म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा की घटना ऐसी कोई खबर नहीं, जिसे सुनने को दुनिया अधीर हो। दरअसल,
जम्हूरियत की तरफ मुल्क के डगमगाते कदम बढ़ रहे हैं और ‘बदलाव की इस
प्रक्रिया’ की निगरानी कर रही हैं नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की। लेकिन बदकिस्मती
देखिए, पिछले कुछ दिनों से रखिन सूबे में बौद्ध अनुयायियों व
रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा को लेकर म्यांमार सुर्खियों में
है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की हालत बदतर है। उन्हें नागरिक मानने से इनकार
किया जाता रहा है। दरअसल, म्यांमार की नस्लीय संरचना बेहद पेचीदा
है। आधिकारिक तौर पर वहां 135 नस्ली समूहों की पहचान की गई है। लेकिन इसमें रोहिंग्या
लोगों का नाम नहीं है, जबकि ये रखिन बौद्ध, चिटगांव के बंगाली और अरब सागर से आए कारोबारियों की संतानें हैं। वे बांग्ला
की एक बोली का बतौर भाषा इस्तेमाल करते हैं। न्यूयॉर्क की ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था
के मुताबिक, वे दशकों से रखिन बौद्ध के साथ म्यांमार में रह रहे
हैं। जब ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दुस्तान और म्यांमार की सरहद का डिमार्केशन किया,
उससे भी पहले के तत्कालीन बर्मा में उनकी मौजूदगी थी। फिलहाल,
मुल्क में उनकी आबादी अंदाजन आठ लाख है। दो लाख तो बांग्लादेश में भी
हैं। रिपोर्टे यह भी कहती हैं कि म्यांमार का एक बड़ा तबका रोहिंग्या विरोधी है। यही
संकट की जड़ है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को घुसपैठी माना जाता है. सबसे पहले
मई में हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुईं. इसके बाद हिंसक आग पूरे इलाके में फैल गई. 10
जून को राखिल प्रांत में इमरजेंसी लगा दी गई. शुरुआती दौर की हिंसा में दोनों पक्षों
को नुकसान हुआ लेकिन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक अब मुसलमानों को ही निशाना बनाया
जा रहा है. इस मामले में अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी शुरू हो गई. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र
संघ से अपील की है कि वह इस मामले में दखल दे और म्यांमार सरकार से मुसलमानों के खिलाफ
हिंसा रोकने के लिए कहे. संयुक्त राष्ट्र में ईरान के राजदूत मुहम्मद काजी ने यूएन
सचिव बान की मून को एक पत्र लिख कर हस्तक्षेप की मांग की है. म्यांमार में जातीय हिंसा
का इतिहास पुराना है. हालांकि नई सरकार ने कई गुटों के बीच सुलह की कोशिश की है लेकिन
कई मसले अभी भी अनसुलझे हैं. सरकार और विद्रोही गुटों के बीच देश के उत्तरी इलाके में
जब तब हिंसक झड़पें होती रहती हैं. रोहिंग्या लोग मूल रूप से बंगाली हैं और ये 19वीं
शताब्दी में म्यांमार में बस गए थे. तब म्यांमार ब्रिटेन का उपनिवेश था और इसका नाम
बर्मा हुआ करता था. 1948 के बाद म्यांमार पहुंचने वाले मुसलमानों को गैरकानूनी माना
जाता है. उधर, बांग्लादेश भी रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने
से इनकार करता है. बांग्लादेश का कहना है कि रोहिंग्या कई सौ सालों से म्यांमार में
रहते आए हैं इसलिए उन्हें वहीं की नागरिकता मिलनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान
के मुताबिक म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या हैं. ये हर साल हजारों की तादाद में
या तो बांग्लादेश या फिर मलेशिया भाग जाते हैं. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि इस
समुदाय के लोगों को जबरन काम में लगाया जाता है. उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और
उनकी शादियों पर भी प्रतिबंध लगाया गया है. अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक दुनिया
का कोई आदमी बिना किसी देश की नागरिकता के नहीं रह सकता. अगर हुकूमत इस संकट को खत्म
करना चाहती है, तो उसे अलोकप्रिय और सख्त फैसले लेने होंगे.
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