Friday, September 30, 2011

कार्टूनिस्‍ट को जेल भिजवा कर और ज्‍यादा नंगे हुए मोदी!



सांप्रदायिक शख्‍सीयत के रूप में कुख्‍यात गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के इस वक्‍तव्‍य को अभी दस दिन भी नहीं हुए थे कि इसके ठीक उलट उनकी इस कथित खुली सोच और उनके मजबूत लोकतंत्र की डींग का असली चेहरा हमारे सामने है। ये नरेंद्र मोदी की आलोचना का ही असर है कि प्रभात किरण, इंदौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक का मुस्सविर नाम से कार्टून बनानेवाला पत्रकार हरीश यादव गहरे सदमे में है। वो बुरी तरह डिप्रेशन का शिकार है और उसे घंटों हो गये, नींद नहीं आ रही है। अलग-अलग जगहों और लोगों की तरफ से धमकियां मिल रही हैं और बुरी तरह घबराया हुआ है। इस बात की आशंका है कि उसके साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है।

नरेंद्र मोदी की निगाह में उसका गुनाह है कि जिन मुसलमानों के बीच उन्होंने भरोसा पैदा करने की कोशिश की और अपने प्रति ये विश्वास जतलाने का प्रयास किया कि वो उनके विकास के लिए बराबर रूप से चिंतिंत रहते हैं, मुस्सिवर ने उन्हीं मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुंचाने का काम किया है। उसने ऐसे कार्टून बनाये, जिससे इस्लाम पर यकीन रखनेवाले लोगों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुई हैं। ऊपरी तौर पर मुख्यधारा मीडिया को ये बात प्रभावित कर सकती है कि नरेंद्र मोदी को मुसलमानों और उनकी भावनाओं की कितनी गहरी चिंता है और अगर वो किसी कार्टूनिस्ट को भावनाएं भड़काने या आहत करने के अपराध में सजा देते हैं, तो इसमें गलत क्या है? लेकिन क्या नरेंद्र मोदी सचमुच इतने संवेदनशील और उनके प्रति सजग हैं, जिनके मुख्यमंत्रित्‍व काल में सरेआम कत्ल किये गये और इस सद्भावना मिशन में ताल ठोंक कर दावा किया कि अगर नरेंद्र मोदी गलत है, उसने कुछ करवाया तो फिर उसके खिलाफ इस देश में एक भी एफआईआर क्यों नहीं दर्ज कराया गया? मुख्यधारा मीडिया ने छिटपुट तरीके से ही सही, इस पूरे मामले में जो कुछ भी प्रकाशित किया (न्यूज चैनल लगभग चुप ही हैं), उसके आधार पर अंदाजा लग जाता है कि नरेंद्र मोदी के लिए आलोचना का मतलब क्या है और भावनाओं को आहत करने का अर्थ क्या है?


हमने इस पूरे मामले में प्रभात किरण अखबार जिसने कि 20 सितंबर को मुस्सविर का कार्यून प्रकाशित किया, उसके संपादक प्रकाश पुरोहित से टेलीफोन के जरिये बातचीत की। प्रकाश पुरोहित ने इस संबंध में जो तर्क दिया, वो मुख्यधारा मीडिया में या तो टुकड़ों-टुकड़ों में आया है या फिर कई ऐसी बातें हैं, जिसका कि जिक्र ही नहीं है। कार्टून के संबंध में उन्होंने स्पष्ट किया कि ये किसी भी तरह से मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचानेवाला नहीं है बल्कि इसे पाठकों ने बहुत सराहा है और इस बात की कोई शिकायत नहीं आयी। हमने ऐसा करके दरअसल एक सामान्य मुसलमान की उस भावना को लोगों के सामने रखने की कोशिश की, जिसे कि स्वयं नरेंद्र मोदी ने दरकिनार कर दिया। दरअसल हुआ ये था कि सद्भभावना अनशन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्से से आये लोग अपने यहां के प्रतीक चिन्ह के तौर पर वस्तुएं मोदी को भेंट कर रहे थे। मोदी उन चीजों को स्वीकार कर रहे थे और ये चीजें मामूली होती हुई भी उस इलाके की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। इसी दौरान एक सामान्य मुसलमान जो कि पिछले दो दिनों से इंतजार कर रहा था कि वो भी नरेंद्र मोदी को कुछ दे और उसने नरेंद्र मोदी को टोपी दे दी और पहनने का आग्रह किया। ये बहुत ही संवेदनशील और भावुक क्षण था और अगर वो उसे पहनते, तो संभव था कि मुसलमानों के बीच बहुत ही अलग किस्म का सकारात्मक संदेश जाता लेकिन नरेंद्र मोदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और उससे मुसलमान की भावना को चोट पहुंची।

प्रकाश पुरोहित जो बात बता रहे थे, उसे एनडीटीवी ने भी दिखाया। ये बिल्कुल सीधा सवाल है कि अगर आप मुसलमानों को बराबर का सम्मान देते हैं, तो दूसरे पंथों और क्षेत्रों के लोगों की दी हुई प्रतीकात्मक चीजों को जिस तरह से आपने ग्रहण किया, उसी तरह एक सामान्य मुसलमान की दी हुई टोपी क्यों नहीं? प्रकाश पुरोहित ने आगे जोड़ा कि इस घटना से हमें नरेंद्र मोदी को लेकर दिक्कत हुई और लगा कि इसे किसी न किसी रूप में लोगों के सामने लाया जाना चाहिए। लिहाजा मुस्सिवर ने कार्टून बनाया, जिसे कि हमने अपने अखबार के पहले पन्ने पर 20 सितंबर को छापा।

जिस चांद-सितारे को कार्टून में दिखाया गया है, उसकी व्याख्या इस्लाम धर्म के जानकार बेहतर कर सकते हैं? क्या इस धर्म में चांद-सितारे की उसी अर्थ में व्याख्या है, जिस अर्थ में मुस्सविर पर धार्मिक भावनाएं भड़काये जाने के लिए सजा दी गयी? ये सिर्फ और सिर्फ उस एक सामान्य मुसलमान की भावनाओं की अभिव्यक्ति है, जो कि नरेंद्र मोदी को टोपी भेंट में देना चाहता था।

कार्टून छपने के बाद मुस्सविर को घर जाकर पुलिस ने उठा लिया और रातभर थाने में रखा। उसे तरह-तरह से परेशान किया जाने लगा। हमें यह तक नहीं बताया गया कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं और जब उस पर धाराएं लगायी जा रही थीं तो हमसे कुछ पूछा तक नहीं गया। मल्हारगंज थाने में उसके खिलाफ आईपीसी के सेक्शन – 295 ए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। ये वो धारा है, जिसे कि समाज के किसी तबके की धार्मिक भावना को भड़काने के संदर्भ में लगाया जाता है। उसके साथ बहुत ही बुरा सलूक किया गया। अभी भाजपा समर्थक लोग मुस्सिवर को अलग-अलग तरीके से परेशान कर रहे हैं जबकि वह इस घटना से इतनी बुरी तरह आहत और घबराया है कि कुछ वक्त के लिए सोना चाहता है।

मेरे ये पूछे जाने पर कि क्या आपने इस पूरे पक्ष को प्रभात किरण अखबार में विस्तार से प्रकाशित किया, और मुस्सिवर के साथ संपर्क में हैं, इस संबंध में उनका जवाब था – हम अपने अखबार की उपलब्धि और परेशानी को नहीं प्रकाशित करते हैं। लेकिन हां आज का जो अखबार आ रहा है, उसमें हमने दूसरे तमाम अखबारों और पत्रिकाओं ने इस संबंध में क्या छापा है, उसे शामिल कर रहे हैं। प्रभात किरण में ही मेरा एक कॉलम है जो कि शनिवार को आता है – बस यूं ही, उसमें मैं इस घटना की विस्तार से चर्चा करने जा रहा हूं। मुस्सविर कहां है, पता ही नहीं चल रहा लेकिन हां फोन पर बात हो रही है और बताया कि लोग उसे बुरी तरह परेशान कर रहे हैं, वो चाहता है कि कुछ समय के लिए सुकून मिल जाए।

मुस्सविर के साथ इतना कुछ हो गया लेकिन उसके बाद भी प्रभात किरण ने सख्ती से इस खबर को प्रकाशित नहीं किया। ये दरअसल उसी मेनस्ट्रीम मीडिया का चरित्र है, जहां कोई पत्रकार रिस्क लेकर खबरें लाता है, प्रकाशित करता है लेकिन जैसे ही उस पर मुसीबत आती है, वो पत्रकार होने के बजाय एक व्यक्ति हो जाता है। पत्रकारों पर जो भी राजनीतिक हमले होते हैं और आये दिन सांप्रदायिक ताकतों का निशाना बनते हैं, उसकी एक बड़ी वजह यही है कि जिस मीडिया के लिए वो काम करते हैं, वही मीडिया उनका साथ छोड़ देता है और उपद्रवियों और उनकी आवाज कुचलनेवाली ताकतों का मनोबल बढ़ जाता है। लेकिन अभी हाल ही में तुर्की में Bahadir Baruter ने जो कार्टून बनाया और उनके खिलाफ धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने के अपराध में कार्रवाई की गयी, उस कार्टून को कई प्रमुख मीडिया संस्थानों ने प्रकाशित किया। लेकिन यही काम अगर यहां किया जाए, जिस कार्टून को लेकर किसी को सजा होती है और उस पर बात करने की नीयत से उसे दोबारा से प्रकाशित किया जाता है, तो उस पर भी कार्रवाई होगी। डेनमार्क में छपे कार्टून को आलोक तोमर (जो कि अब हमारे बीच नहीं रहे) ने जब प्रकाशित किया तो उन्हें जेल जाना पड़ा। क्या ये दोहरे स्तर की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं है? क्या मीडिया में ये और कार्टून सार्वजनिक नहीं की जानी चाहिए कि जिस कार्टून को लेकर सजा दी गयी है, वो आखिर लोगों तक पहुंचे भी तो। उस पर रोक लगाने से लोकतंत्र की कौन सी जड़ें मजबूत होगी?

