महिला दिवस के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं। बात अगर केवल रिवायती अंदाज़ में मुबारकबाद देने की होती तो यह एक वाक्य भी काफ़ी था, लेकिन ऐसा नहीं है। वक़्त और हालात का तक़ाज़ा कुछ और है, भावनात्मक रिश्तों का तक़ाज़ा कुछ और है। क़ौम व मिल्लत के लिए कर्तव्यों का तक़ाज़ा कुछ और है, इसलिए बात ज़रा विस्तार से करनी होगी और मुबारकबाद भी दिल की गहराईयों से देनी होगी। इस्लाम ने महिलाओं को जो सम्मान दिया है, जो स्थान और दर्जा दिया है शायद वह किसी और धर्म में नहीं है। कहा क्या जाता है और होता क्या है यह मेरी राय से अलग भी हो सकता है। इस वक़्त इस पर अधिक बहस करने के बजाए मैं इस तरफ़ ध्यान दिलाना चाहूंगा कि इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार सीरत-ए-रसूल सल्ल॰ की रोशनी में इस्लामी इतिहास को ज़हन में रखते हुए अगर हम महिलाओं की भूमिका पर बात करें तो यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जब-जब इस्लाम की प्रगति अथवा रक्षा के लिए महिलाओं की आवश्यकता हुई है, तो क़ौम को मायूसी का सामना नहीं करना पड़ा है। अगर हम इस्लाम के शुरुआती दौर की बात करें तो रसूलल्लाह हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल॰ जब अपने अमल से अपने अख़लाक़ से अपने किरदार से इस्लाम का महत्व समझा रहे थे उस समय उनका पहला चुनाव एक महिला के रूप में हज़रत ख़दीजतुल कुबरा थीं। आप उस समय अरब की एक मशहूर व्यापारी थीं और विधवा थीं, पवित्र पत्नियों में आपका दर्जा सबसे ऊपर है, आप हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल॰ के निकाह में आईं और आले रसूल सल्ल॰ में जिनका शुमार होता है उनका सिलसिला आपकी कोख से पैदा होने वाली हज़रते फ़ातिमा ज़हरा रज़ि॰ से हुआ। क्योंकि सीरत-ए-रसूल सल्ल॰ के हवाले से महिलाओं का उल्लेख करना है, इसलिए समाज में फैली हुई बुराइयों को ज़हन में रखते हुए एक-एक बात को स्पष्ट रूप से कहना होगा। आज भी यह समझा जाता है कि मुस्लिम महिलाओं को समाज में बराबर का दरजा प्राप्त नहीं है। उन्हें घर की चहार दीवारी में क़ैद रखा जाता है, उनके पास प्रगति के अवसर अन्य महिलाओं से कम हैं। अगर ऐसा होता तो हज़रत-ए-ख़दीजतुल कुबरा एक महिला होते हुए अपने कारोबार को किस तरह संभाल रही होतीं, अर्थात उस समय भी महिलाओं को यह स्थान और दरजा प्राप्त था कि कारोबार कर सकें, उसमें प्रगति कर सकें, अपनी पहचान बना सकें दूसरी बात जिस पर ध्यान दिलाना आवश्यक लगता है, वह यह कि एक विधवा औरत को समाज में वह स्थान प्राप्त नहीं होता था और कुछ हद तक यह असर आज भी देखा जाता है कि अपने पति के साथ जीवन बिताने वाली महिला को जो स्थान प्राप्त होता है वह एक विधवा महिला को नहीं होता। उसकी दूसरी शादी को सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता। रसूल-ए-अकरम सल्ल॰ ने अपने अमल से साबित किया कि ऐसा सोचना ग़लत है। रसूले अकरम सल्ल॰ का सबसे पहला निकाह हज़रत ख़दीजा रज़ि॰ से हुआ था, जो विधवा थीं, यह इस बात की ओर संकेत करता है कि इस्लाम में महिलाओं को क्या स्थान प्राप्त है। हज़रते ख़दीजतुल कुबरा रज़ि॰ की आयु हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल॰ से 15 वर्ष अधिक थी। अर्थात