदिवासी हितों की रक्षा के लिए कई कानून बनाए गए कई योजनाएं बनाई गईं परंतु आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश में आदिवासियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सका है। भारत देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी हितों को ध्यान में रखकर संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने हेतु अपने ऐतिहासिक फैसले में सौ प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक मानने से इंकार कर दिया तथा गत् 5 जुलाई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के विरुद्ध शुरू किए गए सलवा-जुड़ूम अभियान में आदिवासियों को विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के तौर पर शामिल किए जाने के मामले को असंवैधानिक माना है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आदिवासियों के लिए एक बड़ी राहत के रूप में देखा जा सकता है। पांचवी अनुसूची में शामिल देश के कई राज्यों में पंचायत, नगरीय चुनावों में संविधान का पालन नहीं किया जा रहा है। निर्वाचित राज्य सरकारें आदिवासी हितों का संरक्षण न कर मूल निवासी आदिवासियों के अधिकारों का हनन करती देखी जा सकती है। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि अनुसूचित क्षेत्रों का औद्योगीकरण करने की अनुमति संविधान नहीं देता। आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य शासन के एम.ओ.यू. को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि अनुसूचित क्षेत्र की आदिवासी भूमि पर उद्योग लगाना असंवैधानिक है। आदिवासी संरक्षण और विकास के प्रति संविधान दृढ़ संकल्पित है किंतु केन्द्र व राज्य सरकारें संसाधनों के दोहन के नाम पर लगातार औद्योगीकरण को बढ़ावा दे रही है। संविधान के अनुच्छेद 350ए में स्पष्ट निर्देश था कि प्रत्येक राज्य और उस राज्य के अंतर्गत प्रत्येक स्थानीय सत्ता भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधा जुटाएगी। किंतु आज तक आदिवासी बच्चों को उनकी भाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था नहीं की गई है।
 भारतीय संविधान की 5 वीं एवं 6 वीं अनुसूचि जिसमें आदिवासियों की जमीन के कानूनी अधिकार बहाली की है जो स्वशासन के अधिकार के अंतर्गत है। आदिवासियों के इस मौलिक अधिकार से 63 वर्षों बाद भी उन्हें वंचित रखा गया है।
बोडो इलाकों और देश का बाकी आदिवासी इलाकों की जमीनी हकीकत क्या है, इसे जानने समझने के लिए एक केस स्टडी पेश है। सैन्य बलों ने ऐसे कई गाँवों में आदिवासी लोगों को इसी प्रकार हफ्तो-हफ्तों तक अपने ही गाँव में बंधक बनाकर रखा. नित्यकर्म तक उन्हें घर में ही करने को मजबूर होना पड़ा. वृद्ध जो नहीं भाग सके, उनको इतना पीटा गया कि उनकी मौत तक हो गयी…

Monday, July 30, 2012

सपा राज में शुरु हुई दंगों की राजनीति



यूपी के सपा राज में महीने दर महीने साम्प्रदायिक दंगों की रोज़ नई घटनाएं सामने आ रही हैं. अभी मथुरा के कोसीकलां और प्रतापगढ़ के अस्थान के दंगों की आग बुझी भी नहीं थी कि बरेली फिर दंगों की आग में झुलस गया.
दंगे की मुख्य वजह यह थी कि नमाज़ियों का कहना था कि नमाज़ के वक्त कावरिएं तेज़ आवाज़ में लाउडस्पीकर न बजाएं, पर वे माने नहीं. एक बार फिर पूर्व नियोजित फिरका-परस्त ताक़तों ने पूरे शहर को दंगे में झोंक दिया.
गौर किया जाए तो इस इलाके में कावरियों को लेकर पिछले कई सालों से तनाव होते आ रहे हैं. दरअसल, इसके पीछे हिन्दुत्वादी ताक़तों का हाथ है. जिस तरह से शाहबाद इलाके में नमाज़ के वक्त तेज़ साउंड-सिस्टम को बजाने व बंद करने को लेकर यह तनाव शुरु हुआ, ऐसा प्रयोग हिन्दुत्वादी शक्तियां आजादी के बाद ही नहीं उससे पहले भी करती रही हैं. तीस-चालीस के दशक में तो एक पूरा अभियान ही चलाया गया था कि जुमे की नमाज़ के वक्त मस्जिदों के सामने जाकर भजन-कीर्तन और नगाड़े बजाने का. उस दौर में इलाहाबाद के कर्नलगंज इलाके में हुए दंगे के गर्भ में भी यही साजिश थी. जिसमें मुख्य अभियुक्त के रुप में हिंदुत्ववादी मदन मोहन मालवीय थे.
बरेली में दूसरे दिन यानी 23 जुलाई को भी दंगा अपनी गति में रहा पर दिन के उजाले में जो मंजर देखने को आया उसने साफ़ कर दिया कि समाजवादी पार्टी की सरकार दंगे पर काबू नहीं पाना चाहती. जहां एक ओर दंगे में मारे गए इमरान के जनाजे को रोका गया तो वहीं कावरियों के जत्थे को तेज़ आवाज़ के साउंड-सिस्टम बजाते हुए कर्फ्यू-क्षेत्र से पुलिस के प्रोत्साहन में निकाला गया.
इस मंज़र पर बरेली कालेज के शिक्षक और पीयूसीएल नेता जावेद साहब की बातें चुभ जाती हैं कि यह ‘मुस्लिम कर्फ्यू’ है. बंद घरों में लोग अपने आंगन में आसमान में धुंआ उठता देखते हैं, और जलती दुकानों-घरों की आंच को महसूस करते हैं और अंदाजा लगाते हैं कि किसका आशियाना जला. एक लंबे अन्तराल के बाद पुलिस के सायरन की आवाजों के बीच फायर-ब्रिगेड की घंटी की आवाज़ की टन-टनाहट उन्हें पागल कर देती है. यह सब उस सपा सरकार में हो रहा है, जिसके मुखिया मुलायम सिंह कहते हैं कि उन्हें मुसलमानों ने सौ  फीसदी वोट देकर सत्ता में लाया है.
23 जुलाई को ही प्रतापगढ़ के अस्थान गांव में भी प्रवीण तोगडि़या जाते हैं और खुलेआम मुस्लिमों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं. पिछले महीने अस्थान में हुए दंगे में दर्जनों मुस्लिमों के घरों को दंगाइयों ने खाक कर दिया था. इस दंगे में प्रदेश के कारागार मंत्री रघुराज प्रताप सिंह राजा भैया के लोगों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है.
सपा के राज में एक बार फिर से हिन्दुत्ववादी ताक़तें प्रायोजित तरीके से दंगें भड़कानें का काम कर रही हैं. फैजाबाद जो पिछले तीन दशक से सांप्रदायिक राजनीति की राजधानी बन गया है. वहां भी 23 जुलाई की शाम दंगा भड़काने की कोशिश हुई. अयोध्या शहर से सटे हुए शहादतगंज के पास के गांव मिर्जापुर में नमाज़ के ऐन वक्त पुलिस मस्जिद में ताला जड़ देती है. भारी तनाव के बाद ईशा की नमाज़ तो अदा हो गई पर शहर एक बार फिर सांप्रदायिक हिंसा के अंदेशे से सहम गया.
स्थानीय लोगों के मुताबिक इस मस्जिद की उम्र सौ साल से ज्यादा है. 22 जुलाई को अयोध्या में गोरखपुर के सांसद और हिंदू युवा वाहिनी के संचालक योगी आदित्यनाथ शहर में आए थे. शहर में हुए इस तनाव के पीछे भी हिन्दुत्वादी ताकतों का हाथ सामने आ रहा है.
सपा राज में हो रहे दंगों में प्रशासन की उदासीनता यह बताती है कि एक बार फिर से आम-आवाम के बीच सांप्रदायिकता का ज़हर घोल करके मूलभूत मुद्दों से भटकाने की राजनीति शुरु हो गई है.

