Friday, December 10, 2010

मैं मुसलमान और मेरा हिंदुस्तान - अनवर चौहान

साथियो। सबसे पहले अपनी बात। बीस साल से पत्रकारिता में हूं। क़रीब दस साल तक ज़माने के सबसे असरदार हिंदी अख़बार जनसत्ता, फिर स्टार न्यूज और आईबीएन-7 न्यूज चैनल में वरिष्ठ पत्रकार की हैसियत काम किया। फिलहाल क्राइम इंडिया ओन लाइन डोट कोम न्यूज़ पोर्टल का मैनेजिंग एडिटर हूं। पत्रकारिता के पेशे में होने से सत्ता के गलियारे से क़रीबी रिश्ता रहा। इतिहास के पन्नों को पलटने, पढ़ने और उसका हिस्सा बनने का मौक़ा मिला। देश में कई गंभीर मुद्दे हैं जिन को उजागर करना बेहद ज़रूरी है। लेकिन फिलहाल में देश के मुसलमानों की हालत से रूबरू करा रहा हूं। मेरे ये अनुभव सबूतों और दलीलों से ख़ारिज नहीं हैं। किताब को संक्षेंप में समेटना मक़सद है। किताब में उठाए गए मुद्दों की तफ्सीली जानकारी आंकड़ों के साथ मेरे पास मौजूद है। मौक़ा मिला तो अगली किताब मुसलमानों के मुकम्मल हालात पर तफ़्सील लिखूंगा। फ़िलहाल मैंने बड़े-बड़े मुद्दों को कम अलफ़ाज में समेटने की कोशिश की है। मेरी सबसे दरख़्वास्त है कि जिनको पढ़ना न आता हो उनको भी किताब पढ़कर सुनाई जाए। मैं अपनी बात हर मुसलमान तक पहुंचाना चाहता हूं। न जाने किस शख़्स की समझ में मेरी बात आ जाए और इंक़लाब का झंडा थाम कर वो इस मुल्क में मुस्लिम राजनीति को एक नई दिशा दिखाने का काम कर सके।



कोई क़िस्सा या कहानी नहीं सबसे पहले एक हक़ीक़त। मग़रिब की नमाज़ अदा कर मस्जिद से निकल रहा था। मस्जिद के दरवाज़े पर भीड़ में एक बच्चा ज़ार-ज़ार रो रहा था। लोग उससे पता पूछ रहे थे। लेकिन वो बता नहीं पा रहा था। उम्र क़रीब 5, 6 साल। नंगे पैर, कपड़े मैले कुचेले। लोगों ने बच्चे को मेरे हवाले करते हुए कहा कि आप ही इस मामले को सुलझाऐं। मैं बच्चे से कोई सवाल किए बगैर उसे अपने घर ले आया। सबसे पहले खाना खिलवाया। उसे खाते देख, लगा काफी भूखा है। कुछ देर बाद वो घर के बच्चों के साथ टेलीवीज़न देखने



में मशग़ूल हो गया। और देखते-देखते वो बच्चों में घुल मिल गया। तीन चार दिन बाद मैंने पीसीआर को सौ नंबर पर इत्तिला दी कि अगर किसी थाने में बच्चा गुम हो जाने की रपट लिखाई गई हो तो एक बच्चा मेरे पास है। उसका हुलिया भी मैंने पुलिस को बता दिया। कुछ दिनों बाद दिल्ली के सीलमपुर थाने के कुछ पुलिस वाले आए और कहा कि इस हुलिए के बच्चे के गुम होने की रपट किसी भी थाने में दर्ज नहीं है। लिहाजा हम इसे किसी बाल गृह में छोड़ आते हैं। मैंने उनसे कहा कि बच्चे को यहीं रहने दो। मैं इसके मां-बाप का पता लगाने की कोशिश करता हूं। मैंने बच्चे से नाम पूछा। वो मेरा हमनाम निकला। नाम उसका भी अनवर था। पिता का नाम उसने बताया आफ़ताब शेख़। लेकिन अपने घर का पता नहीं बता पाया। मेरी बीवी जब उसके कपड़े धो रही थी तो पैंट की जेब से एक पर्ची निकली। जिसमें उसके घर का पूरा पता लिखा था। पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के एक गांव का। तब मैंने अपने एक आई.पी.एस दोस्त अकबर अली ख़ान को फोन किया। पश्चिम बंगाल पुलिस के डीआईजी। मैंने उनको बच्चे के हालात बताए और उसके मां-बाप का पता लगाने को कहा। अकबर भाई ने उस जिले के एसएसपी को कह कर उसके परिवार वालों का पता लगा लिया। पिता के पास किराए के पैसे नहीं थे। पुलिस वालों ने ही किराए के पैसे देकर बच्चे के पिता और चाचा को मेरे पास दिल्ली भेज दिया। दोनों जब मेरे पास पहुंचे तो मैं उन पर काफी गरम हुआ कि इतने से बच्चे को लापता होने के लिए कैसे दिल्ली में छोड़ दिया। बच्चा बाप से लिपटकर रोने लगा। पिता और चाचा की भी आंखें भर आईं। रोते हुए अनवर बार बार मां का हाल पूछ रहा था। इस मिलन के बीच टपकते आंसू कहीं न कहीं मेरे कलेजे पर चोट कर रहे थे। मैं खामोश उन्हें तकता रहा। आंसू अभी थमे भी नहीं थे कि बच्चे के पिता ने मुझसे कहा ,,बाबू साहब कौन अपने जिगर के टुकडे को खुद से जुदा करता है। सात बेटियों के बाद ऊपर वाले ने बेटे का मुंह दिखाया। मगर हम मजबूर थे। परिवार के बाकी लोगों को तो भूख बर्दाश्त करने की आदत पड़ गई है। लेकिन बेटा इकलौता है। इसको भूखा देखने का दर्द हम सह नहीं पाते थे। इस आस पर इसको दिल्ली भेज दिया कि वहां कोई न कोई काम के बदले इसका पेट तो भर ही देगा।,,



यह है हमारे उस हिंदुस्तान की सच्चाई जिसके नेता चांद पर दुनिया बसाने की बात कर रहे हैं। जो भी सरकार आती है देश की विकास दर गिनाने में जुट जाती है। लेकिन सत्ता चलाने वालों को देश का आईना देखने की फुरसत नहीं है। सरकार के दावे सच्चाई से कोसों दूर हैं। न जाने अनवर जैसे कितने बच्चे खाली पेट सो जाते हैं। ये पेट की भूख कभी किसी न्यूज़ चैनलों की हैडलाइन या फिर अख़बार की सुर्ख़ियां नहीं बनती। हां किसी साहूकार, नेता के अस्पताल में भर्ती होने या फिर बालीवुड में किसी को भी छींक आने ख़बरें मीडिया जगत की हैडलाइन बनना रोज़मर्रा की बात हो गई है। कड़वा सच है। चूंकि मैं ख़ुद पत्रकार हूं। मुझे ये लिखते हुए अफसोस होता है कि जिस पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। उसमें भी धीरे धीरे घुन लगने लगा है। सच्चाई ये है कि इस मुल्क में हज़ारों लोगों को दो वक़्त की रोटी मयस्सर नहीं होती। न जाने कितने घरों में कई कई दिनों तक चूल्हा नहीं जलता। लेकिन मीडिया के लिए ये अब ख़बर नहीं। न्यूज़ चैनलों में एक दूसरे को पछाड़ने के लिए टीआरपी की होड़ लगी है। अख़बारों को जहां से विज्ञापन मिलता है, उनकी चापलूसी से फ़ुरसुत नहीं। किसी को कोई दिलचस्पी नहीं कि देश में ग़रीब पर क्या गुजर रही है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आई कि देश के मुसलमानों की हालत ख़स्ता है। इस मुल्क में मुसलमानों की दास्तान स्याह सफ़ेद पन्नों से पटी पड़ी है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद भी सरकार की आंखें नहीं खुलीं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के साथ ही रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट भी आई। जिसमें साफ साफ कहा गया है मुसलमानों की कुछ बिरादरियों की हालत तो अनुसूचित जाति से भी बदतर है। लेकिन रंगनाथ मिश्र कमीशन की इस रिपोर्ट को तो संसद में भी नहीं लाया गया। इससे सरकार की बेईमान नीयत का साफ़ ख़ुलासा होता है। ये रिपोर्टें कुछ दिन तक तो चर्चा में रहती हैं। पर बाद में ठंडे बस्ते में डाल दी जाती हैं। पिछले 62 सालों से मुसलमानों के साथ यही होता आ रहा है। और अगर मुसलमान यूं ही सोता रहा तो यही होता रहेगा। यानी अब भी जाग जाएं तो सवेरा है।



अब बात मुल्क के बटवारे से लेकर आज तक के सियासी माहौल की। बंटवारे के बाद इस मुल्क में मुसलमान ही है जो सबसे ज़्यादा टोटे और ख़सारे में रहा। इस क़ौम का सभी सियासी जमातों ने ख़ून चूसा और मौजूदा दौर में भी चूसा जा रहा है। मगर ये क़ौम है जिसे अपने छले जाने तक का अहसास नहीं। इस की बदक़िस्मती ये है कि इस के साथ हमदर्दी तो बहुतेरे सियासी रहनुमाओं ने दिखाई मगर किसी न किसी गर्ज़ से। तारीख़ की ख़ाक बाद में छानेंगे फ़िलहाल तो मौजूदा दौर पर बात करते हैं। देशभर में आज हर क़ौम के नेताओं की भरमार है। दलित हो, पिछड़ा हो, पंडित, बनिया, पंजाबी, आदिवासी और न जाने कितनी क़ौमें, गिनना भी आसान नहीं। नेता सबके हैं। मगर नेताविहीन अगर कोई क़ौम है तो सिर्फ मुसलमान। देश की तमाम सियासी जमातों ने इस क़ौम को पिछलग्गू बना लिया पर साझेदार नहीं। इनके वोट का इस्तेमाल तो सब ने किया मगर समसस्याओं को समाधान नहीं। मुसलमानों के बूते पर कांग्रेस ने पचास साल से भी ज़्यादा राज किया। लालू प्रसाद यादव बीस साल तक मुसलमानों के दम पर सत्ता का सुख भोगते रहे। रामविलास पासवान, मायावती समेत कई नेता इसी वोट बैंक के आधार पर सत्ता की मलाई मारते रहे। लेकिन मैं एक सवाल करता हूं। भले ही टके का हो, देश के किसी भी बड़े सियासी दल का मुखिया कोई मुसलमान क्यों नहीं है? मंसूबे साफ़ ज़ाहिर हैं। समझने वाले समझ भी रहे होंगे। कोई हिंदू नेता हिंदू कट्टरवादी नेता या संगठन को गाली दे दे तो वो मुसलमानों का मसीहा बन जाता है। चाहे वो फिर मुलायम सिंह यादव या फिर कोई और ही क्यों न हो। जो खुद को मुल्ला मुलायम सिंह तक कहलवा रहे हैं। पर भोला मुसलमान इस सियासत को नहीं समझ पाता। ये सब वोट बटोरने की ज़ुबान है। इसके अलावा कुछ भी नहीं। मुलायम सिंह मुलायम सिंह ही रहेंगे। वो मुल्ला या मौलाना कभी नहीं बन सकते। मुलायम सिंह अगर आपके इतने ही हमदर्द हैं तो उन्होंने सपा में अपने कद का नेता किसी मुसलमान को क्यों नहीं बनने दिया। उनके सूबे में जिस मुसलमान का क़द बढने लगा उसी के पर कतर डाले। अमर सिंह, आज़म ख़ान जैसे लोग नंबर दो, तीन की पोजीशन पर रहे। जबकि मुसलमानों के वोटों पर ही उन्होंने सत्ता का सुख भोगा है। ऐसा ही हाल दूसरे नेताओं का भी है। मुसलमान को भीख का टुकड़ा तो हर दर से मिला मगर भागीदारी कहीं से नहीं। ग़ौर करने वाली बात है कि हिंदुस्तान की किसी पार्टी में कोई मुसलमान नेता इस क़द और क़ुव्वत का है जो सीना चौड़ा कर मुसलमानों का हक़ मांगने की जुर्रत रखता हो। या फिर अपनी संख्या के आधार पर लोकसभा और राज्य सभा में भागीदारी मांग सके। सच्चाई ये है कि वो अपनी आबादी के आधार पर अपनी पार्टी से मुसलमानों को टिकट तक नहीं दिलवा सकता। सब पिछलग्गू हैं। सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने भले के लिए चाटूगीरी करते नज़र आते हैं। ये सफ़ेदपोश नेता जिनके दिल अंदर से काले हैं अपने स्वार्थ के लिए मुसलमानों को क़दम क़दम पर बेचने का काम कर रहे हैं।



दूसरों से क्या शिकवा करें दोष अपने भी कम नहीं हैं। हम लोगों को अपने वोट की ताक़त का अहसास ही नहीं। मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूं। देश की कोई सियासी जमात बिना मुसलमानों के इस मुल्क की सत्ता हासिल नहीं कर सकती। ये बात हवा में नहीं कह रहा। आज से क़रीब तीस साल पहले नवभारत टाइम्स के एडिटर राजेंद्र माथुर ने लिखा था कि इस देश की कोई भी सियासी पार्टी बिना मुसलमानों के सत्ता की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकती। लेकिन मुसलमानों को इसका अहसास नहीं। सब ख़ून निचोड़ने पर लगे हैं और हम निचुडने को सदा तैयार। दरअसल हमारे अंदर भीख के टुकडों पर पलने की आदत बन गई हैं। चंद मुसलमानों को मंत्री या किसी आयोग का चैयरमैन बना दिया जाए तो सारी क़ौम गदगद हो जाती हैं। तमाम क़ौमें सत्ता में अपनी-अपनी भागीदारी पा चुकी हैं। एक हम ही हैं जो साझेदारी से दूर हैं। मुल्क में हमारी गिनती साढ़े 18 फ़ीसदी कही जाती है। क्या किसी मुसलमान ने आवाज़ उठाई कि लोकसभा और राज्यसभा में हमारी तादाद आबादी के लिहाज़ से होनी चाहिए। साढ़े 18 फ़ीसदी के हिसाब से भी लोकसभा में कम से कम सौ सांसद होने चाहिए थे। मगर आज़ादी के बाद से लेकर आज तक लोकसभा में कभी सौ तो दूर इसके आधे भी कभी पूरे नहीं हुए। यही हाल राज्यसभा का भी है। मुस्लिम सांसदों के चुने जाने की बात तो छोड़ दो। इस देश में जो पार्टियां जिनमें कांग्रेस भी शामिल हैं ख़ुद को मुस्लिम नवाज़ जरूर कहती हैं। मगर इनमें से कोई भी पार्टी लोकसभा चुनाव में सौ मुसलमानों को टिकट तक नहीं देती। राज्यसभा पहुंचाना तो सरकार के लिए सहज काम है। मगर कोई दल आज तक राज्य सभा में भी आबादी के लिहाज़ से भागगीदारी नहीं दे पाया। बात कड़वी है। मगर है सच्ची। पहले तो मैं ये बता दूं कि इस देश में मुसलमानों की आबादी साढ़े 18 फ़ीसदी से ज़्यादा है। जब में दसवीं में पढ़ता था। तभी से ये आंकड़े सुनता आ रहा हूं। देश में आबादी सबकी बढ़ रही है मगर सरकारी आंकड़ों में मुसलमानों की नहीं बढ़ती। आख़िर राज़ क्या है? मुझे नहीं मालूम। हां इतना ज़रूर है कि आरएसएस लगातार मुसलमानों की बढ़ती आबादी से जरूर चिंतित रहती है। उसका आरोप है कि मुसलमान कई-कई बीवियां रखते हैं। बच्चे भी बहुत पैदा करते हैं। मगर वो बच्चे आख़िर जाते कहां हैं? कभी जवान नहीं होते? कभी वोटर नहीं बन पाते? इसका जवाब मेरे पास तो नहीं मगर सरकार के पास ज़रूर होगा। मुसलमान नेताओं से कहता हूं कि सरकार से मुसलमानों की सही आबादी का पता तो करें। ख़ैर आबादी के विषय को समाप्त करते हुए थोड़ा मौजूदा सियासत की तरफ़ बढ़ते हैं। लालू प्रसाद, यादव हों या फिर मुलायम सिंह यादव या फिर कई दर्जनों नेता जो राष्ट्रीय नेता कहलाए जाते हैं। इन सबको नेता बनाने में किस का हाथ रहा है। सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों का। मगर अफ़सोस इस बात का है कि हम अपना रहनुमा नहीं चुन पाए। लेकिन एक बात और साफ़ कर दूं। इस मुल्क में पूरी क़ौम का नेता किसी को आसानी से बनने नहीं दिया जाएगा। ऐसा भी नहीं कि तूफ़ान आया तो कोई थाम सके। और वैसे भी इस दिशा में कोई ईमानदार पहल भी नहीं हुई है। आग़ाज हुआ तो फिर अंजाम तक पहुंच ही जाएंगे और मंज़िल मिल ही जाएगी।



