Monday, June 16, 2014

पिताश्री भले ही खानदान के एटीएम सही लेकिन पर सच्ची बात यही है कि चीफ़ एक्जीक्यूटिव माँ ही होती है.


कल पूरे दिन मैं यहीं खंगालता रहा कि फादर्स डे यानी पिता दिवस कब और किसने मनाना शुरू किया. पता चला कि मदर्स डे की तरह फादर्स डे भी अमरीकियों की ईजाद है.

1908 में जब पहला माता दिवस वर्जीनिया के राज्य में मनाया गया था तो किसी को भी अब्बा की याद नहीं आई. कहीं दो साल बाद किसी फरमाबरदार सुपुत्र ने सोचा कि अम्मा का दिन तो हम सभी मना रहे हैं बेचारे अब्बा का दिन भी मुकर्रर कर ही दो.
अब्बा भी क्या याद करेंगे. यूँ 1910 से हम अब्बाओं को पहली बार बच्चों की तरफ से हर साल अपना विश्व दिवस मनाए जाने के काबिल समझा गया.

वैसे तो घर के सभी बच्चे अब्बा की उसी तरह से इज्ज़त करते हैं जैसे राष्ट्रपति की जाती है पर सच्ची बात यही है कि चीफ़ एक्जीक्यूटिव माँ ही होती है. बेटी को कोई दुखड़ा रोना हो तो सीधे माँ के कान में कहती है बेटे को साइकिल खरीदनी हो या पैसे चाहिए हो तो भी माँ के जरिए ही अब्बा के कान तक बात पहुँचेगी.

पिताश्री भले ही खानदान के एटीएम सही लेकिन उन्हें भी कोई बात मनवानी या समझानी हो इसकी चिट्ठी भी माँ के सेक्रेटेरिएट के जरिए ही आती जाती है. माँ तो पूरी जिंदगी माँ ही रहती है. पिता की पोज़िशन बदलती रहती है. जब तक बच्चे नहीं होते वे 'शफ़ीक' और 'सिद्धार्थ' रहते हैं. जब बच्चे हो जाते हैं तो उनका नाम 'अजी सुनते हो' पड़ जाता है.
जब बच्चे पढ़-लिखकर अच्छी जगहों पर नौकरियों में लग जाते हैं तो पिताजी भी डैड या पापा कहलाने लगते हैं. जब बच्चे बेरोजगार हो जाते हैं तो डैड डीमोट होकर फिर अब्बा के पद पर बिठा दिए जाते हैं. रही-सही कसर हिंदी फिल्मों ने पूरी कर दी.

वरना क्या बिगड़ जाता अगर फ़िल्म दीवार में बच्चन महराज के मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, पैसा है, तुम्हारे पास क्या है वाले डॉयलॉग के जवाब में शशि कपूर कहते मेरे पास बाप है या किसी फ़िल्म का नाम होता 'गुड्डी होगी तेरी माँ' मगर ऐसी छोटी-छोटी खुशियाँ भी अब्बाओं को कहाँ मिलती हैं.

मदर इंडिया के जमाने से आज तक बेशुमार फ़िल्में माँ के गिर्द घूम रही है. अब्बा लोग बस बागबान पर ही गुजारा कर रहे हैं. अम्मा बात-बेबात रोए तो अब्बा समेत सब बच्चे परेशान हो जाते हैं अब्बा के आंसू निकल आए तो सबसे पहले अम्मा ही बोल पड़ती है अजी क्यों बच्चों के सामने इस उम्र में ड्रामा कर रहे हो और बच्चे इस बात पर माँ को घूरने के बजाए अब्बा को देखते हुए मुस्कुरा देते हैं.

पर पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होती. मैं बहुत से घर जानता हूँ जहाँ बच्चे माता-पिता को इतनी अहमियत देते हैं और इतना ख़्याल रखते हैं कि लगता है इन घरों में रोजाना मदर और फादर डे मनाया जा रहा हो और जिन घरों में ऐसा नहीं है वहाँ बच्चों को ये बताने-समझाने की ज़रूरत है कि माता-पिता को ख़ुश रखना कोई बहुत ज्यादा महंगा काम नहीं है.

