मीडिया की जात क्या है? क्या मीडिया की भी कोई
जाति होती है?यदि नहीं तो मीडिया में दलितों (पिछड़े-मुस्लिम-महिला)
के मुद्दे क्यों नहीं सार्थकता से उठते? हाशिये पर खड़े समाज
पर मीडिया क्यों ध्यान नहीं देता ? भुत-प्रेत, राखी-मीका, जुली-मटुकनाथ पर पैकेज बनाने वाला
मीडिया क्यों दलितों की अनदेखी करता है? जो सरोकारों के साथ
चलने का दावा करते हैं उनके प्रयास भी महज रस्म अदायगी क्यों होते हैं?
क्या बाजारवाद के इस दौर में महज इसलिए
दलितों की खबरों को जगह नहीं मिलती है क्योकिं उनके सरोकार मध्यवर्गीय विज्ञापन
देने वाली कंपनियों के सरोकारों से मेल नहीं खाती? तो क्या बाजारवाद के इस दौर में मीडिया “समाचार वही
जो व्यापार बढ़ाये” के मुनाफे के तहत काम करता है? क्या
भारतीय मीडिया नवपूंजीवाद के लाभ-हानि के दवाब के तहत काम करता है? यह सभी मीडिया के लिए भले सही न हो परन्तु भूमंडलीकरण के इस दौर में
लोकतांत्रिक आग्रह कमजोर हुएं है. इसी का परिणाम है की मीडिया मिशन से कमीशन की
तरफ छलांग लगा चुका है.
लोगों से सवाल पूछने वाला मीडिया समूह खुद
सवालों के घेरे में आ गया है. क्यों नहीं दलितों के प्रति भारतीय मीडिया का रवैया
अभी भी बदला है? न
किसी सफाई कर्मचारी की मौत को लेकर सवाल उठाये जातें हैं और न ही कोई पैकेज बनाएं
जातें है?क्यों नहीं दलितों के प्रति हिंसा और बलात्कार की घटना पर्याप्त ध्यान खीच
पाती हैं? क्यों नहीं आदिवासी महिलायों की खबरें जगह पाती है?
क्यों नहीं मुस्लिमों की बेगुनाह रिहाई खबर बन पाती है? भारतीय मीडिया क्यों नहीं दलितों-पीड़ितों-शोषितों की तरफ अपने आप को खड़ा
पाता है?
सीएनएन-आईआबीएन-7 के वरीय समाचार संपादक
आकाश, दलितों की
भारतीय मीडिया में उपेक्षा के प्रश्न पर कहतें है- “आरक्षण की सहायता से
कार्यपालिका, न्यायपालिका
और विधायिका में दलित तो आये परन्तु आज भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चौथे खंभे में
दलितों की संख्या नगण्य है” इस कथन के समर्थन में कई आंकड़े भी हैं जो इसकी पुष्टि
करते हैं.
आजादी के इतने बर्षो के बाद भी दलित वर्ग
मीडिया से लगभग गायब है.
मीडिया में जाति की हिस्सेदारी पर बहस खड़ा
करना इस लेख का मतलब नही है. मूल प्रश्न
यह है कि मीडिया में दलितों के मुद्दे को जगह क्यों नहीं दी जाती? खैरलांजी घटना इसका
उदहारण है जिसको भारतीय मीडिया ने शुरू में कवर नहीं किया था.
प्रसंगवश
1. हरियाणा के हिसार जिले
स्थित भागाणा में 23 मार्च को 15-18
वर्ष की अगवा की गई चार मासूम लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की गई. घटना के बाद
न्याय की मांग लेकर पीडितायें अपने परिजनों और गावं के 90
दलित परिवारों के साथ जंतर-मंतर पर धरणा दे रहें हैं. यह मुख्यधारा की मीडिया के
लिए कोई खबर नहीं है.
2. नागपुर में दलित को
जिन्दा जला दिया जाता है और यह मुख्यधारा की मीडिया में खबर नहीं बन पाती है.
3. आतंकवादी बमविस्फोट के
झूठे आरोप में दस बरस की सजा काट कर बाहर निकले बेगुनाह मुस्लिमों की तरफ से कोई
भी मीडिया समूह सवाल नहीं खड़े करता है.
4. दलित महिलायों को शोषण
का शिकार बनना पड़ता है पर वो खबर नहीं बनती. आदिवासी लड़कियां गायब होती हैं,
यह खबर नहीं बनती. क्यों ‘सभी के लिए न्याय’ ‘कुछ के लिए अथाह
मुनाफे’ के आगे बेबस नजर आता है? क्या इसके पीछे सिर्फ बाजार का अर्थशास्त्र है या समाजशास्त्र भी है?
सवाल उठता है की क्या मीडिया में इनके
मुद्दे कोई मायने नहीं रखतें? क्या मीडिया की कोई जबाबदेही नहीं है? क्या पूंजी और
बाजार अब मीडिया के सरोकारों और मिशन को संचालित करेगा? क्या
अब मीडिया में सरोकारों को कमीशन से परखा जायेगा. तब किसी भी समाचार को
लिखा/प्रसारित किया जाएगा.
छोटे-छोटे और गैरजरूरी मुद्दों को तानने
वाला मीडिया अब तक भगाणा के मुद्दों पर खामोश क्यों है? दलित हिंसा पर अब तक
क्यों नहीं कोई पैकेज बनती दिख रही है? क्यों नहीं अक्षरधाम
बम विस्फोट के बेगुनाह सजायाफ्ता आरोपिय के समर्थन में कोई उसके बेगुनाही की कीमत
का हिसाब मांग रहा है?
लोकतंत्र, विकास और न्याय के पक्ष में
मीडिया कब खड़ा होगा?
~मुकेश कुमार
No comments:
Post a Comment