Thursday, November 28, 2013

हां मैं कश्मीर हूँ, हां मैं कश्मीर हूँ.


न बुज़ुर्गों के ख़्वाबों की ताबीर  हूँ
न मैं जन्नत की अब कोई तस्वीर  हूँ!
जिसको मिल करके सदियों से लूटा गया,
मैं वो उजड़ी हुई एक जागीर  हूँ!!

                  हां मैं कश्मीर हूँ, हां मैं कश्मीर हूँ.

मेरे बच्चे बिलखते रहे भूख से,
ये हुई है सियासत की इक चूक से !
रोटियां मांगने पर मिलीं गोलियां,
चुप कराया गया उनको बंदूक से !

                  हां मैं कश्मीर हूँ, हां मैं कश्मीर हूँ.

न कहानी  हूँ न कोई किस्सा हूँ मैं
मेरे भारत तेरा एक हिस्सा  हूँ मैं !!
जिसको गाया नही जा सका आज तक
ऐसी इक टीस  हूँ ऐसी इक पीर  हूँ………!
                                    
                  हां मैं कश्मीर हूँ, हां मैं कश्मीर हूँ.

यूं मेरे हौसले आज़माए गए,
मेरी सांसों पे पहरे बिठाए गए !
पूरे भारत में कुछ भी कहीं भी हुआ,
मेरे मासूम बच्चे उठाए गए !!

यूं उजड़ मेरे सारे घरौंदे गए,
मेरे जज़्बात बूटों से रौंदे गए !
जिसका हर लफ़्ज आंसू से लिक्खा गया,
ख़ूं में डूबी हुई ऐसी तहरीर  हूँ….!

                  हां मैं कश्मीर हूँ, हां मैं कश्मीर हूँ.

मैं बग़ावत का पैग़ाम बन जाऊंगा,
मैं सुबह हूं मगर शाम बन जाऊंगा !
गर सम्भाला गया न मुझे प्यार से,
एक दिन मैं वियतनाम बन जाऊंगा !!

                  हां मैं कश्मीर हूँ, हां मैं कश्मीर हूँ.

मुझको इक पल सुकूं है न आराम है,
मेरे सर पर बग़ावत का इल्ज़ाम है !!
जो उठाई न जाएगी हर हाथ से
ऐ सियासत मैं इक ऐसी शमशीर  हूँ…..!

                  हां मैं कश्मीर हूँ, हां मैं कश्मीर हूँ.

-इमरान प्रतापगढ़ी

Saturday, November 23, 2013

साहेब और युवती के बीच थे अवैध संबंध



लड़की का पीछा क्यों करवाया गया, इसकी कहानी एक मिस्ड काल से शुरू हुई। यह मिस्ड कॉल साहब के पर्सनल नंबर पर आई थी। इसके बाद से ही इस युवती के फोन को  2009 में दो महीने तक अवैध रूप से सर्विलांस पर रखा गया। कांग्रेस अब इस मामले में मोदी को पूरी तरह से घेरने में जुटी है और इस मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट के किसी जज से कराने की मांग कर रही है। माना जा रहा है कि जासूसी का यह खेल मोदी के लिए भारी पड़ सकता है, क्योंकि तमाम मानवाधिकार संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस तरह की जासूसी को निजता का उल्लंघन माना है।

गौरतलब है कि पिछले दिनों न्यूज पोर्टल कोबरा पोस्ट और गुलेल ने गुजरात के राज-काज के बारे में एक सनसनीखेज खुलासा करते हुए गुजरात के पूर्व गृहराज्यमंत्री अमित शाह और आईपीएस अफसर जीएल सिंघल की टेलीफोन पर हुई बातचीत की रिकार्डिंग पे्रस के सामने पेश की। वेबसाइट ने इस जासूसी कांड को गैरकानूनी मानते हुए कहा कि गुजरात के पूर्व गृहमंत्री और मोदी के खास अमित शाह ने सिंघला को एक लड़की की 24 घंटे निगरानी का आदेश दिया, ताकि किसी साहब को उसके बारे में पल-पल की जानकारी दी जा सके। अमित शाह से बातचीत की यह रिकार्डिंग खुद सिंघला ने सीबीआई को सौंपी है। कांग्रेस ने इस मामले की गहराई से जांच की मांग की है। वहीं भाजपा ने पूरे मसले पर चुप्पी साध ली है।

आइए, इस जासूसी कांड के कुछ रोचक तथ्यों पर नजर डालें। मिली जानकारी के मुताबिक, 62 दिनों तक चले इस सर्विलांस में गुजरात के आठ बड़े पुलिस अधिकारी शामिल थे। इस पूरी कार्रवाई की कमान आईपीएस अधिकारी जीएल सिंघल के हाथों में थी। सिंघल को उस समय अमित शाह के बेहद करीब थे। हालांकि उसके बाद दोनों के रिश्ते बिगड़ गए। अमित शाह और जीएल सिंघल दोनों राज्य में हुए दो अलग-अलग फर्जी एनकाउंटरों के मामले में आरोपी हैं और फिलहाल बेल पर बाहर हैं। अमित शाह जहां सोहराबुद्दीन एनकाउंटर के आरोपी हैं, वहीं सिंघल पर इशरत जहां एनकाउंटर मामले में आरोप लगाए गए हैं। सिंघल ने शाह से अपनी नजदीकी के बावजूद उनसे हुई बातचीत की कुछ रिकार्डिंग्स भी अपने पास रख ली थी। इस साल जून में सिंघल ने इस बातचीत के 267 रिकार्डिंग्स सीबीआई को सौंप दी।