सब माता-पिता अपने बच्चों की मसरूफ़ियत और मशीनी ज़िंदगी को समझ सकते हैं बस वो इतना ही तो चाहते हैं कि अगर घर से दूर हो तो जब कभी फुर्सत हो फ़ोन कर लिया करें क़रीब हो तो एक मेज़ पर साथ बैठकर कभी खाना खा लिया करे या पाँच मिनट पास बैठकर कुछ अपनी और कुछ उनकी बातें कर-सुन लिया करे.

मैं जब भी रात को थका हारा घर पहुँचता हूँ तो छोटा बेटा दरवाजा खोलता है और उससे भी छोटा बेटा दौड़ कर मेरी गोद में चढ़ जाता है तो मेरा तो फ़ादर डे वहीं मन जाता है. मेरी दुआ है ये बच्चे बड़े ज़रूर हो जाएँ लेकिन इनका बचपन इसी तरह इनके साथ-साथ बड़ा हो. हैप्पी फ़ादर्स डे मैं ख़ुद मन ही मन में कह लिया करूँगा.

वुसतुल्लाह ख़ान
बीबीसी संवाददाता, पाकिस्तान

Tuesday, June 10, 2014

रिलायंस कथा: KG बेसिन, जानिए पर्दे के पीछे का सारा खेल…


कभी आपने सोचा है कि क्यों आप अभी गैस के लिए 4.2$ दे रहे हैं? गैस के कुएं अम्बानी को कैसे मिला? सरकार ने क्या किया? क्या है KG बेसिन? नहीं ना! तो आईए अब जान लीजिएक्योंकि यह गैस आपको और रूलाने वाला है. आपके घरेलू बजट पर ज़बरदस्त डाका डालने वाला है


KG D6 बेसिन आखिर है क्या बला?
दरअसल, KG का तात्पर्य कृष्णा गोदावरी बेसिन से है, जो आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में कृष्णा और गोदावरी नदी किनारे करीब 50000 स्क्वायर किलोमीटर में फैला है. इन किनारों में एक जगह है, जिसे धीरुभाई-6 कहते हैं, यानी D6… यहीं पर रिलायंस इंडस्ट्री ने देश के सबसे बड़े गैस के भण्डार का पता लगाया.
सरकारी आंकड़ों की मानें तो 50000 में से 7645 स्क्वायर किलोमीटर के एरिया, जहां गैस का पता लगा, उस जगह को KG-DWN-98/1 कहा गया है.
जानिए पर्दे के पीछे का सारा खेल
1991 में भारत सरकार ने भारतीय निजी कंपनियों और विदेशी कंपनियों के साथ एक हाइड्रोकार्बन एक्सप्लोरेशन एंड प्रोडक्शन (E&P) का काम शुरू किया. इसके तहत छोटे-छोटे ब्लॉक्स दिए गए कंपनियों को तेल और गैस के उत्पादन के लिए. पर 1999 में न्यू एक्सप्लोरेशन एंड लाइसेंसिंग पालिसी (NELP) लाई गयी भारत सरकार द्वारा, जिससे सारे छोटे-छोटे ब्लॉक्स, जो अलग-अलग कंपनियों को दिए जा रहे थे, उसे बंद करके एक बड़ा ब्लाक जिसे धीरुभाई-6 D6 कहा गया, वो रिलायंस को दे दिया गया. अर्थात पॉलिसी बदली गयी, जिससे कई कम्पनियां इस काम में ना लगे और एक बड़ी कंपनी सारे बेसिन का गैस तेल आदि का उत्पादन करे.

