मैं एक गरीब फैमली से ताल्लुक रखता हूँ, उस वक़्त अब्बू बड़ी मुश्किल से घर का खर्चा चला पाते थे, खैर खाने पीने वाली चीजें बहुत महंगा नहीं हुआ करती थीं, 10 रुपये में चार-पांच दिनों का सब्ज़ी तो मिल ही जाता था, लेकिन कपड़े महंगा हुआ करते थे, ईद के ईद ही नए कपड़ों का दर्शन हुआ करता था, शर्ट तो एक साल चल जाते थे, लेकिन पैंट का पिछला हिस्सा घिस जाता था, अम्मी अब्बू से गुस्सा तक हो जाती थीं, और न चाहते हुए भी पैंट के घिसे हुए पिछले हिस्से पर पेवन्द लगा देतीं थीं, और साल गुज़र जाता था, लेकिन मुशीबत ये था कि मोहल्ले में एक आमिर बाप की औलाद रहा करता था, जीना हराम कर रखा था, हमारे पैंट पे लगे पेवन्द से पता नहीं उसे क्या बैर था, पीछे से आकर नोच देता था, और बच्चों के बीच हमारा मज़ाक बना देता था, अम्मी को रोते हुए आकर शिकायत करते थे, अम्मी बड़बड़ातीं, उसको लानत भेजतीं फिर मुझे ही डाँटती, उसके ही पास क्यों जाते हो खेलने, दूसरा कोई नहीं मिलता है तुम्हे, उसके पास अब मत जाना, वो अच्छा बच्चा नहीं है, पर मैं क्या करता मोहल्ले से दूर कैसे जाता, वो तो मेरे पीछे ही पड़ा रहता था.
आप सोच रहें होंगे कि ऐसे हालत में काका (अली सोहराब) ने पढ़ाई कैसे किया तो, बता दूँ मैट्रिक तक को कुछ दिक्कत नहीं हुआ, पर इंटर (+2) में खर्चे बढ़ गए, और अब्बू रिटायर हो चुके थे इसलिए इंटर (+2) की पढ़ाई का खर्चा अब्बू के बजट के बहार होने लगा, अब्बू अपने बजट का कभी एहसास नहीं होने देते थे, हर हफ्ते कुछ न कुछ पैसा दे ही देते थे, लेकिन मुझे अंदाज़ा हो चूका था अब्बू के माली हालत का, एक दोस्त (सोहैल भाई हमसे सीनियर थे) से इस बारे में बात किया तो उन्होंने कहा तो उन्होंने कहा के कोई दिक्कत नहीं मैं खुद अपने पढ़ाई का खर्चा बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर निकाल लेता हूँ, फिर उन्हने अपने हिस्से के 4 -5 ट्यूशन मुझे दे दिए और माशा अल्लाह पढ़ाई का खर्चा बड़े ही आसानी से निकलने लगा.
अभी इंटर (+2) का सेकंड ईयर ही था के अब्बू को ब्रेन टियूमर हो गया, पढ़ाई छोड़ छाड़ फ़ौरन घर के तरफ भागा, लोगों ने सलाह दिया कलकत्ता में इसका इलाज़ हो जायेगा, दुर्गापूजा की छुट्टी चल रही थी, इसलिए बैंक में जो कुछ भी अब्बू ने रखा था उसे निकालना मुश्किल हो गया क्योंकि छुट्टी के कारण बैंक भी बंद थे, मुहल्लों वालों ने बहुत बड़ा एहसान किया जिसके पास जितना पैसा था ला ला कर दे दिए (क़र्ज़), किसने कितना दिया इसका हिसाब रखने के लिए मैं और मेरे से बड़ी बहन ने मिलकर लिस्ट तैयार किया, लाख रुपये के करीब इकठ्ठा हो गया और फ़ौरन हम कलकत्ता के लिए चल पड़े.
स्टेशन मास्टर और टीटी की मदद से स्लीपर में सीट मिल गया, हम कलकत्ता पहुचें, दुर्गा पूजा के कारण लगभग सभी डॉक्टर छुट्टी पर थे, तीन दिन बाद दुर्गा पूजा ख़त्म हुआ, पार्क हॉस्पिटल के डॉक्टर ने ब्रेन टियूमर का ऑपरेशन करने का सलाह दिया बोला ऑपरेशन के बाद ठीक हो जायेगा, हमने हामी भरदी, एक फॉर्म पर हस्ताक्षर लिया, ऑपरेशन एक हफ्ते बाद शुरू हो गया, जिस दिन ऑपरेशन हुआ पूरा दिन भूखे प्यासे अल्लाह से दुआ करता रहा, 12-15 घंटे बाद अब्बू को होश आया ख़ुशी के मारे ठिकाना न था, ICU में अब्बू से बात करने की कोशिश की लेकिन डॉक्टर ने मना कर दिया, जब दूसरे दिन हॉस्पिटल का बिल आया तो सभी के होश उड़ गए एक लाख तैंतालीस के आस पास था, हमने तो केवल अस्सी पचासी हज़ार ही जमा कराये थे.