कोबरा पोस्ट से मिली जानकारी के मुताबिक, 2005 में पहली बार साहब से युवती की मुलाकात हुई। इस युवती ने भूकंप प्रभावित भुज में सरकारी पुनर्निर्माण के प्रयासों के तहत एक हिल गार्डन डिजाइन किया था। दोनों की मुलाकात तत्कालीन जिलाधिकारी प्रदीप शर्मा ने कराई थी। साहेब ने इस युवती को अपना पर्सनल मोबाइल नंबर भी दे रखा था, जिस पर साहेब और युवती की अक्सर बातें होती थीं। एक दिन युवती ने भुज के अपने कलक्टर मित्र प्रदीप शर्मा को साहेब के साथ चल रहे संबंध से संबंधित कॉल्स और मैसेज को दिखला दिया। शर्मा ने उस साहब का नंबर सेव कर लिया। बाद में युवती और साहब के बीच कुछ नजदीकी रिश्तों को लेकर अनबन शुरू हो गई और युवती परेशान रहने लगी। साहब चाहते थे कि भले ही हम दोनों के बीच में संबंध कुछ और हो, लेकिन सार्वजनिक तौर पर यह दिखे कि साहब युवती को बेटी की तरह मानते हैं। युवती की परेशानी जानने के बाद कलक्टर शर्मा ने साहब के सेव नंबर पर काल लगा दी। काल उठाया तो नहीं गया, लेकिन इस मिस्ड कॉल से साहब को संदेह हो गया कि आखिर उनका पर्सनल नंबर किसके पास है। कॉल डीटेल्स में शर्मा का नाम सामने आ गया। इस मिस्ड कॉल के बाद से ही युवती और साहब के संबंधों का समीकरण बदल गया। शर्मा के फोन पर नजर रखी जाने लगी और यह बात सामने आ गई कि शर्मा और यह युवती बराबर संपर्क में रहते थे। सूत्रों के मुताबिक, इसके बाद ही अमित शाह ने इस युवती पर सर्विलांस लगाने का आदेश दिया।

कोबरापोस्ट और गुलेल के मुताबिक, कुछ ही दिनों बाद प्रदीप शर्मा को उनकी हरकत का दंड मिल गया। उनके खिलाफ गुजरात सरकार ने आपराधिक मामलों में चार शिकायतें दर्ज कराई हैं। शर्मा को सस्पेंड कर दिया गया और फिर वह गिरफ्तार भी कर लिए गए। 62 दिनों तक चला सर्विलांस का सिलसिला तब खत्म हुआ, जब इस युवती ने शादी कर गुजरात छोड़ने का फैसला किया। अब राजनीति गरमाने के बाद भाजपा इस पूरे प्रकरण में लीपापोती करने में जुट गई है। भाजपा के दबाव में युवती के पिता ने कहा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री से उनके पारिवारिक संबंध हैं और उन्होंने ही मुख्यमंत्री से अपनी बेटी का खयाल रखने का निवेदन किया था। उनकी बेटी बेंगलुरू से अहमदाबाद आई थी और उसे अपनी मां के इलाज के सिलसिले में बाहर निकलना पड़ता था। गुजरात के मुख्यमंत्री और उनकी बेटी का रिश्ता बाप-बेटी की तरह था। भाजपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कोबरापोस्ट और गुलेल के खुलासों को खारिज करते हुए कहा है कि इस पूरे मामले के पीछे कांग्रेस की गंदी राजनीति है, लेकिन कांग्रेस के महिला युवा प्रकोष्ठ ने अमित शाह और इस पूरे मामले की जांच की मांग की है। जयंती नटराजन ने कहा है कि इन खुलासों से वह दुख, आश्चर्य, गुस्सा और शर्म महसूस कर रही हैं।

अब डर है कि इस जासूसी कांड में कहीं उस युवती की जान न चली जाए। अपने फायदे के लिए राजनीति में कुछ भी संभव है। कांग्रेस भी इस मामले को आगे बढ़ाने में रुचि रखेगी और भाजपा किसी तरह से साहब को बचाने में लगेगी। इस पर पर्दा डालने और पर्दा हटाने के खेल में सबसे अहम सवाल है कि कहीं उस युवती की जान खतरे में न पड़ जाए।

Monday, November 18, 2013

नारायण साईं को लगी थी ग्रुप सेक्‍स की लत



किसी धर्मगुरु पर बलात्कार का इल्ज़ाम अपने-आप में चौंकानेवाला है. लेकिन अगर कोई धर्मगुरु बलात्कार से भी आगे बढ़कर अपने ही भक्तों के साथ ग्रुप सेक्स, यानी सामूहिक सेक्स करने लगे, तो इसे आप क्या कहेंगे? आसाराम के बेटे नारायण साईं पर जो नया इल्ज़ाम लगा है, वो कुछ ऐसा ही है. ये इल्ज़ाम अब सिर्फ़ इल्ज़ाम नहीं, बल्कि अदालत में पेश किए गए दस्तावेज़ का एक अहम हिस्सा है.

आस्था की रोशनी में आंखें कब की चौंधिया चुकी थीं, जीता-जागता इंसान कब का भगवान बन चुका था. मगर, इसी भगवान के चेहरे से जब पाखंड का नक़ाब उतरने लगा, तो देखने वाले बस देखते ही रह गए. भगवान का रूप धरकर पाप का मायाजाल बुनने वाले बाप-बेटे आसाराम और नारायण साईं पर बलात्कार और यौन शोषण का इल्ज़ाम तो कब के लग चुके थे. लेकिन अब नारायण साईं पर जो नया इल्ज़ाम लगा है, उससे अजीब और चौंकाने वाला इल्ज़ाम कोई हो ही नहीं सकता.