अल्लाह के रसूल सल्ल॰ ने अपने से अधिक आयु की एक विधवा से निकाह करके समाज को यह संदेश भी दिया कि केवल इस आधार पर किसी महिला का महत्व कम नहीं हो जाता कि वह बेवा है या उसकी आयु अधिक है। हज़रते आयशा सिद्दीक़ा रज़ि॰ की शक्ल में एक बार फिर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल॰ ने आयु के अंतर को निरर्थक ठहराया। अर्थात मानसिक रूप से अगर इतनी समझ है कि वह जीवन साथी बन सके तो आयु का यह अंतर बहुत महत्व नहीं रखता। मैं सीरत-ए-रसूल सल्ल॰ के इस पहलू पर और रोशनी डालता मगर इस समय जिस संदर्भ में बात करनी है और मैं इस समय भारतीय महिलाओं विशेषकर मुस्लिम महिलाओं का जिस तरफ़ ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं उसके लिए कम शब्दों में इस भूमिका को ख़त्म करके मूल विषय पर आना होगा।
मेरे नज़दीक अपनी बात को शुरू करने के लिए इस समय करबला की मिसाल है। करबला के मैदान पर शहादतों के बाद जो किरदार निभाया हज़रते सानि-ए-ज़हरा ने दौरे हाज़िर की महिलाओं के लिए उसे एक मिसाली किरदार के रूप में पेश करना चाहता हूं। करबला की यह जंग हक़ व बातिल के बीच थी इस जंग का नतीजा सबके सामने था लेकिन ‘शाम’ के रहने वाले पूरी सच्चाई नहीं जानते थे कि असल में करबला के मैदान पर क्या हुआ और क्यों हुआ। इस कशमकश को दूर किया हज़रत-ए-ज़्ौनब की उस ऐतिहासिक तक़रीर ने जो यज़ीद के दरबार में की गयी उस तक़रीर से आपने स्पष्ट किया कि नवास-ए-रसूल सल्ल॰ हज़रत इमाम हुसैन ने अपने परिवार वालों और मुहब्बत करने वालों की जानें क्यों नियौछावर कीं। यह कुरबानी अल्लाह के सबसे पसंदीदा दीन इस्लाम के लिए पेश की गईं। आपकी तक़रीर ने इन वास्तविकताओं को इस तरह बयान किया कि यज़ीद को भी इस बात का एहसास हुआ कि आख़िर यह क्या हो गया? इस घटना को बस इतना ही बयान करके मैं इस दौर की महिलाओं को दावत देना चाहता हूं कि फिर इस्लाम की रक्षा के लिए आपके ऐसे ही किरदार की आवश्यकता है। केवल भारत ही नहीं अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर क़ुरआन की शिक्षाओं और सीरत-ए-रसूल सल्ल॰ का संदेश भी आपके द्वारा भी पहुंचाए जाने की बहुत आवश्यकता है इसलिए कि मां की गोद में आने के बाद बच्चा जो पहली आवाज़ सुनता है वह आपकी होती है, जो पहली तरबियत उसे मिलती है वह आपकी गोद से मिलती है, वह जिस भाषा में बात करता वह आपकी भाषा होती है, उसकी शिक्षा व तरबियत की शुरूआत आपके द्वारा होती है, फिर समाज में वह जो भी स्थान प्राप्त करे उसका आरंभ तो आपके ही द्वारा होता है। यही कारण है कि मां के दर्जात बहुत बुलंद बताए गए हैं। स्वर्ग को उसके क़दमों के तले बताया गया है। आज पूरी दुनिया में इस्लाम के विरूद्ध माहौल तैयार किया जा रहा है। उसे आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। इसका उचित उत्तर अपने अमल के रूप में देने की आवश्यकता है। हम अपने भाषणों के माध्यम से, अपने लेखों के माध्यम से, जलसा व जुलूस और इजतिमा के माध्यम से वह बात नहीं कह सकते जो वह आपकी सादगी के द्वारा कही और समझाई जा सकती है, हैदराबाद के कलीम की मिसाल हमारे सामने है। उसकी पहचान किसी आलिम-ए-दीन या बुद्धिजीवी के रूप में नहीं थी। उसके पास इस्लाम धर्म की शिक्षाएं जो भी जितनी भी थीं वह उसे उसकी मां की आग़ोश और अपने ख़ानदान की तरबियत से ही मिला थीं। हम आपसे यही आशा करते हैं कि आज समाज में मुख़ालिफ़ हालात का सामना करने के लिए ऐसी ही तालीम व तर्बियत दिए जाने की आवश्यकता है।