खैर कलकत्ता में भी मेरे मोहल्ले के बहुत से लोग थे, लोगों ने पैसे दिए (क़र्ज़) हॉस्पिटल का बिल चुकाया और अब्बू सही सलामत घर आ गए, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था, इंटर (+2) फाइनल के पहले पेपर के एग्जाम से चार दिन पहले ही अब्बू हमें छोड़ कर चले गए, कब्र में दफ़नाने के बाद जैसे ही घर आया मैं बहुत बड़ा हो चूका था, पुरे घर का बोझ मेरे सर पर आ चूका था, एग्जाम दूँ या न दूँ सोच सोच सोच कर बुरा हाल था, कभी अम्मी को देखता तो कभी छोटे-छोटे भाई बहन को, ऊपर से लाखों रुपये क़र्ज़ का दबाव.
अब्बू के मौत के चौथे दिन चहारम अर्थात मृत्यु भोज का प्रोग्राम था, इस हालात में भी समाज के रश्म-रिवाज़ का दबाव क्या होता है उस दिन समझ में आया, चहारम / मृत्युभोज का कर्यक्रम शुरू हुआ और मैं हिम्मत जुटाकर अम्मी के पास गया और बोला अम्मी मेरा आज 2 बजे से एग्जाम है, अम्मी ने जवाब दिया उनका (अब्बू) चहारम छोड़ कर एग्जाम देने जाओगे लोग क्या कहेगें,
मामू समझाने लगे आज बड़े लड़के के सर पर पगड़ी बंधती है अर्थात पुरे घर की जिम्मेवारी दी जाती है, एक बार हिम्म्त करके अम्मी से फिर बोला मुझे किसी की परवाह नहीं तुम मुझे इज़ाज़त देदो, अम्मी ने कहा जैसा तुम ठीक समझो बाबू।
मामू समझाने लगे आज बड़े लड़के के सर पर पगड़ी बंधती है अर्थात पुरे घर की जिम्मेवारी दी जाती है, एक बार हिम्म्त करके अम्मी से फिर बोला मुझे किसी की परवाह नहीं तुम मुझे इज़ाज़त देदो, अम्मी ने कहा जैसा तुम ठीक समझो बाबू।
अम्मी ने जैसे ही हामी भरी किसी को कुछ भी बताये बगैर साईकल उठाया एग्जाम देने चल दिया, शाम को आया तो चहारम / मृत्युभोज का कर्यक्रम समाप्त हो चूका था, दुःख हुआ कि मैं अब्बू का अच्छा बेटा नहीं हूँ, जो चहारम में नहीं रहा, आगे का एग्जाम (सभी पेपर) दिल ही दिल में अब्बू से माफ़ी मांगते हुए दे दिया.
अब बारी था चालीसवां (बड़ा मृत्युभोज) का जिसमे पुरे गावं को भोज खिलाना था, कुछ भी धार्मिक ज्ञान नहीं था इसलिए इंकार करने की तो कोई गुंजाईश ही नहीं थी, फूफा से क़र्ज़ लेकर 80 से 85 किलो गोश्त मंगाया और पुरे गावं को भोज खिला दिया, इस बार खुश था, अम्मी भी खुश थीं क्योंकि मैं मृत्युभोज के सभी कर्मकांड में मौजूद रहा.
अब हमारा असली वाला एग्जाम शुरू हुआ, अब्बू के इलाज़ से लेकर चालीसवां तक में क़र्ज़ का हिसाब करने पर पता चला दो लाख रूपया के करीब में क़र्ज़ हो चूका है (उस समय का दो लाख बहुत बड़ी रक़म होता था) अब्बू के अकाउंट में कुछ पैसा तो था लेकिन बगैर मृत्युप्रमाण पत्र के निकासी नहीं हो सकती थी, मोहल्ले के ही एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने दो चार सौ रूपये लिए और बेचारे ने मदद करते हुए जल्द मृत्युप्रमाण पत्र बनवा दिए, बैंक जाकर सभी फोर्मलिटी पूरा किया, मैनेजर बाबू ने भी सपोर्ट किया, दो दिन में ही अब्बू का नाम काट अकाउंट में मेरा नाम चढ़ा दिया.