जी हां, नारायण साईं पर इल्ज़ाम है ग्रुप सेक्स का. ग्रुप सेक्स, यानी सामूहिक यौन क्रीड़ा का. दूसरे लफ्ज़ों में कहें, तो दो से अधिक की तादाद में एक ही वक़्त पर जिस्मानी ताल्लुकात कायम करने का. नारायण साईं पर ये इल्ज़ाम किसी ने चलते-फिरते नहीं, बल्कि सूरत के एक सरकारी वकील ने भरी अदालत में लगाया है.

सूरत के सरकारी वकील ने नारायण साईं के ही एक पुराने साधक के हवाले से अदालत को बताया है कि नारायण साईं एक ही वक्त में एक साथ 9-10 लड़कियों के साथ सेक्स करता था. नारायण साईं को ऐसा करते हुए खुद उसके साधक ने देखा, जिसने बाद में मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान में इस बात खुलासा किया. सरकारी वकील ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत रिकॉर्ड करवाए गए इस बयान का ज़िक्र करते हुए अदालत में मौजूद हरेक शख्स को चौंका दिया.

अपने बयान में इस साधक ने बताया है कि उसने एक ही वक़्त में 9-10 लड़कियों को एक साथ नारायण साईं के कमरे में रहस्यमयी हालात में और जाते हुए देखा. अनुष्ठान के नाम पर बंद कमरे में हुए इस खेल के बाद जब कमरे की सफ़ाई की गई, तो वहां ढेरों बीयर की बोलतें निकलीं. ये सब कुछ उसने एक बार नहीं, बल्कि कई बार खुद अपनी आंखों से देखा. इस साधक की बातों का यकीन करें, तो नारायण साईं बीयर और ग्रुप सेक्स का ज़बरदस्त शौकीन है और अक्सर नए-नए बहानों से ग्रुप सेक्स का मौका तलाशता रहता है.

लेकिन ये तो जैसे नारायण साईं पर लगे नए इल्ज़ामों की एक शुरुआत भर थी. सूरत पुलिस को अपनी तफ्तीश में ये भी पता चला कि नारायण साईं ने कई ऐसी शादीशुदा औरतों को अपने जाल में फांसने के लिए उनके पतियों को ही धोखे से दवाएं खिलाकर उन्हें नपुसंक बना दिया. ऐसी कोई महिला जब औलाद की आस लिए नारायण साईं के पास पहुंचती या फिर सत्संग में हाज़िर होती, तो उन्हें अपने पति को ताकत की दवा देने के नाम पर वो जडी-बूटियां दी जातीं, जिससे इंसान नपुसंक हो सकता है. इस तरह जब नारायण साईं अपने इरादे में कामयाब हो जाता, तो फिर अनुष्ठान और समर्पण के नाम पर ऐसी महिलाओं का भी यौन शोषण करता.


Saturday, November 16, 2013

क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?


हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं?
हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं ? इस लाइन से कुछ लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है, लेकिन मकसद ठेस पहुंचाना नहीं है। दरअसल पिछले दिनों आई एक किताब पढ़ने के बाद मन में अनायास ही ये सवाल आया कि हिन्दू ऐसे क्यों होते हैं ? जिस किताब को पढ़ने के बाद ये ख्याल आया, वो है, ‘क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?’ ये किताब खास तौर से भारतीय मुसलमानों को आधार बना कर लिखी गई है। जिसमें उनकी परेशानियों का वर्णन किया गया है। इस किताब के लेखक हैं पंकज चतुर्वेदी जो पिछले उनतीस वर्षों से पत्रकारिय लेखन कर रहे हैं।
इस समय देश में मुसलमानों की छवि को लेकर एक अलग धारणा बनी हुई है। आप चाहे जहां भी बैठे हों अगर मुसलमानों की चर्चा हुई तो आपको कई बातें एक साथ सुनने को मिलेंगी। मुसलमान आतंकवादी होते हैं। कई शादियां करके ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं, वे देश में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना देंगे। आम मुसलमान भारत को अपना देश नहीं मानता। कश्मीर की समस्या हिन्दू-मुस्लिम विवाद है। मुसलमान राष्ट्रगीत नहीं गाते। सरकार मुसलमानों का तुष्टिकरण करती है। इस तरह की बातें करने वालों में ज्यादा संख्या युवाओं की है, जिन्होंने मुसलमानों को सिर्फ और सिर्फ मीडिया के जरिए ही जाना है। इनकी अपनी कोई राय नहीं है, लेकिन टीवी में देखकर और अखबारों में पुलिसिया बयानबाजी की रिपोर्टें पढ़कर इन लोगों ने ये राय बना ली है।
पंकज चतुर्वेदी ने इन्हीं सब पर विस्तार से लिखा है। आतंकवाद फैलाने के लिए जो लोग मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं और यह कहते फिरते हैं कि ‘सभी मुसलमान भले आतंकवादी ना हों, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’ उनके लिए लेखक ने नक्सलवादियों और ‘अभिनव भारत’ की कारगुजारियों का खाका भी खींचा है। हालांकि उन्होंने साफ किया है कि ‘‘नक्सली, उत्तर-पूर्वी राज्यों या ‘अभिनव भारत’ के कुकर्मों को सामने रखने का मंतव्य यह कतई नहीं है कि कश्मीर, लश्कर या हिजबुल को मासूम सिद्ध किया जाए। गौर करने वाली बात यह है कि जब बंदूक बारूद का मिजाज एक-सा है, और उससे बहे खून का रंग एक है तो कानून व राष्ट्रवाद की परिभाषाएं अलग-अलग क्यों हैं?’’

