Tuesday, September 25, 2012

कम से कम तालीम तो दो हमें !



अगर मैं कहूं कि तालीम इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है तो यह कहा जा सकता है कि मैं कोई नयी बात नहीं कह रहा हूँ, इस हकीकत को तो बहुत पहले तस्लीम किया जा चुका है. हाँ, यह मैं भी मानता हूँ. मगर किसी बात को बार बार कहा जाये तो वह अपना असर दिखाती है. कहने और सुनने में बहुत ताक़त होती है. इसलिए इंसान को बार बार इस हकीकत से रूबरू कराने में कोई हर्ज़ नहीं है. आज की दुनिया में हर जगह तालीम की ज़रुरत महसूस की जाती है. जो समाज तालीम से महरूम हो, वो समाज कभी तरक्कीआफ़्ता नहीं हो सकता. तारिख गवाह है कि जिन समाजों ने तालीम को अहमियत नहीं दी वो समाज दुनिया के नक़्शे से मिट गए. तालीम एक ऐसा औज़ार है जो न सिर्क इंसानों बल्कि समाजों का भी तआफुज़ करता है. जिन ममालिक ने तालीम पर जोर दिया वो दुनिया की दौड़ में बहुत आगे है.
हिंदुस्तान ने भी तालीम के मैदान में काफी कामयाबी हासिल की है. आज हिंदुस्तान में कई मरकज़ी विश्वविधालय, आई. आई. टी., आई. आई. एम्. , मेडिकल कॉलेज, लाखों स्कूल और टेक्नीकल इदारे हैं. इन तालीमी इदारों में करोड़ों तालिबे इल्म फैज्याब हो रहे हैं. हमारे यहाँ दुनिया के बेहतरीन तालीमी इदारे हैं लेकिन इन सबके बाबजूद हम सब को तालीम नहीं दे पा रहे हैं. कुछ तो हमारी मजबूरियां हैं और कुछ हमारी तंगनज़री कि हम समाज के हर ख़ित्ते तक तालीम को नहीं पहुंचा पाए हैं. कमजोर तबकों को तालीम मुहयिया कराना हर मुल्क और समाज का फ़र्ज़ है क्योंकि इन तबकों की तरक्की के बिना मुल्क की तरक्की का ख्याव अधुरा ही रहेगा. आज के दौर में एस सी, एस टी, ओ बी सी और अक्लियतें तरक्की के हर पैमाने पर पिछड़े हुए हैं. एस सी, एस टी और ओ बी सी समाज का रिज़र्वेसन होने से कुछ तो हालात सुधरे हैं और इसलिए इन समाजों से जुड़े हुए लोग सरकारी तालीमी इदारों और नौकरियों में दिखाई देते हैं, पर उस तादात में नहीं जिस में इन्हें होना चाहिए. लेकिन अगर हम अकलियतों के हालात देखें तो पता चलता है कि यह तो सरकारी तालीमी इदारों और नौकरियों से नदारत हैं. अकलियतों में मुस्लिम अकलियत के हालात तो और भी ख़राब हैं. सच्चर कमेटी रिपोर्ट ने मुस्लिम अकलियत के तालीमी,समाजी और आर्थिक हालात को सामने रखा है. इस रिपोर्ट के मुताबिक कुछ मायनो में मुस्लिम अकलियत इस देश के दलित समाज से भी पीछे है. तालीम भी इनमे एक पहलु है, जहाँ मुस्लिम अकलियत बाकी समाजों से बहुत पीछे दिखाई देती है. सवाल पैदा होता है कि इसकी वजह क्या है ? मेरे हिसाब से इसकी दो एहम वुजुहात हैं. पहली वजह यह कि सरकारें अकलियतों के विकास को लेकर उतनी संजीदा नहीं रहीं जितना उनको होना चाहिए था और दूसरी वजह मुस्लिम अकलियत के सियासी, समाजी और मजहबी रेहनूमाओं के जरिये तालीमी ज़रूरतों को नज़रंदाज़ करना है. मैं इन दोनों वुजुहात पर तफसील से रोशनी डालना चाहता हूँ.