Sunday, July 29, 2012

दिल्ली हाई कोर्ट के हुक्म से टीम अन्ना के CIA से कनेक्शन की जांच



दिल्ली हाई कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के वकील मनोहर लाल शर्मा ने एक रिट पेटीशन डाली जिसे नमबर मिला डब्ल्यू पी (सी) ३४१२/२०१२ संविधान के अनुच्छेद २२६ के आधार पर यह पेटीशन दाखिल की गयी है इस पेटीशन में वादी ने बहुत सारे आरोप लगाए हैं जिनमें कुछ तो सहसा अविश्वसनीय लगते हैं  इसी पेटीशन में आरोप है कि टीम अन्ना के कुछ सदस्य सी आई ए से सम्बंधित हैं इस केस में केंद्र सरकार को भी पार्टी बनाया गया है माननीय हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि केंद्र सरकार तीन महीने के अंदर  सभी आरोपों की जांच पूरी कर ले उसके बाद ही मनोहर लाल शर्मा के आरोपों पर माननीय हाई कोर्ट विचार करेगा  यह जांच का आदेश ३० मई २०१२ को दिया  गया था यानी ३० अगस्त २०१२ तक जांच के नतीजे हाई कोर्ट में दाखिल किये जाने हैं  देखिये क्या होता है
 दिल्ली हाई कोर्ट ने ३० मई २०१२ के  दिन एक फैसला सुनाया था जिसमें आदेश दिया गया था कि केंद्र सरकार वादी मनोहर लाल शर्मा की  याचिका में पेश किये गए आरोपों की जांच करे इस केस में केंद्र सरकार को प्रतिवादी नंबर  एक पर रखा गया है केंद्र सरकार के अलावा जो अन्य लोग प्रतिवादी थे  उनके नाम हैं  फोर्ड  फाउंडेशन अन्ना हजारे मनीष सिसोदिया अरविंद केजरीवाल प्रशांत भूषण  शान्ति भूषण और किरण बेदी  माननीय हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि पेटीशन में जो भी प्रार्थना की गयी है उसकी जांच प्रतिवादी नंबर  एक  अधिक से अधिक तीन महीने में पूरी करके इस अदालत के सामने हाज़िर हों उसके बाद कोई फैसला लिया जाएगा इस केस में प्रतिवादी नंबर एक पर केंद्र सरकार का नाम दर्ज है  सरकार को जांच करने के लिए तीन महीने का समय दिया गया था
संविधान के अनुच्छेद २२६ के तहत सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट मनोहर लाल शर्मा ने पी आई एल दाखिल किया था जिसमें भारत सरकार के अलावा टीम अन्ना के कुछ सदस्यों को पार्टी बनाया थापेटीशन में आरोप लगाया गया है कि फोर्ड फाउंडेशन एक अमरीकन ट्रस्ट है  जो दुनिया भर में सरकार विरोधी आन्दोलनों को समर्थन देता है फंड देता है और उनके मारफत उन देशों पर अपना एजेंडा लागू करता है फोर्ड फाउंडेशन ने रूस इजरायल अफ्रीका आदि देशों में सिविल सोसाइटी नाम के ग्रुप बना रखे हैं  इन के ज़रिये वे बुद्धिजीवियों पत्रकारों कलाकारों उद्योगपतियों और नेताओं को अपनी तरफ खींचते हैं तरह तरह के आकर्षक नारे देकर लोगों को आकर्षित करते हैं और सरकार के खिलाफ आन्दोलन करवाते हैं पेटीशन में आरोप लगाया गया है कि फोर्ड फाउंडेशन  अमरीकी खुफिया एजेंसी सी आई ए का फ्रंट भी है पेटीशन में लिखा है कि टीम अन्ना के लोग संयुक्त रूप से फोर्ड फाउंडेशन से धन लेते रहे हैंआरोप है कि  फोर्ड फाउंडेशन  के रीजनल डाइरेक्टर ने कुबूल किया है कि उन्होंने अरविंद केजरीवाल की कबीर नाम की एन जी ओ को फंड दिया था फोर्ड फाउंडेशन के वेबसाईट से भी पता चलता है कि २०११ में ही फोर्ड फाउंडेशन ने कबीर को दो लाख अमरीकी डालर दिया था साथ में सबूत भी पेटीशन के साथ नत्थी है और भी बहुत सारे आरोप हैं जिनपर सहसा विशवास नहीं होता क्योंकि हमारा मानना है कि  देश प्रेम से लबरेज़ टीम अन्ना वाले  और कुछ भी करें  वे सी आई ए से तो पैसा नहीं ले सकते  लेकिन जबा हाई कोर्ट ने आदेश दे दिया है तो सारी बातें जांच के बाद साफ़ हो जायेगीं उम्मीद की जानी चाहिए कि जाँच में ऐसा कुछ न मिले जिस से टीम अन्ना को कोई नुकसान हो.