लेखक का यह सवाल जायज भी है। क्या मजहब अलग-अलग होने से हिन्दू और मुसलमान के जुर्म की सजा अलग-अलग हो सकती है? नहीं। लेकिन यहां सजा की बात ही नहीं है। हमारे समाज में ‘हिन्दू’ अगर कहीं आतंक फैलाता है, बम फोड़ता है तो यह आतंकवादियों को करारा जवाब है, जिसे शिवसेना जैसे कुछ क्षेत्रीय दल प्रश्रय भी देते हैं, लेकिन हकीकत में हुई आतंकवादी घटनाओं के लिए भी निर्दोष मुसलमानों को निशाना बना लिया जाता है। क्योंकि वे सॉफ्ट टारगेट होते हैं। तर्क वही, जो पहले लिखा गया है।

पंकज लिखते हैं कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर पूरे देश में चौकसी बढ़ जाती है, पुलिसवाले कई (मुसलमान) आतंकवादी पकड़ते हैं, कुछ एनकाउंटर में मारे जाते हैं, कुछ भाग जाते हैं। काफी असलाह बरामद होता है, लेकिन ये कहीं जमा नहीं होता। पकड़े गये लोग जेलों में सड़ते रहते हैं और असलहे कबाड़ में। इनका कोई रिकॉर्ड नहीं है। ये काम पुलिस अपनी कमियों को ढंकने के लिए करती है, मामले बरसों चलते रहते हैं। दसियों साल तक सुनवाई नहीं होती, लेकिन सभी चुप हैं। बोलते हैं तो सिर्फ वे जो खुद को ‘देशभक्त’ कहते हैं।

लेखक ने इस किताब के जरिए बेहतरीन आंकड़े उपलब्ध कराए हैं। जिनमें हिन्दू और मुसलमानों के बीच तुलना की गई है। चाहे आबादी की बात हो या शिक्षा की, राजनीति की हो या सरकारी नौकरियों की। बात-बात में मुसलमानों में बहु शादी प्रथा पर निशाना साधने वाले कहते हैं कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं और जल्द ही देश के बहुसंख्यकों को पीछे छोड़ देंगे। लेकिन समाजविज्ञानी कहते हैं कि अगर मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि की यही रफ्तार रही तो भी उन्हें ‘हिन्दुओं’ के बराबर पहुंचने में 3,626 साल लगेंगे। फिर इस तरह का प्रचार क्यों किया जा रहा है ? जिन हिन्दुओं को बहुसंख्यक होने के नाते अल्पसंख्यकों से बड़े भाई सरीखा बर्ताव करना चाहिए, वे ही उन्हें परेशान करने में क्यों जुटे हैं ? जबकि उनके वोट पाने के लिए बड़े से बड़ा हिन्दूवादी नेता भी धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनने से नहीं हिचकिचाता। पाकिस्तान जाकर जिन्ना को सेकुलर बता आता है।

लेखक ने राज्यवार आंकड़े इकट्ठे किये हैं- जिनसे साफ पता चलता है कि सरकारी नौकरियों में मुसलमान कम हैं, राजनीति में भी कम है। साक्षरता के मामले में भी वे औसत ही हैं, लेकिन उम्र बढ़ने के हिसाब से अनुपात घटता जाता है और स्नातक स्तर तक पहुंचते-पहुंचते ये आंकड़ा 3 से 3.5 फीसदी के बीच रह जाता है। जबकि जेल में बंद मुस्लिम कैदियों की संख्या आनुपातिक रूप से ज्यादा है।

इस किताब को चार अध्यायों में बांटा गया है।
1.सबसे बड़ा इल्जामः बेवफाई।
2. पर्सनल लॉ।
3. ऐसी तुष्टि से तो असंतुष्टि भली। और
4. परिशिष्ट।
तीसरे अध्याय में सच्चर कमिटी की रिपोर्ट की खास बातों को संक्षेप में दिया गया है जबकि परिशिष्ट में पंडित जवाहर लाल नेहरू के एक लेख का अंश और मुंशी प्रेमचंद का भाषण शामिल किया गया है।

‘क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?’ की भूमिका प्रो. विपिन चंद्रा ने लिखी है। वे लिखते हैं ‘‘यह पुस्तक देश के मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और बौद्धिक हालत का लेखा-जोखा तो प्रस्तुत करती ही है, एक ऐसी साम्प्रदायिक सोच को बेनकाब भी करती है जो कि समूचे मुसलमानों को संदिग्धता के सवालों में घेरने का प्रयास होता है। भारत का समग्र विकास तभी सम्भव है जब यहां का प्रत्येक बाशिंदा समान रूप से तरक्की करे। ऐसे में मुल्क की उस 14 फीसदी आबादी के सामाजिक-आर्थिक तरक्की को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है जो हुनरमंद है, तरक्कीपसंद है और मुल्कपरस्त है। मुसलमान या इस्लाम ना तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विपरीत हैं और ना ही उन्हें कोई विशेष लाभ या तुष्टिकरण किया जा रहा है। ऐसे ही कई तथ्यों का आंकड़ों के आधार पर किया गया आकलन साम्प्रदायिक सोच से जूझने का एक सार्थक प्रयास है।’’

किताब का नामः क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?
लेखकः पंकज चतुर्वेदी
मूल्यः रूपये 175
प्रकाशकः शिल्पायन,10295, लेन नं.1
वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा, दिल्ली 110032

~राजन अग्रवाल 

Sunday, November 03, 2013

गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस ने बांटी थी मिठाई - सरदार पटेल


