वंदे मातरम् के विवाद पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तरह-तरह के बयान पूरे देश में जारी किए है और अपने को राष्ट्रभक्त साबित करने का प्रयास किया है और शब्दों की बाजीगरी के अलावा कुछ नही है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राष्ट्रीय झंडे में ही विश्वाश नही है। 4 जुलाई 1946 को आर एस एस प्रमुख म अस गोलवलकर ने कहा कि "हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसीलिए परम वन्दनीय ध्वज को हमने अपने गुरु स्थान में रखना उचित समझा है यह हमारा द्रण विश्वाश है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष हमारा सारा नतमस्तक होगा " ।
14 अगस्त 1947 को आर.एस.एस के मुख पत्र आरगेनाइजर ने लिखा कि "वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिन्दुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा । 3 का आंकडा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा ।" राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राष्ट्रीय झंडे में विश्वाश नही है और न ही वह राष्ट्र भक्त ही है । लेकिन वह जब कोई बात शुरू करते हैं तो अपने को सबसे बड़ा राष्ट्र भक्त साबित करते हैं।
स्वर्गीय बंकिम चन्द्र के उपन्यास आनंद मठ में वंदे मातरम् गीत आया है राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बहुत सारे नवजवानों ने वंदे मातरम् कहते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए थे । आजादी की लडाई में इस गीत का अपना महत्त्व है ।
लेकिन यह भी सच है कि अनद मठ उपन्यास ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लिखा गया था किंतु बाद में अंग्रेजों ने बंकिम चन्द्र को प्रताडित कर आनंद मठ का पुनः प्रकाशन कराया था। जहाँ-जहाँ अंग्रेज शब्द लिखा गया था वहां-वहां मुसलमान कर दिया गया था ।
आर.एस.एस कि राष्ट्र भक्ति अजीबो-गरीब है जिसका कोई पैमाना नही है उनका पैमाना सिर्फ़ यह है कि भारतीय मुसलमानों को किस तरह से बदनाम किया जाए यही उनकी हर कोशिश रहती है ।
गुजरात का नरसंहार इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ।।
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