समय का तक़ाज़ा यह भी है कि आप बड़ी संख्या में राजनीति में दिलचस्पी लें और पत्रकारिता को भी इस हद तक समझें कि आपको अपनी बात कहने का सलीक़ा आ जाए। वह सूचनाएं जिनकी आपको आवश्यकता है वह सही समय पर आपको मिलती रहें और उन्हें आगे किस तरह पहुंचाया जा सकता है यह हुनर आप सीख लें। मुझे याद है महिला दिवस के अवसर पर हैदराबाद के एक विशेष जलसे में मैंने तक़रीर करते हुए जो बातें कही थीं, उन्हें आज के इस लेख में अवश्य शामिल कर लेना चाहता हूं। मैंने हज़रत इमाम ख़ुमैनी का ज़िक्र करते हुए कहा था कि जब वह रज़ा शाह पहलवी के दरबार में तक़रीर कर रहे थे और रज़ा शाह पहलवी ने उनसे कहा था कि ‘ख़ुमैनी मैं इस देश का बादशाह हूं, यहां मेरा आदेश चलता है, तुम्हारी बात कौन सुनेगा, तुम्हारी बात पर कौन अमल करेगा’ तो उस समय इमाम ख़मैनी ने उन महिलाओं की तरफ़ इशारा करते हुए जिनकी गोद में मासूम बच्चे थे, कहा ‘पहलवी जब यह पीढ़ी जवान होगी तो इस देश पर तुम्हारी नहीं इस्लाम की हुकूमत होगी’। इतिहास गवाह है इसके बाद आए इन्क़लाब ने रज़ा शाह पहलवी की हुकूमत का तख़्ता पलट दिया और तब से आज तक ईरान में इस्लामी हुकूमत है। मैं अपने लेख के द्वारा और इस मिसाल के द्वारा यही संदेश पहुंचाना चाहता हूं कि आपकी गोद में पलने वाली हमारी नई पीढ़ी हमारे देश को उसी महान युग में वापस ले जा सकती है जब यहां हर तरफ़ राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सौहार्द था। इस देश की इस संस्कृति को गंगा जमनी संस्कृति कहा जाता था लेकिन आज धार्मिक नफ़रत और साम्प्रदायिक तनाव ने हमारे देश को बहुत नुक़्सान पहुंचाया है और इसे आपके द्वारा ही रोका जा सकता है। इसलिए कि भारत में होने वाले असंख्य साम्प्रदायिक दंगों का रिकार्ड मेरे सामने है, उनमें कहीं भी यह दर्ज नहीं है कि फ़साद हिंदू और मुसलमान फ़िरक़ों से संबंध रखने वाली महिलाओं के बीच हुआ। हां यह बेचारी इन दंगों का शिकार ज़रूर बनती हैं, इससे प्रभावित अवश्य होती हैं, लेकिन दंगा इनके द्वारा किया गया हो, शुरूआत इनके द्वारा की गई हो ऐसा देखने को नहीं मिलता। जबकि महिलाएं हिंदू हों या मुसलमान वह अपने-अपने धर्मों पर अमल ज़्यादा करती हैं, इबादतगुज़ार वह ज़्यादा होती हैं, मंदिरों में वह अधिक जाती हैं, रोज़ा-नमाज़ की वह अधिक पाबंद होती हैं, मगर धर्म के नाम पर फैलाई जा रही नफ़रत उनके दिलों में नहीं होती। इस विषय पर कई लेख लिखे जाने की आवश्यकता है, लेकिन इस समय मैं केवल दो बातें कह कर आज के लेख को समाप्त करना चाहूंगा, मेरा आज का लेख बेरब्त लग सकता है इसमें तसुलसुल की कमी है मैं शब्दों से अधिक भावार्थ पर ध्यान दिला रहा हूं। मैं जानता हूं इस समय कम से कम शब्दों में मुझे क्या कहना है। परदे पर अगर बात न करूं तो शायद समाज में फैली ग़लतफ़हमी को दूर नहीं कर पाऊँगा, इसलिये कुछ वाक्य परदे के हवाले से भी कहना चाहूंगा कि परदा प्रगति की राह में रुकावट कहीं भी नहीं रहा है। मैंने अपनी बात की शुरूआत हज़रत ख़दीजतुल कुबरा रज़ि॰ से की थी। यह तो इस्लामी