प्रकाश पुरोहित ने एक जो दूसरी बात कही, उस पर ध्यान देना जरूरी है। मुस्सिवर पर जो कानूनी कार्रवाई की गयी, वो दरअसल शिवराज सिंह चौहान के आदेश पर की गयी, जिस समय वो चीन के दौरे पर थे। नरेंद्र मोदी ने यहां तक कहा कि आप इंदौर में मामला दर्ज करवाएं नहीं तो फिर अहमदाबाद में करवाया जाएगा। शिवराज सिंह की सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निकलनेवाली दर्जनों पत्रिकाओं को विज्ञापन देती आयी है और शायद उनकी ऐसा करने की इच्छा नहीं रही हो लेकिन मोदी के कहने पर ऐसा किया और रातोंरात कार्रवाई की गयी। ये दरअसल एक ही पार्टी के होने की वजह से भी किया गया। पुरोहित का मानना है कि जिस कार्टून को लेकर इतना विवाद हुआ, अगर दिल्ली या किसी बड़े शहर से प्रकाशित होता तो कुछ नहीं होता। छोटे शहरों से निकलनेवाले अखबारों की बातों पर मैनिपुलेशन का काम ज्यादा होता है। सच बात तो ये है कि सद्भावना मिशन में जो भी मुसलमान मौजूद थे, वो या तो भाजपाई ताकतों के डर से थे या फिर मोदी समर्थकों के कहने पर बुलाये गये थे। स्वाभाविक तौर पर जो मुसलमान आये भी हों, तो इस घटना से रही-सही शंका भी अपने आप दूर हो जाती है।

पहले फेसबुक पर बिहार सरकार से असहमति जताने पर मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण का निलंबन और अब इंदौर में कार्टून बनाने पर मुस्सविर के साथ लगातार जबरदस्ती और परेशान किये जाने की घटना किस लोकतंत्र को मजबूत करेगी, ये हमसे बेहतर नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी करेंगे या फिर मुख्यधारा का मीडिया जो लगातार इन दोनों की बहुत ही सेकुलर, लोकतांत्रिक और उदार छवि बनाने में जुटा है। इंदौर में मुस्सिवर के साथ जो कुछ भी हुआ, वो दरअसल सद्भावना अनशन के दौरान नरेंद्र मोदी के आगे मुख्यधारा मीडिया के दंडवत हो जाने की परिणति है।

सद्भावना अनशन के दौरान सांप्रदायिक नेता की बनी छवि को रातोंरात मेकओवर करने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कुछ भी कहा, उसके आगे मुख्यधारा के अधिकांश मीडियाकर्मी और चैनल लोटते नजर आये। ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव की आपाधापी के बीच नरेंद्र मोदी ऐसे महत्वपूर्ण हुए कि मीडियाकर्मी से अगर वो बात कर लेते तो वो अपने ऊपर एक तरह का नरेंद्र मोदी का एहसान मानते। ये सब कुछ टीवी स्क्रीन पर बहुत ही साफ दिखाई दे रहा था। आजतक के बाकी लोगों से ज्यादा समझदार समझे जानेवाले अजय कुमार जैसे कई मीडियाकर्मी इस एहसान के तले इतने अधिक दब गये कि इंटरव्यू लेते हुए जो बातें नरेंद्र मोदी के लिए कही वो पेड न्यूज से कहीं ज्यादा घिनौनी दिखनेवाली थी। चैनलों ने नरेंद्र मोदी की कही बातों को साकारात्मक तौर पर जमकर दिखाया और एक-एक वक्तव्य को लेकर घंटों फ्लैश चलाये गये। मुख्यधारा के मीडिया को इस तीन दिन के मिशन में ही आगामी सरकार की रुपरेखा दिखने लगी और तभी नरेंद्र मोदी को इस बात का एहसास करा दिया कि आपके प्रधानमंत्री होने की स्थिति में हम आपके साथ होंगे, आपके पक्ष में होंगे और आपके आगे न केवल घुटने टेक देंगे बल्कि आपकी छवि मेकओवर करने में कहीं से कोई कोर-कसर नहीं छोडेंगे। इन तीन दिनों में मुख्यधारा का मीडिया जिसने कि गुजरात दंगे के बाद से लगातार मोदी की सांप्रदायिक छवि सामने लाने में लगा रहा, पूरी तरह पलटता नजर आया। नेटवर्क 18 और एनडीटीवी और दूसरे चैनलों की कुछ खबरों को छोड़ दें तो साफ झलक रहा था कि मीडिया पूरी तरह नरेंद्र मोदी के प्रभाव में आ चुका है और आनेवाले समय में राष्ट्रीय स्तर पर अगर उनकी स्थिति मजबूत होती है तो उनकी मर्जी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलेगा।

हद तो तब हो गयी जब नरेंद्र मोदी का वक्तव्य आया कि वो अपनी और सरकार की आलोचना का सम्मान करते हैं, उससे सीखते हैं क्योंकि इससे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती है। नरेंद्र मोदी के इस वक्तव्य को चैनलों ने कुछ इस तरह से दिखाया कि जैसे उन्हें पता ही नहीं है कि नरेंद्र मोदी का क्या इतिहास रहा है या फिर कथनी और करनी के बीच किस हद तक फासला रहा है और भविष्य में इस लेबल को चिपका कर क्या करने जा रहे हैं? चैनलों ने इस पर अपनी तरफ से खड़े तेवर नहीं अपनाए और सवाल-जवाब नहीं किया। इन तीन दिनों की फुटेज पर गौर करें तो आपको सहज ही अंदाजा लग जाएगा कि जिस नीयत से नरेंद्र मोदी ने ये मिशन शुरू किया, मुख्यधारा मीडिया ने उसका साथ दिया।

एक मामूली सी स्टोरी होती है तो चैनल उससे जुड़ी पुरानी फुटेज को शामिल करता है, उसे लगातार दिखाता है। लेकिन सद्भावना मिशन की खबरों के दौरान मोदी ने सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत करने की नीयत से जो बयान दिये, गुजरात दंगे में जो स्थितियां बनी, उन सबों को शामिल नहीं किया। क्या ये सब कुछ अकारण ही किया गया। जिस चैनल को इस बात की आदत पड़ी हुई है कि एश्वर्या या अमर सिंह पर स्टोरी चलानी हो तो वो सिनेमा से लेकर सीडी तक की पुरानी फुटेज का इस्तेमाल करती है, नरेंद्र मोदी के इस सद्भभावना अनशन के दौरान क्यों नहीं किया? क्या ऐसा नहीं है कि मुख्यधारा मीडिया के कार्पोरेट खेल के भीतर जो थोड़े व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार पत्रकार बच गये हैं, वो संस्थान खुद उन पत्रकारों को हालात, राजनीतिक आकाओं के हाथों मरने-खत्म होने के लिए खुला छोड़ देते हैं और उनकी मौत और परेशानी को अपनी ब्रांडिंग के लिए इस्तेमाल करते हैं। उनके खिलाफ हुई कार्रवाई को मार्केटिंग वालों की गिद्ध नजरों की मदद से रिवन्यू में तब्दील करती है? मुझे नहीं पता कि प्रभात किरण के संपादक प्रकाश पुरोहित मुस्सविर के साथ होनेवाली इस ज्यादती में कितनी दूर तक साथ देंगे, वो मुख्यधारा मीडिया से कितना अलग चरित्र निभाएंगे लेकिन इतना तो जरूर है कि प्रशासन और सरकार के कुचलने के पहले मीडिया संस्थान ही ऐसे पत्रकारों को तबाह हो जाने के लिए जमीन तैयार कर देते हैं, जहां व्यक्तिगत स्तर पर ईमानदार होने का मतलब सिर्फ प्रताड़ना और अफसोस है।