Saturday, July 28, 2012

इंडिया टुडे की कवर स्टोरी पर चंद बातें



9/11और 26/11 के बाद कुछ बातें पूरी तरह साफ़ हो गईं कि सारी दुनिया में मुसलमानों को सिर उठा कर नहीं जीने देना है और उनकी दिफ़ा में जो बोले उस की ज़िंदगी ख़राब कर देना है, वो भी इस तरह कि कोई और हिम्मत ना कर सके, मुसलमान मौरिदे इल्ज़ाम ठराए जाते रहेंगे तो हमेशा जूते के नीचे रहेंगे, अपने हक़ की बात तो दूर इल्ज़ामात से निजात पाने के लिए ही एड़ियां रगड़ते रहेंगे हमारे क़दमों में पड़े रहेंगे। मैं चाहता था सच सामने आए असल दहशतगर्द बेनकाब हों, बेगुनाह जेल की सलाखों से बाहर आएं, ये होने लगा तो जैसे मुस्लिम दुश्मनों के सिर पर क़यामत टूट पड़ी, अज़ीज़ बर्नी को रोको वो लिखने ना पाए, वो बोलने ना पाए, इसे मुल्क दुश्मन साबित कर दो, अपने मसाइल में उलझा कर रख दो, तमाम इख़्तियारात छीन लो, किसी को क़रीब मत आने दो, बिलकुल तन्हा कर दो, जो लिखा आज तक इस में आग लगा दो, ज़ाया कर दो ताकि आने वाली नस्लें पढ़ ना पाएं, सब सिर जोड़ कर बैठो, आपसी सियासी दुश्मनी भुला दो, इसके ख़िलाफ़ एक हो जाओ, इसे जीते जी मार डालो, हमारी सियासत के लिए इस का ख़त्म होना ज़रूरी है। मुसलमान हमारे ग़ुलाम बने रहें, हमें वोट दे कर अपनी गु़लामी पर मोहर लगाते रहें, कोई मुस्लिम लीडरशिप की बात करे तो उसे देश के गद्दार, पाकिस्तानी, अलैहदगी पसंद कहो।
सियासी हिमायत, मीडिया का सपोर्ट ये साबित करने के लिए काफ़ी है। क़ौम के ग़द्दार उनके ज़र ख़रीद ग़ुलाम, उन की हाँ मैं हाँ मिलाने के लिए उनके पीछे मुट्ठी भर मुसलमान हमेशा खड़े रहेंगे, तो क्या इन हथकंडों से सच बदल जाएगा, तारीख़ बदल जाएगी, ज़िंदा क़ौम हमेशा के लिए ग़ुलाम बन जाएगी। नहीं, कभी नहीं, ख़ुद को देश भक्त कहने वाले आरएसएस का एक भी सदस्य अपनी असल ज़िंदगी में मुझ से बेहतर हिंदुस्तानी ख़ुद को साबित कर दे तो बड़ी से बड़ी सज़ा के लिए तैय्यार, पर तुम झूटे इल्ज़ामात से क़ौम को ज़लील करते हो, ये नामंज़ूर, मेरी ज़िंदगी में ये नहीं हो सकता।
26/11 के हवाले से इंडिया टुडे के 16जुलाई के इश्यू में कवर स्टोरी दी सिक्रेट प्लाट टू ब्लेम इंडिया में मुझे मेरे मज़ामीन को, ए आर अन्तुले साहब, और दिग्विजय सिंह जी का हवाला दिया गया है। अन्तुले साहब ने अपने अल्फ़ाज़ को अपनी ग़लती तस्लीम कर लिया, दिग्विजय सिंह जी ने ख़ामोश रहने का फ़ैसला कर लिया, पर मैं अपने लिखे मज़ामीन के एक एक लफ़्ज़ पर क़ायम हूँ। हमारी खु़फ़िया तंज़ीमों की रिपोर्ट के मुताबिक़ और तमाम सबूतों की रौशनी में मैं पाकिस्तान को ज़िम्मेदार मानता हूँ लेकिन इससे शहीद हेमंत करकरे की तफ़तीश को रद्दी की टोकरी में नहीं फेंका जा सकता है, मैंने सवाल उठाए उन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। आरएसएस को जांच में बेदाग़ साबित हुए बगै़र, क्लीनचिट नहीं दी जा सकती। ये आरएसएस की नहीं देश की आबरू का सवाल है और देश की अस्मत के सामने आरएसएस कया है, जिन्हें अज़ीज़ बर्नी के लिखने से तकलीफ़ है वो असीमानंद का क़ुबूल नामा पढ़ लें। सीआईए, मोसाद और आरएसएस का गठजोड़ शहीद हेमंत करकरे की जांच का नतीजा है, मेरे दिमाग़ की उपज नहीं है, इस पर बात ना करना, कौन सा राष़्ट्रा हित है, ये राष़्ट्र नेता जानें, मेरे जैसा हिंदुस्तानी ना समझता है ना समझना चाहता है। अज़ीज़ बर्नी की रगों से वीर अबदुल हमीद के ख़ून की उम्मीद की जा सकती है , पुरोहित या उपाध्याय के ख़ून की नहीं, चुप हूँ यार अपनी मर्ज़ी से, पिंजरे में क़ैद हूँ गूंगा नहीं हूँ, पैरों में बेड़ियां नहीं हैं। मुझे मत बताओ किस ने क्या गुनाह क़बूल किया और क्या बयान दिया है। इस सिस्टम ने दिल्ली के मोहम्मद आमिर से भी सारे गुनाह क़बूल करा लिए थे, फिर उसने ख़त लिखा मुझे तिहाड़ जेल से, मैंने सच बेनकाब करने का अज़्म किया, अल्लाह का करम है वो बाइज़्ज़त बरी हुआ। ठीक है मुझे सज़ा मिली कोई बात नहीं। आमिर जैसे बहुत से बेगुनाह आज़ाद तो हुए।
कोई बात नहीं, शेर अभी माँद में है, आपकी दुआएं साथ रहीं और खुदा चाहेगा तो फिर निकलेगा बाहर और रखेगा सच सामने। महात्मा गांधी के लिए ज़मीन तंग कर दी गई थी अंग्रेज़ों के ज़रीए, फिर उन्होंने हिंदूस्तान की आज़ादी की जंग जारी रखी साऊथ अफ़्रीक़ा में, हो सकता है मुझे भी वतन छोड़ना पड़े लेकिन ये सिलसिला रुकेगा नहीं। ज़रूरत पड़ी तो तारीख़ को फिर दुहराया जाएगा, हम आज़ाद हिंदुस्तान में पैदा हुए मुसलमान हैं हमें ग़ुलाम बनाया जाय, ये हो नहीं सकता, 10-20 या 100-50 कुर्सी के भूखे ख़रीदे जा सकते हैं, 24करोड़ हिंदुस्तानी मुसलमान नहीं। आप इस तादाद पर भी सवाल करेंगे, मुसलमान तो 12करोड़ हैं, ये 24करोड़ क्यों लिख रहा है, करूंगा इस मौज़ू पर भी बात, अभी तो इंडिया टुडे के ज़रीया उठाए गए सवालों का जवाब देना है। वो सब मज़ामीन हैं मेरे पास। फेसबुक के रीडर की अदालत में एक एक कर सब को पेश कर देना है, फिर पूछना है बताओ देश हित किया है, क्या ग़लत लिखा मैंने , हाँ आरएसएस हित का ध्यान नहीं रखा ये ज़रूर किया मैंने लेकिन राष़्ट्र हित मेरे लिए कल भी बहुत अहम था आज भी बहुत अहम है और कल भी अहम रहेगा।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का पहला बयान (28-07-12)



दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ जंग चौथी आलमी जंग है। प्रणब दा एक दूर अंदेश, सियासी ज़हन रखने वाले सदरे जम्हूरिया हिंद हैं। ओबामा ने भी अमेरीका के सदर बनने के बाद यही कहा था। अपने वज़ीरे आज़म के साथ बहुत से ग़ैर मुल्की दौरों पर गया और यही सुनता रहा, ये दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ जंग किस के ख़िलाफ़ है और इसकी बुनियादी वजह क्या हैक्यों 9/11 के बाद से इसकी शुरूआत हुई? क्यों आलमी सतह पर मुसलमान और मुस्लिम देश इसके निशाने बने? क्यों सद्दाम हुसैन, कर्नल कज़्ज़ाफ़ी को हमने खो दिया। हुस्नी मुबारक का तख़्ता पलट हुआ, म्यांमार (बर्मा) और आसाम में मुसलमानों का क़त्ले आम जारी है? क्यों गुजरात हुआ और इसके बाद हमें दहशतगर्द बता कर जेलों में ठूंसा जाने लगा, हम मुत्तहिद नहीं हो सकते, हो सकते तो इतने फ़िरक़े ना होते, क़ौमों का उरूज या ज़वाल एक दिन में नहीं होता, सैंकड़ों बरस लगते हैं, आज हम आलमी सतह पर इसी तबाही के अमल में हैं, मगर कुछ सोचने या करने की फ़ुर्सत नहीं है, आप जिन मुस्लिम सियासतदानों की तरफ़ देख रहे हो वो ख़तरे में नहीं हैं, इनका मुत्तहिद होने में नुक़्सान है, सब अलग अलग पार्टी में होंगे तो जब जिस की हुकूमत होगी उसे मौक़ा मिल जाएगा, एक साथ होंगे तो ये मुम्किन नहीं होगा, और आपको हर रोज़ की मुसीबतें चैन नहीं लेने देतीं, सीने में दर्द बहुत है पर कुछ करने का रास्ता नहीं, इस्लामी फ़लसफ़े ने दिन में पाँच बार मस्जिद में जमा होने और हालाते हाज़रा पर गुफ़्तगु की आदत डाली, मगर हमने इससे फ़ायदा उठाने का तरीक़ा नहीं सीखा, जिस दिन एक शहर के तमाम मस्जिदों के नमाज़ी एक साथ एक जगह इकट्ठा हो कर हालाते हाज़रा पर बात करने लगे एक इन्क़लाब आ जाएगा, आप समझते क्यों नहीं, मैं लगातार कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूँ, जानता हूँ एक दिन ख़ामोश कर दिया जाऊंगा, काश! इसके पहले मेरी आवाज़ आपके दिलो दिमाग़ तक पहुंच जाय, साल में दो बार ईद की नमाज़ पढ़ने के लिए सारे शहर के नमाज़ी ईदगाह में आते ही हैं, दरमियान में ज़रूरत के वक़्त जमा होकर बात करने में क्या परेशानी है, आप दुनिया में वाहिद क़ौम हो जिसे प्लेटफार्म दे कर भेजा गया है..............माफ़ कीजिए लिख नहीं पा रहा हूँ, शायद कल इससे आगे लिख सकूं................ 

म्यांमार की जातीय हिंसा, नागरिकता का सवाल और विस्थापन



म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा की घटना ऐसी कोई खबर नहीं, जिसे सुनने को दुनिया अधीर हो। दरअसल, जम्हूरियत की तरफ मुल्क के डगमगाते कदम बढ़ रहे हैं और ‘बदलाव की इस प्रक्रिया’ की निगरानी कर रही हैं नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की। लेकिन बदकिस्मती देखिए, पिछले कुछ दिनों से रखिन सूबे में बौद्ध अनुयायियों व रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा को लेकर म्यांमार सुर्खियों में है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की हालत बदतर है। उन्हें नागरिक मानने से इनकार किया जाता रहा है। दरअसल, म्यांमार की नस्लीय संरचना बेहद पेचीदा है। आधिकारिक तौर पर वहां 135 नस्ली समूहों की पहचान की गई है। लेकिन इसमें रोहिंग्या लोगों का नाम नहीं है, जबकि ये रखिन बौद्ध, चिटगांव के बंगाली और अरब सागर से आए कारोबारियों की संतानें हैं। वे बांग्ला की एक बोली का बतौर भाषा इस्तेमाल करते हैं। न्यूयॉर्क की ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था के मुताबिक, वे दशकों से रखिन बौद्ध के साथ म्यांमार में रह रहे हैं। जब ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दुस्तान और म्यांमार की सरहद का डिमार्केशन किया, उससे भी पहले के तत्कालीन बर्मा में उनकी मौजूदगी थी। फिलहाल, मुल्क में उनकी आबादी अंदाजन आठ लाख है। दो लाख तो बांग्लादेश में भी हैं। रिपोर्टे यह भी कहती हैं कि म्यांमार का एक बड़ा तबका रोहिंग्या विरोधी है। यही संकट की जड़ है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को घुसपैठी माना जाता है. सबसे पहले मई में हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुईं. इसके बाद हिंसक आग पूरे इलाके में फैल गई. 10 जून को राखिल प्रांत में इमरजेंसी लगा दी गई. शुरुआती दौर की हिंसा में दोनों पक्षों को नुकसान हुआ लेकिन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक अब मुसलमानों को ही निशाना बनाया जा रहा है. इस मामले में अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी शुरू हो गई. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की है कि वह इस मामले में दखल दे और म्यांमार सरकार से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा रोकने के लिए कहे. संयुक्त राष्ट्र में ईरान के राजदूत मुहम्मद काजी ने यूएन सचिव बान की मून को एक पत्र लिख कर हस्तक्षेप की मांग की है. म्यांमार में जातीय हिंसा का इतिहास पुराना है. हालांकि नई सरकार ने कई गुटों के बीच सुलह की कोशिश की है लेकिन कई मसले अभी भी अनसुलझे हैं. सरकार और विद्रोही गुटों के बीच देश के उत्तरी इलाके में जब तब हिंसक झड़पें होती रहती हैं. रोहिंग्या लोग मूल रूप से बंगाली हैं और ये 19वीं शताब्दी में म्यांमार में बस गए थे. तब म्यांमार ब्रिटेन का उपनिवेश था और इसका नाम बर्मा हुआ करता था. 1948 के बाद म्यांमार पहुंचने वाले मुसलमानों को गैरकानूनी माना जाता है. उधर, बांग्लादेश भी रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार करता है. बांग्लादेश का कहना है कि रोहिंग्या कई सौ सालों से म्यांमार में रहते आए हैं इसलिए उन्हें वहीं की नागरिकता मिलनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या हैं. ये हर साल हजारों की तादाद में या तो बांग्लादेश या फिर मलेशिया भाग जाते हैं. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि इस समुदाय के लोगों को जबरन काम में लगाया जाता है. उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और उनकी शादियों पर भी प्रतिबंध लगाया गया है. अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक दुनिया का कोई आदमी बिना किसी देश की नागरिकता के नहीं रह सकता. अगर हुकूमत इस संकट को खत्म करना चाहती है, तो उसे अलोकप्रिय और सख्त फैसले लेने होंगे.

