Thursday, November 25, 2010

विकास शिगूफा था, असल में विपक्ष ही साफ नहीं था

नीतीश कुमार शुक्रवार को अपनी दूसरी पारी की शुरुआत करेंगे। पिछले पांच सालों में बिहार में कोई नया बिजलीघर चालू नहीं हुआ। पहले से लगे बिजलीघरों की उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ी। बाढ़ और सुखाड़ के कारण पिछले तीन सालों से खेती-किसानी चौपट है। कृषि प्रधान इस राज्‍य से खेतिहर मजदूरों व छोटे किसानों का पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा। सरकारी योजनाओं में लूट-खसोट जारी है। नौकरशाही केंद्रित भ्रष्‍टाचार चरम पर है। इसे सरकार भी मान रही है। बिहार की सड़कों की चर्चा भले ही पूरे देश में हो रही हो, लेकिन मुजफ्फरपुर की सड़कें तो पांच सालों में पैदल चलने लायक भी नहीं बन पायीं। फिर भी बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को इस राज्‍य की बागडोर सौंप दी है। इस उम्मीद के साथ कि आज नहीं तो कल उनकी तकदीर बदलेगी। बिहारियों के बारे में कहा जाता है कि वे कभी नाउम्मीद नहीं होते। आस की डोर थामे वे पूरी जिंदगी काट लेते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो लालू-राबड़ी पंद्रह सालों तक इस राज्‍य पर शासन नहीं कर पाते। लालू प्रसाद से बंधी उम्मीद की डोर टूटने में पंद्रह साल लगे थे। नीतीश कुमार को पांच साल ही मिले। उनसे इतनी जल्‍दी नाउम्मीद कैसे हुआ जा सकता है। विकास नहीं हुआ तो क्‍या हुआ, विकास की आस तो जगी है। लगातार पंद्रह सालों तक लालू-राबड़ी से मिली निराशा झेल चुके बिहार के लोग महज पांच सालों में नीतीश कुमार से निराश कैसे हो जाते। लिहाजा उन्होंने उनको और पांच साल देने का फैसला किया है।

बिहार के लोगों में जो उम्मीद जगी है, उसमें मीडिया का भी बड़ा योगदान है। मीडिया ने नीतीश कुमार की जितनी बड़ी छवि गढ़ी है, बिहार की जनता ने उससे कई गुना बड़ा जनादेश उनको दिया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार विधानसभा में अब तकनीकी तौर पर विपक्ष वजूद ही समाप्‍त हो गया है। मुख्‍य विरोधी दल का दर्जा पाने के लिए किसी एक दल के खाते में कुल सीटों का दस प्रतिशत सीट होना चाहिए। लेकिन चुनावी नतीजे बता रहे हैं कि राजद-लोजपा 25 सीटों पर ही निपट गये। प्रथम मुख्‍यमंत्री श्रीकृष्‍ण सिंह और राबड़ी देवी के बाद नीतीश कुमार पहले मुख्‍यमंत्री है, जिन्हें लगातार दूसरी बार बिहार का मुख्‍यमंत्री बनने का अवसर मिला है। इस भारी जीत की चुनौतियां कितनी भारी हैं, इसे नीतीश कुमार से अधिक और कौन समझ सकता है। यही वजह है कि नतीजे आने के तुरंत बाद नीतीश कुमार जब मीडिया से मुखातिब हुए, तो चुनौतियों के बोझ तले दबे दिखे। उन्होंने कहा, मैं काम करने में भरोसा रखता हूं। मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। मैं दिन-रात मेहनत करूंगा। बिहार के लोगों ने मुझमें जो विश्वास जताया है, वही मेरी पूंजी हैं। अब बात बनाने का समय नहीं है। काम करने का समय है।

नीतीश कुमार की बातों में भारी जनादेश से उपजा मनोवैज्ञानिक दबाव और बेहतर भविष्‍य का संकल्‍प साफ नजर आता है। उन्हें एक ऐसे सदन में रह कर सरकार चलाना है, जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका में सरकार ही होगी। अकूत ताकत तानाशाही की ओर भी ले जाती है और नयी इबारत लिखने का हौसला भी देती है। ऐसे में नीतीश कुमार अपना संकल्‍प कैसे पूरा करेंगे, यह एक बड़ा सवाल है।


-Mohalla live

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