दौर की बात थी, अगर भारत की आज़ादी के बाद के हालात पर निगाह डालें तो भी भारत में विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति करने वाली महिलाऐं चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, भारतीय सभ्यता व संस्कृति का प्रतिनिधित्व करतीन नज़र आई न कि पश्चिम सभ्यता का उनका लिबास आपके सामने है। निःसंदेह उन्हें परदे में नहीं कहा जा सकता मगर यह इस हद तक बेपरदा भी नहीं हैं जिसकी वकालत आज के प्रगतिशील करते नज़र आते हैं या जो ग़लत फ़हमी हमारे नौजवान लड़कियों के दिलो दिमाग़ में पैदा की गई है। पाकिस्तान में बेनज़ीर भुट्टो, बंग्ला देश में बेगम ख़ालिदा ज़िया और शेख़ हसीना वाजिद अपने अपने देशों में ऊंचे मक़ाम तक पहुंची उनका मुसलमान होना उनकी राह में कहीं भी रुकावट नहीं बना। जहां तक परदे का संबंध है तो हमें दुनिया के आरंभ से प्रगति की राह पर चलने तक के बदलते हुए परिदृश्य पर निगाह डालनी होगी। जब मर्द और औरत को इस बात का एहसास हुआ कि सभ्यता का तक़ाज़ा यह है कि हम अपनी शर्मगाहों को, जिस्म के नाज़्ाुक हिस्सों को छुपा कर रखें तो पेड़ों की छाल से उन हिस्सों को ढकने की शुरूआत हुई। उसके बाद जैसे-जैसे विकास का सफ़र आगे बढ़ा, पेड़ों की छाल की जगह जानवरों की खाल इस्तेमाल की जाने लगी, समय बदला हम कुछ और आगे बढ़े, कपड़े का इस्तेमाल शुरू हुआ फिर शरीर को कपड़े से ढका जाने लगा। आहिस्ता आहिस्ता समाज और सभ्य हुआ, यह कपड़ा लिबास का रूप लेता गया। अब जिसके शरीर पर जितना अच्छा लिबास था उसे समाज में उतनी ही अच्छी निगाहों से देखा जाने लगा। आज जो प्रगतिशील देश हैं उनकी महारानियों के लिबास देखिए, सारी दुनिया में स्वयं को सभ्यता का अलम्बरदार कहने वाला ईसाई धर्म अपनी ‘नन्स’ को जिस लिबास में पेश करता है वह आपके नक़ाब के बहुत क़रीब है। हिंदू धर्म की तब्लीग़ करने वाली महिलाओं का लिबास भी पूरी तरह तन ढकने वाला है, अतः मुस्लिम महिलाओं का लिबास जिस्म के ढके हुए होने की हिमायत करता है तो यह उनके प्रगतिशील होने की दलील है उनके पिछड़े हुए होने की नहीं। राजनीति में आने वाली महिलाएं, चाहे वह भारत में रही हों या पाकिस्तान में किसी ने भी पश्चिमी पहनावे का सहारा नहीं लिया।
एक अंतिम बात, परवरदिगार-ए-आलम ने महिलाओं में वह गुण दिया है कि अगर वह किसी को अपनी तरफ़ आकर्षित करना चाहें तो कर सकती हैं। अब यह इश्क़ किसी एक व्यक्ति से भी हो सकता है, ख़ुदा से भी हो सकता है, समाज से भी हो सकता है, अपनी मातृ भाषा से भी हो सकता है। आज आपको देखना यह है कि इश्क़ की यह भावना अपने आप तक सीमित रहे। केवल कोई एक व्यक्ति आपके प्रेम का अधिकारी बने या पूरा समाज, जो आज आपकी इस तवज्जो का तालिब है। निःसंदेह समाज से मुहब्बत आपको ख़ुदा की तरफ़ ले जाएगी। हां इसमें वह व्यक्ति भी शामिल हो सकता है जो आपको पसंदीदा हो और वह इस काम में आपके साथ मिल कर राष्ट्र को उस स्थान की तरफ़ ले जा सकता है जिसकी तरफ़ मैं इशारा कर रहा हूं। अगर एक बार हमारी महिलाओं ने यह निर्णय ले लिया कि वह देश और समाज की तस्वीर बदलने का इरादा रखती हैं तो मुझे पूरा विश्वास है कि न केवल यही हक़ीक़त होगी बल्कि बहुत जल्द होगी।
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