Thursday, July 26, 2012

सरकार अगर गहरी नींद में है, तो जनता को जागना ही पड़ेगा



दरभंगा अब राज्य प्रायोजित आतंकवाद के प्रतिरोध का केंद्र बन रहा है। हमने आजमगढ़ में बहुत पास से देखा है कि किस तरह अपहरणकर्ता-अपराधी एटीएस-एसटीएफ के लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर, पकड़ कर पूछताछ की गयी और गैरकानूनी गिरफ्तारियों और छापेमारी को रोका गया। यह सिलसिला दरभंगा में भी शुरू हो चुका है। जिस तरह यूपी में एक दौर में आतंकवाद के नाम पर हो रही फर्जी गिरफ्तारियों को लेकर एसटीएफ अधिकारियों के नार्को टेस्ट और उसे भंग करने की मांग मुद्दा बनी, आज उसी तरह एक बार फिर से एटीएस के खिलाफ भी ऐसा माहौल बन रहा है। यह जद्दोजहद फासीवादी/सैन्यवादी मानसिकता वाले राज्य की नीतियों के खिलाफ लोकतांत्रिक राज्य के लिए है। इस मुहीम में सियासत तो बदलेगी ही, बेगुनाहों को भी छोड़ना पड़ेगा।

13 मई को सउदी से अपहरण किये गये फसीह महमूद, जिन्हें आज तक पेश नहीं किया गया, की पत्नी निखत परवीन बता रही थीं कि दरभंगा से फिर किसी को उठाने जा रहे थे। कुछ लोग एक कार में बैठे थे और उनमें से एक सामने वाले डाक्टर की क्लीनिक में देखने गया। एक बंदे को बुला कर कहा कि उस कार वाले लोग तुम्हें बुला रहे हैं। जब वो उस कार के पास गया, तो पुलिस वालों ने जो सिविल ड्रेस में थे, उसका अपहरण करने का प्रयास किया। आस-पास के लोगों ने जब कार रोकी और उस बंदे को निकाला तो पुलिस वाले वहां से भाग गये। इसी तरह की घटना एक और गांव में हुई, जहां पर बाद में एटीएस वालों ने आकर माफी मांगी कि वो लोग गलती से उसे उठाने आये थे। निखत आगे कहती हैं कि अगर लोगों ने बचाव नहीं किया होता, तो आज उनकी गलती नहीं होती बल्कि एक बड़ा नया आतंकवादी पकड़ा गया होता।

इसी तरह आजमगढ़ में भी हुआ था। जब वहां आतंकवाद के नाम पर दमन हो रहा था, तो आम नागरिकों ने गांव-गांव में पर्चे बांटे थे कि अगर आपका कोई करीबी गायब है, तो आप इन सरकारी और मानवाधिकार संगठनों के नंबरों पर फैक्स-फोन-ईमेल करिए। एटीएस-एसटीएफ के आतंक के खिलाफ ग्राम सुरक्षा कमेटियां बनायी गयीं। आज फिर उसी आंदोलन की दस्तक दरंभगा में भी हो चुकी है।

नीतीश सरकार बताये कि आखिर उसके सुशासन वाले राज्य में बिना नंबर प्लेट के एटीएस की कार कैसे घूम रही है। नीतीश को याद रखना चाहिए कि आजमगढ़ जिसे आतंकवाद की नर्सरी के बतौर स्थापित करने की राज्य ने कोशिश की, वहां के लोगों ने 2009 के लोकसभा और 2012 के विधानसभा चुनाव के एजेंडे को बदल दिया। बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के बाद आजमगढ़ में बनी राष्‍ट्रीय ओलमा कांउसिल अपने आप में एक नयी राजनीति की दस्तक थी।

कांग्रेस ने चुनावों में हुई अपनी करारी हार का कारण भी इसे माना। सत्ता में आयी मुलायम सरकार ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इस बात को कहा था कि वो सरकार में आएगी, तो आतंकवाद के नाम पर पकड़े गये बेगुनाहों को छोड़ेगी। आज सपा के सत्ता में आने के बाद लगातार सरकार को राजनीतिक दल और मानवाधिकार संगठन इस बात पर घेरे हुए हैं। सरकार के नुमाइंदे बार-बार छोड़ने की प्रक्रिया के बारे में बयान देते नजर आते हैं।

इसकी तस्दीक लखनऊ की दीवारों पर चिपके ‘वादा निभाओ’ पोस्टर, खुफिया और एटीएस की सांप्रदायिकता के खिलाफ और ‘खुफिया द्वारा संचालित इंडियन मुजाहिदीन पर श्‍वेत पत्र जारी करो’ की मांग वाले बैनर करते हैं। आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों की रिहाई के लिए पिछली 30 जून को विधानसभा घेराव के एक दिन पहले ही यूपी के एडीजी (कानून व्यवस्था) जगमोहन यादव को कहना पड़ा कि एटीएस और जिलों के कप्तानों से ऐसे मामलों को चिन्हित करने को कहा गया है, जिनमें फर्जी धरपकड़ की शिकायत है। खैर, जो भी हो, अगर सपा सरकार स्वतंत्रता दिवस तक आतंकवाद के नाम पर पकड़े गये निर्दोषों को नहीं छोड़ती है, तो इसके खिलाफ एक बड़े जनआंदोलन की तैयारी हो चुकी है।