मुसलमान और दलित वोट बैंक के आधार पर कांग्रेस ने इस मुल्क में पांच दशक से भी ज़्यादा राज किया है। आज भी कांग्रेस सत्ता का सुख भोग रही है तो उसमें भी मुसलमानों का किरदार ज़रूर है। थोड़ा पीछे चलते हैं। बटवारे के दौरान पढ़े लिखे और मालदार मुसलमानों का बड़ा तबक़ा पाकिस्तान में आबाद हो गया। बचे खुचे मुसलमानों की माली हालत ज़्यादा अच्छी नहीं थी। सदियों से दबा कुचला दलित वर्ग भी कम मुसीबतज़दा नहीं था। कांग्रेस ने लंबा राज करने के लिए ख़ासतौर से इन्हीं दो वर्गों को अपना वोट बैंक बनाने की रणनीति तैयार की। दलितों को आरक्षण का लाभ देकर लंबे समय तक अपना ग़ुलाम बनाकर रखा। तो दूसरी तरफ मुसलमानों को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ने के लिए नया खेल खेला। इतिहास के पन्ने खोलिए। आज़ादी के बाद से इस मुल्क में हुए दंगों में जितना ख़ून मुसलमानों का बहा उतना किसी और का नहीं। बदले हालात में सिर्फ गुजरात दंगों की बात को फिलहाल छोड़ देता हूं। इस मुल्क में हिंदू-मुस्लिम दंगों के किसी क़ातिल को आज तक कोई सज़ा नहीं मिली। आज से दस साल पहले के आंकड़े हैं। इस मुल्क में कुल 57 हजार हिंदू मुस्लिम दंगे हुए। ये आंकड़े 62 पेज की एक रिपोर्ट में बाक़ायदा दर्ज हैं। और दस्तावेज़ के रूप में उलेमाओं के एक संगठन के पास मौजूद हैं। बर्बादी का बहुत कुछ हिस्सा सबूतों के साथ मेरे पास भी मौजूद है। लेकिन मैं सब कुछ नहीं लिख सकता। चूंकि मैं इस मुल्क के क़ानून और उसकी रहनुमाई करने वालों की काली करतूतों से बाख़ूबी वाक़िफ़ हूं। नेताओं के इशारों पर सच का झूठ और झूठ का सच कैसे बनता है इसका खेल में नज़दीक से देख चुका हूं। इसलिए मुझे अंदेशा है कि कहीं दंगे भड़काने की कोशिश करने का आरोपी न बना दिया जाऊं। ज़िक्र तो मैं करुंगा लेकिन एक दायरे में रहते हुए। इस मुल्क में हुए दंगों ने न जाने कितने मज़लूम, बेबस, बेगुनाह और लाचार मुसलमानों की जान ले ली। न जाने कितने आयोग बैठे। लेकिन कोई आयोग किसी दोषी को सज़ा की दहलीज़ तक नहीं पहुंचा पाया। क़ातिल भी वही मुंसिफ भी वही। भला इंसाफ मिलता भी तो कैसे। अब ज़रा तारीख़ के दरीचे को और खोलते हैं। ग़ौर कीजिए हिंदुस्तान के जिस-जिस शहर में मुसलमानों की माली हालत सुधरने का सिलसिला शुरू हुआ वहां-वहां दंगाइयों ने न सिर्फ़ मुलमानों का क़त्लेआम किया, बल्कि उनकी माली हालत से भी कमर तोड़ डाली। अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, भागलपुर, मलियाना, अहमदाबाद, सूरत जैसे दर्जनों शहर तो महज़ एक मिसाल भर हैं। ख़ासतौर से कांग्रेस की मुखिया रही इंदिरा गांधी की ये पोलिसी रही कि मुसलमानों को भय यानी ख़ौफ और दहशत में रखा जाए। उनको जनसंघ जैसे हिंदू कट्टरवादी संगठनों का ख़ौफ दिखाकर, कांग्रेस की ओर आकर्षित करने का काम किया गया। इसी साज़िश के तहत पहले मुसलमानों को पिटवाया और फिर पुचकारा। यही वजह रही कि मुसलमान कांग्रेस का वोट बैंक बना रहा। अपने बीच मौजूद बुज़ुर्गों से ज़रा पूछिए। मेरे लिखे की तस्दीक़ और आपकी तसल्ली दोनों हो जाएंगी। एक लंबा समय ऐसा ग़ुजरा है जब मुसलमान ने सरकार से न रोटी मांगी न रोज़गार। मांगी तो सिर्फ अपने जान माल की हिफाज़त। जो लोग इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं शायद उनमें से कुछ ने दंगे का ख़ौफ देखा हो, या फिर महसूस किया हो। लेकिन मैंने बहुत सारे दंगों का हाल अपनी आंखों से देखा है। जंगलों, तालाबों, नदियों और नालों में लावारिस मुलमानों की लाशों में कीड़े पड़ते देखे हैं। मुसलमानों की जलती लाशें देखी हैं। उनके मकानों में भड़कती आग का धुआं देखा है। बर्बादी के बाद उजड़े मकानों की वीरानगी देखी है। उजड़ी जिंगदियों से भी रूबरू हुआ हूं। यतीमों और विधवाओं से लिपटकर रोया भी हूं। लेकिन इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ये सब कुछ सिर्फ मज़हब की नफ़रत नहीं बल्कि सोची समझी राजनीत का हिस्सा थी। मुनव्वर राना का शेर याद आ रहा है। क्या ख़ूब कहा है।



,,बड़ा तअल्लुक है सियासत से तबाही का।,,



,,कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है।,,



एक और शायर हैं जिनके नाम से कुछ लोग ही वाक़िफ होंगे। उनकी ग़जल के चंद शेर कुछ इस तरह हैं।



,,दरिया के निगेहबानों क्या तुमसे कहूं मुझको,,



,,साहिल (किनारा) ने डुबोया है मौजों ने उछाला है।,,



,,फ़रियाद करूं किससे इस शहर के मुंसिफ का।,,



,,क़ानून अनोखा है इंसाफ निराला है।,,



,,सब प्यार के हामी हैं सब अमन के रखवाले हैं।,,



,,फिर किसने फ़िज़ाओं में ख़ून उछाला है।,,



एक और गजल के चंद शेर---



,,क्या बताएं अपनी नाकामिए मंज़िल का सबब।,,



,,क़ाफिला लूट चुके हैं राह दिखाने वाले।,,



,,हमने भी तो ख़ून दिया है अपने वतन की ख़ातिर,,



,,आप तन्हां ही नहीं थे आज़ादी के पाने वाले,,



,,जंग-ए आज़ादी की तुम तारीख़ उठाकर देखो,,



,,सबसे पहले हम ही तो थे दार(फांसी) पे जाने वाले,,



एक और शेर—



,,जिनसे तुम क़त्ल की फ़रियाद करोगे यारो,,



,,हैं वही क़त्ल का मंसूबा बनाने वाले,,



समझने वाले समझ रहे होंगे। सत्ता के लिए न जाने किस किस ने ख़ून की होली खेली। मगर मुसलमान इस खेल को समझ नहीं पाया। और जो समझा वो ख़ामोशी अख़्तियार कर गया। इस ख़ामोशी में भी कहीं न कहीं कोई मजबूरी छिपी थी।



जख़्म तो हमेशा भर ही जाते हैं। मगर जख़्मों के निशान नहीं मिटते। मगर हमारी आदत बन गई है कि हम सबकुछ भूल जाते हैं। इस मुल्क में नसबंदी के नाम पर जो कुछ मुसलमानों के साथ हुआ मैंने तो देखा नहीं। लेकिन पुराने अखबारों में पढ़ा ज़रूर है। सिर्फ मुसलमान ही नहीं दूसरी कौमें भी इस ज़ुल्म का शिकार हुई थीं। मगर कोई भूला या न भूला मुसलमान वो सब कुछ भूल गया। दंगे एक नहीं हज़ारों हुए। वो सब कुछ भूल गया। बाबरी मस्जिद से भला कौन मुसलमान बेख़बर है। जो कुछ हुआ मैं बताने की ज़रूरत नहीं समझता। लेकिन एक मुसलमान है सब कुछ भुलाकर फिर कांग्रेस का पिछलग्गू बन गया। कांग्रेस अपने आपको धर्मनिरपेक्ष पार्टी बताती है। मुझे तो हंसी आती है उसकी धर्मनिरपेक्षता पर। हां इतना ज़रूर है कि इस पार्टी ने धर्मरपेक्षता का मुखौटा ज़रूर पहन रखा है। इस मुल्क में मुसलमानों की मुसीबतों और उनके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कांग्रेस ने ढिंढोरा तो ख़ूब पीटा। मगर क्या उसे दूर करने के लिए कोई अमली जामा पहनाया? सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने सही मायने में कांग्रेस की बईमान नीयत की ही पोल खोली है। ये सवाल मैं आम मुसलमान से पूछ रहा हूं। क्या ऐसा हुआ है? नई सरकारें आती हैं, नए नए आयोग बनते हैं। और नए नए वायदों के काग़जी मसौदे तैयार होते हैं। लेकिन वो हमेशा दफ्तरों की फाईलों में धूल चाटते चाटते दम तोड़ देते हैं। ईमानदारी बरती गई होती तो 62 साल की आज़ादी में मुसलमानों का यही हाल हुआ होता जो आज है? आंकड़े गवाह हैं कि सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की तादाद कितनी है। यही आंकड़े नेताओं की बेईमान नीयत की पोल खोलते हैं। यदि आप मेहनत के बूते पर किसी ओहदे पर हैं भी तो आपको आपकी औक़ात की जगह पर रखा जाता है। एक बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने बयान में ख़ुद ये क़बूला कि मुसलमान अफसरों की अनदेखी की जा रही है। उन्होंने मुस्लिम अफसरों को ठीकठाक जगहों पर तैनात किए जाने की सिफारिश भी की थी। लेकिन इस पर भी अमल नहीं हुआ। कुछ मुसलमान अफसर दिखावेभर के लिए ज़रूर हैं। जिनको ठीकठाक जगहों पर तैनात किया गया है। मगर ऐसे अफसरों को महज़ उंगलियों पर गिना जा सकता है। या फिर कुछ मुसलमान चापलूसी कर किसी मुक़ाम पर पहुंच गए हैं। सरकार के इस बारीक खेल को मैं नज़दीक से जानता हूं। बहुत सारे मुसलमान अफसरों का दुखड़ा सुन चुका हूं। जिनको नौकरी करना भी भारी पड़ रहा है। वो अपने आपको 32 दांतों के बीच अकेली ज़ुबान महसूस करते हैं। इस खेल की मुझे इतनी जानकारी है कि जिस पर मैं एक पूरी किताब लिख सकता हूं। लेकिन फ़िलहाल इस बात को मैं यहीं ख़त्म करता हूं।



1984 में दिल्ली ही नहीं देशभर में सिखों का क़त्लेआम हुआ। मुक़दमे चले, आयोग बने। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर आरोपी सज़ा के अंजाम तक पहुंचे। दिल्ली के ही एक आरोपी जो कि त्रिलोकपुरी का रहने वाला था। कड़कड़ड़ूमा कोर्ट में मेरे सामने सज़ाए मौत दी गई। ये अकेला शख़्स नहीं था। और भी बहुत सारे लोगों को सज़ा सुनाई गई। दिल्ली के बेताज बादशाह कहे जाने वाले कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री एच के एल भगत जो अब इस दुनिया में नहीं हैं उनको दंगे करवाने के आरोप में मैंने जेल जाते देखा है। अकेले उनको ही नहीं, बड़े-बड़े कांग्रेसी नेताओं को भरी अदालत में आंसू बहाते हुए देखा है। दंगे की आग ने बड़े-बड़े दिग्गज कांग्रेसी नेताओं के दामन जलाकर ख़ाक कर डाले। उन्हें ख़ून के आंसू बहाने पर मजबूर कर दिया। बात अब इसी दिल्ली की। 1992 में सीलमपुर में दंगा हुआ। सरेआम मुसलमानों का क़त्ल हुआ। लुटे-पिटे और हवालात की हवा खाई। मगर किसी दोषी को आज तक कोई सज़ा नहीं मिली। जिन मुसलमानों पर मुक़दमे लगे उन्होंने बरसों अदालत की दहलीज़ पर अपनी जूतियां रगड़ीं। आख़िरकार वो अदालत से बरी तो हो गए। लेकिन सही माएने में एक सज़ा भुगतने के बाद। हैरत की बात तो यह है कि जिन मुसलमानों पर दंगा करने के मुक़दमे बने उनमें दर्जनों कांग्रेसी कार्यकर्ता भी थे। और वो लोग आज भी कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं। मैं एक-एक का नाम जानता हूं। मिसाल के तौर पर मक़सूद जमाल नाम के एक शख़्स हैं। जो दंगे के दौरान पुलिस की लाठियों का शिकार बनें। बुरी तरह ज़ख़्मी हुए। पहले अस्पताल गए। फिर जेल की हवा खाई। मुक़दमा चला। बरसों अदालत के चक्कर काटे। बाद में बरी हो गए। लेकिन वो आज तक कांग्रेस की ग़ुलामी से बाहर नहीं आ सके। ये तो सिर्फ एक मिसालभर है। सब कुछ सहने के बाद भी मुसलमान कुछ नहीं समझता। दरअसल कांग्रेस के साथ जुड़े रहने के पीछे कोई मजबूरी नहीं बल्कि स्वार्थ छिपे हैं। आम मुसलमान समझे या न समझे मगर मैं ज़रूर समझता हूं। हज़ारों मुसलमानों के क़त्ल का यही हाल हुआ है। एक और दंगे का मैं चश्मदीद हूं। उत्तर प्रदेश के खुर्जा क़स्बे में क़रीब तीन सौ मुसलमान मारे गए। एक लड़का शाकिर जिसकी उम्र उस वक्त करीब 15 साल थी। उसके परिवार और रिश्तेदार मिलाकर कुल 27 लोग एक ही वक्त में आग के हवाले कर दिए गए। शाकिर अभी ज़िंदा है। दोषियों को सज़ा तो बहुत दूर की बात पुलिस उनका पता तक नहीं लगा पाई। लेकिन मुसलमान सारे जख़्म भूल गया। दिल्ली के मुसलमानों ने तो बहुत जल्द ही सब कुछ भुलाकर कांग्रेस का दामन थाम लिया। अब बारी उत्तर प्रदेश की है। जहां मुसलमानों ने कांग्रेस को गले लगाने की क़वायद शुरू कर दी है। काश मुसलमानों ने सिखों से भी कोई सबक़ सीखा होता।



हिंदुस्तान के इतिहास के पन्नों को ज़रा पलटये। इस मुल्क में अगर सबसे ज़्यादा शोषण किसी का हुआ है तो वो दलित बिरादरी। ये तबक़ा सदियों से दबा कुचला था। दाद देनी पड़ेगी डाक्टर भीमराव अम्बेडकर को। जिस शख़्स ने अपनी क़ौम के दर्द का अहसास किया। और दलितों को एक दिशा दिखाने का काम किया। क़ाबिले तारीफ काशीराम भी हैं। जिन्होंने दलितों के विकास का जो बीज बोया उसका पौधा अब फल देने लगा है। दलितों की हालत आज मुसलमानों से कहीं बेहतर है। आज वो भीख के टुकडों पर नहीं पलते। अपने वोट के दम पर सत्ता के भागीदार बनते हैं। आज उनकी भागीदारी हर जगह नज़र आती है। प्रशासन, न्याय पालिका या फिर कार्य पालिका। मगर मुसलमान हर जगह से नदारद है। उसकी हिस्सेदारी कहीं नज़र नहीं आती। ये हालात अचानक नहीं बदले। इसके लिए दलितों ने अपनी बिरादरी के लोगों को वोट की ताक़त का एहसास कराया। और जब वोट की ताक़त उनकी समझ में आई तो सत्ता का सुख मिलने में कोई देर नहीं लगी। एक अनपढ़ क़ौम जागरूक हो गई। आज हालात ये हैं कि पूरे देश में दलितों का वोट उनके नेताओं के आदेशानुसार ही पड़ता है। आज वो संगठित हैं। बिना शर्त वो किसी को समर्थन नहीं देते। पहले अपने मतलब की बात करते हैं बाद में समर्थन की। लेकिन एक मुसलमान है। जो जज़्बात में आकर बिना किसी शर्त, बिना सोचे समझे किसी को



भी अपना वोट दे देता है। ज़रा कोई उसकी शान में चार शब्द कह दे, बस उसी पर अपना सबकुछ न्यौछावर कर देता है। एक दलित को वोट की ताकत का अहसास हो गया लेकिन मुसलमान को कब होगा ये तो ख़ुदा ही जाने।