गुजरात में… जो अपराधी नहीं होंगे, मारे जाएंगे



गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है। पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को खतरा है। शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है। गुजरात में सांप्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं, वे भी उसी में शामिल हैं। विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट्ट के संगठन सेवा में काम करती हैं। वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक्त पुलिस ने जो कहानी दी है, उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्रप्रदेश से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आयी हैं। जाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था।

इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं। गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसके बाद वही हाल होगा जो पिछले 10 साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है। नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जाएगी। और मोदी के पुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है। वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद, राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं। अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी, राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता, एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा।

अहमदाबाद में जारी एक बयान में मानवाधिकार संस्था, दर्शन के निदेशक हीरेन गांधी ने कहा है कि ‘गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनों, दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है’ लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं हैं। शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज्यादा आतंक है। वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगे, जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसे हालात पैदा की जाएंगे कि वे लोगों को गिरफ्तार करें। जाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगे और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा। वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा।

वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है। सब अमन चैन से हैं। गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौका लगा। सब ने बताया कि अब बिलकुल शांति है। कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है। उन लोगों का कहना था कि शांति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है। बड़ा अच्छा लगा कि चलो 10 साल बाद गुजरात में ऐसी शांति आयी है। लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था, वह सच्चाई नहीं थी। वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे, जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं। गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है, जितना कि पाकिस्तान में हिंदू का। गुजरात के शहरों के ज्यादातर मोहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है। पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है। अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है। मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं। लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली। इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं।

गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था। उसके बाद मुसलमानों को फर्जी एनकाउंटर में मारा गया। इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है। उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था, जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो। पाकेटमारी, दफा 151, चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे। उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे। किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मोहल्लों में छोड़ देते थे। पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था। लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई खतरा नहीं था। जाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की। इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया। इस चरण में मुस्लिम मोहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था, जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो। उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था।

इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी। और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता। डर के मारे सभी नरेंद्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं। अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है। कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं। वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी जरूरत है। यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा। फिर मोदी को किसी से कोई खतरा नहीं रह जाएगा। हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बीजेपी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेंद्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा।

'रहम करो मुझ पर, प्लीज अब इस तस्वीर को हटा दो'




गुजरात में 2002 के दंगों के दौरान वे दंगाइयों से हाथ जोड़कर रहम मांग रहे थे। वे अब गुजरात पुलिस से आग्रह कर रहे हैं, ‘प्लीज! मेरी तस्वीर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दें।

अहमदाबाद पुलिस कमिश्नर को कुतुबुद्दीन अंसारी ने 9 जून को पत्र लिखा। यह अब प्रकाश में आया है। इसमें उन्होंने लिखा है, ‘आज मैं अपने परिवार के साथ शांति से रह रहा हूं। यही नहीं, मेरे बच्चे भी अच्छे माहौल में रह रहे हैं। मुझे दुख होता है, जब मैं हाथ जोड़े हुए अपनी तस्वीर को अखबारों, वेबसाइटों और स्वयंसेवी संगठनों की रिपोर्टो के कवर पर देखता हूं। इसमें मेरी लाचारी नजर आती है। मैं आग्रह करता हूं कि प्लीज, मेरी तस्वीर के भविष्य में किसी भी तरह के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। साथ ही, सभी जगहों से इसे हटा दिया जाए।

अंसारी ने बताया, ‘दंगो के बाद मैं महाराष्ट्र के मालेगांव चला गया। उसके बाद सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस नाम एनजीओ की मदद से कोलकाता आ गया। यहां एक साल रहा। इसी दौरान मालूम हुआ कि मेरी तस्वीर को लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।उनके मुताबिक, ‘दंगा पीड़ित होने के बावजूद अब तक उचित मुआवजा नहीं मिला। अहमदाबाद कलेक्टर को आवेदन दिया। वह खारिज हो गया। बताया गया कि आवेदन 2002 में ही दाखिल करना था।

याद है वह घटना अंसारी ने पत्र में बताया कि जब दंगे शुरू हुए वह शहर के नरोदा इलाके में रहते थे। इलाके में दंगाइयों ने हमला कर दिया। वे भी फंस गए। जब वे उनसे रहम की गुजारिश कर रहे थे, किसी फोटोग्राफर ने तस्वीर खींच ली। बाद में पुलिस ने उन्हें बचाया।

Wednesday, September 28, 2011

सीमांचल में संघी प्रयोगशाला और शासन – प्रशासन का भगवाकरण



सीमांचल नाम से जाना – जानेवाला बिहार का पूर्वी इलाका इन दिनों सुर्ख़ियों में है | किशनगंज अररिया,पूर्णिया और कटिहार जिलों में यह भू – भाग नेपाल और बांग्लादेश की सीमाओं से सटता है और इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी की बहुलता है | यौन शोषण और प्रताड़ना से तंग आकर पढ़ी – लिखी शिक्षिका रूपम पाठक के द्वारा भाजपा विधायक की हत्या हो अथवा छह महीने के भीतर पुलिस और सशस्त्र सीमा के बल बल के जवानों द्वारा बर्बर फारबिसगंज और बटराहा गोलीकांड या फिर एएमयू  की किशनगंज शाखा खोलने का विरोध हो अथवा बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम पर आम मुसलामानों को आतंकित करने का अभियान हो, हाल के दिनों में सीमांचल को काफी उद्वलित किया है |

एक पखवारा पहले भाकपा – माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने नेतृत्व में माले की एक उच्च स्तरीय टीम बटहारा पहुंची और गोलीकांड पीड़ित परिवारों से मुलाकात की | उनके हालत इस बात के पुख्ता प्रमाण दे रहे थे की मुस्लिम होने की वजह से हमें यह प्रताड़ना दी जा रही हैं और सारे शासन – प्रशासन में हमारी सुधि लेने वाला कोई नहीं है | उन लोगों ने यह भी कहा की सशस्त्र सीमा बल के अधिकांश और स्थानीय अधिकारी सरेआम धमकी दे रहे हैं कि अगर बात को आगे बढाओगे तो आईएसआई कहकर अथवा तस्करी में फंसाकर सारे गांव वालों को तबाह कर देंगे | विदित हो कि 20 दिसम्बर की रात को सशस्त्र सीमा बल के दो जवानों ने अपने कैंप के बगल के घर में घुसकर एक महिला के साथ बलात्कार किया | महिला के पति शहर से काम करके लौटे नहीं थे | इस घटना की शिकायत दर्ज कराने जब रात में ग्रामीण पहुचे तो तो अधिकारी ने सुबह में मामले को सुनने का आश्वासन दिया | लोगों के पास एक जवान के घर में घुसने का एक साक्ष्य उसके वहां छूट गए चप्पल के रूप में मौजूद था |