सैकड़ों दलितों के हत्यारे ब्रम्हेश्‍वर मुखिया को रिहा करने वाली नीतीश सरकार बताये कि उसके राज्य के कतील सिद्दीकी को पुणे की जेल में मार दिया जाता है और उसी के गांव बाढ़ समेला, दरभंगा के फसीह महमूद का दो महीनों से भारतीय एजेंसियों ने अपहरण किया, इस पर उसने क्या किया? उसे ही नहीं, बिहार में पसमांदा (पिछड़े-दलित) मुसलमानों की राजनीति करने वाले और मुस्लिम समुदाय पर ‘मसावात की जंग’ जैसी गंभीर किताब लिखने वाले अली अनवर अपनी चुप्पी तोड़ें। कुछ दिनों पहले बिहार के मधुबनी जिले के सकरी क्षेत्र से फिर एक व्यक्ति के उठाने की खबर सामने आयी थी।

नीतीश बाबू, दरभंगा की गलियों में राज्य प्रायोजित आतंक का जो बीजारोपण हुआ है, उसे जाकर देखिए कि किस तरह लोगों का जीना मुहाल हो गया है। पिछले दिनों दरभंगा के मानवाधिकार नेता शकील शल्फी बता रहे थे कि महेशपट्टी के एक लॉज से पुलिस वाले कुछ मुस्लिम लड़कों को उठा ले गये और दो दिन बाद उन्हें यह लिखवाते हुए छोड़ा कि हम अपनी मर्जी से आये थे। नीतीश जी, जरा अपना कामन सेन्स लगाइए कि जिस इलाके में खाकी वर्दी क्या, किसी हट्टे-कट्टे मोटे आदमी को पुलिस वाला समझकर लोग दहशत में जी रहे हैं, वहां कोई अपनी मर्जी से पुलिस वालों के पास जाएगा?

शकील बताते हैं कि मुंबई एटीएस के नाम से दरभंगा के कुछ लड़कों को फोन करके उन्हें धमकाते हुए मुंबई आने का दबाव बनाया गया कि चुपचाप बिना किसी को बताये वो मुंबई पहुंचे। कुछ दिनों पहले बैंग्लोर में इंजीनियरिंग पढ़ने वाले अब्दुल निसार को लंबे समय तक एटीएस ने पूछताछ के नाम पर यातना दी। वह डर के मारे किसी को कुछ नहीं बता रहा था, पर उसके शरीर पर गंभीर चोट के निशान देखकर जब परिजनों ने पूछा, तो वह रो-रो कर एटीएस की यातना की लंबी दास्तान बताने लगा। लगातार परिजनों को एटीएस की धमकी मिल रही है और वह पढ़ाई छोड़कर गांव में डर-डर कर रह रहा है।

इसी तरह आजमगढ़, संजरपुर के अबू राशिद पर मुंबई के क्राइम ब्रांच ने दबाव बनाया कि वो मुंबई आये और इसके लिए वे उनके भाई अबू तालिब को उठाकर आजमगढ़ ले आये और फिर अबू राशिद को संजरपुर गांव के लोगों ने इस भरोसे के साथ आजतक टीवी चैनल की मौजूदगी में विदा किया कि जांच करके वो लोग छोड़ देंगे? पर उनके भरोसे को मुंबई क्राइम ब्रांच ने तोड़ दिया और रास्ते से अपहरण कर लिया और आज तक किसी अदालत में पेश नहीं किया और अब उसे फरार बताती है। सवाल यह है कि अगर उसे फरार होना होता, तो वह सार्वजनिक तौर पर जाता ही क्यों? पर इसका जवाब आजमगढ़ ने दिया, जहां राज्य आजमगढ़ को आतंकवाद के नाम पर निर्दोषों के उत्पीड़न का केंद्र बनाने पर तुला था, वहीं आजमगढ़ आंदोलन का केंद्र बनकर उभरा।

नीतीश जी, रमजान का महीना है और आप और आपके नुमाइंदे इफ्तार करने-करवाने की तैयारी में भी होंगे। क्या आपको मालूम है कि आपके राज्य की राजधानी पटना से कुछ सौ किलोमीटर दूर रहने वाली लड़की निखत परवीन अपने पति फसीह महमूद, जिसे भारतीय एजेंसियों ने दो महीनों से गायब किया है, की खोज में दर-दर भटक रही है? यहां तक कि पिछले दिनों इंटरपोल ने कहा है कि जब तक भारत चार्जशीट नहीं देता, तब तक हम फसीह को भारत को नहीं सौंप सकते।

उत्तर प्रदेश में राज्य प्रायोजित आंतकवाद के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन की शुरुआत आपको जानना चाहिए। 2007 में उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए धमाकों के बाद 12 दिसंबर को आजमगढ़ से तारिक कासमी और 16 दिसंबर को मड़ियाहूं से खालिद का अपहरण यूपी एसटीएफ ने किया था, जिसके बाद आजमगढ़ में जबरदस्त आंदोलन हुआ और नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के नेता चौधरी चंद्रपाल सिंह ने कहा कि अगर 22 दिसंबर 2007 तक तारिक को नहीं लाया गया, तो वे आत्मदाह कर लेंगे। एसटीएफ ने 23 दिसंबर को तारिक-खालिद को बाराबंकी से गिरफ्तार करने का दावा किया। जनांदोलनों के दबाव में पिछली मायावती सरकार को यूपी एसटीएफ द्वारा की गयी इस फर्जी गिरफ्तारी पर आरडी निमेश जांच आयोग का गठन करना पड़ा और जब से सपा की सरकार बनी है, वो इतने दबाव में है कि उसके नुमांइदे बार-बार छोड़ने की बात करते हैं।

कतील सिद्दीकी हों या फिर बाटला हाउस में कत्ल किये गये साजिद-आतिफ, वे भले जीते जी इस क्रूर राज्य व्यवस्था में न्याय नहीं पा सके, पर इनकी शहादत और न्याय के लिए चल रहा आंदोलन ही फासीवादी नीतियों को रौंदते हुए एक लोकतांत्रिक राज्य को कायम करेगा। सियासत भी बदलेगी और बेगुनाह अपने घरों पर लौंटेंगे भी, जहां उनके अपने बेसब्री से उनका इंतजार कर रहे हैं।

(राजीव यादव। पीयूसीएल यूपी के प्रदेश संगठन सचिव। आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद अपने प्रदेश में चल रहे जनसंघर्षों की रिपोर्टिंग में रम गये। वाम प्रतिबद्धता वाले युवा पत्रकारों के संगठन जेयूसीएस (जर्नलिस्‍ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी) से भी जुड़े हैं। उनसे rajeev.pucl@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

Wednesday, July 25, 2012

ARAKAN ROHINGYA: The plight of the homeless and stateless




“We are waiting for death that will relieve us of our suffering”, says a 75-year-old Arakanese who has been in the refugee camps in Bangladesh for many years.

