कल पूरे दिन मैं यहीं खंगालता रहा कि फादर्स डे यानी पिता दिवस कब और
किसने मनाना शुरू किया. पता चला कि मदर्स डे की तरह फादर्स डे भी अमरीकियों की
ईजाद है.
1908 में जब पहला माता दिवस वर्जीनिया के राज्य में
मनाया गया था तो किसी को भी अब्बा की याद नहीं आई. कहीं दो साल बाद किसी फरमाबरदार
सुपुत्र ने सोचा कि अम्मा का दिन तो हम सभी मना रहे हैं बेचारे अब्बा का दिन भी
मुकर्रर कर ही दो.
अब्बा भी क्या याद करेंगे. यूँ 1910 से हम अब्बाओं को पहली बार बच्चों की तरफ से हर साल अपना विश्व दिवस मनाए
जाने के काबिल समझा गया.
वैसे तो घर के सभी बच्चे अब्बा की उसी तरह से इज्ज़त करते हैं जैसे
राष्ट्रपति की जाती है पर सच्ची बात यही है कि चीफ़ एक्जीक्यूटिव माँ ही होती है.
बेटी को कोई दुखड़ा रोना हो तो सीधे माँ के कान में कहती है बेटे को साइकिल खरीदनी
हो या पैसे चाहिए हो तो भी माँ के जरिए ही अब्बा के कान तक बात पहुँचेगी.
पिताश्री भले ही खानदान के एटीएम सही लेकिन उन्हें भी कोई बात मनवानी
या समझानी हो इसकी चिट्ठी भी माँ के सेक्रेटेरिएट के जरिए ही आती जाती है. माँ तो
पूरी जिंदगी माँ ही रहती है. पिता की पोज़िशन बदलती रहती है. जब तक बच्चे नहीं
होते वे 'शफ़ीक' और 'सिद्धार्थ' रहते हैं. जब बच्चे हो जाते हैं तो उनका
नाम 'अजी सुनते हो' पड़ जाता है.
जब बच्चे पढ़-लिखकर अच्छी जगहों पर नौकरियों में लग जाते हैं तो
पिताजी भी डैड या पापा कहलाने लगते हैं. जब बच्चे बेरोजगार हो जाते हैं तो डैड
डीमोट होकर फिर अब्बा के पद पर बिठा दिए जाते हैं. रही-सही कसर हिंदी फिल्मों ने
पूरी कर दी.
वरना क्या बिगड़ जाता अगर फ़िल्म दीवार में बच्चन महराज के मेरे पास
गाड़ी है, बंगला है, पैसा है, तुम्हारे पास क्या है वाले डॉयलॉग के जवाब में शशि कपूर कहते मेरे पास बाप
है या किसी फ़िल्म का नाम होता 'गुड्डी होगी तेरी माँ'
मगर ऐसी छोटी-छोटी खुशियाँ भी अब्बाओं को कहाँ मिलती हैं.
मदर इंडिया के जमाने से आज तक बेशुमार फ़िल्में माँ के गिर्द घूम रही
है. अब्बा लोग बस बागबान पर ही गुजारा कर रहे हैं. अम्मा बात-बेबात रोए तो अब्बा
समेत सब बच्चे परेशान हो जाते हैं अब्बा के आंसू निकल आए तो सबसे पहले अम्मा ही
बोल पड़ती है अजी क्यों बच्चों के सामने इस उम्र में ड्रामा कर रहे हो और बच्चे इस
बात पर माँ को घूरने के बजाए अब्बा को देखते हुए मुस्कुरा देते हैं.
पर पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होती. मैं बहुत से घर जानता हूँ जहाँ
बच्चे माता-पिता को इतनी अहमियत देते हैं और इतना ख़्याल रखते हैं कि लगता है इन
घरों में रोजाना मदर और फादर डे मनाया जा रहा हो और जिन घरों में ऐसा नहीं है वहाँ
बच्चों को ये बताने-समझाने की ज़रूरत है कि माता-पिता को ख़ुश रखना कोई बहुत
ज्यादा महंगा काम नहीं है.
सब माता-पिता अपने बच्चों की मसरूफ़ियत और मशीनी ज़िंदगी को समझ सकते
हैं बस वो इतना ही तो चाहते हैं कि अगर घर से दूर हो तो जब कभी फुर्सत हो फ़ोन कर
लिया करें क़रीब हो तो एक मेज़ पर साथ बैठकर कभी खाना खा लिया करे या पाँच मिनट
पास बैठकर कुछ अपनी और कुछ उनकी बातें कर-सुन लिया करे.
मैं जब भी रात को थका हारा घर पहुँचता हूँ तो छोटा बेटा दरवाजा खोलता
है और उससे भी छोटा बेटा दौड़ कर मेरी गोद में चढ़ जाता है तो मेरा तो फ़ादर डे
वहीं मन जाता है. मेरी दुआ है ये बच्चे बड़े ज़रूर हो जाएँ लेकिन इनका बचपन इसी
तरह इनके साथ-साथ बड़ा हो. हैप्पी फ़ादर्स डे मैं ख़ुद मन ही मन में कह लिया
करूँगा.
वुसतुल्लाह ख़ान
बीबीसी संवाददाता, पाकिस्तान
No comments:
Post a Comment