मौजूदा मुसलमानों की दशा पर मैंने एक नहीं कई दलों के नेताओं से लंबी-लंबी बात की। मुस्लिम नेता चाहे वो किसी भी दल का था मुझे हर एक से तो नहीं लेकिन फिर भी अमूमन नेताओं से गुफ्तगू करने का मौक़ा मिला। कुछ अहम सवालात भी किए। लेकिन तसल्लीबख़्श जवाब किसी से नहीं मिला। मज़हबी रहनुमाओं जैसे शाही इमाम अहमद बुख़ारी के वालिदे मरहूम अब्दुल्ला बुख़ारी से भी बातचीत का सौभाग्य मिला। सिर्फ अब्दुल्ला बुख़ारी को छोड़कर जिन लोगों से मेरी बात हुई हर एक में कहीं ने कहीं अपना स्वार्थ छिपा था। क़ौम का दर्द किसी में दिखाई नहीं दिया। अब्दुल्ला बुख़ारी साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई वो बीमार थे। इसके बावजूद उन्होंने मुझ से मुसलमानों के सियासी माहौल पर बात की थी। उन्होंने वी0पी0 सिंह और मुलायम सिंह का ख़ासतौर पर नाम लेते हुए और कई नेताओं को मुसलमानों का दुशमन क़रार दिया। उनका कहना था कि इन लोगों ने मुसलमानों के लिए मुझसे जो वायदे किए उस पर खरे नहीं उतरे। इन लोगों ने बईमानी की। ये लोग ऊपर से मुसलमानों के हमदर्द बनते हैं लेकिन हक़ीकत इससे बहुत दूर है। मुसलमानों ने इन्हें सत्ता तक पहुंचाया और इन्होंने मुसलमानों को खाई में धकेलने का काम किया। श्री बुख़ारी बातचीत के दौरान काफी भावुक हो गए थे। और एक लफ्ज़ कहा जो शायद मैं कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने कहा भरोसा करना बड़ा मुश्किल हो गया है। न जाने कौन कब तुम्हारा सौदा कर डाले। बातचीत तो और भी हुई लेकिन सबकुछ सार्वजनिक करना मैं गैर मुनासिब समझता हूं। लेकिन उनकी एक मंशा का इज़हार ज़रूर करूंगा। वो अपने बड़े बेटे अहमद बुख़ारी की बजाए छोटे बेटे याहया बुख़ारी को इमाम बनाना चाहते थे। दरअसल अहमद बुख़ारी के भाजपा की हिमायत का ऐलान करना शायद उनके जीवन का सबसे बड़ा दुख था। मैंने जो महसूस किया श्री बुख़ारी को अपने छोटे बेटे याहया बुख़ारी के अंदर पोलिटिकल समझबूझ ज़्यादा नजर आती थी। किसी टेलीविज़न मीडिया वाले से ये उनकी शायद आख़री मुलाक़ात थी। कुल मिलाकर मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उस बूढ़े शरीर में मुसलमानों के लिए कुछ करने का जज़्बा किसी भी नौजवान से कम नहीं था। मैं दुआ करता हूं अल्लाहताला उनके दर्जात को बुलंद फरमाए।



एक कांग्रेसी नेता हैं। एक बार जनता दल, दो बार कांग्रेस के टिकट पर और एक बार निर्दलीय विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं। दिल्ली के मुसलमानों में अच्छी पकड़ भी है। मेरे दोस्त भी हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में एक मुस्लिम बहुल लोकसभा श्रेत्र से टिकट मांग रहे थे। टिकट मिला नहीं। मैंने सलाह दी बग़ावत कर दो। कोई भीख नहीं मांग रहे। हक़ मांग रहे हो। क़ौम भी सिर आंखों पर बैठा लेगी। जीत गए तो बल्ले-बल्ले। हार गए तो कांग्रेस को लेकर ज़रूर हारोगे। इस हार में भी तुम्हारी जीत छिपी है। अगली दफा मुस्लिम उम्मीदवार के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा। इस पर नेता जी का जवाब था कि बूढा हो गया हूं। उछल कूद का वक्त नहीं। बेहतर होगा बाक़ी वक्त भी कांग्रेस में बीत जाए। ये तो उनका जवाब था लेकिन हक़ीक़त ये है कि काश वो मचल गए होते तो नतीजा कुछ और ही होता। दिल्ली में मुसलमानों की राजनीति का वो एक बुनियादी पत्थर साबित होता। जिस पर एक नई इमारत तैयार की जा सकती थी। मगर ऐसा हुआ नहीं। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। उत्तर प्रदेश में बसपा के एक मुस्लिम नेता से बातचीत का मौक़ा मिला। बसपा की तारीफों के पुल बांध रहे थे। अपने दल को बाक़ी दलों से बेहतर बता रहे थे। मैंने आख़िर उनसे पूछ ही लिया कि पार्टी में तुम्हारी औक़ात क्या है। ख़ुद बताओगे या मैं बताऊं। इस पर वो तो ख़ामोश रहे। मुझे ही उनकी हैसियत का एहसास कराना पड़ा। मैंने उनसे कहा कि आप अकेले नहीं बल्कि बसपा में जितने मुसलमान नेता हैं वो सारे मिलकर वो ताक़त नहीं रखते जो मायावती के पास है। मायावती के पास जो ताक़त है, उसमें मुसलमानों की कोई भागेदारी नहीं। आप लोगों ने पार्टी को मुसलमानों का वोट दिलवाने से पहले क्या कोई सौदा तय किया था? क्या सत्ता में साझेदारी मांगी थी? उसूलन तो चुनाव से पहले तय हो जाना चाहिए था। अगर बसपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री यदि तुम्हारा हुआ तो उप मुख्यमंत्री हमारा यानि मुसलमान होगा। सत्ता में जितनी भागेदारी तुम्हारी होगी उसमें कुछ हिस्सा हमारा भी होगा। लेकिन ये सब नहीं हुआ। उसका नतीजा ये है कि उत्तर प्रदेश में दलित आज मलाई खा रहा है और मुसलमान के हिस्से में खुरचन भी नहीं आ रही। हालात ये हैं कि सरकारी अफसर किसी मुसलमान विधायक या मंत्री की बात नहीं सुनते। वो सिर्फ पार्टी के ज़िला अध्यक्ष का फ़रमान सुनते हैं। और हर ज़िले का अध्यक्ष महज़ दलित बिरादरी का है। ये कड़वा सच है। आम मुसलमान नहीं समझेंगे। जो माया सरकार को झेल रहे हैं वही मुसलमान मेरी बात को समझ रहे होंगे। मायावती का पहले नारा था जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी। अब नया नारा है। जिसकी जितनी तैयारी, सत्ता में उसकी उतनी हिस्सेदारी। मुसलमानों। ये नारे खोखले और लुभावने हैं। इसके सिवा कुछ भी नहीं। बात घटिया है मगर लिखनी पड़ रही है। मायावती आज हज़ारों करोड़ की मालिक हैं। क्या कोई बसपा का मुसलमान नेता हज़ारों करोड़ का मालिक बना है। यदि आपकी नज़र में हो तो मुझे भी ख़बर कर देना। यह हिस्सेदारी का कड़वा सच है। माया जिस हिस्सेदारी की बात कर रही हैं। ऐसी हिस्सेदारी देने का काम तो पिछले 62 साल से हर पार्टी कर रही है। जिस तरह उत्तर प्रेदेश में सरकार चल रही है इसे भागेदारी नहीं कहते। जबकि ये सच है कि मायावती की सरकार बनवाने में मुसलमानों का अहम किरदार रहा है। अगर मुसलमानों का वोट बसपा के खाते से हटा लिया जाए तो बसपा मुखिया मायावती को भी अपनी औक़ात जल्द ही समझ में आ जाएगी। एक सच और भी है। उत्तर प्रदेश में मुसलमान जिस तरफ जाएगा सरकार उसी की बनेगी। अब तक ऐसा ही होता आया है। मुसलमान का झुकाव मुलायम सिंह की तरफ रहा तो सरकार सपा की बनी। और वहां का मुसलमान जब से कांग्रेस से रूठा तब से कांग्रेस सत्ता का मुंह देखने को तरस गई। 2009 के लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का थोड़ा झुकाव कांग्रेस की तरफ हुआ तो बरसों से प्रदेश में बीमार पड़ी पार्टी खड़ी हो गई। मेरी समझ में ये नहीं आता हर कोई अपने वोट का सौदा तय करता है। मगर मुसलमान क्यों नहीं। सत्ता की भागीदारी इसकी समझ में क्यों नहीं आती। मायवती किस साझेदारी की बात कर रही हैं। बसपा में कोई मुस्लिम नेता ऐसा है जो उनकी आंख से आंख मिलाकर बात करने की औक़ात रखता हो। जिस दिन ऐसा हो गया समझ लो भागीदारी मिल गई। सिर्फ मायावती ही नहीं चाहे सोनिया गांधी हों, मुलायम सिंह यादव हों, राहुल गांधी हों या फिर आडवाणी। जिस दिन कोई मुस्लिम नेता इनकी आंख से आंख मिला कर मुसलमानों का हक़ मांगने लगेगा मान लेना हम सत्ता के साझेदार बन गए। किसी भी पार्टी का कोई भी मुस्लिम नेता अभी इस हालत में नहीं है कि सीना ठोक कर मुसलमानों का हक़ मांग सके। और ये नौबत हमारे संगठित हुए बिना नहीं आ सकती। एक बात मैं साफ़ कर दूं। देश की कोई भी पार्टी आज तक मुसलमानों को जो कुछ देती आई हैं वो सब भीख का टुकड़ा है। चाहे आपको मंत्री बनाए, आयोग का चैयरमैन बनाए, या अपनी पार्टी का टिकट दे। ये सब पार्टियां मजबूरी में करती है। चूंकि उनको आपका वोट चाहिए। लेकिन ये सब कुछ आपको भागीदारी के रूप में नहीं मिलता। जिस दिन ये सबकुछ आपको सीना चौड़ा कर मिलने लगा, मान लेना भागेदारी मिल गई। असलियत यह है कि जिस पार्टी को आपके वोट की दरकार भी नहीं, खुलेआम वो मुसलमानों की मुख़ालफत करती है। यानि भाजपा। लेकिन वो भी मुसलमान को मंत्री बनाती है। तमाम वक्फ बोर्ड और हज कमेटी के चेयरमैन मुसलमानों को बनाती है। इसके अलावा न जाने कितने आयोगों के चेयरमैन मुसलमानों को ही बनाती है। अल्पसंख्यकों के विकास के लिए बाक़ायदा बजट भी बनाती है। फिर भाजपा और दूसरी पार्टियों में फर्क़ किस बात का है। कुल मिला कर सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। सब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बना रहे हैं। और हम बन रहे हैं। सरकार में दूसरे दलों की साझेदारी तो आप लोग देख ही रहे होंगे। चूंकि आजकल मिली-जुली सरकारें चलाने का दौर चल रहा है। सरकार चलाने वाले दल की मजाल नहीं कि वो अपने यहयोगी दल को नाराज़ कर दे। भले ही सहयोगी दल के पास 10-20 सांसद ही क्यों न हों। इसे कहते हैं साझेदारी। मैंने बड़ी तफ्सील से साझेदारी के माएने समझाने की कोशिश की है। उम्मीद करता हूं कि साझेदारी कहो या भागेदारी बात आपकी समझ में आ गई होगी।



मैंने अपनी क़लम के ज़रिए ये समझाने की कोशिश की है कि अपने आपको संगठित कर सत्ता में भागीदारी हासिल करो। सत्ता में भागेदारी मिली तो मसाइल सारे अपने आप हल हो जाएंगे। अपना हक़ हासिल करो। भीख के लिए दामन फैलाना छोड़ दो। खद्दरधारियों की कैद से खुद को आज़ाद करो। अपने वोट की ताक़त को पहचानो। संगठित होना सीखो। किसी भी एक पार्टी की ताबेदारी से बाहर आओ। जो सत्ता में भागेदारी दे। उससे अपने वोट का सौदा तय करो। एक बात और बता दूं। इसके लिए संगठन बनाने की सख़्त ज़रूरत है। संगठन बनाना ही नहीं उसे मज़बूत भी करना है। इसके लिए अभियान भी चलाना पड़ेगा। ज़मीन तैयार किए बिना कुछ नहीं होगा। एक संगठन है आरएसएस। वो चुनाव नहीं लड़ता मगर भाजपा पार्टी के सारे फैसले उसी के दरबार में होते हैं। जिक्र आरएसएस का आया है तो थोड़ा उसके बारे में भी बता दूं। 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले आरएसएस को इस बात का पूरा एअहसास हो गया था कि बिना मुसलमानों के आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। इसके लिए आरएसएस ने बाक़ायदा एक मुस्लिम राष्ट्रीय मंच बनाकर मुसलमानों को गले लगाने की क़वायद शुरू कर दी थी। मरहूम जमील इल्यासी जो अपने आपको इमामों की तंज़ीम का सदर कहते थे वो और उनके बेटे उमैर इल्यासी एक बार नहीं कई बार लाल कृष्ण आडवानी से मिले। इनकी मुलाक़ात आरएसएस के बड़े नेता इंद्रेश कुमार से भी हुई। इसके अलावा कुछ उलेमा और भाजपा नेता शहनवाज़ हुसैन की अनेक बार श्री आडवाणी के साथ लंबी-लंबी मुलाक़ातें हुईं। इसी दौरान भाजपा के कुछ नेताओं से मुझे भी बात करने का मौक़ा मिला। मैंने साफ कहा कि आप जिन लोगों से मुसलमानों के वोटों का सौदा तय कर रहे हैं उसका कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। चूंकि तुम्हें पहले नीयत साफ करनी होगी। अब मुसलमान दिल्ली की जामा मसजिद से जारी होने वाला फ़रमान भी नहीं सुनता। अपनी मर्ज़ी से वोट करता है। और तुम जिन लोगों से बात कर रहे हो वो मुसलमानों की तीसरी चौथी पंक्ति के मज़हबी रहनुमा है। आरएसएस के संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के एक नेता से मैंने साफ कहा कि मुसलमान अब आम कि गुठली नहीं है। जिसे चूसकर फेंक दिया जाता है। उससे दरियां और कुर्सियां बिछवाना बंद करो। सत्ता में भागीदारी देने का काम करो। हो सकता है मुसलमान भाजपा के वोट का हिस्सा बन जाए। उस वक्त आरएसएस के कई नेता मौजूद थे। एक ने खड़े होकर कहा अनवर भाई आप तो भाषण देने लगे। इस पर मैं भी खड़ा हो गया और बोला।..भाषण नहीं दे रहा। हक़ीक़त बयान कर रहा हूं। जो लोग आपकी चाटूगीरी कर रहे हैं उन में सच बोलने का दम नहीं है। और मैं सच कहने से चूकता नहीं। वो अपने स्वार्थों के लिए आपके पिछलग्गू हैं। हां मुझे भाषण देने का शौक नहीं। मुफ्त की सलाह दे रहा हूं। भाषण तो टेलीविज़न पर बहुत दे चुका हूं। मुस्लिम नेताओं के दरमियान जो बातें हुईं थी यदि उनका ख़ुलासा किया तो किताब लंबी हो जाएगी। और फिर लोग इसे पढ़ने से कतराएं। लेकिन यहां एक बात का ज़िक्र कर दूं लोकसभा चुनाव में जब भाजपा टाएं-टाएं फिस हो गई तो आरएसएस के लोगों के साथ एक और मुलाक़ात हुई। मैं अपनी बात पर क़ायम था। वहां कुछ मुसलमान भी मौजूद थे। जब मैंने सत्ता में भागीदेरी की बात दोहराई तो सारे मुसलमान एक सुर में बोले अनवर भाई जो बात कह रहे हैं वो सोलहआने सही है। इस पर आर.एस.एस के नेताओं ने कहा कि हम आपके साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस कर आपके मुद्दों को उठाते हैं। इस पर मैंने कहा मुद्दा उठाने का काम तो मैं खुद भी कर लूंगा। आप अगर सत्ता में भागीदारी देने की बात अपनी पार्टी के ऐजंड़े मैं शामिल करवाते हैं। तो मुझे आपके साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस से भी कोई गुरेज नहीं है। इस पर उनका जवाब था सोच कर बताएंगे।



भाजपा में बड़े ओहदे पर हैं शहनवाज़ हुसैन। सरकार में मंत्री भी रहे हैं। पार्टी के टिकट पर दूसरी बार लोकसभा में भी पहुंच गए। पार्टी में उनकी औक़ात क्या है। जान लीजिए। दिल्ली में पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान टिकटों का बटवारा हो रहा था। एक तरफ लोकसभा चुनावों के मद्देनजर मुसलमानों को गले लगाने की क़वायद का सिलसिला जारी था। तो दूसरी तरफ मुसलमानों की औक़ात बताई जा रही थी। चुनाव आयोग की मतदाता सूची जो मेरे पास मौजूद है उसके मुताबिक दिल्ली की 18 सीटें ऐसी हैं जिन पर उम्मीदवार के भाग्य का फ़ैसला मुसलमानों के बिना नहीं हो सकता। उस वक्त पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डाक्टर हर्षवर्धन थे। मैं उन दिनों पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार विजय कुमार मल्होत्रा का मीडिया का काम देख रहा था। अकसर भाजपा और आरएसएस के बड़े-बड़े नेताओं से रोज़ मुलाकातें हो रही थीं। मैंने भाजपा नेताओं को सलाह दी दिल्ली में अगर आपको कांग्रेस से मुक़ाबला करना है तो मुसलमानों को नज़रअंदाज़ मत करो। कांग्रेस पांच छह टिकट मुसलमानों को देती है और दस बारह सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं का लाभ उठाती है। आप भी मुसलमानों को भागीदारी दोगे तो शायद आप कांग्रेस के साथ मुक़ाबले में खड़े हो सकें। इस पर भाजपा के एक बड़े नेता का जवाब था पार्टी टिकट के बदले वोट की राजनीति नहीं करती। इसके बाद कुछ मुस्लिम बहुल सीटें जैसे बाबरपुर, सीलमपुर, मुस्तफाबाद, औखला, किराड़ी और मटियामहल जैसी सीटों पर मैंने शाहनवाज़ हुसैन से बात की। शाहनवाज़ हुसैन का कहना था इन सीटों का फैसला मेरे बग़ैर नहीं हो सकता। मैं सीधे अडवाणी जी से बात करता हूं। सीलमपुर छोड़कर जब सभी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए गए तो मेरी बात पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डाक्टर हर्षवर्धन से हुई। मैंने उनसे पूछा की सीलमपुर में करीब 61 फ़ीसदी मुसलमान हैं। इस सीट से उम्मीदवार का फ़ैसला तो शाहनवाज़ हुसैन ही करेंगे। इस पर श्री वर्धन का जवाब था कि शाहनवाज़ कौन होता है। जो फैसला करना होगा हम ख़ुद करेंगे। और हुआ भी वही। टिकट सीताराम गुप्ता नाम के एक आदमी को मिला। शाहनवाज़ की लाख कोशिशों के बावजूद उनके किसी आदमी को टिकट नहीं मिला। भाजपा ने मात्र एक टिकट मुसलमान को दिया। यानि उंगली कटा कर नाम शहीदों में शामिल कर दिया। इस विषय पर मेरी फोन पर आर.एस.एस के नेता इंद्रेश कुमार से लंबी बात हुई। मैंने उनसे कहा कि आप मुसलमानों को टिकट नहीं दोगे तो मुसलमान आपको वोट कैसे देगा। जबकि आप मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के माध्यम से मुसलमानों को साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं। इस पर इंद्रेश का जवाब था कि आप जिस हिस्सेदारी की बात कर रहे हैं। वो हम नहीं दे सकते। मुसलमान वोट दें या न दें। भाई लोगो ये है आपकी और आपके नेताओं की औक़ात।