The IHH (Foundation for Human Rights and Freedom and Humanitarian Relief) ARAKAN report elaborates the violence that broke out in Arakan in June 2012, the background of the violent incidents and rights violations against Arakanese Muslims. This is a brief study of the IHH report.

Incidents deemed humiliating to human dignity have been going on in Arakan since many years. Recent clashes have left more than 1,000 Muslims dead and over 90,000 Muslims homeless. Most of the Arakanese fleeing violence, are seeking refuge in camps in neighbouring Bangladesh.

However, faced with unimaginably inhumane conditions at these camps Arakanese Muslims are losing hopes for a better future. To make the matters more tragic, Bangladesh has not only been denying refugees who have been gaining entry into the country since June, but also returning those who had arrived in the past.

HISTORICAL BACKGROUND OF ARAKAN –

Arakan has an area of 50,000 square kilometres lying north to south on the Bangladesh-Burma border. It has a deep-rooted historical heritage. Islam arrived in Arakan in the 8th century with Arab merchants, who had a significant place in maritime commerce and had also established strong commercial relations with South Asia, Southeast Asia and Far East. In the 15th century, an Islamic kingdom was founded in Arakan when the king Narameikhla adopted Islam, and Islam started to spread rapidly in the neighbouring areas.

Arakan was not a part of Burma until the Burmese occupation took place in 1784. Two of the Arakanese native groups: Muslim Rohingya and Buddhist Rakhine faced repression and persecution under the Burmese rule. Thousands of Arakanese fled their homeland to escape the Burmese persecution and sought shelter in India. The British ended the Burmese rule in 1826 and held the region under the colonial rule for over 120 years.

Arakanese natives: Muslim Rohingyas and Buddhist Rakhines, lived side by side in peace until the 19th century. However, Thakin Party, which aimed to end the British occupation of Burma that began in 1826, provoked Buddhist Rakhines against Muslim Rohingyas. When Burma was separated from

India in 1937 with colonial rule remaining in place, Thakins seized power inside Burma. Seeds of hatred were sown among ethnic groups with the propaganda that Muslims posed a serious threat to Buddhism and would gain ground and wipe out Buddhists if not stopped, and therefore Rakhines preferred to live under the Burmese rule instead of a peaceful, independent life with Muslims.

1942 MASSACRE –

The first major attacks against Indian and Bangladeshi Muslims began after the British withdrew from the region. Arakanese Buddhist Rakhines began mass killings of Muslim Rohingyas after Indian and Bangladeshi Muslims left the country. On 28 March 1942, Rakhines attacked Muslims in Chanbili village of Minbya Township, and butchered women, men and children with swords and spears. The attacking Rakhines raped women before brutally killing them and ransacked the area after the massacre. Gold, silver and other valuable possessions of Muslim Rohingyas were confiscated by Thakin leaders and their animals, crops and property were given to looters.

During the 40-day long attacks that erupted in the town of Minbya and spread to the entire Arakan province at least 150,000 Arakanese Muslims were killed, villages were looted and demolished. The mass killings forced many Arakanese Muslims to seek refuge in neighbouring countries, particularly in Bangladesh. The events of 1942 made cohabitation in the future practically impossible for the Rohingya and the Rakhine, two brotherly nations with a common history.

ATTACKS CONTINUING -

After Independence, encouraged by anti-Muslim policies of the state, Buddhists stepped up their attacks on the Muslim community without facing any preventive measures from the government. Moreover, the government restricted movement of Muslim Rohingya fleeing violence from Maungdaw, Buthidaung, and Rathedaung to Akyab (officially Sittwe), thus leaving thousands of Muslims at the mercy of aggressive Buddhists.

Even before recovering from the 1942 massacre Muslims found themselves as the target of yet another attack by the Burmese in 1947. In that period certain Muslim groups launched armed resistance against the Burmese state but failed. In 1954 when Muslim groups got more organized and powerful, the Burmese army launched a bloody attack called the Operation Monsoon and eliminated Muslim forces. The same year thousands of Muslims were either killed or deported from the country on grounds that they had aided mujahids. During a visit in 1959 to the Muslim-populated Buthidaung and Maungdaw cities, Burmese Prime Minister promised equal citizenship to Muslims, and consequently Muslim mujahids gave up arms and surrendered to the state.

1962 MILITARY COUP –

Repression of Muslims in Burma continued unabated until the 1962 coup. In 1962 the military took over and nationalized all private enterprises and banks. As a result, Muslims, who controlled major enterprises in Arakan up until that year, lost their economic power. Coup leader General Ne Win issued a number of notices to Arakan authorities to restrict movement of local Muslims. State-controlled media began propaganda broadcasts claiming Rohingya Muslims were not native of Arakan and urged Arakanese Buddhists to act against the Muslim population. Such broadcasts, whose only aim was to pit Buddhist Rakhines against Muslim Rohingyas, escalated tension in the region. Tighter economic restrictions were imposed on Muslims. The Buddhist Rakhines took over inter-town trading that was once controlled by Muslims.

In this period, the military junta became increasingly more disrespectful to the rights of Muslims. It became routine for Muslim opinion leaders to be detained at night by the military and released after being tortured. Injustices against the Muslim community were encouraged by authorities. They also launched a merciless offensive called “Immigrant Investigation Operation.” Physical torture, molestation of women, extortion, and similar mistreatment acts became a matter of ordinary life. Many innocent people were labelled as illegal immigrants and arrested.

KING DRAGON OPERATION –

With “King Dragon Operation” in March 1978, the Burmese government aimed to intimidate the Muslims and force them to leave Arakan. The operation was launched in the largest Muslim village in the town of Akyab and had a ripple effect throughout the region. In the course of several months, over 300,000 Arakanese refugees migrated to Bangladesh and were placed in makeshift camps by the authorities.

BUDDHISMIZATION OF ARAKAN –

The Myanmar state, which aims to wipe out the Islamic heritage in the country and completely reshape the region, has been building Buddhist temples in almost every corner of northern Arakan. From 1990 onward, hundreds of thousands of Arakanese have fled to neighbouring Bangladesh as refugees to escape pressure and persecution. Muslims villages were evacuated on ground that they would be rebuilt as model settlements, but Buddhist Rakhines were placed in the evacuated villages. As part of the policy to make Arakan Buddhist, the name of Arakan state was changed to Rakhine and the name of the state capital was changed from Akyab to Sittwe.