सुबह जब ग्रामीण पुन: पहुंचे तो जवानों ने ग्रामीणों को खदेड़ दिया और आसपास के कैंप के जवानों को बुलाकर बटहारा गांव को घेर लिया | फिर बगल के गांव में घुसकर कैंप के बगल के दरवाजे पर बैठी एक महिला समेत चार लोगों को गोलियों से भून दिया | महिला की ओर से बलात्कार का मुकदमा दर्ज हुआ | मृतक परिवारों की ओर से मुकदमे हुए लेकिन पुलिस ने मामले को ठन्डे ढंग बसते में डाल दिया | जवानों पर तो कार्यवाही नहीं हुई उल्टे सशस्त्र सीमा बल के बड़े अधिकारी ने पूर्णिया से बयान जारी किया कि आईएसआई घुसपैठियों से बचाने के लिए आत्मरक्षा में गोलियां चलाई गई | ध्यान देने योग्य बात है कि नेपाल सीमा पर जगह – जगह सशस्त्र सीमा बल के कैंप लगाए गए हैं ओर इसमें अधिकांश कैंप रिहाईशी इलाके में बिठाये गए हैं और आये दिन इस तरह की घटनाएं हो रही हैं | लोगों को धमकाया जा रहा है कि अगर इस तरह की घटनाओं का विरोध करोगे तो बटहारा की भांति सबक सिखाया जाएगा |
फिर भाकपा – माले की टीम फारबिसगंज के उस भजनपुर गांव पहुंची जहां 3 जून को सात माह के बच्चे, 35 साल की महिला और 20 – 25 वर्ष के दो नौजवानों को पुलिस ने गोलियों से उड़ा दिया | लोग बियाडा की जमीन को भाजपाई विधान पार्षद को दिये जाने और उसके द्वारा 60 वर्षों से निर्मित रास्ते को दीवार से घेरने का विरोध कर रहे थे | पुलिस शासन ने भजनपुर के मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाने के उद्देश्य से ही गोलीकांड को अंजाम दिया है क्योंकि इन्हीं लोगों की अधिकांश जमीनों को बियाडा अधिग्रहण कर रहा है और बहुतों को अभी तक मुआवजा नहीं मिला है | लोग सरेआम बोल रहे हैं कि इस इलाके में शासन – प्रशासन का भगवाकरण कर दिया गया है और भाजपाई चहेते अफसरों को तमाम जिलों के शीर्ष पदों पर बिठा दिया गया है | कई मुस्लिम बुद्धिजीवीयों ने आशंका जताई की कि भाजपाई दबाव के सामने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सीमांचल में बौने बन गए हैं और दो बर्बर घटनाओं का जायजा लेने कि हिम्मत भर भी बे नहीं जुटा पाए | यहां तक कि उनके तथाकथित पसंदीदा प्रतिकी नेताओं को भी फारबिसगंज आने की हिम्मत नहीं हुई जबकि दोनों ही घटनाएं पसमांदा अंसारी समुदाय के साथ हुई हैं |
बात इतनी ही नहीं है | विद्यार्थी परिषद् और संघ परिवार के जरिए दशकों से चलाया जा रहा घुसपैठिया भगाओ अभियान सत्ता और प्रशासन के संरक्षक में नया आयाम ग्रहण करता जा रहा है | इन लोगों ने उन भाटिया मुसलमानों को निशाना बनाया है जिन्होंने सीमांचल की खेती को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया है | इसके बारे में कहा जाता है कि वे तब तक खाना नहीं खाते जब तक कि मवेशियों को चारा सानी नहीं देते हैं | उनके दरवाजे पर बंधे मवेशियों की हृष्ट – पुष्टता देख तय हो जाता है कि ये निश्चय ही भाटिया मुसलमान होंगे | जगह – जगह इन लोगों को जमीन, जल और चारागाह से विस्थापित कराने की साजिशें रची जा रही हैं | इनके बारे में यह ऐतिहासिक तथ्य सामने आ चुका है कि ये लोग शेरशाह सूरी के जमाने से यहां बसे हैं और इन्होने कोशी – महानंदा की तबाही को झेलते हुए खेती – पशुपालन को आगे बढ़ने का काम शुरू किया है |
सर्वोपरि किशनगंज में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा खोलने के खिलाफ सीमांचल से लेकर पटना तक विद्यार्थी परिषद् और संघ परिवार का बढ़ता हिंसक विरोध और सरकार की चुप्पी व टालू रवैया यह दर्शाने के लिए काफी है कि नीतीश सरकार ने संघ – भाजपा को सीमांचल में संघी प्रयोगशाला बनाने की छूट दे रखी है | यह बात राजनीतिक बंटवारे में पहले शामिल थी क्योंकि इस क्षेत्र के चार में से तीन सांसद भाजपा के हैं और यहां की अधिकांश विधानसभा सीटें भी इन्हीं के कब्जे में है | इस खतरनाक खेल के खिलाफ वाम लोकतांत्रिक – सेकुलर ताकतों को सामने आना होगा क्योंकि राजद के तथाकथित सेकुलर सिपहसालारों ने ही भाजपाईयों को इस इलाके में बढ़ने की उर्वर भूमि मुहैया की है और महादलित – दलित – आदिवासियों को भगवाकरण के रास्ते पर जाने को बाध्य किया है.

Tuesday, September 27, 2011

हिंदुस्तान में हिंदुओं का राज है, मुसलमानों का कौन है?



भरतपुर हत्याकांड: प्राथमिक रिपोर्ट

जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय के 11 छात्रों की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम राजस्थान के भरतपुर जिले में हुए गोपालगढ़ हत्याकांड के कारणों और घटनाक्रम का पता लगाने के लिए 25 सितंबर को गोपालगढ़ और आसपास के गांवों में गई. इस टीम में शामिल थे: अनिर्बान (डीएसयू, जेएनयू)अनुभव (डीएसयू, जेएनयू), आनंद के राज (जेएनयू), गोगोल (डीएसयू, जेएनयू), रेयाज (डीएसयू, जेएनयू), श्रीरूपा (जेएनयू), श्रिया (डीएसयू, जेएनयू), अदीद (सीएफआई), शोभन (डीएसयू, डीयू) और सुशील (डीएसयू, डीयू). इस दौरान हम चार गांवों में गए और हमने तीन दर्जन से अधिक लोगों से बात की. इस हत्याकांड में मारे गए लोगों के परिजनों, घटनास्थल पर मौजूद चश्मदीद गवाहों और हत्याकांड में जीवित बच गए लोगों, घायलों और पीड़ित समुदाय के दूसरे अनेक सदस्यों से हुई बातों के आधार पर हम मुसलिम समुदाय पर प्रशासन के पूरे संरक्षण में हुए इस सांप्रदायिक फासीवादी हमले की आरंभिक रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहे हैं. आगे हम एक विस्तृत रिपोर्ट भी जारी करेंगे.

गोपालगढ़ के लिए रवाना होते समय हमारे पास इस हत्याकांड से जुड़ी जानकारियां सीमित थीं. अखबारों और दूसरे समाचार माध्यमों को देखते हुए लगा कि इस हत्याकांड के खबरों को जान-बूझ कर छुपाया जा रहा है. जिन कुछेक अखबारों में इसकी खबरें आईं भी, वो आधी-अधूरी ही नहीं थीं, बल्कि उनमें घटनाओं को पुलिस और सरकार के नजरिए से पेश किया गया था. इसने पीड़ितों को अपराधियों के रूप में और अपराधियों को पीड़ितों के रूप में लोगों के सामने रखा. केवल एक अंगरेजी अखबार ने कुछ खबरें प्रकाशित की थीं, जिनमें पीड़ित मुसलिम समुदाय का पक्ष जानने की कोशिश की गई थी और इस हत्याकांड के पीछे की असली ताकतों के संकेत दिए गए थे.
ये संकेत तब नामों और चेहरों में बदल गए जब हम भरतपुर जिले में दाखिल हुए. जिले के पापरा, जोतरू हल्ला (अंधवाड़ी), ठेकरी, हुजरा, पिपरौली आदि गांवों और गोपालगढ़ कस्बे के पीड़ित मुसलिम समुदाय के लोगों ने एक के बाद एक जो कहानियां बताईं वो एक बार फिर भारतीय राज्य के फासीवादी चरित्र को सामने ले आती हैं और राज्य के साथ गुर्जर तबके की सामंती ताकतों तथा आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के तालमेल को साबित करती हैं.