अब्बू का बैंक खता (जो अब मेरे नाम हो चूका था) का पूरा पैसा उठाया और कुछ लोगों का क़र्ज़ चुकता कर दिया, लेकिन जो अपने नज़दीकी रिश्तेदार थे उनके क़र्ज़ की रकम अच्छा खासा था, अभी भी लाखो रुपये का क़र्ज़ सर पर लेकर घूम रहा था.
इसी बीच इंटर (+2) का रिजल्ट आया और मैं फर्स्ट डिवीज़न से पास हो चूका था, ख़ुशी का ठिकाना न था, इतने मुशीबत में गणित मेन सब्जेक्ट होते हुए फर्स्ट डिवीज़न आना मेरे और अम्मी के लिए चमत्कार से कम नहीं था, लेकिन मिठाई नहीं बाँट सकता था, क्योंकि अभी-अभी तो अब्बू की मृत्यु हुई थी, ऊपर से क़र्ज़ का बोझ भी था.
अब सबसे बड़ी मुशीबत ये था कि इतने बड़े क़र्ज़ के बोझ को लेकर आगे की पढ़ाई जारी रखना, अम्मी से बोला, मैं दिल्ली जा रहा हूँ कोई नौकरी कर लूंगा, अम्मी ने फिर वही जवाब दिया, जो तुम ठीक समझो, कोई सलाह भी देने वाला नहीं था.
एक दोस्त ने सलाह दिया, कोशिश करो आगे पढ़ाई जारी रखने का, कमाने के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है, एक खेत / जमीन गिरवी रखा और आगे की पढ़ाई पूरा किया, अम्मी ने कभी भी अब्बू की कमी महसूस नहीं होने दिया, पढ़ाई खत्म करते ही नौकरी पर लग गया, दो साल में ही सभी क़र्ज़ का भुगतान कर दिया.
अब कोशिश करता हूँ जो खुशियां मुझे नहीं मिली वो सारी की सारी खुशियां बिटिया सारा अली के झोली में डाल दूँ!
अब्बू, ईद आते ही आपकी याद सताने लगती है……
ईद के ख़ुशी के मौके पर पता नहीं कैसे ये दुःख सब याद आने लगे, अल्लाह से दुआ करता हूँ सबको खुश रखे.
dil ko chhu lene wali zindagani hai aapki.....Allah aapko aur kamyaabi de....
ReplyDeleteऔर आज उसी मरहूम अब्बू का बेटा हम सबका हीरो है.
ReplyDeleteमाशाअल्लाह काका आपकी मेहनत के लिए.
आपकी हर एक बात जीवन में नई जान देती है.
This man is communal, misogynistic, a fake news peddler and someone who routinely incites hate. But this is shameful even by his pathetic standards.
ReplyDeleteJail me baith kar likhna ab apne abbu lodu ke bare me... ����������
ReplyDeleteAapki mehnat rang laayegi kaka
ReplyDeleteकाका आपकी जिंदगी की कहानी पढ़ कर आँखें भर आयी
ReplyDeleteअल्लाह आपको अपने हीफजो अमाल में रखें और आपको तमाम खुशियों से नवाज़े ।
ReplyDeleteनि:शब्द हूं
ReplyDeleteSupport U
Khub
ReplyDeleteमुश्किलें भी आजमाइश हुआ करती हैं रब की तरफ से अल्लाह आप को हर मुसीबत से बचाये और आगे भी आप लोगों की आवाज बन के खड़े रहें ऐसे ही
ReplyDelete😭😭 Allah ham sab ke ammi abbu ko salamat rakhe
ReplyDeleteAMEEN YA RABBUL ALMEEN 🤲🤲
अली सोहराब भाई आंखें नम हो गई दोस्त.माशाअल्लाह आपकी मेहनत के लिए
ReplyDeleteماشاء اللہ
ReplyDeleteآپنے پڑھائی کیلئے بہت محنت کی ھے.. اللہ آپکے والد صاحب کی مغفرت فرمائے
+966572432445
ReplyDeleteWhatsapp no.
Sohrab bhai ek baar mujhse baat kare please,
काका आपकी और मेरी कहानी एक जैसी है आप सबसे बड़े थे घर मे और मे सबसे छोटा था अब्बू तो पुरी तरह याद भी नहीं है
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