अब सवाल ये है कि बेसिन तो रिलायंस को दे दिया गया, पर क्या सरकार का उस पर नियंत्रण है कि नहीं? क्योंकि कोई भी प्राकृतिक सम्पदा देश के जनता की होती है. इसीलिए सरकार इस एक्सप्लोरेशन और प्रोडक्शन को मॉनिटर करती है. अब किसी भी प्राकृतिक सम्पदा को निजी कंपनी कैसे निकालती और बेचती है, इसे मॉनिटर करने के लिए सरकार ने प्रोडक्शन शेयरिंग कॉन्ट्रैक्ट (PSC) के तहत निजी कंपनियों के साथ समझौता करती है.
PSC दरअसल एक कॉन्ट्रैक्ट ही है, जिसमें खरीदार और बेचने वाली पार्टी के लिए नियम कानून तय किये गए हैं. इसमें ये बताया गया है कि प्राकृतिक सम्पदा की खोज करने से लेकर उस सम्पदा को निकाल कर बेचने तक कौन-कौन से प्रक्रियाओं को फॉलो करना हैसाथ ही इस कॉन्ट्रैक्ट में मुनाफे का बंटवारा कैसे होगाइसकी भी एक प्रक्रिया है. इस कॉन्ट्रैक्ट का उल्लंघन न हो, इस बात को तय करता है डायरेक्टरेट जनरल ऑफ़ हाइड्रोकार्बन (DGH).
इसी तरह का एक PAC यानी कॉन्ट्रैक्ट रिलायंस और भारत सरकार के बीच साईन किया गया. इस पुरे डील में रिलायंस की ही एक पार्टनर निको रिसोर्सेसभी शामिल थी, जिसका हिस्सा 10% था. यहाँ मैं आपको बताता चलूं कि ये उस समय की बात है, जब रिलायंस का बंटवारा नहीं हुआ था.
लेकिन इससे पहले कि KG D-6 बेसिन से उत्पादन शुरू हो पाता, दोनों भाइयों के बीच बंटवारा हो गया, जिसमें गैस का सारा बिज़नेस मुकेश अम्बानी के हिस्से आया. मज़े की बात ये है कि दोनों भाई जिस गैस के लिए झगड़ रहे थे, ये पूरी सम्पदा देश और उसके लोगों की थी न कि इन दोनों भाइयों कीफिर भी इन्होंने बेसिन का आपस में बंटवारा कर लिया. हालांकि PAC के कॉन्ट्रैक्ट में लिखा पहला वाक्य कहता है कि ‘by virtue of article 297 of constitution of India, Petroleum is a natural state in the territorial waters and the continental shelf of India is vested with the union of India’
यानी मोटे तौर पर देखा जाए तो भारतीय संविधान की धारा-297 के अनुसार भारत अधिकृत समुन्द्र में पाया गया पेट्रोलियम भारत की सम्पदा है.
जून 2004 में NTPC को 2600 मेगावाट अपने दो पॉवर प्लांट (कवास और गंधार में मौजूद है) के लिए गैस की ज़रुरत थी. इसके लिए NTPC ने बोली लगवाई. इस बोली में रिलायंस ने NTPC को 17 साल तक 2.34$ के हिसाब से 132 ट्रिलियन यूनिट गैस देने का ठेका लिया. इसी ठेके के आधार पर 2005 में बंटवारे के समय अनिल अम्बानी ने अपना दावा ठोंका और गैस सम्पदा का एक बड़ा हिस्सा RNRL के नाम से अपने पास रख लिया. ये कह कर कि क्योंकि NTPC को 17 साल तक 2.34$ के हिसाब से गैस देने का ठेका उनके पास है, इसीलिए इस गैस को निकालने के लिए उन्हें भी गैस का कुआं तो चाहिए ही. अपने पिता की संपत्ति का बंटवारा करते हुए दोनों भाइयों ने देश की अनमोल सम्पदा गैस का भी बंटवारा कर लिया और इस बात को सालों तक दबा के रखा गया. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में स्पष्ट तौर पर कहा है भारत सरकार गैस के उत्पादन से लेकर गैस के उपभोक्ता के पास पहुंचने तक उसकी मालिक है. कंपनियों को अपना मतभेद और बंटवारा सरकार के पॉलिसी के तहत करना चाहिए.
अब यहां सरकार पर ऊंगली उठती है. किसी मंत्रालय ने और न किसी मंत्री ने इस गैस के बंटवारे पर कुछ कहा. वो गैस जो देश की संपदा थी, अम्बानी परिवार की नहीं, फिर भी सरकार आँख मूंद कर धृतराष्ट्र की तरह भारतीय संपदा को लुटते देखती रही. प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने दबे स्वर में बस ये कह कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया कि दोनों भाई देश के हितों को ध्यान में रखते हुए झगड़ा न करें और सभी मतभेदों को जल्दी सुलझाएं.