29 अक्टूबर को अहमदाबाद में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कहा कि अगर सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश का इतिहास कुछ और होता। उसी मंच पर मौजूद मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फौरन याद दिला दिया कि पटेल एक प्रतिबद्ध कांग्रेसी थे। सेक्युलर नेता थे। ये उस राजनीतिक युद्ध की बानगी है जो पटेल के नाम पर छिड़ा है। मोदी, दरअसल, आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के उसी प्रचार को आगे बढ़ा रहे हैं जिसमें बार-बार कहा जाता है कि सरदार पटेल, नेहरू से बेहतर नेता थे। यही नहीं पटेल को हिंदुत्व के दर्शन के करीब बताने की कोशिश भी होती है। आम चुनाव 2014 की आहट बढ़ने के साथ ये कोशिश तेज होती जा रही है।
नरेंद्र मोदी ने गुजरात में पटेल की ऐसी प्रतिमा स्थापित करने का एलान किया है जो दुनिया में सबसे ऊंची होगी। अमेरिका की स्टैच्यू आफ लिबर्टी से भी ऊंची ये 182 मीटर की प्रतिमा गुजरात के नर्मदा जिले के सरदार सरोवर बांध के करीब स्थापित की जाएगी। 31 अक्टूबर को पटेल जयंती पर परियोजना का शिलान्यास हो भी चुका है। बीजेपी की ओर से इसका धुआंधार प्रचार जारी है। ऐसे मे ये जनना दिलचस्प है कि पटेल का बीजेपी की मूल प्रेरणा आरएसएस के प्रति क्या नजरिया था।
30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला हाउस में शाम की प्रार्थना सभा को संबोधित करने जा रहे महात्मा गांधी की छाती पर तीन गोलियां उतारी गईं। दुनिया भौंचक्की रह गई। खुद को सनातनी हिंदू कहने वाले गांधी पर गोली किसी और ने नहीं, हिंदुत्व का दर्शन देने वाले विनायक दामोदर सावरकर के शिष्य और महासभा के कार्यकर्ता नाथूराम गोडसे ने चलाई थी। गोडसे कभी आरएसएस का सक्रिय सदस्य था। गांधी की हत्या एक ऐसे हिंदू की हत्या थी जिसने सत्य को ही ईश्वर माना। जिसका धर्म मनुष्य और मनुष्य में भेद नहीं करता था। वे ईश्वर के साथ अल्लाह का नाम भी लेते थे। दोनों को एक समझते थे। लेकिन हिंदू गांधी के हत्यारों का आदर्श हिंदुत्व था। जिसके हिसाब से भारत के प्रति उनकी निष्ठा ही सच्ची हो सकती है जिनकी पितृभूमि और पवित्र भूमि, दोनों भारत में हों। इस परिभाषा से अल्पसंख्यक कभी देशभक्त नहीं हो सकते।
गांधी की हत्या ने दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया था जिसकी जिम्मेदारी गृह मंत्री के नाते सरदार पटेल के पास थी। तमाम तथ्यों को देखते हुए उन्होंने माना कि गांधी की हत्या में आरएसएस का भी हाथ है। और 4 फरवरी 1948 को पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया।
आरएसएस ने बेगुनाह बताते हुए इस पर आपत्ति जताई तो 11 सितंबर 1948 को पटेल ने आरएसएस के सरसंघचालक एम.एस.गोलवलकर को पत्र लिखा। उन्होंने लिखा- हिंदुओं को संगठित करना और उनकी सहायता करना एक बात है, लेकिन अपनी तकलीफों के लिए बेसहारा और मासूम पुरुषों, औरतों और बच्चों से बदला लेना बिल्कुल दूसरी बात.... इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे, हिंदुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए आवश्यक न था कि जहर फैले। इस जहर का फल अंत में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी। सरकार व जनता की रत्तीभर सहानुभूति आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके खिलाफ ही गई। गांधी जी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया और मिठाई बांटी, उससे यह विरोध और भी बढ़ गया। इन हालात में सरकार को आरएसएस के खिलाफ कदम उठाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था।
आरएसएस और बीजेपी के लोगों का दावा है कि पटेल ने प्रतिबंध नेहरू के दबाव में लगाया था। लेकिन पटेल ने इस पत्र में लिखा कि गांधी जी की हत्या के बाद संघ वालों ने मिठाई बांटी। प्रतिबंध के अलावा कोई चारा नहीं था। जाहिर है, सरदार पटेल नेहरू की जुबान नहीं बोल रहे थे, अपना मन खोल रहे थे। बतौर गृह मंत्री उन्हें देशभर से खुफिया जानकारियां मिलती थीं।
यही नहीं सरदार पटेल ने 18 जुलाई 1948 को हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी एक पत्र लिखकर बताया कि प्रतिबंध के बावजूद आरएसएस बाज नहीं आ रहा है। उन्होंने लिखा-हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका। मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अतिवादी भाग षड्यंत्र में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां, सरकार और राज्य-व्यवस्था के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा थीं। हमें मिली रिपोर्टं बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं। दरअसल, समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली अधिक उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है।
दरअसल, संघ परिवार की ओर से पेश की गई हिंदूराष्ट्र की अवधारणा सरदार पटेल को कभी रास नहीं आई। वे भारत को हिंदू पाकिस्तान बनाने के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने साफ कहा था कि, \'भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। इस देश में मुसलमानों के भी उतने ही अधिकार हैं जितने की एक हिन्दू के हैं। हम अपनी सारी नीतियां और आचरण वैसा नहीं कर सकते जैसा पाकिस्तान कर रहा है। अगर हम मुसलमानों को यह यकीन नहीं दिला पाये की यह देश उनका भी है तो हमें इस देश की सांस्कृतिक विरासत और भारत पर गर्व करने का कोई अधिकार नहीं'