औक़ात तो सभी पार्टी के मुस्लिम नेताओं की गिना सकता हूं। लेकिन बात फिर लंबी हो जाएगी। और मेरी कोशिश है बात को छोटा रखने की। ताकि किताब मोटी होने से बच जाए।

उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों हुए चुनाव की कवरेज के लिए मैं वहां दौरे पर था। जिन शहरों को मैंने खंगाला वहां-वहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ नज़र आया। लिहाज़ा जो देखा उसी तरह की ख़बरें कीं। मैं अपने चैनल में दिखाई जाने वाली ख़बरों की सच्चाई बता रहा था। इसलिए चैनल पर मैं यही कह रहा था कि यूपी मैं कांग्रेस साफ़ है। उसी दौरान एक दिन मैं बुलंद शहर ज़िले के क्लासिक होटल में ठहरा हुआ था। कांग्रेस की एक रैली कवर करने के बाद में होटल में आराम कर रहा था। अचानक होटल के मैनेजर ने मेरे कमरे का दरवाज़ा खटखटाया और कहा... राहुल गांधी आपसे मिलने आए हैं। मैंने देखा मैनेजर के पीछे राहुल गांधी, सलमान खुर्शीद और उनके साथ दो चार लोग और खड़े थे। मैनेजर ने कमरे के बाहर ही कुर्सियां डलवा दीं। सब लोग वहां बैठ गए। बातचीत शुरू हो गई चाय आने से पहले ही। राहुल से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी। स्वभाव बेहद सादगी भरा। बहुत शालीनता से राहुल ने मुझ से कहा कि आप कांग्रेस को यूपी से साफ़ बता रहे हैं। लेकिन मेरे तमाम रोड शो में भीड़ जमकर जुट रही है। इस पर मेरा जवाब था कि भीड़ जरूर जुट रही है। मगर भीड़ का वोट कांग्रेस के लिए तब्दील नही हो रहा है। खैर बातचीत तो और भी हुईं। लेकिन वो किताब का विषय नहीं है। इस मुलाक़ात के लिखने का मक़सद महज़ इतना है कि सलमान ख़ुर्शीद वहां मौजूद थे। मुस्लिम वोटों पर मेरी राहुल से बात हो रही थी। लेकिन सलमान खुर्शीद के मुंह से एक लफ्ज़ मुसलमानों की हिमायत में नहीं निकला। मैंने जो महसूस किया कि सलमान ख़ुर्शीद ख़ुद को भले ही कांग्रेस का बहुत बड़ा नेता समझते हों। लेकिन मुझे चापलूस के सिवा कुछ नहीं लगे। बात एक और कांग्रेसी नेता की। नाम बहुत बड़ा है। अहमद पटेल। सोनिया गांधी के ख़ास सिपेहसालारों में से एक। एक दिन मैं और ज़ी न्यूज का रिपोर्टर यूसुफ़ अंसारी रात को क़रीब एक बजे उनके घर पर पहुंचे। एक मुद्दा था। जिसे में बताऊंगा नहीं। उस मुद्दे पर अहमद पटेल की राय कैमरे पर चाहिए थी। मामला मुसलमानों से जुड़ा हुआ था। हमारी लाख कोशिशों के बाद भी अहमद पटेल कैमरे पर कुछ बोलने को तैयार नहीं हुए। हम खरी खोटी सुनाते हुए नाराज़गी में उनके घर से बाहर निकल आए। पीछे-पीछे अहमद पटेल भी आ गए। नेता में कला होती है। राज़ी कर लेने का हुनर दिखाकर हमें वो वापस घर में ले गए। चाय पिलवाई। हमने सोचा शायद अब ये कुछ कैमरे पर बोल दें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो कैमरे पर कुछ नहीं बोले। दरअसल 10 जनपथ यानि सोनिया गांधी की इजाज़त के बिना किसी कांग्रेसी मुसलमान में हिम्मत नहीं कि वो अपनी ज़ुबान तक खोल सके। अगर इन मुसलमान नेताओं की आप को परख करनी है तो आप मुसलमानों का कोई काम लेकर इनके पास जाइये। पहले तो आपको मिलने में ही कसरत करनी पड़ जाएगी। बाक़ी का हाल आप खुद जान जाओगे।



हमें अपनी कुछ और खामियों पर भी नज़र डालनी होगी। हमने अपनी बुनियादी मुश्किलात को दरकिनार कर दिया है। और वक्त गुजर रहा है बेवजह की बातों में। मिसाल के तौर पर मस्जिद और मदरसों में सियासत देखने को मिल जाएगी। हमने इमामों और उलेमाओं की क़दर करना छोड़ दिया है। हालात तो यहां तक पहुंच गए हैं जिन लोगों के घर में बच्चे और बीवी नहीं सुनते वो इमाम, मुअज़्ज़न और उलेमाओं पर हुक्म चलाते नजर आते हैं। अकसर मस्जिद और मदरसों में गुटबाज़ी दिखना आम बात हो गई है। अरे भाई ये लोग मज़हब का काम कर रहे हैं। इन्हें करने दो। जिसको क़ुरान और हदीस की सही जानकारी न हो उसे मज़हब के काम में दखल नहीं देना चाहिए। लेकिन मज़हब से दूर भी नहीं रहना चाहिए। सही मायने में हम लोगों ने दीन का दामन नहीं थामा है। भाई लोगो उलेमा हमारे रहनुमा हैं। उनकी इज़्ज़त करना हमारा फर्ज़ है। इसलिए बेवजह की बातों से दिमाग हटाकर सही दिशा में ध्यान लगाओ। हमें जरूरत है सियासी तंजीम पर काम करने की। हमें ज़रूरत है एक इंक़लाब की। हमको भागीदारी के लिए देश में एक आंदोलन खड़ा करना होगा। उसके लिए तहरीक चलाएं, मुसलमानों को जगाने का काम करें। इस पर हमारा वक्त खर्च होगा तो हो सकता है कि भागीदारी के पेड़ की जड़े मज़बूत होने लगें। ये भी मुमकिन है कि पेड़, फल फूल गया तो फल हम खाएंगे। और तैयार होने में देर लगी तो हमारी नस्लों को फल ज़रूर मिल जाएगा। पहला काम है ज़मीन में पौधा लगाने का। बाद में उसे खाद और पानी देने का। इसके लिए हर गांव, मोहल्ले, क़स्बे, और शहरों में तंज़ीम कायम करनी होगी। जिसका मक़सद सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को संगठित करना हो।



एक बात का ख़ुलासा करना ज़रूरी समझता हूं। हम लोगों को फ़िरक़ा परस्ती से बहुत दूर रहना होगा। अगर कुछ लांछन लगते भी हैं तो उनको सीना चौड़ाकर धोना भी पड़ेगा। चूंकि इस मुल्क की यह भी एक सच्चाई है कि यहां का बहुसंख्यक हिंदू फ़िरक़ा परस्त नहीं है। ये बात अलग है कि चंद लोग बुरे हो सकते हैं। चंद लोग तो मुसलमानों में भी बुरे हैं। जिनके कारनामों की वजह से पूरे मुसलमानों को गाली सुननी पड़ती हैं। इस मुल्क में दंगे ख़ुद कभी नहीं हुए। हमेशा उसके पीछे कोई न कोई सियासी खेल छिपा था। मैं चंद मिसालें पेश करता हूं जिनसे ये साबित होता है कि हिंदू फ़िरक़ापरस्त नहीं है। बेईमान हैं तो चंद नेता। सबसे पहले मैं अपने बारे में बता दूं कि आज से क़रीब दो दशक पहले जब मैंने जनसत्ता अखबार में नौकरी शुरू की तो हम वहां दो मुसलमान थे। दूसरे सफदर रिज़वी। कुछ दिन बाद तादाद तीन हो गई जब शम्स ताहिर ख़ान आए। जो आजकल आज तक न्यूज़ चैनल में हैं। दफ़्तर के तमाम साथियों ने हमें इस बात का कभी एहसास ही नहीं होने दिया कि हम हिंदुओं से कमतर हैं। एक परिवारिक प्यार मिला। जिसे मैं ज़िंदगी में शायद ही भूल पाऊं। कुमार संजय सिंह के साथ बड़े भाई का रिश्ता क़ायम हुआ जो आज तक बरक़रार है। हम लोग एक मां से पैदा नहीं हुए लेकिन दिलों का हाल हम आपस में ही जानते हैं। ये रिश्ता सगे वालों से ज़र्रा बराबर भी कम नहीं है।



श्री कुमार आज कल चार चैनलों के हैड हैं। जनसत्ता अखबार में ही संजय शर्मा के साथ छोटे भाई का नाता जुड़ा। संजय भी इन दिनों आज तक न्यूज़ चैनल में हैं। डेढ़ दशक पुराना ये नाता कोई ऐसा ही नहीं है। दो भाइयों के बीच जो प्यार होता है उसको किसी एक ने नहीं दोनों ने संभाल कर रखा है। आज तक तो ऐसा कोई त्यौहार नहीं गया जिस पर एक दूसरे ने अपना फ़र्ज़ न निभाया हो। इस किताब को लिखने में संजय ने मेरी काफी मदद की है। तब जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी थे। जिस दिन बाबरी मस्जिद शहीद हुई। वो बंद कमरे में बैठकर रोते रहे। जबकि वो उस वक्त आरएसएस के समर्थक हुआ करते थे। लेकिन मस्जिद शहीद होने के अगले दिन उन्होंने जनसत्ता के मुख्य पेज पर जो संपादकीय लिखा उसकी पंक्तियां मुझे आज तक याद हैं—धोखेबाज़ कायर कार सेवक आज रघुकुल की रीत पर कालिख पोत आए। (रघुकुल की रीत है प्राण जाए पर वचन न जाए।) मस्जिद गिराए जाने के बाद से उनकी जो विचार धारा बदली वो आज तक बरक़रार है। अपने दर्जनों लेखों में उन्होंने भाजपा और आरएसएस को जमकर धोया। और वो सिलसिला आज तक जारी है। रिपोर्टिंग के दौरान पुलिस के दर्जनों आला अफ़सरों से मेरी दोस्ती हुई। और समय समय पर सबने दोस्ती की लाज रखी। जो मुसलमान लोग मुस्लिम नेताओं के दरवाज़े से मायूस होकर लौट आते थे यही पुलिस अफसर मेरे कहने पर उनके काम तब भी किया करते थे और आज भी करते हैं। कुछ खास दोस्तों में से एक हैं दिल्ली पुलिस के संयुक्त पुलिस आयुक्त किशन कुमार। कभी वो डीसीपी लाइसेंसिंग होते थे। मेरे एक दोस्त हैं मुल्लाजी नसीम। उनकी लंबी दाढ़ी है। उन्होंने राइफ़ल के लाइसेंस के लिए आवेदन किया। ज़िले के सभी पुलिस वालों ने उनकी अर्ज़ी को रद्द करते हुए डीसीपी लाइसेंसिंग किशन कुमार के पास भेज दिया। मुल्ला जी ने मुझे फोन पर बताया कि मेरा लाइसेंस बनना है। मैं इत्तिफाक़ से किशन के पास बैठा हुआ था। मैंने किशन को बोला कि एक मुल्लाजी अपने परिचित हैं। ज़रा उनकी फाईल निकलवाओ। फाईल निकलवाई तो डिवीज़न अफसर से लगाकर सभी पुलिस अफ़सरों ने लाइसेंस अर्ज़ी को खारिज कर रखा था। फोटो देख कर किशन हंसने लगे। कहने लगे फोटो किसी आतंकवादी की सी लगती है। इसीलिए बाक़ी पुलिस वालों ने अर्ज़ी पर रिजेक्ट लिख दिया है। मगर मैंने किशन से बहुत हल्के अंदाज़ में कहा कि बना सकते हो तो इस आदमी का लाइसेंस बना दो। आदमी बेहद शरीफ है। मेरे कहने की देर थी कि पांच मिनट बाद ही मुल्ला जी का लाइसेंस बन कर तैयार हो गया। मेरा मानना है कि अगर किशन फ़िरक़ा परस्त होते तो मुझ से एक नहीं अनेक सवाल कर सकते थे। जिन्हें पूछने के लिए वो पूरी तरह आज़ाद थे। किशन से मेरी आज भी दोस्ती है। वो जायज़ काम के लिए कभी मना नहीं करते। मुझे ख़ुद याद नहीं उन्होंने कितने मुसलमानों के काम किए होंगे। दूसरी तरफ मुस्लिम अफ़सर हैं। जो अपने आपको धर्मनिर्पेक्ष साबित करने के चक्कर में मुसलमानों के काम नहीं करते। एक आईपीएस अफसर मंसूर अली सय्यद हैं। माशाअल्लाह नाम भी बहुत अच्छा है। जब वो एक ज़िले के डीसीपी थे तो मैंने एक मस्जिद के इमाम साहब का जायज़ काम करने के लिए उनसे कहा। लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया। जबकि उसी काम को एक हिंदू अफ़सर ने मेरे फोन करने पर ही कर दिया। इससके अलावा एक बात और बता दूं। मैंने बहुत सारे दंगे देखे। शहर में मुसलमानों का क़त्लेआम हुआ। लेकिन उस शहर के आसपास के देहातों में गया तो पाया कि हिंदुओं ने ही मुसलमानों की हिफ़ाज़त की। जिस गांव में महज़ दस बीस घर मुसलमानों के थे वो सुरक्षित रहे। अगर हिंदू धर्मनिरपेक्ष नहीं होता तो देहातों में मुसलमानों के ज़िंदा बचने का कोई सवाल ही नहीं था।



इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरपरस्त आरएसएस 18 फ़ीसदी मुसलमानों की मुख़ालफत करके आज तक अकेले दम पर इस मुल्क में सत्ता हासिल नहीं कर सकी। चूंकि इस देश में रहने वाले बाक़ी हिंदुओं को 18 फ़ीसदी मुसलमानों की मुख़ालफत नागवार गुज़रती है। ये बात अलग है कि अब आरएसएस और भाजपा की भी ये समझ में आ गया है कि हम लोग बिना मुसलमानों के सत्ता की सीढियां पार नहीं कर सकते। जब 82 फीसदी लोगों में फ़िरक़ा परस्ती का फर्मूला फ़ेल हो गया तो हम 18 फीसदी लोग फ़िरक़ा परस्ती का लिबादा ओढ़कर कैसे कामयाब हो सकते हैं। मेरा मानना है धर्मनिरपेक्ष लोगों को हमारी भागीदारी की मुहिम से कोई गुरेज नहीं होगा। एक बात और बता दूं। मुल्क के बटवारे का बीज जिसने भी बोया उसने मुसलमानों के हक़ में ऐसे कांटें बिखेरे हैं जिनको समेटना अब नामुमकिन है। न पाकिस्तान का मुसलमान सुकून से है और न बांगलादेश का। काश बटवारा न हुआ होता तो सत्ता में हमारी भागीदारी पूरी होती। हमारा मुल्क दुनिया में शिखर पर होता। हम दुनिया के तमाम मुल्कों की फ़ेहरिस्त में सफे अव्वल पर होते। लेकिन नफ़रत की बुनियाद पर बना पाकिस्तान आज पूरी दुनिया में मुसलमानों के नाम पर कलंक साबित हो रहा है। ज़रा मज़हब-ए-इस्लाम को पढ़ कर तो देखो। कौन सी हदीस या क़ुरान में लिखा है कि डंडे के बल पर इसलामी झंडा बुलंद करो। अरे क़ुरान की साफ़ आयत है। लकुमदीनुक वलयेदीन। तुम्हारा दीन तुम्हें मुबारक और मेरा दीन मुझे मुबारक। इस्लाम तो अपने अख़लाक के दम पर फैला है। खानक़हों से फैला है। हज़रत मोहम्मद सल्ल. की ज़िंदगी और सहाबा हज़रात की जिंदगी उठाकर देखो। साबित होता है कि इस्लाम तलवार के बूते पर नहीं फैला। हिंदुस्तान में आज भी एक तंज़ीम है। तबलीग़ी जमाअत। ज़रा उसके काम करने का तरीक़ा देखो। बड़े-बड़े बिगड़े इंसानों को उन्होंने सीधी राह पर डाल दिया। इस तंज़ीम के लोग इंसानियत का पाठ पढ़ाते हैं। इस्लाम और इंसानियत की सही तरजुमानी करते हैं। इस्लाम में पड़ोसी का भी हक बताते हैं। पड़ोसी चाहे हिंदू हो या मुसलमान लेकिन हक़ दोनों का बराबर है। क्या हम इस पर कभी अमल करते हैं। इस तंज़ीम की सबसे अच्छी बात मुझे ये लगती है कि ये लोग हर काम मशविरे से करते हैं। अमीर के फ़ैसले के बिना कुछ नहीं करते। यानि अमीर का फैसला ही आखरी होता है। मशविरे में खैर भी है। मेरा मानना है कि जिस दिन सारे मुसलमानों ने अपना कोई अमीर चुन कर उसकी बात पर अमल करना शुरू कर दिया वो दिन यक़ीनन इंक़लाब का दिन होगा। इस तंज़ीम की बात से आगे बढ़ते हैं। इस्लाम की वो कौन सी किताब है। जहां मज़लूम, बेबस, लाचार और बेक़सूर लोगों पर हथियार चलाने का हुक्म लिखा है। काफी अध्य्यन के बाद भी मुझे इस तरह का कोई फ़रमान लिखा नहीं मिला। अगर किसी की जानकारी में हो तो मुझे जरूर लिखना। चंद लोगों की हरकतों से आज दुनियाभर में मुसलमानों की जो पहचान बनी है वो निहायत शर्मनांक है। इस्लाम के नाम पर जिन लोगों ने हथियार उठा रखे हैं उनका ख़मियाज़ा बेवजह-बेसबब दूसरे मुसलमानों को उठाना पड़ रहा है। मेरी समझ नहीं आता। हज़ूरे अकरम सल्ल. ने जब दुनिया से पर्दा किया तो सहाबा इकराम को वो कौन सा डंडा थमा कर गए थे कि आप इसके दम पर इस्लाम फैलाना। वो अपनी ज़िंदगी और क़ुरान छोड़ कर गए हैं। ज़रूरत है उनकी ग़ुजरी हुई जिंदगी और कुरान पर अमल करने की। इसलिए मैं मुलमानों से गुजारिश करता हूं कि वो ज्यादा से ज्यादा हदीसें और तर्जुमे के साथ क़ुरान को पढ़ें। क़ुरान को समझ कर पढ़ना बेहद जरूरी है। ख़ुद पढ़ना न आता हो तो उलेमाओं की सोहबत में रहकर इल्म हासिल करें। एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस्लाम के क़ायदे क़ानून मानने वाले के अख़लाक़, ख़राब हो ही नहीं सकते। ये अख़लाक़ की ही वजह है कि आज दुनिया में सबसे तेजी से फैलने वाला अगर कोई मज़हब है तो वो सिर्फ और सिर्फ इस्लाम। लिहाज़ा हिंदुस्तान में रह रहे लोगों को मेरा मशविरा है कि वो अपने अख़लाक़ बेहतर बनाएं। और अख़लाक़ को ही अपना हथियार बनाकर सत्ता में भागीदारी की लड़ाई लड़ें। मैं मज़हब की किताबों के हवाले से दावा करता हूं कि जो आदमी बेहतर इंसान नहीं वो मुसलमान हो ही नहीं सकता।



आतंकवाद की आड़ में बहुत सारे मुसलमानों पर इस मुल्क में ज़ुल्म हुए हैं। सबूत बहुत हैं। लेकिन उदाहरण एक ही दूंगा। आज से कुछ साल पहले मैं जब स्टार न्यूज़ में था। उस वक्त मुल्क की जश्ने आजादी के क़रीब जैसा कि पुलिस अमूमन करती है। आतंकवादियों के नाम पर कुछ नौजवानों को मुठभेड़ के नाम पर मार गिराया। बाक़ी नौजवानौं की दास्तान तो मुझे नहीं पता लेकिन मरने वालों में से एक लड़का उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले के सिकंद्राराबाद क़स्बे का रहने वाला था। उसके परिवार वालों की मैंने वहां जाकर जांच पड़ताल की। मरने वाले लड़के के चार भाई और थे। उस परिवार की कहानी बेहद दुखभरी थी। पांचों भाइयों का बचपन मुफ़लिसी में गुज़रा। मरने वाले लड़के की बूढी नानी कभी एक स्कूल में टीचर हुआ करती थीं। बटवारे के दौरान उनका शोहर पाकिस्तान चला गया। लेकिन वो हिंदुस्तान में ही रहीं। उनकी एक बेटी थी। यहां रहकर उन्होंने अपनी इकलौती बेटी की परवरिश कर उस की शादी कर दी। उसी के ये पांच बच्चे थे। अचानक इन बच्चों का पिता एक दिन लापता हो गया और फिर कभी नहीं लौटा। खुदा जाने उसका क्या हुआ। पांचों भाइयों ने बचपन से ही मज़दूरी शुरू कर दी। और मज़दूरी करते करते कब जवान हो गए पता ही नहीं चला। एक भाई स्कूल में चपरासी की नौकरी करने लगा। बाक़ी रिक्शा चलाकर अपनी मां और बूढी नानी का पेट पालते थे। एक दिन अचानक पता चला कि बच्चों का नाना पाकिस्तान के लाहौर शहर में हैं। और ज़िंदा हैं। बच्चे अपनी मां के साथ नाना से मिलने पाकिस्तान पहुंच गए। उसके बाद परिवार के लोगों का कई बार पाकिस्तान आना जाना हुआ। पाकिस्तान में, मरने वाले लड़के की मुलाक़ात एक शख़्श से हुई। उसने कुछ सामान दिल्ली की आज़ादपुर मंडी में पहुंचाने की एवज़ में दो लाख रूपए देने की बात कही। एक रिक्शा चलाने वाले के लिए ये रक़म बहुत बड़ी थी। पाकिस्तान से दिल्ली पहुंचकर लड़के ने अपनी मां को फोनकर अपना हालचाल बताया। उसके कुछ देर बाद ही दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल वालों ने फोन किया। वो लोग कुछ जानकारी हासिल करना चाहते थे। उसी दिन रात को दिल्ली पुलिस के सहायक पुलिस आयुक्त राजबीर जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, अपनी टीम के साथ लड़के के घर सिकंद्राराबाद पहुंच गए। पूरे घर की तलाशी ली गई। कुछ नहीं मिला। राजबीर ने लड़का छोड़ने के लिए पांच लाख रूपए की मांग की। मां ने क़सूर पूछा। तो बताया गया कि वो आतंकवादी है। मां, पांच लाख रूपए देने की औक़ात नहीं रखती थी। उसने कहा मेरी मां यानि उस लड़के की नानी के डाकख़ाने में 85 हजार रूपए जमा हैं। सिर्फ वो ही दे सकते हैं। लिहाज़ा अगले दिन वो 85 हजार रूपए निकालकर राजबीर के हवाले कर दिए गए। राजबीर ने लड़के को छोड़ देने का भरोसा दिया। और अगले दिन यानि गिरफ्तारी के तीसरे दिन मां और भाइयों को लड़के के पुलिस मुठभेठ में मारे जाने की ख़बर मिली। दिल्ली पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से असलाह और बारूद मिला है। पुलिस सही कह रही थी या उसके घर वाले। ये जांच पड़ताल का विषय था। लेकिन परिवार वालों का एक दावा सौ फ़ीसदी सही लगता था। जब मैंने पड़ताल की तो डाकख़ाने से एक ही दिन में कुल जमा राशि निकाली गई थी। उस खाते को मैंने खंगाला। उस बूढी महिला के खाते में पिछले दस सालों में दो-दो चार-चार सौ रूपए जमा करके कुल 85 हजार रूपए जोड़े थे। उस खाते से दस सालों के दौरान कभी भी पांच सौ रूपए से अधिक नहीं निकाले गए थे। लड़का पुलिस मुठभेड़ में जिस दिन मारा गया उससे एक दिन पहले जमा खाते की कुल रक़म 85 हजार रूपए एक ही साथ ही निकाले गए थे। इसलिए मुठभेड़ में मारे गए लड़के की मां की तरफ से पुलिस पर लगाए गए इल्ज़ाम कितने सही और कितने ग़लत हैं ये मैं नहीं कह सकता। लेकिन पैसे देने की बात को भी मैं नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता। इसलिए पुलिस की कहानी में कहीं न कहीं कोई झोल जरूर लगता था। इस पर मैंने उस वक्त बुलंदशहर के एस.एस.पी आलोक शर्मा से बात की थी। मेरा सवाल था कि दिल्ली पुलिस के आरोप कितने सही हैं ? इस पर उनका कहना था अनवर भाई मेरी ज़बान को बंद ही रहने दो। दरअसल राजबीर के किए-धरे का कोई हिसाब लेने की हिम्मत नहीं रखता। इसके अलावा दिल्ली पुलिस के ही एक आला अधिकारी ने मुझे बताया कि आला अधिकारियों में भी उससे पूछताछ की हिम्मत नहीं है। दरअसल उसके रसूख सीधे गृह मंत्रालय में हैं। गृहमंत्रालय के अधिकारियों से उसकी सीधे बात होती है। राजबीर सिंह का ख़ुद कहना था कि मेरी पकड़ अब सीधे गृह मंत्री लालकृष्ण अडवानी से है। यही वजह थी कि वो अपने महकमे के किसी अफ़सर को नहीं गरदानता था। कई बार मेरी मौजूदगी में भी उसके पास सीधे गृह मंत्रालय से फोन आए। इसलिए मेरा मानना है कि पुलिस कई बार सिक्के का एक ही रुख देख पाती है। नमूने के तौर पर राजबीर सिंह की करतूतें मीडिया में आ चुकी थीं। उसकी काली उगाही के कारनामों का भी पर्दाफाश हो चुका था। लेकिन जब तक वो जीवित रहा पुलिस के आला अधिकारी भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाए। ये बात अलग है कि उसके कारनामों की सज़ा उसे ख़ुद मिल गई। और अपने ही दोस्त की गोली का शिकार बना।



बात दिल्ली के उसी बटला हाउस ऐंनकाउंटर की जिस पर जम कर राजनीति की रोटियां सेंकी गई। सियासत सब ने की। कांग्रेस हो, भाजपा, सपा, बसपा, आरजेडी समेत और कई दलों ने इसी मुद्दे पर अपनी-अपनी दुकानदारी काफी दिनों तक चलाई। दुकान नेताओं की ही नहीं चली बल्कि मीडिया वालों को भी अपनी दुकान चलाने का मौक़ा मिला। मीडिया ने अगर जिम्मेदारी बरती होती तो ये कोई मुद्दा ही नहीं था। दरअसल 2009 का लोकसभा चुनाव नज़दीक था। सियासत लाज़मी थी। कांग्रेस ने मुस्लिम वोट हासिल करने की गर्ज से इस मामले को कुछ ज्यादा ही तूल दिया। जैसा वो हमेशा से करती आई है वही हुआ। चुनाव ख़त्म। मुद्दा ख़त्म। लोगों के सामने सच्चाई आज तक नहीं आई। और न आएगी। सरकार तब भी कांग्रेस की थी और आज भी। ज़रा उस दौरान के तमाम न्यूज़ चैनलों की क्लिपिंग उठाकर देख लीजिए। हर कोई मीडिया वाला ख़ुद ही जांच ऐजंसी और ख़ुद ही जज बनकर फैसला सुना रहा था। सबकी कहानी जुदा थी। न्यूज़ चैनलों का किसी एक बात पर इत्तिफाक़ नहीं था। सबसे पहले मैंने आज तक न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर शम्स ताहिर ख़ान की रिपोर्ट देखी जिसमें उसने साफ-साफ इसे फर्ज़ी ऐंकाउंटर क़रार दिया। फिर इसी तरह की खबरें कुछ दूसरे न्यूज़ चैनलों पर भी आने लगीं। राजनैतिक दल और मीडिया भी दो टुकड़ों मैं बंट गए। कुछ असली तो कुछ इसे फर्ज़ी ऐंकाउंटर साबित करने में जुटे थे। उर्दू अख़बारों की तो बात ही छोड़ दो। उन्होंने तो एक तरफा राग अलापा। पत्रकार, पत्रकारिता का धर्म नहीं निभा रहे थे। वो किसी न किसी पक्ष का हिस्सा बन चुके थे। और पत्रकारिता का धर्म है निरपेक्ष रहना। लेकिन एक आदमी की छोटी सी कहानी बताना चाहता हूं। इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा असलियत में शहादत के हकदार हैं या नहीं इस पर मैं कुछ नहीं कहना चाहता। लेकिन उनकी कुछ और असलियत भी जान लीजिए। जो शायद कम लोगों को ही पता होगी। श्री शर्मा जब ज़िंदा थे तो अमूमन हर साल कभी अमेरीका, कभी लंदन तो कभी दूसरे देशों में परिवार के साथ सैर-सपाटे को जाया करते थे। इन यात्राओं का खर्चा हजारों में नहीं लाखों में होता था। मैं ये बात हवा में नहीं कह रहा। ज़रा उनका पासपोर्ट उठाकर देख लीजिए। उनकी कितनी विदेशी यात्राएं हैं। सारी की सारी निजी खर्चे पर। मैं सवाल उठाता हूं कि दिल्ली पुलिस का एक आई.पी.एस अफसर भी अपनी ईमानदारी की कमाई से अपने परिवार के साथ इतनी विदेश यात्राएं नहीं कर सकता। इंसपेक्टर शर्मा का किरदार कैसा होगा, आप खुद अंदाजा लगा लीजिए। राजनैतिक रोटियां सेकने वाले आए दिन उनके परिवार को आर्थिक सहायता दिए जाने की मांग करते रहते हैं। ये मांग कितनी वाजिब और कितनी गैर-वाजिब है इसका फैसला भी मैं आप पर छोड़ता हूं।

उत्तर प्रदेश के ख़ुरजा क़स्बे में हिंदू मुस्लिम दंगा हुआ। वहां के थाने में धूल चाट रही फाइलें मेरी बात की तसदीक करती है। तबाही सिर्फ मुसलमानों की हुई। पुलिस और प्रशासन का कहर सिर्फ मुसलमानों पर टूटा। शहर में कर्फ्यू लगा था। मैं अपनी बाईक से पहले शहर की जेल में पहुंचा। बलवा दोनों कौमों के बीच हुआ था। लेकिन जेल में तादाद सिर्फ मुसलमानों की थी। उनको इतना पीटा गया था कि कोई लंगड़ा कर चल रहा था तो कोई ज़मीन पर रगड़-रगड़ कर। जेल में बंद मुसलमानों ने मुझसे कहा कि आप हमें मत देखो। पुलिस पिटाई की अगर सच्चाई जाननी है तो शहर के अस्पताल जाओ। मैं अस्पताल पहुंचा। मुसलमानों की हालत देखी नहीं जाती थी। वहां का मंज़र दंग कर देने वाला था। एक-एक बिस्तर पर तीन-तीन मरीज़ अधमरी हालत में नज़र आ रहे थे। एक-एक आदमी की कई-कई जगहों से हड्डियां टूटी हुई थीं। पुलिस की पिटाई से पढ़ रहा एक लड़का जिसका नाम नसीम है वो पागल हो गया। काफी इलाज के बाद वो ठीक हुआ और आजकल दिल्ली में ही वकालत करता है। अस्पताल का नज़ारा देखने के बाद मैंने क़स्बे का रुख़ किया। कर्फ्यू पास मेरे पास मौजूद था। मेरा गुज़र जैसे ही गद्दियान मोहल्ले से हुआ वहां पुलिस की क़रीब 15, 16 गाडियां खड़ी थीं। गाडियों के बाहर कुछ ड्राइवर खड़े थे। मैंने माजरा पूछा तो एक ड्राइवर ने कहा कि तलाशी अभियान चल रहा है। ये बात मुझे लोग बता चुके थे। तलाशी के नाम पर पुलिस तबाही मचा रही है। घरों में घुसती है और नौजवानों को उठाकर थाने लेजाती है। और पीटकर हवालात के हवाले कर देती है। जिसका नज़ारा मैं देख ही चुका था। मैं कुछ देर तक तो सोचता रहा। उसके बाद मैंने शहर की जामा मस्जिद जाने का फैसला किया। जब मैं वहां पहुंचा। असर की नमाज़ अदा हो चुकी थी। मज़हबी तालीम का दौर चल रहा था। उस मस्जिद के इमाम मौलाना ख़ालिद को मैंने अपना परिचय दिया और सारा क़िस्सा बताया। वहां मौजूद लोग तैश में आ गए। उन्होंने कहा कि आज सब लोग एक साथ ही ख़ुद को पुलिस के हवाले कर देते हैं। लोगों ने कर्फ्यू तोड़ डाला और हजूम की शक्ल में उसी जगह पहुंच गए जहां पुलिस का तलाशी अभियान चल रहा था। कुछ नौजवानों को पुलिस ने गिरफ्तार कर गाडियों में बैठा रखा था। बाकी पुलिस वाले घरों में ही घुसे हुए थे। जैसे मजमे का शोर सुना पुलिस वाले घरों से बाहर आ गए। पुलिस के आगे-आगे एडीएम जिसका नाम मुझे आज तक याद है समीर हुक्कू था। उसके हाथ में एक तलवार थी, उसको लहराते हुए कहने लगा ये देखो मुसलमानों के घरों से हथियार मिल रहे हैं। पुलिस के पीछे-पीछे घरों के लोग भी मजमे को देखकर बाहर आ गए। उनमें महिलाएं और बूढ़े भी थे। कोई महिला रो रही थी कि पुलिस वालों ने मेरे सोने के बुंदे ले लिए। कोई कह रहा था कि मेरे जवान बेटे को पुलिस वाले ले गए। कोई पिटाई का दुखड़ा रोने लगा। कुल मिलाकर पुलिस के ख़िलाफ अलग-अलग तरह की आवाज़ें चारों तरफ से आने लगीं। अचानक मुझ से रहा नहीं गया। मैं समीर हुक्कू से कहने लगा कि लकड़ी को उतना मोड़ो जितना मुड़ सके। ज़्यादा मोड़ोगे तो टूट जाएगी। उस वक्त पंजाब का आतंकवाद शबाब पर था। इसीलिए मैंने समीर हुक्कू को उसका उदाहरण दिया कि आपका ज़ुल्म कोई और रूप भी ले सकता है। इस पर समीर हुक्कू मुझ पर भड़क गया। उसने कहा कि इसका कर्फ्यू पास छीन लो। इस पर पब्लिक भी भड़क गई। चूंकि पुलिस वालों की तादाद कम और लोगों की बहुत ज़्यादा थी। लोगों ने पत्थर हाथों में उठा लिए। कुछ लोगों ने लाठियां तान ली। पुलिस बीच में घिर चुकी थी। समीर हुक्कू की पल भर में नज़र बदल गई। पास छीनने के बजाए समीर हुक्कू मुझ से कहने लगा कि पत्रकार महोदय आप ही अपने लोगों को समझाइये। इस पर मैंने एक चबूतरे पर खड़े हो कर मुसलमानों से कहा.. भाई लोगो यदि पत्थर और डंडा चलाओगे तो पुलिस आप पर गोली चलाएगी। इस तरह तुम्हारा नुक़सान ज़्यादा होगा। चूंकि इनके पास बंदूकें हैं। न जाने कितने बेक़सूर मारे जाएंगे। मेरे मिज़ाज के और कई लोग खड़े हुए और हाथ जोड़-जोड़ कर लोगों के ग़ुस्से को शांत किया। लेकिन इस घटना से एक फायदा हुआ। पुलिस ने जिन बेक़सूर लोगों को गिरफ्तार कर अपनी गाडियों मैं बैठा रखा था वो लोग पुलिस के चंगुल से आज़ाद हो गए। मैं इस पूरी घटना का ज़िक्र तो नहीं कर पाया हूं। लेकिन जितना लिखा है उसकी तसदीक़ आप ख़ुरजे की जामा मस्जिद के इमाम मौलाना ख़ालिद से कर सकते हैं। चूंकि वो आज भी उसी मस्जिद के इमाम हैं। ये घटना उन दिनों की है जब मैं एक उर्दू अख़बार के लिए काम करता था। और पत्रकारिता में मेरी कोई पहचान नहीं थी। अख़बार का नाम सच रंग था। उसके मालिक बुज़ुर्ग पत्रकार राज्यसभा सांसद और उर्दू के क़ौमी आवाज़ अख़बार के पहले संपादक हयातुल्ला अंसारी साहब थे। अंसारी साहब इंदिरा गांधी और कांग्रेस के काफी क़रीबी लोगों में रहे थे। वो अमेरीका में भारत के राजदूत भी रहे थे। उनके अख़बार में मैंने इस घटना का तफ्सील से ज़िक्र किया था। चूंकि अख़बार उर्दू का था। लिहाज़ा ये पूरी ख़बर महज़ रद्दी की टोकरी का टुकड़ा साबित हुई।