कितने अफ़सोस का मुकाम है कि किसी को आजादी के 65 साल बाद बताया जाये कि तुम्हारे हालात बद से बदतर हो गए हैं, कि तुम तालीमी इदारों में न के बराबर हो और कि तुम सरकारी नौकरियों में नदारत हो. सच्चर कमेटी बताती है कि मुस्लिम अकलियत सरकारी नौकरियों में सिर्फ 4.2 फीसद हैं. तालीमी इदारों में भी यही हालात हैं. आई आई टी जैसे इदारों में 3.3 फीसद और आई आई एम् में 1.3 फीसद मुस्लिम अकलियत की तादात है. अफसरशाही में सिर्फ 2.5 फीसद मुस्लिम अकलियत के लोग नौकरी में हैं. मेरी नज़र में इस सबकी एक बड़ी वजह मुसलमानों का तालीम के मैदान में पिछड़ना है. यह पिछड़ाव सरकार की अनदेखी से आया है. सरकारी योजनायों की मुनादी तो हो जाती है पर वह कितनी ज़मीनी लेवल पर अमल में लायी जा रही है इस पर सरकार का ध्यान नहीं जाता है. सच्चर कमेटी की सिफारिसात के बाद मरकज़ी सरकार ने वजीरे-आज़म का 15 नुकाती प्रोग्राम शुरू किया. इसमें 90 अकलियती अक्सरियत वाले जिलों की पहचान की गयी. इन जिलों के लिए कई प्रोग्राम चलाये गए, इनमे से एक प्रोग्राम ' Multi-sectoral Development Program (MsDP) in Minority Concentrated Districts ' को 2008-09 में शुरू किया गया. Standing Committee on Social Justice and Empowerment (2011-2012) की 27 वी रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजिस्ता 3 सालों में इस प्रोग्राम के तहत 2008 से 2359.39 करोड़ रूपया सरकार ने मुहयिया कराया था पर इसमें से सिर्फ 1174.93 करोड़ ही अलग-अलग रियासती सरकारों ने खर्च किया है. मतलब यह कि सिर्फ 49 फीसद पैसा ही लगा और 51 फीसद पैसा कर्च ही नहीं किया गया. और जो कर्च भी किया वह ऐसे ब्लोकों में जहाँ गैर-अकलियत के लोग रहते हैं. इसलिए इस Parliamentary Standing Committee ने सिफारिश की है कि ब्लाक को इस प्रोग्राम का यूनिट माना जाये. कमेटी ने पाया है कि चूँकि जिला बड़ा होता है इसलिए यह पैसा उन ब्लोकों में लग जाता है जहाँ अकलियत के लोग नहीं रहते. इस कमेटी ने यह भी सिफारिश की है कि किसी जिले को अकलियती जिला मानने के लिए 25 फीसद वाली शर्त घटा कर 15 फीसद कर देनी चाहिए. अभी पुरे मुल्क में 90 ऐसे जिले हैं, लेकिन अगर यह शर्त घटा के 15 फीसद कर दी जाती है तो और भी कई जिले प्रोग्राम के अंदर आ जायेंगे.
सरकार को सच्चर कमेटी रिपोर्ट के बाद यह पता चल चुका है कि इस मुल्क की मुस्लिम अकलियत तालीम में काफी पीछे है, इसलिए सरकार को कुछ मज़बूत कदम उठाने होंगे. इन कदमों में सबसे पहले तो जो 90 अकलियती जिले हैं उनमे नवोदय और सेंट्रल स्कूलों की तर्ज पर स्कूल खोलने की ज़रुरत है. इन स्कूलों में जदीद और साईंस की तालीम दी जाये और वह भी अंग्रेजी मीडियम में, ताकी तालीम हासिल करने के बाद मार्केट में रोजगार तलासना आसान हो जाये. सरकारों को अपनी सरकारी सोच और समझदारी से आगे निकलना होगा. आज जो सरकारी समझदारी है, उसके हिसाब से मुसलमानों को उर्दू पढाना, मदरसों को modernise करना और मुसलमानों को उर्दू टीचरों की नौकरी मुहयिया कराना है. सरकारी सोच यह सोच ही नहीं पाती कि मुस्लिम अकलियत को भी जदीद तालीम, सरकारी नौकरियां और multi-national companies में काम चाहिए. उसे भी अंग्रेजी से लबरेज़ मेनस्ट्रीम तालीम की ज़रुरत है, उसे भी अपने इलाके में बिजली, पानी, डिस्पेंसरी, बढ़िया सडकें, सफाई का इंतज़ाम और बैंकों की उतनी ही ज़रुरत है जितनी किसी दुसरे शहरी को. मुल्क की तरक्की सभी की तरक्की में है, किसी एक ख़ास समाज को विकास से दूर रख कर इस मुल्क की तरक्की का सपना देखना बईमानी है.