1925 में गठित आरएसएस का गांधी की हत्या तक न कोई संविधान था और न सदस्यता रसीद। पटेल ने मजबूर किया कि वो संविधान बनाये और खुद को सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक सीमित रखे। 11 जुलाई 1949 प्रतिबंध हटाने का एलान करने वाली भारत सरकार की विज्ञप्ति में कहा गया है-आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में, भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट कर दिया जाएगा। यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि हिंसा करने या हिंसा में विश्वास करने वाला या गुप्त तरीकों से काम करनेवाले लोगों को संघ में नहीं रखा जाएगा। आरएसएस के नेता ने यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान जनवादी तरीके से तैयार किया जाएगा। विशेष रूप से, सरसंघ चालक को व्यवहारत: चुना जाएगा। संघ का कोई सदस्य बिना प्रतिज्ञा तोड़े किसी भी समय संघ छोड़ सकेगा और नाबालिग अपने मां-बाप की आज्ञा से ही संघ में प्रवेश पा सकेंगे। अभिभावक अपने बच्चों को संघ-अधिकारियों के पास लिखित प्रार्थना करने पर संघ से हटा सकेंगे।..इस स्पष्टीकरण को देखते हुए भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि आरएसएस को मौका दिया जाना चाहिए।'
इस विज्ञप्ति से साफ है कि संघ पर किस तरह के आरोप थे और भारत सरकार को उसके बारे में कैसी-कैसी सूचनाएं थीं। लेकिन प्रतिबंध हटाना शायद लोकतंत्र का तकाजा था और इसके सबसे बड़े पैरोकार तो प्रधानमंत्री नेहरू ही थे। पटेल को नेहरू के बरक्स खड़ा करने की कोशिशों के बीच ये पड़ताल भी जरूरी है कि दोनों नेता एक दूसरे के प्रति क्या राय रखते थे। भारत की आजादी का दिन करीब आ रहा था। मंत्रिमंडल के स्वरूप पर चर्चा हो रही थी। 1 अगस्त 1947 को नेहरू ने पटेल को लिखा-
कुछ हद तक औपचारिकताएं निभाना जरूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूं। इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं।'
जवाब में पटेल ने 3 अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा- आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी औऱ निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है। हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है। आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं।
पटेल की ये भावनाएं सिर्फ औपचारिकता नहीं थी। अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले उन्होंने नेहरू को लेकर जो कहा वो किसी वसीयत की तरह है। 2 अक्टूबर 1950 को इंदौर में एक महिला केंद्र का उद्घाटन करने गये पटेल ने अपने भाषण में कहा-अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं। बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी। अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं एक गैरवफादार सिपाही नहीं हूं।
साफ है, पटेल को नेहरू की जगह पहला प्रधानमंत्री न बनने पर नरेंद्र मोदी जैसा अफसोस जता रहे हैं, वैसा अफसोस पटेल को नहीं था। वे आरएसएस नहीं, गांधी के सपनों का भारत बनाना चाहते थे। पटेल को लेकर नरेंद्र मोदी के अफसोस के पीछे एक ऐसी राजनीति है जिसे कम से कम पटेल का समर्थन नहीं था।
बहरहाल, पटेल की विरासत पर बीजेपी के दावे के साथ कुछ ऐसे सवाल भी खड़े हो जाते हैं जिसका जवाब संघ परिवार नहीं देना चाहता। संघ परिवार कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म करने की मांग लगातार करता है। लेकिन सरदार पटेल ने 15 अगस्त 1947 को ऐसे भारत के नक्शे को स्वीकार किया था जिसमें कश्मीर था ही नहीं। जब विवाद बढ़ा तो पटेल ने शुरुआत में 'कश्मीर के झंझट से दूर रहने की ही नसीहत दी थी।' यही नहीं, वे संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को दी गई विशेष रियायतों के न सिर्फ समर्थक थे, बल्कि शर्तें तय करने में उनकी अहम भूमिका थी।
तो फिर संघ के पटेल प्रेम की वजह क्या है। जानकार मानते हैं कि संघ खुद को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी बताता है, लेकिन हकीकत ये है कि स्वतंत्रता संग्राम में उसने भाग नहीं लिया। ऐसे में उसके पास ऐसे नायक नहीं जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद से टकारते हुए पूरे भारत में सम्मानित हुए हों। जिनके जरिये राष्ट्रीय भावना जगाई जा सके। अब इस कमी को पटेल के जरिये पूरा करने की कोशिश की जा रही है।
कांग्रेस कार्यसमिति ने जून 1934 में प्रस्ताव पारित किया था कि कांग्रेस सदस्य, हिंदू महासभा,मुस्लिम लीग और आरएसएस से कोई संबंध नहीं रखेंगे। पटेल ने ये शपथ जीवन भर निभाई। लेकिन उनकी मौत के 63 साल बाद अगर आरएसएस ही उनसे संबंध जोड़ने मे जुटा है तो पटेल इसे रोकने के लिए क्या कर सकते हैं। वैसे भी, किसी महापुरुष को उसके विचारों से दूर करके सिर्फ मूर्ति में तब्दील करना, हिंदुस्तान की पुरानी रवायत है। यही वजह है कि सबसे ज्यादा मूर्तियां गौतम बुद्ध की मिलती हैं जो मूर्तिपूजा के सख्त खिलाफ थे। कुछ ऐसा ही हाल गांधी का भी हुआ है। चौराहे-चौराहे गांधी जी की प्रतिमाएं हैं, लेकिन उनकी राह चलने वाले ढूंढे नहीं मिलते। और अब यही सलूक सरदार पटेल के साथ हो रहा है। जो सरदार की प्रतिमा की ऊंचाई नाप रहे हैं, वे उनके विचारों की गहराई में भी उतरेंगे, ऐसी कोई उम्मीद नहीं है।