घटनाक्रम की शुरुआत 13 सितंबर से हुई. गोपालगढ़ कस्बे में करीब 50 घर मुसलिम परिवारों के हैं, जिनमें से अधिकतर मेव हैं. इस समुदाय की लगभग साढ़े ग्यारह बीघे जमीन के एक टुकड़े पर आपस में लगी हुई एक मसजिद है, ईदगाह है और कब्रिस्तान की जमीन है. मसजिद और ईदगाह पर पक्का निर्माण है, जबकि कब्रिस्तान की जमीन पर फिलहाल कोई निर्माण नहीं है. 1928 से यह वक्फ की संपत्ति है और कम से कम 40 साल पहले इस जमीन के एक टुकड़े को कब्रिस्तान घोषित किया गया था. लेकिन इस जमीन पर स्थानीय गुर्जर समुदाय के एक सदस्य और गोपालगढ़ के सरपंच ने बार-बार गैरकानूनी रूप से कब्जा करने की कोशिश की है. मेव मुसलिमों की तरफ से यह मामला दो बार स्थानीय एसडीएम अदालत में ले जाया गया, जहां से दोनों बार फैसला मुसलिम समुदाय के पक्ष में आया है. 12 सितंबर को एसडीएम अदालत ने सरपंच को यह जमीन खाली करने का नोटिस दिया था, जिसके बाद मसजिद के इमाम हाफिज अब्दुल राशीद और मसजिद कमेटी के दो और सदस्य सरपंच के पास इस जमीन को खाली करने के लिए कहने गए. इस पर सरपंच और दूसरे स्थानीय गुर्जरों ने मिल कर तीनों को बुरी तरह पीटा.
इमाम और कमेटी पर हमले की इस खबर से मुसलिम समुदाय में आक्रोश की लहर दौड़ गई. उस रात को जब मेव मुसलिम इस विवाद को अगले दिन की पंचायत में बातचीत के जरिए सुलझाने की तैयारियां कर रहे थे, उस रात गोपालगढ़ में भरतपुर से कम से कम दो सौ आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ता गुर्जरों के जमा हो रहे थे. उन्होंने आसपास के अनेक गांवों से गुर्जरों को अगले दिन गोपालगढ़ आने के निर्देश दिए. अगले दिन 14 सितंबर को जब इस मामले के निबटाने के लिए स्थानीय थाने में दो विधायक और दोनों समुदायों के लोग जमा हुए तो केरवा, भैंसोड़ा, बुराना, बुरानी, पहाड़ी, पांडे का बयाना, बरखेड़ा, बौड़ोली और नावदा के गुर्जर आरएसएस कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में गोपालगढ़ को एक तरह से अपने कब्जे में कर चुके थे. उन्होंने सड़कों पर पहरे लगा दिए थे और लोगों को कस्बे में आना-जाना रोकने लगे थे. उधर बैठक में दोनों समुदायों के जिन दो प्रतिनिधियों के ऊपर फैसला लेने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्होंने यह फैसला किया कि जमीन पर उसी समुदाय का अधिकार है, जिसके नाम रेकार्ड में यह जमीन दर्ज है. इस पर भी सहमति बनती दिखी कि कब्रिस्तान की जमीन पर कब्जे के लिए दोषी व्यक्ति मेवों से माफी मांगें. लेकिन यहीं कुछ गुर्जरों और आरएसएस के लोगों ने इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया. उन्होंने थाने की कुरसियों और दूसरे सामान की तोड़फोड़ शुरू कर दी. मीटिंग में मौजूद अनेक प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि आरएसएस के लोगों और गुर्जरों ने मीटिंग में मौजूद भरतपुर के डीएम और एसपी के साथ धक्का-मुक्की की और कॉलर पकड़ कर पुलिस को मुसलिमों के ऊपर फायरिंग का आदेश दिलवाया.
मीटिंग आखिरी दौर में थी, जब पूरे गोपालगढ़ कस्बे में फैले आरएसएस, विहिप, बजरंग दल और गुर्जर समुदाय के हथियारबंद लोग मुसलिम मुहल्ले पर हमला कर रहे थे. चुन-चुन कर मुसलिमों की दुकानों को लूट कर आग लगा दिया गया. उनके घरों के ताले तोड़ कर सामान लूट लिए गए. इस वक्त सारे मर्द या तो थाने में चल रही मीटिंग में थे या मसजिद में, इसलिए महिलाएं भीतर के घरों में एक जगह जमा हो गई थीं. इस घर से लगी छत पर चढ़ कर हमलावरों ने महिलाओं के ऊपर भारी पथराव किया. इस घर में 11 दिन बाद भी बिखरे हुए पत्थर पड़े थे और पथराव के निशान मौजूद थे. हमलावर भीड़ एक-एक करके मुसलिम घरों से सामान लूटती रही और उनकी संपत्ति बरबाद करती रही. यह लूट अभी अगले तीन दिनों तक चलनेवाली थी और इसमें इमाम अब्दुल रशीद, अली शेर, अली हुसैम, डॉ खुर्शीद, नूर मुहम्मद, इसहाक और उम्मी समेत तमाम मुसलिम घरों को तबाह कर दिया जानेवाला था.
दोपहर ढल रही थी और असर की नमाज का वक्त हो रहा था. आस-पास के गांवों के लोग गोपालगढ़ में सामान खरीदने के लिए आते हैं. नमाज का वक्त होते ही स्थानीय मुसलिम बाशिंदे और खरीदारी करने आए लोग मसजिद में जमा हुए. पिछले दो दिनों की घटनाओं की वजह से मसजिद में भीड़ थोड़ी ज्यादा ही थी. पिपरौली गांव के इलियास इसकी एक और वजह बताते हैं. उनके मुताबिक कस्बे में तब यह खबर भी थी कि गुर्जर और आरएसएस-विहिप-बजरंग दल के लोग पुलिस के साथ मिल कर मसजिद तोड़ने आनेवाले हैं. मसजिद में उस वक्त कम से कम 200 लोग मौजूद थे (कुछ लोग यह संख्या 500 से हजार तक बता रहे थे). जोतरू हल्ला के 35 वर्षीय सपात खान उनमें से एक थे. उन्हें याद है कि उन्होंने नमाज पढ़नी शुरू ही की थी कि मसजिद पर फायरिंग शुरू हुई.

पुलिस का दंगा नियंत्रण वाहन मसजिद के ठीक सामने खड़ा हुआ और उसने मसजिद पर फायरिंग शुरू की. मसजिद से बाहर निकलने के दोनों दरवाजों पर गुर्जर और आरएसएस के लोग हथियारों के साथ खड़े थे. इसलिए मसजिद के भीतर घिरे लोग पीछे की तरफ की एक पतली दीवार तोड़ कर भागने लगे. सपात खान को भागने के क्रम में पांव में गोली लगी और वे गिर पड़े. उन्होंने करीब दस लोगों को गोलियों से जख्मी होकर दम तोड़ते देखा. फर्श पर पड़े हुए उन्होंने देखा कि गुर्जर और आरएसएस के लोग पुलिस की गोलियों से जख्मी लोगों के पेट में लाठी और फरसा मार कर लोगों की जान ले रहे थे. फायरिंग रुकने के बाद जब दर्जनों लोग मसजिद की फर्श पर घायल और मरे हुए पड़े थे, तो उनके शरीर पर से गोलियों के निशान हटाने के लिए उनके हाथ-पांव काटे गए. घायलों को और लाशों को गुर्जर और आरएसएस के लोग पुलिस की गाड़ी में लाद रहे थे. सपात खान भी उनमें से एक थे. गाड़ी में लादे जाने के बाद वे बेहोश हो गए. पांचवें दिन जब उन्हें होश आया तो उन्होंने खुद को भरतपुर हॉस्पीटल में पाया. वे खुशकिस्मत रहे कि वे जिंदा जलाए जाने से बच गए. लेकिन पथरौली के शब्बीर, लिवाशने के इस्माइल, पिलसु के हमीद, ठेकरी के उमर, खटकरा के कालू खां, जोतरू हल्ला के ईसा खां उतने खुशकिस्मत नहीं थे. उनमें से कइयों को तेल छिड़क कर जिंदा जलाने की कोशिश की गई. ये सारे लोग जयपुर के सवाई मान सिंह हॉस्पीटल में अब तक भरती हैं. घायलों में से हत्याकांड के 11 दिन बाद 25 सितंबर को दम तोड़ा, जिस दिन हम गोपालगढ़ में मौजूद थे.

लेकिन मसजिद में मारे गए और घायल हुए कई लोगों को जला दिया गया. उन्हें मसजिद की सीढ़ियों से महज दस कदम दूर सरसों की सूखी लकड़ी पर रख कर जलाया गया. वहां अधजली हड्डियां, जूते और कपड़ों के टुकड़े पड़े हुए हैं. यहां से एक-डेढ़ किमी दूर एक जंगल में भी अधजली हड्डियां मिली हैं. मसजिद से सटी ईदगाह में एक कुआं है, जिसमें से घटना के तीन दिनों बाद तीन अधजली लाशें मिली थीं. कुएं के पत्थर पर जली हुई लाशों को घसीटने के निशान बारिश और 11 दिन बीत जाने के बावजूद बने हुए हैं. ईदगाह में लाशों को जलाने के लिए लाए गए डीजल से भरा एक टिन रखा हुआ है. आसपास के इलाके पर पुलिस का पहरा है. जिस मसजिद में यह हत्याकांड हुआ, उसमें पुलिस किसी को जाने की इजाजत नहीं दे रही है. लेकिन बाहर से भी साफ दिखता है कि मसजिद में कितनी तबाही हुई है. सारी चीजें टूटी हुई हैं और फर्श पर बिखरी पड़ी हैं. खून के निशानों को मिटाने की कोशिश की गई है. दीवार पर गोलियों के कम से कम 50 निशान मौजूद हैं, जिन्हें सीमेंट लगा कर भरा गया है. जाहिर है कि यह काम पुलिस या उसकी मरजी से किसी आदमी ने किए हैं. गौर करने की बात यह भी है कि घटना के बाद से मसजिद में मुसलमानों को घुसने नहीं दिया जा रहा है.


जिन्होंने पूरी घटना अपनी आंखों से देखी और मारे जाने से बच गए उनके मुताबिक हमले की सारी कार्रवाई इतनी व्यवस्थित और संगठित थी कि इससे साबित होता है कि इसकी योजना पहले से बनाई गई थी. गुर्जरों और आरएसएस की हत्यारी भीड़ का नेतृत्व गोपालगढ़ के आरएसएस नेता केशऋषि मास्टरजवाहर सिंह (बेडम) और भोला गूजर (पहाड़ी) कर रहे थे. इसमें आरएसएस द्वारा संचालित एक ‘आदर्श विद्यालय’ के शिक्षक भी लुटेरों के साथ शामिल थेजिनकी पहचान उसी विद्यालय में पढ़नेवाले एक मुसलिम छात्र ने की. छठी कक्षा में पढ़ने वाले सखावत की नई साइकिल इस लुटेरी भीड़ ने छीन ली. वह उस शिक्षक को ‘गुरुजी’ के नाम से जानता है.