यह सही है कि सरकार से हमें उम्मीद लगानी चाहिए पर यह भी उतना ही सही है कि सरकार तो सरकारी रफ़्तार से ही काम करेगी. हम आज मांग करेंगे तो उसे पूरा करने में सरकार को सालों लग जायेंगे. तो फिर रास्ता क्या है? रास्ता है कि मुस्लिम समाज को खुद कोशिश करनी होगी. ऐसा नहीं है कि हमारे सामने मिसालें नहीं हैं. इसी मुल्क में हमारे इसाई समाज के लोगों ने तालीम में अपनी पहचान बनाई है और अपने समाज के लोगों को तालीमीआफता बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसाई समाज में इसलिए न के बराबर लोग अनपढ़ मिलेंगें. जब मिसालें भी हैं और लोगों में अपने बच्चों को पढ़ाने की ललक भी तो मुस्लिम समाज में ऐसे बदत्तर हालात क्यों बने हुए हैं ? एक वजह तो गरीबी हो सकती है पर यह देखा गया है कि बहुत से परिवार जो पैसे से ठीक-ठाक हैं उनमे भी तालीम की कमी है. मेरी समझ से हमारे सियासी, समाजी और मजहबी रहनुमाओं ने तालीम की ज़रुरत और उसको आगे बढाने के लिए बेदारी पर तब्बजो न के बराबर दी है. ऐसा क्यों है की सर सयैद के बाद किसी ने छोटे या बड़े तालीमी इदारे समाज के लिए बनाने की कोशिश नहीं की ? अगर अपने इन सभी रहनुमाओं से यह सवाल किया जाये कि मदरसों के अलावा मुस्लिम समाज के पास तालीम की फरोग के लिए क्या है, तो उनको जवाब देना मुश्किल हो जायेगा.
हमारे पास क़ौमी रहनुमा सर सयैद अहमद खां को खिराजे-अकीदत पेश करने के नाम पर सिर्फ डिनर और मुशायरे रह गए हैं. क्या मुस्लिम अकलियत समाज में पैसे वालों की कमी है ? नहीं. लेकिन अगर कमी है तो सोच और जज्वे की. सियासी रहनुमा सिर्फ अकलियतों को वोटों से जियादा कुछ नहीं समझते. वह मुस्लिम अकलियतों को फिरकापरस्त ताक़तों का डर दिखा कर वोट लेते आ रहे हैं और विकास के नाम पर खोकले नारों के आलावा समाज को देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है. समाजी रहनुमा सरकार से अपनी बनाई हुई एन. जी. ओ., जो महज एक दुकान से जियादा कुछ भी नहीं, के लिए पैसे लेने में दिन रात एक किये हुए रहते हैं और तालीम के तिजारत से जियादा उनके लिए मायने नहीं हैं. मजहबी रहनुमाओं के बारे में जितना कहा जाये कम है. उन्हें तो बस यही दिखता कि मुसलमान पाबन्दी से पांच वक़्त की नमाज़ वाजमात मस्जिद में पढ़ ले और उसका बच्चा मदरसे से फारिग हो जाये. मजहबी रहनुमाओं का दिमाग इससे जियादा सोचता ही नहीं है. अगर सोचता तो आज मुस्लिम अकलियत का इतना बुरा हाल ना होता. अफ़सोस हमने इस्लाम को कितना महदूद कर दिया है. इस्लाम में तालीम पर जो जोर दिया है उसको हमारे रहनुमा भूल ही गए हैं. अगर मुसलमानों की तरक्की तालीम के बगैर हो सकती तो कोई बात नहीं थी. पर ऐसा है नहीं. मजहब के कुछ ज़रूरी फराईज़ को निभाने के साथ-साथ मजहब में जो और भी ज़रूरी चीजें हैं उनकी तरफ भी आम मुसलमान का ध्यान खीचना होगा. इसमें हमारे मजहबी रहनुमा नुमाया किरदार अदा कर सकते हैं.