लेकिन दिलचस्प मोड़ अभी आना बाकी है. बंटवारा होते ही रिलायंस ने NTPC को 2.34$ के हिसाब से गैस देने से मना कर दिया. जिस NTPC के ठेके के नाम पर अनिल अम्बानी ने RNRL के नाम से देश के कुएं के भण्डार का बहुत बड़ा हिस्सा अपने नाम कर लिया, उस हिस्से के अपने पास आते ही रिलायंस इंडस्ट्रीज ने NTPC के उस ठेके पर ही साईन करने से मना कर दिया. मतलब अनिल अम्बानी को गैस के कुएं का हिस्सा भी मिल गया और अब उसे NTPC को भी गैस नहीं देना था सारा गैस उनके पास.
NTPC ने रिलायंस को मुंबई कोर्ट में 20 दिसंबर 2005 में घसीटा, लेकिन वो केस आज 9 साल बाद भी ख़त्म नहीं हो पाया है. NTPC जैसी संस्था के साथ इतने बड़े धोके के बावजूद सरकार का मुंह में दही जमा के चुप बैठे रहना, अपने आप में एक अलग कहानी है.
2007 में जब NTPC और रिलायंस का झगड़ा कोर्ट में चल ही रहा रहा था, तब सरकार ने इस मामले को एमपावर्ड ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स (EGOM) के सुपुर्द कर दिया, जिसकी अध्यक्षता अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी खुद कर रहे थे, जो उस समय वित्त मंत्री थे. EGOM ने 2.34$ की दर को बढ़ा कर 4.2$ कर देने का फैसला किया.
यहां सबसे मज़े की बात ये है कि ये सारा दाम बढ़ाने-घटाने कोर्ट कचहरी आदि का खेल तब हो रहा था, जब KG बेसिन से ज़रा सी भी गैस नहीं निकाली जा रही थी. बेसिन अब तक बंद था. लेकिन जैसे ही दाम 4.2$ किया गया, रिलायंस ने इस मौके को तुरंत लपक लिया. बयान दिया गया कि सरकार द्वारा गठित EGOM द्वारा तय किये गए दाम से कम में गैस सप्लाई नहीं किया जाएगा चाहे वो NTPC हो या कोई और.
अब सवाल यह है कि प्रणब मुखर्जी इस 4.2$ के आंकड़े पर पंहुचे कैसे? दरअसल, ये रिलायंस का ही एक फार्मूला था, जिसके तहत उन कंपनियों को एक दाम बताने को कहा गया. जो रिलायंस से गैस लेना चाहते थे. रिलायंस ने उन्हें 4.54$ और 4.75$ के बीच एक दाम बताने को कहा और इन कंपनियों के दाम बताने के बाद रिलायंस ने EGOM को दाम 4.59$ कर देने को कहा, जिसे बाद में रिलायंस ने कम करके 4.3$ कर दिया. इसके बाद प्रणब मुखर्जी ने इसमें मामूली कटौती करके 4.2$ कर दिया और अपनी पीठ थपथपाई कि न उसकी चली, न इसकी चलेगी, चलेगी तो सिर्फ हमारी ही चलेगी.
इन सभी उठाये गए क़दमों पर भारत सरकार के ही पॉवर एंड एनर्जी विंग के प्रिंसिपल एडवाइजर सूर्या पी सेठी ने तत्कालीन कैबिनेट के सेक्रेटरी के साथ सवाल उठाया, जिसे नज़रंदाज़ कर दिया गया. सूर्या पी. सेठी का कहना था कि विश्व में कहीं भी गैस की कीमत 1.43$ से ज्यादा नहीं है, फिर अपने ही देश के कुएं से लोग 4.2$ में गैस क्यों लें?
2011 की कैग की रिपोर्ट के अनुसार बिना कोई कुआँ खोदे रिलायंस पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही. मतलब खुद रिलायंस को नहीं पता था कि कितना गैस कितने कुओं में है. रिलायंस को केवल 25% हिस्से पर काम करना था, लेकिन PSC के कॉन्ट्रैक्ट के खिलाफ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया था और सरकार ने इसमें कोई टोका टाकी तक नहीं की.
रिलायंस के कहने पर 4.2$ चुकाने वाले देश की ये जनता अपने ही कुओं से महंगा गैस ले रही है. और अब भाजपा सरकार इसे बढ़ाकर 8$ करने जा रही है. इससे महंगाई बेतहाशा बढ़ेगी. अपने ही लोगों को गैस 8$ में जबकि बंगलादेश को यही गैस करीब 2$ में दिया जाता है. इस 8$ के पीछे की मंशा क्या है? और किस कारण इसे दोगुना किया जा रहा है, कोई बताने को तैयार नहीं है? कहा जा रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में महंगा है, पर यह बात गलत है. फिर 4.2$ कंपनियों से पूछ कर क्यों किये, जब दुनिया केवल 1.43$ में बेच रही थी?
ये कई ऐसे सवाल हैं जिससे बचने के लिए नेता, पत्रकार, टीवी चैनल और ना जाने क्या-क्या खरीद लिए जाते हैं. और जनता है कि दाम चुकाते-चुकाते थक जाती है. सो कॉल्ड युवाओं से ज़रा पूछिये कितना जानते है इस बारे में वो? बस युवा शक्ति का डंका पीटने से कुछ नहीं होता. शक्ल बनाने में व्यस्त युवाओं को अपने अक्ल पर काम करने की ज़रुरत है…!!