-पंकज श्रीवास्तव 

Saturday, November 02, 2013

अल्पसंख्यक मंत्रालय को बंद कर देना चाहिए


vxvcvsकिसी देश की नीतियों को वहां की सरकार और उसके मंत्रालय ही लागू करते हैं. भारत में भी ऐसा ही होता है, लेकिन अगर कोई मंत्रालय सशक्त न हो और काम भी न करे, तो क्या करना चाहिए? इसका सीधा जवाब तो यही है कि ऐसे मंत्रालय को बंद कर देना चाहिए. कुछ ऐसा ही हाल है भारत के अल्पसंख्यक मंत्रालय का, जिसके ऊपर शुरू से ही इस प्रकार के आरोप लगते रहे हैं कि इसने सरकार की अधिकतर नीतियों को लागू नहीं किया है.  अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रहमान ख़ान यूपीए सरकार के सबसे बेबस मंत्री के रूप में उभरकर सामने आए हैं. उन्होंने भारत के अल्पसंख्यकों के कल्याण को लेकर झूठ बोलने के अलावा अब तक कोई काम नहीं किया है. यही कारण है कि अब आम जनों और विद्बानों की ओर से ऐसा कहा जा रहा है कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को बंद कर दिया जाना चाहिए.
मौजूदा दौर में दुनिया भर में धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों को विशेष संरक्षण प्राप्त है. संयुक्त राष्ट्र भी अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मुहैया कराने पर ज़ोर देता है. विभिन्न देशों के संविधानों में भी इसका ध्यान रखा गया है. जहां तक हमारे देश का सवाल है, कांग्रेस ने लंबे समय तक सत्ता में रहने के बावजूद  संविधान में अल्पसंख्यकों के तमाम अधिकार और सुरक्षा के उल्लेख के बावजूद कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. मार्च 1977 में मोरारजी देसाई की अगुवाई में बनी जनता पार्टी की सरकार को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने अल्पसंख्यक मामलों के राष्ट्रीय आयोग के गठन की घोषणा की. इसके बाद पी वी नरसिम्हा रॉव की अगुवाई में 30 सितंबर, 1994 को कांग्रेस की अल्पसंख्यक सरकार ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास व आर्थिक कॉर्पोरेशन का गठन किया. फिर 2004 के आम चुनावों में सफलता के बाद कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाया और एक साल बाद मुसलमानों की स्थिति जानने के लिए सच्चर कमेटी का गठन किया और 29 जनवरी, 2006 को विशेष रूप से अल्पसंख्यक मंत्रालय की घोषणा की.
विश्‍लेषण से पता चलता है कि कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए कभी भी अल्पसंख्यकों के लिए कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया और 1977 में अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग के बाद इसे केवल राजनीतिक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया. इसका उदाहरण अल्पसंख्यक मामलों के राष्ट्रीय आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम, अल्पसंख्यक मंत्रालय और सच्चर कमेटी के क्रियान्वयन में मिलता है. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से काट कर बनाए गए अल्पसंख्यक मंत्रालय ने अब तक बजट आबंटित करने और स्कॉलरशिप बांटने के अलावा कोई नया काम नहीं किया है. यह काम तो सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय भी कर सकता था, फिर अल्पसंख्यक मंत्रालय का क्या औचित्य है?  अल्पसंख्यक मंत्रालय को भले ही केन्द्रीय मंत्रालय का दर्जा प्राप्त है, लेकिन वह अपने अधिकतर कार्यक्रमों को लागू करने के लिए या तो राज्य सरकारों पर निर्भर है या फिर स्वयंसेवी  संगठनों पर. उसके पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है, जिससे यह मालूम हो सके कि उसने अल्पसंख्यक कल्याण से संबंधित जिन विकास कार्यों को लागू करने के लिए केन्द्र सरकार की ओर से बजट पास करवाए हैं, उन पर उचित ढंग से क्रियान्वयन हो भी रहा है या नहीं. 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में अल्पसंख्यकों की कुल आबादी लगभग 18.4 प्रतिशत है, जिनमें से मुसलमानों की आबादी 13.4 प्रतिशत, ईसाइयों की 2.3 प्रतिशत, सिक्खों की 1.9 प्रतिशत, बौद्धों की 0.8 प्रतिशत और पारसियों की आबादी 0.007 प्रतिशत है. कांग्रेस अल्पसंख्यकों के नाम पर अगर केवल मुसलमानों का ही नाम लेती है, तो इसका एकमात्र उद्देश्य चुनावों में मुस्लिम वोट हथियाना है. आंकड़ों से पता चलता है कि लोकसभा की 35 ऐसी सीटें हैं, जहां पर मुसलमानों की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है, जबकि 38 सीटों पर मुसलमानों की आबादी 21 से 30 प्रतिशत के बीच है और 145 सीटों पर मुसलमानों की आबादी 11 से 20 प्रतिशत के बीच है. जब भी आम चुनाव नज़दीक आते हैं, कांग्रेस मुसलमानों का वोट हथियाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लगती है. 
लोकसभा चुनाव नजदीक देख कांग्रेस ने फिर से मुसलमानों से झूठ बोलना शुरू कर दिया है.  केन्द्रीय मंत्री के रहमान कह रहे हैं कि उनके मंत्रालय ने सच्चर कमेटी की 76 अनुशंसाओं में से 73 को लागू कर दिया है. चौथी दुनिया ने जब प़डताल की तो पता  चला कि आरंभिक 22 अनुशंसाओं में 12 अनुशंसाओं को यूपीए सरकार ने अभी तक लागू नहीं किया है. यूपीए सरकार के मंत्री लगातार झूठ बोल रहे हैं. सरकार ने अपनी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) में अल्पसंख्यक मंत्रालय को 7 हज़ार करोड़ रुपये आबंटित किए थे, मंत्रालय का दावा है कि उसने उन रुपयों में से 6,824 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिए हैं, जबकि सच्चाई यह है कि मंत्रालय ने राज्यों को जो राशि आबंटित की थी, उनमें से अधिकतर राशि ख़र्च ही नहीं की गई. हाल ही में जारी सोशल डेवलपमेंट रिपोर्ट 2012 के अनुसार, 2007-12 के दौरान राज्य सरकारों ने अल्पसंख्यकों से संबंधित केन्द्र की ओर से जारी की गई राशि में से आधी राशि भी ख़र्च नहीं की. 12 राज्यों ने अल्पसंख्यकों से संबंधित 50 प्रतिशत से भी कम ख़र्च किया, जिनमें बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और असम जैसे राज्य सूची में ऊपर हैं. कुछ राज्य ऐसे भी हैं, जहां पर इसमें से केवल 20 प्रतिशत राशि ही ख़र्च की गई. सच्चाई यह है कि अल्पसंख्यक मंत्रालय ने वर्ष 2008-09 में केन्द्र सरकार को 33.63 करोड़, 2009-10 में 31.50 करोड़ और 2010-11 में 587 करोड़ रुपये इसलिए वापस लौटा दिए, क्योंकि उन पैसों को ख़र्च ही नहीं किया जा सका. अल्पसंख्यक मंत्रालय की असमर्थता को देखते हुए सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की संसदीय स्टैंडिंग कमेटी ने कड़ी आपत्ति जताई थी. अल्पसंख्यकों की बहुलता वाले 90 ज़िलों में बहु क्षेत्रीय विकास के तहत विभिन्न योजनाओं पर ख़र्च करने के लिए केन्द्र की ओर से इस मंत्रालय को जो 462.26 करोड़ रुपये दिए गए थे, वह भी उसने केन्द्र को लौटा दिए गए. इस प्रकार पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप की 24 करोड़ रुपये की राशि, मैट्रिक स्कॉलरशिप की 33 करोड़, मैरिट कोमेंस स्कॉलरशिप की 26 करोड़ और वक़्फ़ बोर्ड के कंप्यूटरीकरण की 9.3 करोड़ रुपये की राशि को अल्पसंख्यक मंत्रालय ख़र्च करने में असफल रहा और नतीजतन इस पूरी राशि को इसे केन्द्र को वापस करना पड़ा. ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यकों, विशेषत: मुसलमानों के विकास के बारे में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के सभी दावे खोखले ही साबित हो रहे हैं. सच्चर कमेटी ने सबसे अधिक ज़ोर मुसलमानों की शिक्षा व पिछड़ेपन को दूर करने पर दिया था, लेकिन 7 वर्ष बाद भी मुस्लिम समाज की शिक्षा के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं. सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए अलग से किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था भी अब तक नहीं की जा सकी है.