घटना के बाद गोपालगढ़ के मुसलिम परिवार घर छोड़ कर अपने रिश्तेदारों के यहां रह रहे हैं. अधिकतर घरों में कोई नहीं है. कुछ में ताला लगा हैलेकिन बाकी घरों के दरवाजे और कुंडियां गुर्जर-संघी लुटेरों ने उखाड़ ली हैं. जिस दिन हम गोपालगढ़ में थेएकाध लोग अपने घरों की खबर लेने के लिए कस्बे में लौटे थे. गोपालगढ़ में कर्फ्यू रहता है लेकिन पिपरौली के इलियास बताते हैं कि यह कर्फ्यू सिर्फ मुसलमानों पर ही लागू होता है. कर्फ्यू के दौरान भी गुर्जर और आरएसएस के लोग खुलेआम कस्बे में घूमते हैं. वे यह देख कर इतने हताश थे कि वे पूछते हैं‘हिंदुस्तान में हिंदुओं का राज है. मुसलमानों का कौन है?
सरकार दावा कर रही है कि इस घटना में महज तीन लोग मारे गए हैं. लेकिन लोग बताते हैं कि कम से कम 20 लोग इस हमले में मारे गए हैं. उनमें से सारे मुसलिम हैं. जख्मी लोगों की संख्या भी लगभग इतनी ही है और वे सारे लोग भी मुसलिम हैं. इसके अलावा कम से कम तीन लोग लापता हैं. इनमें से दो हैं: ढौड़ कलां (फिरोजपुर झिरका) के मुहम्मद शौकीन और चुल्हौरा के अज्जू. इतने बड़े हत्याकांड को दो समुदायों के दंगा कह कर असली अपराधियों को बचाने की कोशिश की जा रही है. लोग पूछते हैं कि अगर यह दंगा था तो गुर्जरों और पुलिस की तरफ से कोई घायल तक क्यों नहीं हुआ. वे लोग जानते हैं कि हमलावरों में कौन लोग थेलेकिन किसी के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं हुआ है. उल्टेलोगों की शिकायत है कि 600 मुसलमानों के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया है. हालांकि डीएम और एसपी का तबादला हो गया हैलेकिन लोग तबादलों से संतुष्ट नहीं हैं. उनकी साफ मांग है कि मुसलमानों पर गोलियां चलाने वालों पर हत्या के मुकदमे दर्ज किए जाएं. इसको लेकर अंधवाड़ी में पिछले छह दिनों से धरना चल रहा हैजिसमें रोज लगभग आठ सौ से एक हजार लोग शामिल होते हैं.
मुसलिमों पर गुर्जरों का यह हमला कोई नई बात नहीं है. छोटे-मोटे हमले लगातार होते रहे हैं. यहां खेती आजीविका का मुख्य साधन है. मेव मुसलमानों की यहां खासी आबादी हैलेकिन उनमें से आधे से भी कम लोगों के पास जमीन है. जमीन का आकार भी औसतन दो से तीन बीघे हैजिसमें सिंचाई निजी बोरवेल से होती है. बाकी के मेव छोटे मोटे धंधे करते हैंदुकान चलाते हैं और पहाड़ों पर पत्थर काटते हैं. गुर्जर यहां पारंपरिक रूप से जमीन के मालिक रहे हैं. उनके पास न केवल बड़ी जोतें हैं, बल्कि दूसरे कारोबारों पर भी उनका वर्चस्व है. खेतीइलाज और शादी वगैरह के खर्चों के लिए मेव अक्सर गुर्जरों से कर्ज लेते हैंजिस पर उन्हें भारी ब्याज चुकाना पड़ता है (गांववालों ने बताया कि उन्हें चौगुनी रकम लौटानी पड़ती है). देर होने या नहीं चुका पाने पर अक्सर मुसलिमों-मेवों पर हमले किए जाते हैं- इसमें धमकानेगाली देने से लेकर मार-पीट तक शामिल है. इस तरह जमीन का सवाल यहां एक अहम सवाल है.
इस नजरिए से गोपालगढ़ का हत्याकांड नया नहीं है. कानपुरमेरठबंबईसूरत...हर जगह अल्पसंख्यकोंमुसलमानों को उनके नाममात्र के संसाधनों से भी उजाड़ने और उनकी संपत्तियों पर कब्जा करने के लिए प्रशासनपुलिस और संघ गिरोह की तरफ से मिले-जुले हमले किए जाते रहे हैंगोपालगढ़ उनमें सबसे ताजा हमला है. इसी जून में बिहार के फारबिसगंज में अपनी जमीन पर एक कंपनी के कब्जे का विरोध कर रहे मुसलमानों पर गोली चलाकर पुलिस ने चार मुसलिमों की हत्या कर दी थी और नीतीश सरकार के इशारों पर कारपोरेट मीडिया ने इस खबर को दबाने की भरपूर कोशिश की.
गोपालगढ़ में भी कारपोरेट मीडिया और सरकार ने तथ्यों को दबाने की कोशिश की. मिसाल के तौर पर इस तथ्य का जिक्र कहीं नहीं किया गया कि डीएम और दूसरे अधिकारियों द्वारा आरएसएस नेताओं के कहने पर गोली चलाने का आदेश दिए जाने के बाद पुलिस के शस्त्रागार को खोल दिया गया और पुलिस के साथ-साथ गुर्जरों और आरएसएस कार्यकर्ताओं को भी पुलिस के शस्त्रागार से आधुनिक हथियार दिए गए. मसजिद पर हुई गोलीबारी में पुलिस के हथियारों का उपयोग ही हुआलेकिन उन हथियारों को चलानेवालों में गुर्जर और आरएसएस के लोग भी शामिल थे. यह दिखाता है कि इन तीनों ताकतों की आपस में कितनी मिलीभगत थी. इलाके के मेव शिक्षा और रोजगार में बहुत पिछड़े हुए हैं. सरकारी-गैर सरकारी नौकरियों में भी उनका हिस्सा नगण्य है. इसके उलट गुर्जर समुदाय के लौगों की नौकरियों में भरमार है. जिस पुलिस ने मेव लोगों पर हमला कियाउसमें बहुसंख्या गुर्जरों की ही थी और उसमें एक भी मुसलिम नहीं था. गुर्जरों के बीच आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों का काफी काम है और इसका असर पुलिसबलों पर भी साफ दिखता है. इसीलिए जब पुलिस मसजिद पर फायरिंग करने पहुंची तो उसकी कतारों में गुर्जर और आरएसएस के लोग भी शामिल थे. जाहिर है कि यह दो समुदायों के बीच कोई दंगा का मामला नहीं हैजैसा कि इसे बताया जा रहा हैबल्कि गोपालगढ़ में हुई हत्याएं एक सुनियोजित हत्याकांड हैं.

(डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन की तरफ से जारी)

Sunday, September 25, 2011

मुसलमान ही नहीं, प्रजातंत्र भी खतरे में है



भारत के मुसलमान देश के सबसे पीड़ित और शोषित वर्गों का हिस्सा बन चुके हैं. राजनीति में मुसलमान हाशिए पर हैं. प्रशासन, सेना और पुलिस में मुसलमानों की संख्या शर्मनाक रूप से कम है, न्यायालयों में मुसलमानों की उपस्थिति बहुत कम है और बाकी कसर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की आर्थिक नीति ने पूरी कर दी है, जिसकी मार मुसलमानों पर सबसे ज़्यादा पड़ रही है. डॉ. भीमराव अंबेदकर ने सामाजिक असमानता को प्रजातंत्र के लिए खतरा बताया था. मुसलमान सामाजिक समानता से कोसों दूर हैं और न ही उनकी राजनीतिक प्रजातंत्र में हिस्सेदारी है. मुसलमानों के पिछड़ेपन की वजह आज भारत के वेलफेयर स्टेट होने पर सवाल खड़ा कर रही है. यह प्रजातंत्र पर एक बदनुमा दाग बन कर उभर रहा है. एक सफल राजनीतिक प्रजातंत्र के लिए सामाजिक प्रजातंत्र ज़रूरी हिस्सा है. जब तक सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता. स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और न समानता को स्वतंत्रता से. इसी तरह स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता. भारत एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर चुका है. राजनीतिक समानता को एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत समझ लिया गया है, जबकि समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता है. भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग पहले से ज्यादा शोषित, पहले से कहीं ज़्यादा पीड़ित और सत्ता से दूर चला गया है. यह देश में प्रजातंत्र के लिए खतरे की घंटी है. अफसोस की बात यह है कि देश चलाने वाले इस खतरे से बिल्कुल अंजान हैं.