Amit Bhaskar for BeyondHeadlines

Wednesday, June 04, 2014

मीडिया तुम्हारी जात क्या है बॉस ?


religion-of-indian-mediaमीडिया की जात क्या है? क्या मीडिया की भी कोई जाति होती है?यदि नहीं तो मीडिया में दलितों (पिछड़े-मुस्लिम-महिला) के मुद्दे क्यों नहीं सार्थकता से उठते? हाशिये पर खड़े समाज पर मीडिया क्यों ध्यान नहीं देता ? भुत-प्रेत,  राखी-मीका,  जुली-मटुकनाथ पर पैकेज बनाने वाला मीडिया क्यों दलितों की अनदेखी करता है? जो सरोकारों के साथ चलने का दावा करते हैं उनके प्रयास भी महज रस्म अदायगी क्यों होते हैं?

क्या बाजारवाद के इस दौर में महज इसलिए दलितों की खबरों को जगह नहीं मिलती है क्योकिं उनके सरोकार मध्यवर्गीय विज्ञापन देने वाली कंपनियों के सरोकारों से मेल नहीं खाती? तो क्या बाजारवाद के इस दौर में मीडिया “समाचार वही जो व्यापार बढ़ाये” के मुनाफे के तहत काम करता है? क्या भारतीय मीडिया नवपूंजीवाद के लाभ-हानि के दवाब के तहत काम करता है? यह सभी मीडिया के लिए भले सही न हो परन्तु भूमंडलीकरण के इस दौर में लोकतांत्रिक आग्रह कमजोर हुएं है. इसी का परिणाम है की मीडिया मिशन से कमीशन की तरफ छलांग लगा चुका है.