अल्पसंख्यक मंत्रालय का ढांचा
यूपीए सरकार ने भारत के अल्पसंख्यकों के कल्याण से संबंधित कल्याणकारी कार्यक्रमों को उचित ढंग से क्रियान्वित करने के लिए 29 जनवरी, 2006 को एक नया मंत्रालय बनाया और उसका नाम रखा अल्पसंख्यक मंत्रालय. इसे सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से अलग करके एक नया मंत्रालय बनाया गया. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुर्रहमान अंतुले को इसका पहला मंत्री बनाया गया, जो 2009 तक इस पद पर रहे. इसके बाद सलमान ख़ुर्शीद को अल्पसंख्यक मंत्री बनाया गया, जो 2012 तक इस पद पर रहे. वर्तमान मंत्री के रहमान ख़ान हैं, जिन्होंने 28 अक्टूबर, 2012 को अल्पसंख्यक मंत्री का पद संभाला था. वर्तमान में नैनोंग एरंग इसके राज्यमंत्री हैं. अल्पसंख्यक मंत्रालय के कुल पदाधिकारियों की वर्तमान संख्या 93 है, जिनमें एक सचिव, तीन संयुक्त सचिव और व आर्थिक सलाहकार (अतिरिक्त प्रभार) शामिल हैं. आश्‍चर्य की बात यह है कि 2006 में जिस समय यह मंत्रालय बनाया गया था और अब्दुरर्रहमान अंतुले को जब इसका मंत्री बनाया गया था, इस समय इसके लिए अलग से न तो कोई भवन था और न ही कोई स्थायी कार्यालय, बल्कि एआर अंतुले जंतर मंतर रोड पर स्थित अपने सरकारी आवास से इसे चलाते थे, लेकिन आज, जब इस मंत्रालय के पास अपना कार्यालय भी है और इसके स्टाफ में कुल 93 सरकारी अधिकारी भी मौजूद हैं, फिर भी रहमान ख़ान अपने मंत्रालय को ठीक ढंग से नहीं चला पा रहे हैं.

-डॉ. कमर तबरेज