1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ तो कुछ लोगों ने भारत को अपना देश मानकर पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया. इन लोगों ने भारत को ही अपना वतन माना और मुस्लिम लीग की बातों पर भरोसा नहीं किया. इन लोगों ने भारत में रहने का फैसला अपनी मर्ज़ी से किया था. उन्हें  यहां की गंगा-जमुनी तहज़ीब ज़्यादा पसंद आई. साठ से ज़्यादा साल गुज़र गए. इस देश से मोहब्बत करने का ईनाम यह मिला है कि आज भारत का मुसलमान देश के सबसे पीड़ित और पिछड़े समाज में तब्दील हो गया है. मुसलमान नौजवान बेरोज़गारी के साथ-साथ तिरस्कार का भी सामना कर रहे हैं. देश के राजनीतिक दलों को मुसलमानों का वोट तो चाहिए, लेकिन जब उनकी समस्याओं को हल करने का व़क्त आता है तो वे मौन धारण कर लेते हैं. यही वजह है कि सरकार के सौतेले रवैये की वजह से आज मुसलमानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है.

आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही यह तय हो गया था कि आज़ाद भारत एक रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी और वेलफेयर स्टेट होगा. यह भारत की सामाजिक संरचना के हिसाब से सबसे उचित व्यवस्था थी. गांधी, नेहरू और तमाम नेताओं ने यही सोचा था कि अंग्रेजों की हुक़ूमत से आज़ादी के बाद सरकार ग़रीब जनता के विकास के लिए काम करेगी. दुनिया भर में मौजूद सभी शासन प्रणालियों में प्रजातंत्र को सबसे बेहतर इसलिए माना गया है, क्योंकि इस व्यवस्था के अंतर्गत शासन में हर वर्ग और समुदाय का अधिकार सुरक्षित रहता है और उनकी समान हिस्सेदारी होती है. अल्पसंख्यकों के साथ-साथ ग़रीब और पिछड़े वर्गों की भी सरकार चलाने में हिस्सेदारी प्रजातंत्र को दूसरी किसी व्यवस्था से अलग बनाती है. यही वजह है कि भारत के संविधान निर्माताओं में मतैक्य था कि आज़ाद भारत में प्रजातांत्रिक सरकार बनेगी, जिसमें छोटे-बड़े सभी वर्गों की समान हिस्सेदारी होगी. आज हमारे सामने भारत में प्रजातंत्र की साख खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है. प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बारे में कई लोगों को यह भ्रम है कि यह बहुमत पर आधारित है. जब यूरोप में प्रजातंत्र का विकास हुआ, तब प्रजातंत्र का रूप अलग था. उस व़क्त बहुमत का सिद्धांत प्रजातंत्र का मूलमंत्र था. लेकिन दुनिया की स्थिति में बदलाव हुआ. पूंजीवाद और उदार प्रजातंत्र की आंधी में बहुमत के नाम पर सरकार निरंकुश होती चली गई. ग़रीब किसान और मज़दूर सत्ता से दूर चले गए. इसके विरोध में मार्क्सवादी विचारधारा का फैलाव हुआ. नतीजा यह हुआ कि पूरे यूरोप में प्रजातंत्र का चेहरा बदलने लगा. लेजेफेयर स्टेट का चरित्र बदला, वेलफेयर स्टेट की स्थापना हुई, जिसमें अल्पसंख्यकों को भी तरजीह मिलने की व्यवस्था लागू हुई. भारत के संविधान निर्माताओं ने ग़रीबों, किसानों एवं मज़दूरों के विकास के लिए प्रजातंत्र और वेलफेयर स्टेट स्थापित किया. मुसलमानों की हालत इस बात की गवाह है कि भारत का प्रजातंत्र और वेलफेयर स्टेट अपने एजेंडे से विमुख हो चुका है. जिस वजह से संविधान निर्माताओं ने इसे अपनाया था, उसमें भारत विफल हो गया है.

ग़रीब मुसलमानों के बारे में जो सच्चाई है, वह कलेजा दहला देने वाली है. ग्रामीण इलाक़ों में ग़रीबी रेखा के नीचे वाले 94.9 फीसदी मुसलमानों को मुफ्त अनाज नहीं मिल रहा है. सिर्फ 3.2 फीसदी मुसलमानों को सब्सिडाइज्ड लोन का लाभ मिल रहा है. स़िर्फ 2.1 फीसदी ग्रामीण मुसलमानों के पास ट्रैक्टर हैं और स़िर्फ 1 फीसदी के पास हैंडपंप की सुविधा है. शिक्षा की स्थिति और भी खराब है. गांवों में 54.6 फीसदी और शहरों में 60 फीसदी मुसलमान कभी किसी स्कूल में नहीं गए. पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की संख्या 25 फीसदी से ज़्यादा है, लेकिन सरकारी नौकरी में वे स़िर्फ 4.2 फीसदी हैं. जबकि यहां वामपंथियों की सरकार है, फिर भी राज्य की सरकारी कंपनियों में काम करने वाले मुसलमानों की संख्या शून्य है. सेना, पुलिस और अर्धसैनिक बलों में मुसलमानों  की संख्या बहुत ही कम है. मुसलमानों की बेबसी का आंकड़ा जेलों से मिलता है. हैरानी की बात यह है कि मुसलमानों की संख्या जेल में ज़्यादा है. महाराष्ट्र में 10.6 फीसदी मुसलमान हैं, लेकिन यहां की जेलों में मुसलमानों की संख्या 32.4 फीसदी है. दिल्ली में 11.7 फीसदी मुसलमान हैं, लेकिन जेल में बंद 27.9 फीसदी क़ैदी मुसलमान हैं.

मुसलमानों पर हुए सारे रिसर्च का नतीजा एक ही है. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार के किसी भी विभाग में मुसलमानों की हिस्सेदारी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है. प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की संख्या दयनीय है. देश में स़िर्फ 3.22 फीसदी आईएएस, 2.64 फीसदी आईपीएस और 3.14 फीसदी आईएफएस मुसलमान हैं. इससे भी ज़्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि सिखों और ईसाइयों की आबादी मुसलमानों से कम है, लेकिन इन सेवाओं में दोनों की संख्या मुसलमानों से ज़्यादा है. देश के सरकारी विभागों की हालत भी ऐसी ही है. ज्यूडिसियरी में मुसलमानों की हिस्सेदारी स़िर्फ 6 फीसदी है. जहां तक बात राजनीति में हिस्सेदारी की है तो यहां भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं. आज़ादी के साठ साल के बाद भी अब तक स़िर्फ सात राज्यों में मुस्लिम मुख्यमंत्री बन पाए हैं. हैरानी की बात यह यह है कि जम्मू-कश्मीर के फारुख़ अब्दुल्ला के अलावा देश में एक भी ऐसा मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं बन पाया, जो पांच साल तक शासन कर सका हो. राजनीति में मुसलमान हाशिए पर हैं, इस बात की गवाह लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की मौजूदा संख्या है. फिलहाल लोकसभा में 543 सीटों में स़िर्फ 29 सांसद मुसलमान हैं. सामाजिक पिछड़ेपन के साथ-साथ प्रजातंत्र के विभिन्न स्तंभों में भी मुसलमान हाशिए पर हैं.

जिस देश का सबसे बड़ा अल्पसंख़्यक समुदाय पिछड़ा, अशिक्षित, कमज़ोर और ग़रीब रह जाए तो उसका कभी भी विकास नहीं हो सकता. सरकार किसी भी पार्टी की हो, अगर वह भारत का विकास चाहती है तो हर ग़रीब और पिछड़े समुदाय को विकास की धारा से जोड़ना उसका दायित्व बन जाता है. अशिक्षा मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा अभिशाप है. हैरानी की बात यह है कि आज़ादी के इतने साल बीत जाने के बावजूद मुस्लिम नेताओं और सरकार को इस अभिशाप का एहसास नहीं है. मदरसों को बेहतर बनाने की बात होती है तो हिंदू और मुस्लिम कट्टरवादी संगठन एक साथ इसका विरोध करते हैं. और जो सेकुलर और प्रोग्रेसिव कहलाने वाली पार्टियां हैं, उन्हें यह लगता है कि जब तक मुसलमान अशिक्षित रहेंगे, तब तक उन्हें वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. अब इस बात पर तो स़िर्फ दु:ख ही व्यक्त किया जा सकता है कि आज़ादी के 60 साल  के बाद भी हमारी सरकार इस नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है कि मुसलमानों की अशिक्षा कैसे दूर की जाए और मदरसों को कैसे बेहतर बनाया जाए. अब इंतजार अगले 60 साल  का है, जिसमें दुनिया कहां से कहां निकल जाएगी और तब तक भारत में इस विषय पर हम बहस ही करते रह जाएंगे.