इस्लाम में तालीम को बहुत एहमियत दी गयी है. पर पर अफ़सोस हमारे मजहबी रहनुमाओं को दीनी तालीम के आलावा कुछ और दिखाई ही नहीं देता. यह सच है कि आज भी मुस्लमान बड़ी तादात में इन मजहबी रहनुमाओं पर यकीन रखता है और इनका कहना मानता है. क्या बढ़िया ना होता कि हम अपनी मसाजिद और मदरसों का इस्तेमाल दीनी तालीम के साथ जदीद उलूम जैसे कंप्यूटर, इन्टरनेट, टेक्निकल कोर्स, अंग्रेजी जुबान सिखाना, साईंस और सोसल साईंस जैसे कोर्स को सीखने में करते ? आप कह सकते हैं कि यह सिखाने की जिम्मेदारी सिर्क मजहबी रहनुमाओं की ही नहीं है. तो में कहूँगा आप सही कह रहे हैं. लेकिन मेरे मानना है कि यह सब सिखाने में तो इन रहनुमाओं को कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए और ना ही उन्हें इसकी खिलाफत करनी चाहिए. अगर हम चाहते हैं कि अकलियतों के बच्चे भी सरकारी नौकरियां पाएं और बढ़िया से बढ़िया तालीमी इदारों में दाखिला लें तो हमें हर लेवल पर कोशिश करनी होगी. हमारे मजहबी रहनुमाओं का यहाँ पर अहम् रोल हो जाता है क्योंकि आज भी जियादातर लोग इनका कहना मानते हैं.
ऐसा क्यों है कि आज भी मुस्लिम समाज में लड़के और लड़की की तालीम में फर्क किया जाता है ? लड़के को बढ़िया तालीमी इदारों में भेजते हैं और लड़कियों की तालीम की कम चिंता सताती है हमें. होना तो यह चाहिए कि दोनों की उम्दा तालीम हो. लड़कियों की उम्दा तालीम इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि तालीमीआफ्ता हो कर वह दो घरों को रोशन करती हैं- पहला तो अपने वालिद के घर को और दूसरा अपने ससुराल को. अगर माँ ही अनपढ़ होगी तो वह बच्चों को क्या तालीम देगी ? माँ की गोद बच्चे का पहला स्कूल होता है. इसलिए माँ का पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी है और माँ ही तो बच्चे के साथ जियादा वक़्त रहती है, इसलिए माँ की गोद को बच्चे की तरबियत के लिए इस्तेमाल ना करना अकलमंदी नहीं कही जा सकती. किसी भी समाज को बेहतर बनाने के लिए उसके हर फर्द का पढना ज़रूरी है. लड़के और लड़की का फर्क करने से समाज कभी तरक्कीआफ़्ता नहीं हो सकता. अगर हम पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो मुस्लिम लड़कियों ने अंग्रेजी और उर्दू मीडियम दोनों के 10 वीं और 12 वीं जमातों के इम्तीहानात में लड़कों से बढ़िया रिजल्ट दिया है. इस बात का खुलासा सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी करती है. इसलिए ऐसी कोई वजह नज़र नहीं आती कि लड़कियों को तालीम से महरूम रखा जाये.