RIGHTS VIOLATIONS TILL DATE –

·         MASSACRES - In the 1938 massacre, thousands of Arakanese Muslims were killed and more than 500,000 were forced to leave their homeland. In 1942 Muslims were target of another massacre that claimed 150,000 Muslim lives. The death toll of attacks on Muslims in 1947, the Monsoon Operation of 1954 and the King Dragon Operation of 1978 is in ten thousands.

·         UNLAWFUL DETENTION, TORTURE AND MALTREATMENT - In the years following the 1962 coup, the Rohingyas were subjected to unlawful detention, torture and maltreatment. Communal prayers and Qurban ritual were banned. It is known that during the 1978 King Dragon Operation large numbers of Muslim women, men and elderly people were subjected to torture, imprisoned or executed.

·         RELIGIOUS AND ETHNIC DISCRIMINATION, REVOCATION OF CITIZENSHIP - The situation of Arakanese Muslims deteriorated in the aftermath of the 1962 coup. Most of the commercial enterprises owned by Rohingyas until that time were nationalized and thereby economic power of Muslims was reduced. State-controlled media started to portray Rohingyas as foreigners and Muslims in government positions were replaced with Buddhists. The question of Arakanese Muslims is not the only problem the Burmese state has. The military regime has subjected ethnic minorities of Burma, where 64 native peoples and more than 200 languages and dialects are spoken, to systematic pressure and discrimination. Arakanese Muslims are worst affected by discriminative and restrictive policies. The 1982 Citizenship Law left Rohingya out of the list of ethnic groups, labelling them as foreigners in their own native land. Today Rohingyas are still not recognized as citizen of Burma.

·         BUILDING NEW SETTLEMENTS AND DISPLACEMENT OF MUSLIMS - The most serious rights violations Arakanese Muslims have experienced at the hands of the Burmese military regime is the confiscation of Muslim property after they have been forced out of their homes and settling Buddhists in Muslim homes under the cover of model villages. Muslims are forced to work in the construction of these model villages. The villages are constructed from materials confiscated from Muslims and new homes are built in a way to resemble historical Buddhist homes. Buddhists living in Arakan, in central Burma and even in Bangladesh are encouraged to move into northern Arakan, where Muslims live, in an effort to reduce the overall percentage of Muslim population in the region.

·         TRAVEL BAN - Arakanese Muslims have no freedom of travel in their own land. Muslims residing in cities and towns outside Akyab are banned from entering the Arakanese capital Akyab on any grounds including emergency medical treatment. They are also not allowed to travel to the Burmese capital Rangoon under any circumstances. Muslims cannot even visit villages and towns neighbouring their own. Muslims with no travel cards and sometimes even those with authorized cards are forced to get off buses and trains. In one instance in February 2001, eight Muslims travelling to Rangoon were detained by police for travelling outside Arakan even though they had travel permits, and were sentenced to seven years in prison.

·         MARRIAGE BAN - Muslims face serious restrictions when they want to get married. Muslims have to meet a dozen of procedural requirements to receive a permit for marriage, which makes extremely difficult for Muslims to marry. Authorities demand couples to pay high taxes to get marriage permits. Both the man and the woman willing to get married have to pay a tax between 50 and 300,000 kyat.

·         PRESSURE ON CHRISTIANS AND BUDDHISTS - Burma Christians, particularly those living in rural areas, are finding their religious rituals being restricted. Burmese Christians are members of tribes that oppose military junta, which explains restrictions they encounter. Another point that proves religious persecution is that the government occasionally pressure Buddhist monks even though Buddhism is the majority religion and is officially propagated. The reason for suppression of Buddhist monks is that they oppose oppressive military junta.

·         REFUGEE PROBLEM - Today hundreds of thousands of Arakanese Muslims are living as refugees outside Burma due to pressure of the military regime. There are 200,000 Arakanese Muslims in Pakistan, some recognized as refugees some not, 500,000 in Saudi Arabia and 10,000 in Malaysia. The country with the highest number of Arakanese refugees is Bangladesh; between the years 1991 and 1992, about 300,000 Arakanese Muslims migrated to Bangladesh, which is a small, overcrowded and impoverished country. Bangladeshi authorities stepped up pressure in May 2003 on refugees in two camps in the country to force them to return home and it had forcefully deported 230,000 refugees to Burma by 2005.

INCIDENTS SINCE JUNE 2012 –

The last incidents broke out on 3 June when 10 Muslims travelling from the capital Akyab to Maungdaw were killed by Buddhist fanatics. Hundreds of Muslims gathered at the central mosque in Maungdaw to protest the attack but hard-line Buddhists and the Burmese police, who viewed the protest as a threat to their existence, attacked the local Muslims and killed and wounded many. The Burmese police branded the protest as an uprising against the state and ordered the punishment of the Muslims involved in the incidents. Together with Buddhist fanatics the police began raiding Muslim villages and towns.

More than 300 Muslim villages, mosques and madrasa’s were set on fire on the grounds that they were sheltering criminals. Mosques were besieged by Buddhist fanatics. According to independent human rights organizations, around 1,000 people have been killed and thousands of Muslims have been forced out of their homes and villages and into forests since violence erupted in June.

Aided by Nasaka (Burmese border security force), Hlun-tin (riot police) and the police, Rakhine Buddhists have been trying to displace the Rohingya. While curfew was in place, security forces and Rakhine groups went from village to village and set fire to Rohingya houses and fired on those escaping burning houses. Independent sources report that many Rohingyas were burned to death in the houses and the bodies were taken away in trucks, adding it is not possible to verify exactly how many had been massacred.

About 4m Arakanese are facing the risk of deportation and violence through acts such as raiding and burning of their houses. A serious humanitarian crisis is unfolding in the region.

THE CAMPS IN BANGLADESH WHERE ARKANESE REFUGEES ARE SHELTERED –

·     Kutupalong Refugee Camp: The camp housing 12,000 refugees is officially recognized by the UN.

·     Nayapara Refugee Camp: The camp where 10,000 refugees has the official UN recognition.

·      Leda Refugee Camp: The camp is housing 13,000 refugees and is officially recognized by the UN.

·      Kutupalong unofficial Refugee Camp: The 95,000 refugees staying in this camp are not treated as refugees by the UN and the Bangladeshi government.

The camp residents are constantly experiencing food shortages. The Bangladeshi authorities do not allow entry to the camp which is plagued with frequent deaths from hunger. It is known that more than 100,000 unregistered Arakanese refugees are struggling to survive in woods and villages across Bangladesh.