निजीकरण, वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद का देश के ग़रीब मुसलमानों पर सबसे बुरा असर हुआ है. पिछले दो दशकों से भारत नव उदारवाद की आर्थिक नीति की चपेट में  है. इसका सबसे बुरा असर मुसलमानों पर पड़ा है, खासकर बुनकर, दस्तकार, कारीगर और कढ़ाई-रंगाई आदि करने वाले लोग इस आर्थिक नीति की वजह से हाशिए पर आ गए हैं. वे बेरोज़गार हो गए हैं. इसका नतीजा यह है कि ग़रीबी की वजह से उनके बच्चे स्कूल से दूर चले गए हैं. अब शिक्षा के निजीकरण से ग़रीब अल्पसंख्यक पढ़ाई-लिखाई से वंचित रह जाएंगे. सरकार एक तरफ सरकारी नौकरियों में कटौती कर रही है. उसकी नीतियों और बदलती आर्थिक व्यवस्था में देश के पढ़े-लिखे लोग सरकारी नौकरी छोड़ ज़्यादा पैसे और सफलता के लिए प्राइवेट नौकरी की ओर जा रहे हैं. समझने  की बात यह है कि ऐसे में अगर 10 साल के बाद मुसलमानों को रिजर्वेशन दे भी दिया जाता है तो भी अल्पसंख्यक पिछड़े ही बने रहेंगे और देश का दूसरा वर्ग आगे निकल जाएगा.

हम जब भी मुसलमानों की बात करते हैं तो उन्हें एक पैन इंडियन समाज मान लेते हैं. यह सत्य नहीं है और यह खतरनाक भी है. भारत का मुस्लिम समाज किसी दूसरे धर्म की तरह सजातीय नहीं है. मुस्लिम समाज भी दूसरों की तरह आर्थिक, सामाजिक, भाषाई, एथनिक, क्षेत्रीय और जातिगत आधार पर बंटा हुआ है. भारत में जैसे हिंदू समाज है, वैसे ही मुस्लिम समाज भी है. दूसरे धर्मों के ग़रीब और पिछड़े लोगों को जिस तरह से सरकारी योजनाओं का फायदा मिल रहा है, वह फायदा मुसलमानों को भी मिलना चाहिए. भारत में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति और जनजातियों से भी खराब है. वजह सा़फ है कि ग़रीबी की मार दोनों पर है, लेकिन एक के लिए सरकार की मदद मौजूद है और मुसलमानों को उनकी क़िस्मत के सहारे छोड़ दिया गया है. अब देश चलाने वालों और मुस्लिम समाज के रहनुमाओं के सामने यह सवाल है कि ग़रीबों के बीच भी धर्म के नाम पर भेदभाव क्यों किया जा रहा है.

मुसलमानों के पिछड़ेपन के मूल में मुस्लिम नेताओं की भी भूमिका रही है. समस्या यह है कि सामाजिक-आर्थिक विकास के मुद्दों के बजाय ज़्यादातर मुस्लिम नेता धार्मिक एवं सांस्कृतिक जैसे भावनात्मक मुद्दों को आगे रखते हैं. जब भी हम मुसलमानों के हालात के बारे में बात करते हैं तो मसला मुस्लिम पर्सनल लॉ, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के चरित्र और उर्दू ज़ुबान पर आकर खत्म हो जाता है. मुस्लिम नेताओं के बीच सामाजिक एवं आर्थिक विकास बहस का मुद्दा नहीं है. शुरुआत से ही मुसलमान अपने अधिकार से ज़्यादा सुरक्षा को लेकर चिंतित रहे, लेकिन इसे बदलने की ज़रूरत है. यह समझने की ज़रूरत है कि अगर अधिकार होंगे तो सुरक्षा खुद बखुद हो जाएगी. जब तक मुसलमान बेरोज़गार, ग़रीब और सत्ता में भागीदारी से दूर रहेंगे, तब तक कोई सरकार, कोई पार्टी एवं कोई नेता उन्हें सुरक्षा नहीं दे सकता. इसलिए अधिकार की लड़ाई ही व़क्तकी मांग है, वरना देर हो जाएगी.

जितनी भी सेकुलर पार्टियां हैं, वे सब अपने चुनावी घोषणापत्र में मुसलमानों के रिजर्वेशन की बात दोहराती हैं और सरकार बनते ही उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है. चौथी दुनिया अ़खबार ने जब दो साल से संसद की अलमारी में सड़ रही रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट छापी तो लोकसभा और राज्यसभा में हंगामा मच गया. लेकिन सरकार ने इसके बावजूद इसे पेश नहीं किया. इसके बाद जब संपादक संतोष भारतीय ने यह कहकर ललकारा कि राज्यसभा नपुंसक लोगों का क्लब बन गई है तो चौथी दुनिया के एडिटर को प्रिवेलेज नोटिस थमा दिया गया. इसके बाद जब मुलायम सिंह ने लोकसभा में आवाज़ उठाई और सदन की कार्यवाही न चलने देने की धमकी दी, तब सरकार ने रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश की. स़िर्फ पेश की, कोई कार्रवाई नहीं की. रिपोर्ट लागू करने की अब तक कोई सुगबुगाहट भी नहीं है. यह सरकार वही है, जिसके मुखिया मनमोहन सिंह ने कुछ साल पहले यह कहा था कि देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का ज़्यादा अधिकार है. सरकार की यह कैसी मजबूरी है कि वह वादा़फरामोशी पर आमादा है. मुसलमान किस पर भरोसा करें. यह क्यों न मान लिया जाए कि राजनीतिक दल चाहे वे किसी भी विचारधारा के हों, मुसलमानों के विकास के लिए बातें तो करते हैं, लेकिन अमल नहीं करते.

सरकार कहती है कि मुसलमानों को रिजर्वेशन देने के लिए संसद में सर्वसम्मति की ज़रूरत है. तो क्या सरकार जो भी बिल पास कराती है, उसमें सभी पार्टियों की सहमति होती है? क्या भारत-अमेरिका परमाणु संधि में सभी पार्टियों की सहमति थी? क्या महिला आरक्षण बिल को लेकर सभी दलों में सहमति है? फिर भी सरकार ने क़दम उठाया, बिल को पेश किया. लेकिन जब बात ग़रीब और पिछड़े मुसलमानों के विकास की होती है तो हर सरकार बहाना ढूंढने लग जाती है. सोचने वाली बात यह है कि जब मुसलमानों से जुड़ा भावनात्मक मामला आता है तो देश में ज़बरदस्त आंदोलन शुरू हो जाता है. यह अच्छी बात है. लेकिन जब इन्हीं मुसलमानों के लिए रोज़गार, शिक्षा और विकास की बात आती है तो पता नहीं क्यों, लोगों को सांप सूंघ जाता है. बाबरी मस्जिद की शहादत की बात को ही ले लीजिए. देश की सारी सेकुलर पार्टियां एक हो गईं. हिंदू हो या मुसलमान, समाज के रहनुमा सड़कों पर उतर आए. भाजपा और आरएसएस के खिलाफ़ देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गया, लेकिन यही लोग सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पर चुप्पी साध कर बैठ गए हैं.

देश के सामने एक गंभीर खतरा मंडरा रहा है. प्रजातंत्र खतरे में है, लेकिन इस खतरे का आभास न तो सरकार को है और न ही राजनीतिक दलों को. समाज में फैली असमानता को चिन्हित करने और उसके उपाय निकालने के बजाय देश चलाने वाले चुप हैं या फिर इस मसले को टालने का फैसला कर लिया गया है. इस खतरे की वजह है मुसलमानों का पिछड़ापन, उनकी बेरोजगारी और अशिक्षा. मुसलमानों की हालत साल दर साल बदतर होती जा रही है. एक तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जैसी पार्टियों से खतरा है तो दूसरी तरफ वे दल हैं, जो मुसलमानों को वोटबैंक समझ कर इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन उनकी रोज़मर्रा की समस्याओं को हल करने के बजाय टालमटोल का खेल खेलते हैं. एक तरफ अमेरिका और यूरोप की सरकारें मुसलमानों को आतंकी क़रार देने में जुटी हैं तो दूसरी तरफ आर्थिक नीति और महंगाई ने मुसलमानों के हौसले को तोड़ कर रख दिया है. एक तरफ सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट है, जो मुसलमानों के लिए आशा की किरण बनकर सामने आती है तो दूसरी तरफ इन रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डालने वाली सरकार. मुसलमान हर तरफ से नुकसान ही झेल रहा है. यह नुकसान स़िर्फ मुसलमानों का नहीं है, यह देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था के आधार और विचार को चुनौती दे रहा है. यह चुनौती भारत में प्रजातंत्र की साख को खत्म करने की ताक़त रखती है. समझने वाली बात यह है कि जिस व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के अधिकार, सत्ता में उनकी हिस्सेदारी और विकास सुनिश्चित नहीं हैं, वह प्रजातंत्र के नाम पर धोखा है. सत्य तो यह है कि आज स़िर्फ मुसलमान ही नहीं, हमारा प्रजातंत्र भी खतरे में है.

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मो. रफीक चौहान (एडवोकेट)