ऐसी कई studies हुई हैं जिनसे पता चलता है कि २००२ गुजरात के दंगों के बाद मुस्लिम समाज में पढाई की तरफ रुझान बड़ा है. माँ-बाप गरीब ही क्यों ना हों पर वह अपने बच्चे को अच्छी तालीम देने के ख्वायीशमंद हैं. ऐसे में समाज के पढ़े-लिखे और अमीर लोगों का फ़र्ज़ बनता है कि ज़रूरतमंदों के सपनो को अमली जामां पहनाने के लिए आगे आयें और जदीद उलूम के लिए स्कूल और कालेज खोलें. पहले तो जो लोग समाज की फलाहबेह्बुदगी के काम में लगे हुए हैं, वो एक जगह मिलें और एक लम्बी स्ट्रेटजी तैयार करें कि तालीम को फरोग देने के लिए क्या क्या अमल करने होंगे. आज अकलियत समाज को प्रोफेसनल और टेक्नीकल तालीम की सबसे जियादा ज़रुरत है. इसके लिए प्रोफेसनल और टेक्नीकल इदारे खोले जायें. इन इदारों में पढने लिए बच्चे कहाँ से आयेंगे इस बात पर भी गौर किया जाये. प्रोफेसनल और टेक्नीकल इदारों में तालिबे-इल्मों को लाने के लिए मॉडर्न स्कूल हर मुस्लिम अकलियत इलाके में खोले जाये जो फीडिंग सेण्टर का कम करेंगे. इन सभी इदारों में अंग्रेजी मीडियम में तालीम मुहयिया कराई जाये. आज के माहौल में जब अंग्रेजी connecting और global जुबान बन चुकी है तो यह ज़रूरी हो जाता है कि हम अंग्रेजी का दामन थामें. प्रोफेसनल और टेक्नीकल कोर्सेस करने के बाद तालिबे-इल्मों को मार्केट में काम मिलने में इन्तहाई आसानी होगी.
एक बात और क्योंकि आज भी अकलियत समाज में लड़कियों को लड़कों के इदारे में पढाने पर थोडा एतराज़ है, इसलिए जब तक माहौल नहीं बदलता तब तक अकलियतों के इलाकों में गर्ल्स स्कूल खोले जायें. बढ़िया बात तो यह होगी की दिल्ली और दुसरे शहरों की तर्ज पर सिर्फ लड़कियों के लिए अलग से कोलेज खुलें. मैं लड़के और लड़कियों की एक जगह तालीम हो इस सोच का हूँ पर जब तक माहौल इसके लिए नहीं बनता तब तक क्या हम लड़कियों को आला तालीम से महरूम रखेंगे ? नहीं. हमें उन्हें ऐसा माहौल देना ही होगा जहाँ वो खुल कर अपनी पढ़ाई मुकम्मल कर सकें.
होना तो यह चाहिए कि मुस्लिम अकलियत में जो पढ़ जाये उसे कम से कम अपने मोहल्ले के तालीमी निजाम को सुधारने के लिए कोशिश करनी चाहिए. पर ऐसा हो नहीं रहा है. हम अपनी तालीम मुकम्मल करके अपनी ज़िन्दगी को और बेहतर बनाने में लग जाते हैं. क्या बढ़िया बात होती कि जो पढ़ जाता वो आगे लोगों को पढ़ता या उनके पढाने के लिए काविशें करता. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और इसलिए आज मुस्लिम अकलियत का ऐसा हाल हुआ.
ज़रुरत हमारे सियासी, समाजी और मजहबी रहनुमाओं के जागने की है. उन्हें यह एहसास होने की है कि तालीम के बगैर समाज की तरक्की का तसव्वुर मुमकिन नहीं. आईये हम सभी आगे आयें और प्रोफेसनल,टेक्नीकल,जदीद और अंग्रेजी से लबरेज तालीमी निजाम की इफ्तिता करें.
हमें कमज़ोर तबकों की बात करते रहना होगी. देखते हैं कब तक सरकारें और हमारे रहनुमा इन मसाईल पर चुप्पी साधे रहते हैं? कभी तो यह चुप्पी टूटेगी और हालात सुधरेंगे. आईये बेदारी पैदा करें कि सरकार अपनी सरकारी सोंच से आगे सोंचे ताकी हिंदुस्तान की अकलियतों को उनका वाजिब हक मिल सके. अकलियतों को भी मेनस्ट्रीम से जुड़ना है और इसलिए उसे भी जदीद तालीम के मौके फरहाअम करने होंगे. तभी जा कर हम एक तरक्कीआफता हिंदुस्तान का सपना साकार कर सकते हैं. हिंदुस्तान की तरक्की सभी की तरक्की में है.

(लेखक: जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय में रिसर्च स्कोलर और अलीगढ मुस्लिम विश्वविधालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं. उनसे abdulhafizgandhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है).

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