लोगों से सवाल पूछने वाला मीडिया समूह खुद सवालों के घेरे में आ गया है. क्यों नहीं दलितों के प्रति भारतीय मीडिया का रवैया अभी भी बदला है? न किसी सफाई कर्मचारी की मौत को लेकर सवाल उठाये जातें हैं और न ही कोई पैकेज बनाएं जातें है?क्यों नहीं दलितों के प्रति  हिंसा और बलात्कार की घटना पर्याप्त ध्यान खीच पाती हैं? क्यों नहीं आदिवासी महिलायों की खबरें जगह पाती है? क्यों नहीं मुस्लिमों की बेगुनाह रिहाई खबर बन पाती है? भारतीय मीडिया क्यों नहीं दलितों-पीड़ितों-शोषितों की तरफ अपने आप को खड़ा पाता है?

सीएनएन-आईआबीएन-7 के वरीय समाचार संपादक आकाश,  दलितों की भारतीय मीडिया में उपेक्षा के प्रश्न पर कहतें है- “आरक्षण की सहायता से कार्यपालिका,  न्यायपालिका और विधायिका में दलित तो आये परन्तु आज भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चौथे खंभे में दलितों की संख्या नगण्य है” इस कथन के समर्थन में कई आंकड़े भी हैं जो इसकी पुष्टि करते हैं.

आजादी के इतने बर्षो के बाद भी दलित वर्ग मीडिया से लगभग गायब है.

मीडिया में जाति की हिस्सेदारी पर बहस खड़ा करना इस लेख का मतलब नही है.  मूल प्रश्न यह है कि मीडिया में दलितों के मुद्दे को जगह क्यों नहीं दी जाती? खैरलांजी घटना इसका उदहारण है जिसको भारतीय मीडिया ने शुरू में कवर नहीं किया था.

प्रसंगवश

1. हरियाणा के हिसार जिले स्थित भागाणा में 23 मार्च को 15-18 वर्ष की अगवा की गई चार मासूम लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की गई. घटना के बाद न्याय की मांग लेकर पीडितायें अपने परिजनों और गावं के 90 दलित परिवारों के साथ जंतर-मंतर पर धरणा दे रहें हैं. यह मुख्यधारा की मीडिया के लिए कोई खबर नहीं है.

2. नागपुर में दलित को जिन्दा जला दिया जाता है और यह मुख्यधारा की मीडिया में खबर नहीं बन पाती है.

3. आतंकवादी बमविस्फोट के झूठे आरोप में दस बरस की सजा काट कर बाहर निकले बेगुनाह मुस्लिमों की तरफ से कोई भी मीडिया समूह सवाल नहीं खड़े करता है.

4. दलित महिलायों को शोषण का शिकार बनना पड़ता है पर वो खबर नहीं बनती. आदिवासी लड़कियां गायब होती हैं, यह खबर नहीं बनती. क्यों ‘सभी के लिए न्याय’ ‘कुछ के लिए अथाह मुनाफे’ के आगे  बेबस नजर आता है? क्या इसके पीछे सिर्फ बाजार का अर्थशास्त्र है या समाजशास्त्र भी है?

सवाल उठता है की क्या मीडिया में इनके मुद्दे कोई मायने नहीं रखतें? क्या मीडिया की कोई जबाबदेही नहीं है? क्या पूंजी और बाजार अब मीडिया के सरोकारों और मिशन को संचालित करेगा? क्या अब मीडिया में सरोकारों को कमीशन से परखा जायेगा. तब किसी भी समाचार को लिखा/प्रसारित किया जाएगा.

छोटे-छोटे और गैरजरूरी मुद्दों को तानने वाला मीडिया अब तक भगाणा के मुद्दों पर खामोश क्यों है? दलित हिंसा पर अब तक क्यों नहीं कोई पैकेज बनती दिख रही है? क्यों नहीं अक्षरधाम बम विस्फोट के बेगुनाह सजायाफ्ता आरोपिय के समर्थन में कोई उसके बेगुनाही की कीमत का हिसाब मांग रहा है?

लोकतंत्र,   विकास और न्याय के पक्ष में मीडिया कब खड़ा होगा?

~मुकेश कुमार