यहां तक



हिंदुओं को कुछ कड़वे सच से रू-बरू कराना ज़रूरी समझता हूं। नफ़रत की बुनियाद पर पाकिस्तान बना। सरहद की दीवार खींचकर एक जिस्म को दो टुकड़ों में तक़सीम कर दिया गया। मगर न जाने कितने लोग हैं जो जिस्म के कटे हुए टुकड़े को ख़ुद से अलग नहीं कर पाए। लोगों की नफ़रत ने जो भी किया सो किया। मगर मैं आप को किसी क़िस्से या कहानी से नहीं एक हक़ीक़त से रूबरू कराता हूं। मेरे दोस्त किशन कुमार जिनका ज़िक्र मैं पहले भी कर चुका हूं वो लंबे समय तक दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच के डी.सी.पी रहे हैं। पाकिस्तानियों पर निगरानी रखना उनकी ज़िम्मदारी के तहत ही आता था। वीज़ा बढ़ाने या ना बढ़ाने का अधिकार भी उन्हीं को था। मेरे कुछ जानकार पाकिस्तान से आई एक बुज़ुर्ग महिला के वीज़े की अवधि बढ़वाने के लिए मेरे पास आए। मैंने किशन कुमार से कह कर उनका भारत में रहने के लिए एक महीने का वीज़ा बढ़वा दिया। महीने की मुद्दत पूरी हुई। उन्होंने फिर वीज़ा बढ़वाने को कहा। मैंने फिर एक महीना का वीज़ा बढ़वा दिया। वीज़ा मैंने तीसरी बार भी बढ़वा दिया। उसकी भी मुद्दत पूरी हो गई। मेरे जानकारों के साथ वो बुज़ुर्ग महिला मुझ से मिलने आई। उम्र क़रीब 85 साल थी। आकर रोने लगी। बेटा एक बार और वीज़ा बढ़वा दे। मगर इस बार वीज़ा मेरी सांसों के ख़त्म हो जाने तक का बढ़वा दे। ये मुल्क कभी मेरा ही था। ये मेरा पैदाइशी मुल्क है। इससे मेरा गहरा नाता है। अपने ही मुल्क में बेगानी हो गई हूं। इस मुल्क की मिट्टी में मेरे मां-बाप और मेरी औलाद दफ्न हैं। मुझे भी इसी मुल्क की मिट्टी में दफनाने को लिए दो गज़ ज़मीन दिलवा दे। मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं और कहे तो पैर भी पकड़ लूं। मैं उस बूढी औरत के आगे शर्मिंदा था। मैं उनके किसी सवाल का जवाब देने की हालत में नहीं था। चाहकर भी मैं अपने आंसू नहीं रोक पाया। आंसू मेरी बेबसी का मुझे ही अहसास करा रहे थे। समाज के ठेकेदारों ने सरहद की दीवार तो खींच डाली। मगर इसका अंजाम नहीं सोचा। सरहद की दीवार पर सिर पटक-पटक कर न जाने कितनी हसरतों ने दम तोड़ दिया। बूढ़ी औरत के वो शब्द मैंने किशन को बताए। किशन भी अफसोस करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे। और उन्होंने जो कहा उसका ख़ुलासा मैं कर नहीं सकता। मेरी क़लम आज़ाद है मगर किशन कुछ बंदिशों से बंधे हुए हैं। किशन की भावनाओं की मैं क़द्र तो कर सकता हूं मगर उनका ख़ुलासा नहीं। बटवारे का ज़िम्मेदार कौन था और कौन नहीं ये तो बहस का मुद्दा है। लोगों ने इस पर किताबें भी ख़ूब लिख डाली हैं। लेकिन पाकिस्तान में बसे वो कौन लोग हैं जिनके हाथों में हथियार हैं। और वो कौन लोग हैं जिन पर हथियार ताने जा रहे हैं। ज़रा गहराई में जाकर सोचना। एक दूसरे से ख़ून का रिश्ता पुराना है। ये बात अलग है कि मज़हब बदल गया। मगर लहू तो एक ही है। पाकिस्तान में बसे मुसलमान कोई राजपूत, कोई जाट, कोई गूजर तो कोई किसी पंडित का ख़ून है। मज़हब बदलने से उसकी ज़ात नहीं बदलती। वो लोग आज भी अपनी ज़ात का टाइटल अपने नाम के साथ लगाते हैं। लेकिन इस सच्चाई पर किसी ने ग़ौर नहीं किया। लेकिन बात अब हद से ज़्यादा बिगड़ चुकी है। संभाल पाना बहुत मुशकिल है। नफरत का बीज तो बटवारे ने ही बो दिया था। अब तो उसका पौधा बड़ा चुका है। फिलहाल तो पाकिस्तान, हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए परेशानी का सबब बन चुका है। करतूत पाकिस्तानी करते हैं। शक की नज़र से हम गुज़रते हैं। लेकिन वो जो करतूत करते हैं। इस्लाम उसकी क़तई या कभी इजाज़त नहीं देता। शक की बुनियाद पर न जाने कितने हिंदुस्तानी मुसलमान ज़ुल्म की ज़द में आ चुके हैं। इसके मेरे पास सबूत मौजूद हैं। लेकिन मैं सबूतों का ख़ुलासा नहीं हल चाहता हूं। और इसका हल यह है कि आतंकवाद से निबटने के लिए सबसे पहले मुसलमानों को ही आगे आना होगा। ये मुल्क हमारा है। हमारा ही रहेगा। जो लांछन हम पर लगते हैं। उन्हें धोना पड़ेगा। हमें इस मुल्क में सत्ता की भागीदारी पानी है तो इसके लिए हिंदुओं का भी सहयोग हमारे लिए ज़रूरी है।



मेरा एक दोस्त है गौरव काला। हिंदुस्तान की फौज में रहे लेफ्टिनेंट जनरल एचबी काला का बेटा है। हम दोनों ने पत्रकारिता का आग़ाज भी साथ-साथ किया था। पहले अख़बार में फिर टेलीवीज़न में साथ-साथ ही काम किया। काला समझदार इंसान है। उसने देखा मुसलमानों का पढ़ा लिखा तबक़ा सियासत से दूर रहना पसंद करता है। उसकी नज़र में ये बेहद ख़तरनांक है। दरअसल उसने और मैंने सत्ता के खेल को बहुत नज़दीक से देखा है। सत्ता के लोगों की मधुशाला तक की हर ख़बर से हम वाक़िफ हैं। ज़ाहिर सी बात है नेताओं की बेईमान नीयत और उनके मंसूबे हम से अछूते नहीं थे। गौरव का मानना था कि मुसलमानों को एक योजना के तहत उच्च शिक्षा और सत्ता में भागेदारी से दूर रखा गया। दूसरे, सत्ता के खिलाड़ियों ने मुसलमानों के वोट को मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया। एक हिंदू को भी ये अहसास है कि इस मुल्क में मुसलमानों को सत्ता की भागीदारी नहीं मिली। उसी ने मुझ से कहा कि मुसलमानों को एक कांशीराम की ज़रूरत है। जो मुसलमानों को वोट की ताक़त का अहसास करा सके। इसलिए मैंने मुसलमानों को जागरूक करने के लिए क़लम का सहारा लिया। और मुसलमानों से दुआ करने की अपील करता हूं कि अल्लाह तआला हमें भी दीन और दुनिया की समझ अता फरमाए। एक बात साफ़ करना ज़रूरी है। यदि सत्ता में अपनी साझेदारी चाहिए तो हिंदूओं को भी साथ लेकर चलना पड़ेगा। मैं नेताओं की नहीं आम हिंदुओं की बात कर रहा हूं। जो क़ौम साझेदारी से अछूती रह गई है आप उसे अपनी तहरीक या मुहिम का हिस्सा बना सकते हैं। उसके साथ साझेदारी का नाता जोड़ सकते हैं। हिंदुस्तान में इंसाफ परस्त हिंदुओं की भी कोई कमी नहीं है। यदि आपका अख़लाक़ अच्छे हैं तो ये लोग आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर साथ चल सकते हैं। मैं एक बार फिर कह रहा हूं कि हिंदूओ में कोई खोट नहीं। खोट है तो हिंदू नेताओं की नीयत में। यदि आप लोग जागरूक हो गए तो मेरा दावा है कि बेईमान नेताओं की दुकानदारी बंद हो जाएगी। चाहे उसमें हिंदू नेता हो या फिर मुसलमान नेता। ख़ासतौर से परेशानी कांग्रेस को होगी। चूंकि उसकी सत्ता की दुकान मुसलमानों के दम पर चलती है। इतिहास गवाह है मुसलमानों के वोट पर इस मुल्क में सबसे ज़्यादा राज कांग्रेस ने ही किया है। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जिन मुसलमान नेताओं ने कांग्रेस के नाम पर सत्ता का सुख भोगा और जो सुख भोग रहे हैं, वो चापलूस के सिवा कुछ नहीं है। मुसलमानों को भूल जाने की बीमारी है। इसलिए याद दिला रहा हूं कि जिस वक़्त बाबरी मस्जिद शहीद की गई केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। होना तो ये चाहिए था कि तमाम मुसलमान नेताओं को चाहे वो छोटे थे या बड़े सभी को एक साथ पार्टी से इस्तीफा दे देना चाहिए था। मगर ऐसा हुआ नहीं। क्या मतलब निकालूं मैं इस बात का। क्या उन कांग्रेसी नेताओं का ज़मीर मर चुका था। सत्ता के इतने लोभी हो गए कि उनके कलेजे सबकुछ सह गए। भाजपा ने जो किया सो किया ही। मगर कांग्रेस भी बेदाग़ नहीं है। इतिहास उठाकर देख लीजिए। मस्जिद का ताला खुला तो वो कांग्रेस के राज में, वहां पूजा की इजाज़त मिली तो कांग्रेस के राज में। और बाद में जो नंगा नाच हुआ वो भी कांग्रेस के राज में। कांग्रेस जो मुसलमानों की पीठ में हमेशा से छुरा घोंपने का काम करती आई है। इसकी थोड़ी बहुत जानकारी तो लोग रखते ही होंगे। मगर कुछ ख़बर हम भी रखते हैं। ,, मुसलमान और कांग्रेस की सियासत,, नाम से मुझे एक और किताब लिखनी पड़ सकती है। तभी मुसलमानों को कांग्रेस का असली चेहरा नज़र आएगा। मौक़ा मिला तो इस किताब को ज़रूर पूरा करूंगा। सबूतों के साथ। लेकिन कुछ लोगों को मेरी ये बात नागवार लग रही होगी। लेकिन मैं बिना सबूतों के कुछ नहीं कहता। मैं नेता नहीं पत्रकार हूं। मुसलमानों को आंखें खोलने के लिए आगाह कर रहा हूं। चूंकि सामने दिखने वाले सांप से ज़्यादा खतरनांक आस्तीन का सांप होता है। और ये आस्तीन का सांप कौन है शायद बताने की ज़रूरत नहीं।



बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद दिल्ली के सीलमपुर इलाके में मुसलमानों के विरोध प्रदर्शन पर पुलिस एक्शन हुआ। जिसका मैं चश्मदीद हूं। मुसलमानों का विरोध वाजिब था। लोग सड़कों पर उतर आए। उन्होंने एक सरकारी बस को रोका, मुसाफिरों को नीचे उतार कर बस को आग के हवाले कर दिया। इस शहर के लिए ये कोई नई बात नहीं थी। मैंने यहां मामूली विवादों पर वाहनों को आग के हवाले होते देखा है। लेकिन सीलमपुर मैं उस दिन जब मुसलमानों ने वाहन को आग लगाई तो पुलिस इतनी तैश में आई कि आते ही गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। तीन बच्चे मौक़े पर ही शहीद हो गए। पुलिस ने अपने दाग़ छिपाने के लिए इसे हिंदू मुस्लिम दंगे का रूप दे दिया। कई दिनों तक मुसलमानों पर पुलिस का क़हर टूटता रहा। कुल 21 लोग मारे गए। मगर भला हो मीडिया का, जिसने पुलिस की करतूत का फर्दाफ़ाश किया। मुझे आज तक याद है कि वेलकम की जनता कालोनी के एक मकान की छत पर दो लड़कों को पुलिस की गोली लगी। आप ये जानकार हैरत में पड़ जाएंगे कि पुलिस की गोली खाने वाले वो दो लड़के कौन थे। उनमें एक हिंदू और दूसरा मुसलमान था। दरअसल बाहर से आए लोगों ने बस्ती पर हमला किया। बस्ती के हिंदू और मुसलमानों ने मिल कर बाहरी लोगों को भगाने के लिए उनका सामना किया। पथराव कर उन्हें भगाने की कोशिश की। लेकिन पुलिस ने बलवाइयों को भगाने के बज़ाए अपना बचाव कर रहे लोगों पर ही ताबड़तोड़ गोलियां चला दीं। ये वहशीपन नहीं तो और क्या था। अगर मेरी इस बात पर आपको यक़ीन न हो तो जनसत्ता अख़बार की लाइब्रेरी में जाकर दिसंबर 1992 के अख़बार की फाइल जाकर पढ़ लें। उसमें एक ख़बर छपी है। जिसका शीर्षक यानि उनवान है ,, जय राम को इकराम की धपकियां।,, इस ख़बर में पुलिस की करतूत का पूरा खुलासा है। और इस खबर को लिखने वाला रिपोर्टर एक हिंदू ही कुमार संजय सिंह। उसी अख़बार में एक और ख़बर छपी है। ,,ये हिंदू मुसलिम नहीं पुलिस बनाम मुसलमान दंगा है।,, दरअसल जिन दो लड़कों को गोली लगी थी उनमें एक जयराम और दूसरा इकराम का भाई था। ज़ख्म़ी हालत में दोनों को जब एक ही चारपाई पर डालकर अस्पताल ले जाया जा रहा था तो मैं वहां मौजूद था। दोनों जख्मियों के भाई जयराम और इकराम आपस में लिपटकर रो रहे थे। जयराम इकराम को और इकराम जयराम को तसल्ली दे रहा था। इसी मंज़र को रिपोर्टर ने अख़बार की ख़बर बनाते हुए लिखा.. सीलमपुर का दंगा हिंदू मुस्लिम नहीं है। लेकिन दंगे के नाम पर यहां पुलिस ने जो नंगा नाच किया वो कम ख़ौफनांक नहीं था। जिन लोगों के मकानों को जलाकर ख़ाक कर दिया गया। पुलिस ने उन्हें ही बलवाई बनाकर हवालात भेज दिया। सिर्फ हवालात ही नहीं भेजा पहले थाने में उनकी जमकर पिटाई की गई। उसका भी मैं चश्मदीद हूं। उनमें से बहुत सारे लोगों को मैं जानता भी हूं। किसी को तसदीक़ करनी हो तो नाम और पता मुझ से ले जा सकते हैं। बात उसी दौरान की है। दिनभर का नज़ारा मैंने अपनी आंखों से देखा। इलाके में कर्फ्यू लगा था। पत्रकार होने की वजह से मेरे पास कर्फ्यू पास था। रात हो चुकी थी। मैं घर की तरफ लौट रहा था। वेलकम इलाके की एक गली में खड़ी महिला पर अचानक मेरी नज़र पड़ी। महिला बेहद परेशान थी। मैंने सबब पूछा। उसने कहा मेरा बच्चा भूखा है। मेरा घर चौराहे पर है। वहां पुलिस का पहरा है। मेरे घर के दो लोगों को पुलिस ले गई है। घर में दूध तो है मगर मैं ला नहीं सकती। मैंने अपना परिचय दिया और उसके साथ मकान तक गया। ताला खुलवाया। महिला ने फ्रिज से दूध निकाला। उस वक़्त वो बेहद घबराई हुई थी। हाथ पैरों की कपकपाहट साफ दिखाई दे रही थी। महिला जिस वक़्त सीढियों से उतर रही थी दूध का बर्तन उसके हाथ से छूट गया। और सारा दूध बिखर गया। आखिरकार मैंने बिना दूध के ही उस महिला को वहीं वापस छोड़ दिया। जहां वो पनाहगुज़ीर थी। रात गहरी हो चुकी थी। इलाके में सन्नाटा पसरा था। कुत्तों के भोंकने की आवाज़ें सन्नाटे को चीर रही थीं। मैं चाह कर भी कहीं से दूध का बंदोबस्त नहीं कर सकता था। बिलखते बच्चे का ख्य़ाल में दिल से निकाल नहीं पा रहा था। मगर मेरे पास बेबसी और मजबूरी के सिवा कुछ नहीं था। उदासी के साथ में जाफराबाद में अपने एक दोस्त हाजी नसीर के घर पहुंचा। वहां कुछ लोगों के बीच दंगे पर ही चर्चा चल रही थी। मैंने वहां रुकना गैर मुनासिब समझा। और अपने घर की तरफ रवाना हो लिया। पीछे-पीछे मेरा दोस्त भी चला आया। आख़िर उसने मेरी उदासी का सबब पूछ ही लिया। मेरी ज़बान से कुछ नहीं निकला मैं उससे लिपटकर रोने लगा। साथ में उसके भी आंसू बहने लगे। लेकिन फिर भी उसने मेरी हिम्मत बंधाई और मुझे रोने से रोका। बात पूछी। मैंने उससे इतना ही कहा कि.. मैं एक मां को बच्चे की भूख के लिए तड़पता हुआ देखकर आ रहा हूं।



दंगों के कुछ दिन बाद ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव थे। मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया। इसीलिए दिल्ली में सरकार भी कांग्रेस की नहीं बनीं। चुनाव के आंकड़े उठाकर देख लें। देश भर में जब-जब मुसलमान ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया उसे हार का मुंह देखना पड़ा है। वक़्त गुज़रता गया। ज़ख्म़ भी भरते गए। जिन मुस्लिम इलाक़ों में जो नेता कांग्रेस को गाली देकर चुनाव जीता उनमें से एक को छोड़ कर सब कांग्रेस में शामिल हो गए। आदत से मजबूर मुसलमान सब कुछ भूल गया। और कांग्रेस का पिछलग्गू बन गया। ख़ैर जिस इलाक़े में दंगा हुआ यानि जमनापार। 2009 मे परिसीमन के बाद यहां जो लोकसभा सीट बनीं उस पर सबसे ज़्यादा मुस्लिम वोट हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव की ये बात है। दिल्ली के शाही इमाम तक ने कांग्रेस से इस सीट पर किसी मुसलमान को उम्मीदवार बनाने की सिफारिश की थी। लेकिन इमाम साहब समेत सभी मुसलमानों को कांग्रेस ने उनकी औक़ात बता दी। टिकट एक वैश्य बिरादरी के नेता को दिया गया। ख़ैर उन दिनों मुसलमानों में काफी गहमा-गहमी थी। कुछ मुसलमान मेरे पास आए। मुझ से इसी इलाक़े में एक बैठक कर सलाह मशवरा करने को कहा। मैं तैयार था। चूंकि बातचीत में कोई हर्ज नहीं था। लिहाज़ा मैंने अपने उसी दोस्त हाजी नसीर से फोन पर सम्पर्क कर के कहा कि मुसलमान को टिकट न मिलने पर कुछ लोग एक बैठक करना चाहते हैं। आपकी क्या राय है। ज़रा उनका जवाब सुनिए। भाई मैं तो कांग्रेस का सिपाही हूं। पार्टी ने जिसको उम्मीदवार बनाया है उसी के लिए काम करूंगा। आखिर फरमाबरदारी तो निभानी ही पड़ेगी। मैंने उन्हें फौरन जवाब दिया कि मैंने कांग्रेस के सिपाही को नहीं अपने दोस्त को फोन किया है। कांग्रेस के सिपाही की बात तो दूर मैं उसके सिपहसालार से भी बात करना पसंद नहीं करूंगा। इस जवाब पर उनक लहज़ा बदल गया। आगे जो बात हुई वो मैं लिखना नहीं चाहता। जो लिखा है उससे ये साबित करना चाहता हूं कि मुसलमान सब कुछ कितनी जल्दी भूल जाता है। उस वक़्त चल रहे चुनाव में बसपा ने यहां से एक मुसलमान को उम्मीदवार बनाया। लेकिन चुनाव के चलते वो कांग्रेस के समर्थन में बैठ गया। जिस पार्टी का उम्मीदवार ग़ायब हो गया हो। उसके बावजूद बसपा के खाते में 48000 हजार से ज्य़ादा वोट निकले। इसे कहते हैं संगठित होने की ताक़त। दलितों ने उम्मीदवार के मैदान में न होने के बावजूद अपनी ही पार्टी को वोट दिया। इसी लिए वो आज सत्ता का सुख भोग रहे हैं। दूसरी तरफ मुसलमान है। हक़ यानि टिकट न मिलने पर भी कोई नाराज़गी तक का इज़हार नहीं किया। बल्कि मुंडी झुका कर कांग्रेस को थोक में वोट दे दिया। और कांग्रेंस का उम्मीदवार जीत गया। और अब मतदाता सूची की असलियत जान लीजिए। दिल्ली की इस उत्तर पूर्वी सीट पर मुसलमान और दलित वोट एक साथ जिस उम्मीदवार को पड़ जाएं उसकी जीत सौ फीसदी पक्की है। लेकिन सियासत के खय्यडों ने इस वोट को एक जगह जमा होने से पहले ही पूरी फ़िज़ा बिगाड़ डाली। देश की बहुत सारी सीटें ऐसी हैं जिन पर मुसलमान अगर किसी दूसरी बिरादरी के साथ मिलकर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करें तो देश की राजनीति की दिशा बदल सकता है। मुद्दा एक और है। मगर उसे तफ्सील से आंकड़ों और दशा के साथ लिखना पड़ेगा। फिलहाल संक्षेप में बता रहा हूं। देश में लोकसभा की 119 सीटें सुरक्षित हैं। इनमें 80 फीसदी सीटें मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं। इसी तरह विधानसभा की 1050 सीटें सुरक्षित हैं। इनमें भी अधिकतर मुसलिम बहुल क्षेत्र ही हैं। सियासत के खिलाड़ियों ने इस तरह से मुसलमानों का हक़ मारा है। ये सब कुछ एक साज़िश के तहत हुआ है। मुसलमानों के लिए जानबूझ कर लोकसभा के दरवाज़े बंद किए गए हैं। इसके अलावा हाल ही में जो परिसीमन हुआ है, उसमें इस बात का पूरा ख़्याल रखा गया है कि मुसलमानों के बूते पर कोई सीट न जीती जा सके। इस पर मेरी राय ये है कि लोग ऐसी जगह जाकर आबाद हों जहां उनका वोट उनके लिए कोई मायने रखता हो।

बात कुछ पुरानी है। पश्चिमी बंगाल कैडर के आईपीएस हैं अकबर अली ख़ान। क़रीब 15 साल पहले वो सीआईएसएफ में सीनियर डीआईजी थे। और दिल्ली मैं तैनात थे। सीआईएसएफ में जवानों की एक भर्ती के वो इंचार्ज थे। भर्ती के दौरान उन्होंने कुछ मुसलमान लड़कों को नौकरी दे दी। बस क्या था तूफान खड़ा हो गया। सीआईएसएफ के महानिदेशक आर.के शर्मा ने उस पूरी भर्ती को ही रद्द कर दिया। और अकबर अली ख़ान को वापस पश्चिम बंगाल कैडर में भेजने का फरमान जारी कर दिया। उस वक़्त गृह राज्य मंत्री मक़बूल दार थे। श्री दार उस दिनों सीआईएसएफ महकमे के इंचार्ज भी थे। लिहाज़ा अकबर अली ख़ान अपना दुखड़ा लेकर श्री दार के पास पहुंचे। मक़बूल दार ने सीआईएसएफ के महानिदेशक आर.के शर्मा को एक पत्र लिखकर अकबर अली ख़ान का तबादला रोकने का निर्देश दिया। इस पर आर.के शर्मा ने एक पत्र सीधे देश के गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त को लिखा। जिसमें साफ-साफ लिखा गया था कि अकबर अली ख़ान और गृह राज्यमंत्री मक़बूल दार फिरक़ापरस्त हैं। लिहाज़ा मैं मंत्री का आदेश मानने से साफ इंकार करता हूं। ये है इस मुल्क में मुस्लिम मंत्री की औक़ात। जो किसी मुस्लिम अफसर की मदद तक नहीं कर सकता। अकबर अली ख़ान महीनों अपने घर बैठे रहे। उस वक्त देश के रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव थे। अकबर अली ख़ान मुलायम सिंह से लेकर हर एक उस मंत्री से मिले जो मुसलमानों के वोट के दम पर सत्ता का सुख भोग रहा था। लेकिन किसी ने उनकी गुहार न सुनी। आख़िरकार उन्हें पश्चिम बंगाल जाना पड़ा। तब से वो आज तक बंगाल पुलिस में ही तैनात हैं। और अब भी डीआईजी हैं। आर.के शर्मा ने नौकरी में ऐसी अड़चन डाली की 15 साल बीत जाने के बाद भी उन्हें कोई तरक़्क़ी नहीं मिली है। यह है बेवजह की तोहमत और अब देखिए क़लम की ताक़त।



अकबर अली ख़ान जब मुसीबत में थे तो मुझ से भी मिले। कुछ मदद करने को कहा। मैंने मुलायम सिंह के चचेरे भाई रामगोपाल यादव से भी उनकी मुलाक़ात करवाई। लेकिन कोई मसला हल नहीं हुआ। मैंने अकबर अली ख़ान को साफ-साफ कह दिया कि इस मामले की ख़बर मैं नहीं छाप सकता। वरना मुझ पर भी फिरक़ापरस्त होने की तोहमत लग जाएगी। लिहाज़ा जो करना है मैं अपने ढंग से करूंगा। इसके बाद मैंने अपनी कल़म का इस्तेमाल किया। आरके शर्मा के भ्रष्टाचारी कारनामों के काग़ज़ी दस्तावेज़ मेरे हाथ लग गए। एक के बाद एक उसके हर भ्रष्टाचार की पोल अख़बार में खुलने लगी। मैं उन दिनों जनसत्ता अख़बार में था। मैंने उसके ख़िलाफ एक ख़बर लिखी जिसका शीर्षक था ,,गृहमंत्री से भी ज़्यादा ख़र्चीली है सी.आई.एस.एफ के महानिदेशक की सुरक्षा।,, दरअसल आर.के शर्मा पंजाब कैडर का आई.पी.एस अफसर था। और आतंकवादियों से उसे ख़तरा था। जबकि वक़्त तक पंजाब के आतंकवाद की जड़ों का सफाया हो चुका था। इसके बावजूद सी.आई.एस.एफ के डेढ़ सौ से ज़्यादा जवान आर.के शर्मा ने अपनी सुरक्षा में तैनात कर रखे थे। उनकी तनख़्वाह का हिसाब जोड़कर मैंने ख़बर लिखी थी। तथ्यों पर आधारित इस ख़बर को उस वक़्त मेरे अख़बार के वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला जो आजकल अमर उजाला अख़बार में हैं, उन्होंने महीने की सर्वश्रेष्ठ ख़बर का दर्जा दिया। उसके बाद भी मैंने आर.के शर्मा के कई काले कारनामों का चिट्ठा खोला। मेरी लिखी गई ख़बरों से आर के शर्मा मुसीबत में फंस गए। और बाद में वो सीबीआई की जांच के दायरे से गुज़रे। अंजाम क्या हुआ मुझे नहीं मालूम। हां इतना ज़रूर कहूंगा कि आर.के शर्मा ने अपने ख़िलाफ छप रही ख़बरों को रुकवाने के लिए काफी मशक़्क़त की। जो किसी काम नहीं आई। चूंकि प्रभाष जोशी के दौर में हमारा कल़म पूरी तरह आज़ाद था।



हिदुस्तान में मुसलमानों की तादाद कोई 15, कोई 20 तो कोई 25 करोड़ कहता है। सही तादाद जो भी हो। लेकिन दुनिया भर में दो-तीन सौ करोड़ मुसलमान बताए जाते हैं। बडी संख्या मे मुस्लिम मुल्क हैं। लेकिन किसी ने भी मीडिया लाइन पर काम नहीं किया। क़लम जो सबसे बड़ा हथियार है। किसी मुसलमान ने इसे हथियाने की कोशिश नहीं की। किसी को इतना शऊर नहीं हुआ की इंटरनेशनल स्तर का कोई मीडिया आपके हाथों में होता। ईसाइयों के हाथों में दुनिया भर का मीडिया है। और वो उसे मनमाने ढंग से इस्तेमाल भी करते हैं। मीडिया ने मुसलमान को पूरी दुनिया में दहशतगर्द साबित करके दिखा दिया है। आप इंटरनेशल छोडो भारत के मुसलमान एक ऐसा प्लेट-फार्म नहीं खड़ा कर सके जहां से कम से कम अपनी बात कह सकें। अपनी आवाज़ बुलंद कर सकें। क्या भारत मैं मुस्लिम साहूकारों की कमी है जो एक न्यूज़ चैनल या फिर राष्ट्रीय स्तर का समाचार पत्र खड़ा नहीं कर सकते। मीडिया की ताक़त का लोगों को अहसास नहीं है। जब सारे दरवाज़े बंद हो जाते हैं तब लोग गुहार लेकर मीडिया की दहलीज़ पर ही पहुंचते हैं। सैंकड़ों नहीं हज़ारों मिसालें ऐसी मौजूद हैं। जहां मीडिया के दख़ल पर ही लोगों को इंसाफ मिला है। हम लोग पांच साल के लिए नेता बनाने के लिए अपना वक़्त और पैसा बर्बाद करते हैं। और जिसको नेता बनाकर संसद या विधानसभा में भेजते हैं वो दूसरों के रहमो करम पर कुछ अपनों का भला कर पाता है। लेकिन मीडिया पर हमने आज तक न पैसा ख़र्च किया न वक़्त। जबकि ये ऐसा औज़ार है जो न सिर्फ हमारे बल्कि न जाने कितने मज़लूमों और मासूमों का मददगार साबित हो सकता है। हमें इस वक़्त मुसलमानों को जागरुक करने के लिए जरूरत है एक तहरीक चलाने की। और तहरीक को मंजिल तक पहुंचाने का काम मीडिया ही करता है। मीडिया के मैदान में हम एकदम सफा-चट हैं। फिलहाल मीडिया न सही कोई बात नहीं। लेकिन सत्ता की भागेदारी के लिए हमें अब चूकना नहीं है। अगर इस दिशा की तरफ क़दम बढ़े तो मुझे उम्मीद है कि हममें से एक नहीं कई भीमराव अम्बेडकर और कांशीराम पैदा हो जाएंगे। चूंकि दानिशवरों की मुसलमानों में कोई कमी नहीं। कमी है तो सिर्फ हमारे संगठित होने की।



मुस्लिम राजनीति का बेड़ा ग़र्क करने वालों में सबसे लंबी फेहरिस्त हमारे मुस्लिम नेताओं की ही है। दरअसल 62 साल का इतिहास उठाकर देख लो। किसी भी दल का मुस्लिम नेता अपने राजनैतिक लाभ के लिए रबड़ स्टेंप बना रहा। काम निकल जाने के बाद इन रबड़ स्टेंप नेताओं को पार्टियों ने बाहर का रास्ता भी ख़ूब दिखाया। उदाहरण के तौर पर इन दिनों उत्तर प्रदेश के मुस्लिम नेता कहलाए जाने वाले आज़म खान हैं। जिन्होंने बाबरी मस्जिद के नाम पर अपनी सियासी दुकान सजाई। वो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के एहम हिस्सा थे। लेकिन बाद में वो समाजवादी



पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक बने। मुलायम की सरकार बनी तो मंत्री भी बन गए। उसी दौरान उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर ज़िले के एक क़स्बे में हुए एक प्रोग्राम में वो हिस्सा लेने पहुंचे। वहां बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी का बेनर लगा देखा। इस पर आग बबूला हो गए। और वापस भी जाने लगे। लोगों ने वजह पूछी। तो कहने लगे पहले इस बैनर को हटाओ। तब मंच पर चढ़ सकता हूं। आख़िरकार वही हुआ। बैनर हटाया गया तब मंत्री जी मंच पर विराजमान हुए। यानि सत्ता का सुख मिलने के बाद उन्होंने भी धर्मनिरपेक्षता की नौटंकी शुरू कर दी थी। दरअसल इस नौटंकी के पीछे निजी स्वार्थ छिपे थे। ऐसे लोगों का हाल क्या होता है आप लोगों ने देख ही लिया होगा। सपा ने बहुत बेआबरू कर कूचे से बाहरह निकाल फेंका। चूंकि अब वो सपा के लिए बेकार की चीज़ थे। रामपुर लोकसभा सीट से आज़म ख़ान की लाख मुख़ालफत के बाद भी फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा का जीत जाना ये साबित करता है कि उनकी अपने घर में भी कोई औक़ात नहीं बची है। आज़म ख़ान ही नहीं कोई भी हो। जिस मुसलमान की नीयत में खोट होगा उसका हाल एक न एक दिन यही होगा। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुख़ारी को ही ले ले। कभी सपा, कभी बसपा और कभी भाजपा की हिमायत का ऐलान करते रहते हैं। जब दाल कहीं नहीं गली तो मुसलमानों की पार्टी बना डाली। वो भी टाएं-टाएं फिश हो गई। फिलहाल वो कांग्रेस की तरफदारी करते नज़र आ रहे हैं। जबकि सच्चाई ये है कि कांग्रेस उनको घास नहीं डालती। चूंकि वो अपना वजूद खो चुके हैं। भाई लोगो ये सब सत्ता में बने रहने के लिए किया जाने वाला खेल है। अगर क़ौम के लिए कुछ करना है तो मैं बुख़ारी साहब से पूछता हूं कि मुसलमानों के लिए आपके पास कोई ऐजंडा है। अगर है तो सत्ता का सुख तलाशने के बजाए पहले उस ऐजंडे को लेकर आप क़ौम के पास क्यों नहीं गए। जामा मस्जिद से माईक पर बड़ी-बड़ी तक़रीरें करने से कुछ होने वाला नहीं है। तक़रीरें मैंने और जनता ने बहुत सुनी हैं। श्री बुख़ारी की ही नहीं, मौलाना उबैदउल्लाह आज़मी और आज़म ख़ान जैसे लोगों की काफी जज़्बाती तक़रीरें सुन चुका हूं। ये नेता तक़रीरों में क़ौम के लिए अपना सारा ख़ून बहा देने तक दावा भरते थे। मगर देश में मुसलमानों के साथ इतना कुछ हो जाने के बाद भी मैंने किसी मुस्लिम नेता के ख़ून का एक क़तरा तक बहते नहीं देखा। सत्ता में शामिल होते ही इन तमाम नेताओं की ज़ुबान पर ताला लग जाता है। तक़रीरें तो 62 सालों से होती आ रही हैं। नतीजा कुछ नहीं निकला। ज़रूरत तो साझेदारी के लिए ज़मीन तैयार करने की है। और ज़मीन ऐसे ही तैयार नहीं होगी। एयरकंडीशन कमरों को छोड़कर सड़कों पर पसीना बहाना होगा। मुझे लगता है इस तहरीक को चलाने के लिए बंदूक में चले हुए कारतूसों की ज़रूरत नहीं। इस नए ज़माने में नए नौजवान चेहरे दरकार है। जिन्हें परखा जा चुका हो उन्हें दोबारा परखने की ज़रूरत नहीं। मुसलमानों में बहुत सारे नेता ऐसे हैं जो हमेशा सत्ता का सुख भोगना चाहते हैं। भले ही मुसलमानों को भागीदारी मिले या न मिले। मगर सत्ता में इन्हें भागीदारी ज़रूर मिलनी चाहिए। अकसर आप देखते रहते होंगे कि आए दिन कोई न कोई मुस्लिम नेता इस दल से उस दल में जाता रहता है। ये सब कुछ निजी स्वार्थों के लिए होता है। क़ौम के लिए नहीं।



मैं नहीं आप भी बहुत सारे मुस्लिम क़द्दावर नेताओं को जानते होंगे। सारे नाम लिखें तो फेहरिस्त बहुत लंबी हो जाएगी। सीके जाफर शरीफ, अब्दुल रहमान अंतुले, आरिफ मोहम्मद ख़ान समेत और बहुत से नेता कांग्रेस में कभी क़द्दावर की हैसियत रखते थे। मगर अब कहां गुम हो गए, पता नहीं। कांग्रेस के अलावा और तमाम दलों के नेताओं का भी यही हाल हुआ है। जब तक चाहा मुस्लिम नेता का इस्तेमाल किया और जब चाहा बाहर का रास्ता दिखा दिया। शहाबुद्दीन, तसलीमुद्दीन जैसे नेता लालू की पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे हैं। लेकिन ये लोग आज कहां नदारद हो गए। कहानी लगभग सबकी एक ही जैसी है। दरअसल ख़ुद की ज़मीन किसी के पास नहीं थी। मरहूम अब्दुल्ला बुख़ारी साहब को छोड़कर तमाम मुस्लिम नेता मुसलमानों में अपनी पेंठ बनाने के बजाए पार्टियों में पकड़ मज़बूत बनाने में जुटे रहे। किसी ने अपने संगठन पर काम नहीं किया। सत्ता के सुख के लिए जिनके कंधों पर रखकर बंदूक चलाई थी। उन्होंने अपना कंधा जैसे ही खींचा सड़क पर आने में देर नहीं लगी। ज़मीन नहीं थी तो पार्टियों को भी इन्हें बाहर का रास्ता दिखाने में कोई दुशवारी नहीं हुई। चूंकि एक को निकाला तो सौ मुसलमान पार्टी की चापलूसी के लिए क़तार में खड़े नज़र आए। जिनकी कभी तूती बोलती थी, बहुत सारे नेता गुमनाम हो गए। तमाम सियासी दलों में आज जितने भी मुसलमान नेता नज़र आ रहे हैं, एक न एक दिन इनका भी यही हश्र होना है। बहुत से नेताओं का बुरा हाल हो चुका है। और कुछ का होना बाक़ी है। उत्तर प्रदेश की बात करें तो वहां से विधायक हैं हाजी याक़ूब। सत्ता में बने रहने के लिए कभी मुलायम की तो कभी मायावती की चाटूगीरी करते रहते हैं। ये सहाब अकेले नहीं हैं। उबैदुल्लाह आज़मी कभी स्वर्गीय वीपी सिंह की ग़ुलामी करते थे। कांग्रेस को जमकर कोसा करते थे। फिर कांग्रेस के रहमो करम पर ही राज्य सभा चले गए। कांग्रेस ने घास डालनी बंद की तो सपा में दुकान सजा ली। दरअसल आज़म ख़ान को बाहर करने के बाद मुलायम को भी अपनी दुकान के लिए एक शो पीस मुस्लिम नेता ज़रूरत थी। राशिद अल्वी जो फिलहाल कांग्रेस के रहमो करम पर राज्य सभा के सांसद हैं। कभी जनता दल में हुआ करते थे। कांग्रेस की करतूतों का जमकर बखान करते थे। बसपा की चाटूगीरी कर लोकसभा में पहुंच गए। आजकल कांग्रेस के वफादार सिपाही बने हुए हैं। क़ादिर राणा फिलहाल सांसद हैं। कभी मुलायम के साथ थे। आज कल मायावती के कुनबे में हैं। उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फर नगर इलाके के हैं अमीर आलम लोकसभा में रहे हैं। फिलहाल राज्यसभा में सांसद हैं। तन के कपड़ों की तरह दल बदलते रहते हैं। कभी अजीत सिंह के साथ तो कभी मुलायम के साथ। फिलहाल कांग्रेस का दामन थामने की जुगत में लगे हैं। आख़िर इन सबका अपना ज़मीर क्या है। कभी किसी को गाली देते हैं तो कभी उसी की शान में क़सीदे पढ़ने लग जाते हैं। दरअसल इस सबके पीछे सत्ता का सुख छिपा है। क़ौम का दर्द नहीं। एक बात साफ-साफ बता दूं। नेता की ताक़त उसका वोट होता है। और वोट हमारे और तुम्हारे पास है। जिसे चाहें अर्श और जिसे चाहें फर्श पर बैठा सकते हैं। अब हमें नेताओं की नीयत को परखना होगा। ये लोग मदारी की तरह डुगडुगी बजाकर मजमा जोड़ना जानते हैं। यदि मुसलमानों को सत्ता में भागीदारी चाहिए तो नेताओं की डुग-डुगी की पहचान करनी होगी। खुद अपने भले और बुरे की परख करनी होगी। अब वोट का इस्तेमाल आंखें खोल कर करना पड़ेगा। तभी हम लोग शायद अपनी मंज़िल के अंजाम तक पहुंच पाऐं। मैं बहुत सारे मुस्लिम संगठनों की दुकानों से वाक़िफ हूं। जिनका इस्तेमाल सत्ताधारियों से लाभ पाने के लिए होता है। उदाहरण के लिए मुस्लिम मिल्ली काउंसिल के नेता कमाल फारूक़ी का नाम काफी है। ज़ाहिर है सरकार से जो कुछ उन्होंने पाया है वो वफादारी का इनाम ही हो सकता है। और जब किसी से वफा की है जफा भी किसी से की होगी। आप लोग समझदार हैं। मेरी बात को समझ ही गए होंगे।



इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में जो लोकसभा चुनाव हुए थे उसमें आख़री बार किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था। उसके बाद से लेकर 2009 तक के लोकसभा चुनाव में देश में किसी भी एक दल को जनता ने पूर्ण बहुमत नहीं दिया। 1984 के चुनाव के बाद से मुसलमान एक पार्टी यानि कांग्रेस का ग़ुलाम नहीं रहा। वो अलग-अलग सूबों में अलग-अलग दलों के साथ जुड़ गया। थोक में कांग्रेस को वोट देने वाला मुसलमान बिखर गया। किसी एक पार्टी को वोट न देने का नतीजा ये हुआ कि कोई दल अकेले दम पर सरकार नहीं बना पाया। उत्तर प्रदेश में मुसलमान मुलायम के साथ, बिहार में लालू के साथ तो दूसरे सूबों में अलग-अलग सियासी कुनबों में बट गया। इस बात से भी मुसलमान अपनी ताक़त का अनुमान लगा सकता है। जहां हम पूरे नहीं तो कोई पार्टी भी पूर्ण बहुमत में नहीं। मुसलमानों के बिखरे वोट के दम पर लालू, मुलायम जैसे अनेक नेताओं ने सत्ता का मज़ा ख़ूब लूटा। हर चुनाव के बाद सत्ता की मंडी लगती रही। और हर दल का मुखिया जिसके पास भले ही दो चार सांसद थे वो भी सौदेबाज़ी के नपे-तुले अंदाज़ में नज़र आया। हर चुनाव के बाद लगने वाली सत्ता की मंडी में सौदागरों ने जमकर अपने हुनर दिखाए। सरकार को समर्थन अपनी शर्तों के आधार पर दिया। और यही लोग सत्ता के भागीदार बने। लेकिन अफसोस, मुसलमानों के वोटों का सौदा करने वाले कोई और ही थे। अब तक सत्ता के लिए लगने वाली मंडी में जितने सौदागरों की भीड़ का जमावड़ा जमा हुआ। उनमें कोई मुस्लिम सौदागर नहीं था। यदि आपको कोई दिखाई दिया हो तो मुझे भी खबर करना। कितने शर्म की बात है। वोट हमारा और सौदा करे कोई और। अफसोस की बात तो यह भी है कि जिन नेताओं, जैसे रामविलास पासवान मुसलमानों के दम पर नेता बने और सौदा कर भाजपा में मंत्री बन गए। लालू, मुलायम समेत और बहुत सारे नेता हैं। जो मुस्लिम वोटों के बूते पर सत्ता के बाज़ीगर बनकर उभरे। लेकिन सौदा करते वक्त किसी भी नेता ने मुसलमानों से सलाह मशवरा तक करना गवारा नहीं किया। दरअसल इन लोगों ने भी कांग्रेस की ही तर्ज़ पर मुसलमान को ग़ुलाम से आगे की हैसियत नहीं दी।



ऊपर के एक पैरे में मैंने मीडिया की ज़रूरत का एहसास कराने की कोशिश की है। उसका थोड़ा और जिक्र करना जरूरी हो गया है।



2009 का जब लोकसभा चुनाव चल रहा था। मैंने एक लेख लिखा। जिसका उनवान था। ,,सत्ता की लगने वाली इस मंडी में भी कोई मुस्लिम सौदागर नहीं होगा।,, कई अख़बार वालों से अच्छी जान पहचान है। उन सबको मैंने ये लेख भेजा। लेकिन किसी ने भी अपने अख़बार में जगह नहीं दी। दरअसल मैं ने अपनी क़लम से दुखती रग पर हाथ रखा था। इसलिए कहता हूं। मीडिया का प्लेटफार्म होना बहुत ज़रूरी है। चूंकि क़लम से बड़ा कोई हथियार नहीं। लेकिन मुसलमानों को मेरी बात समझ में नहीं आती। मैंने कई मुस्लिम रहनुमाओं, साहूकारों से इस तरफ ग़ौर और फिक्र करने को कहा। मगर किसी ने मुस्लिम मीडिया के मुद्दे पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। कुछ लोगों से तो ऐसे जवाब मिले जिन्हें मैं लिखना भी पसंद नहीं करूंगा। मुझे लगता है इस काम को देश का ग़रीब मुसलमान और नौजवान ही अंजाम तक पहुंचाएगा। मेरा मानना है कि देश में आप लोग कहते हैं हमारी तादाद 20 करोड़ से ज़्यादा है। अगर आधे लोग यानि दस करोड़ मुसलमान 100-100 रूपए भी मीडिया फंड के लिए जमा करें तो एक हजार करोड़ रूपए जमा हो सकते हैं। एक हज़ार करोड़ में देशभर का नहीं बल्कि इंटरनेशल लेवल का मुस्लिम मीडिया हाउस बन कर तैयार हो सकता है। एक नहीं कई ज़ुबानों के अख़बार और न्यूज़ चैनल चलाए जा सकते हैं। मैं आशा करता हूं कि क़लम का हथियार जो किसी रसायनिक हथियार से कम नहीं है, देश का मुसलमान उसे एक दिन ज़रूर हासिल करेगा।

मौलाना अब्दुल सत्तार क़ासिमी। जो जामिया मोहम्मदिया मदरसे के मोहतमिम हैं। देवबंद मदरसे से मौलवियत की डिगरी हासिल की है। बहुत सारे बुज़ुर्गों की सोहबत हासिल की है। कुतबुल अकताब हाफिज़ अबदुल् सत्तार साहब नानक़वी, मुफ्ती महमूदुल हसन गंगगोही, मौलाना सिद्दीक़ साहब बांदवी से उनका ख़ास रिश्ता रहा है। सियासत से पूरी तरह दूर हैं। ख़ालिस मज़हब के काम से जुड़े हैं। मैंने उनसे सवाल किया। क्या सियासत मज़हब का हिस्सा है। क्या मस्जिद के अंदर हम मुस्लिम राजनीत पर बात कर सकते हैं ?



हज़ूर सल्ल. के मदनी ज़माने के दौर में ही इस्लामी सियासत शुरू हो गई थी। और मस्जिद में ही तमाम मशवरे होते थे। सबसे पहले तो हज़ूर सल्ल. ने ही सियासत की। सियासत के तहत ही मक्के और मदीने वालों के बीच हज़ूर सल्ल. ने जो सुलह हूदेबिया किया। बज़ाहिर उसमें लगता था हुज़ूर सल.. ने दबकर फैसला किया। लेकिन बाद में वही फैसला मुसलमानों की फतह साबित हुआ। वो मसलेहत के तहत लिया गया फैसला था। यानि सियासत छिपी हुई थी। उनके बाद ख़ुलाफाये राशीदीन ने भी हकूमत की। जिसे दौरे ख़िलाफत कहते हैं। हज़ूर सल्ल. के बाद हज़रत अबु-बकर सिद्दीक़ रजियल्लाहू ताला अनहू, हज़रत उमर फारूक़ रजिया., हज़रत उसमान ग़नी रजि. और उनके बाद हज़रत अली रजि. ने भी हकूमत की। मेरी राय है कि दीन से जुड़े लोगों को मुसलमानों के भले के लिए ख़ुद को राजनीत से अलग नहीं करना चाहिए। इससे बहुत बड़ा नुक़सान पूरी कौम को हो रहा है। मैं हर एक बुज़ुर्गानेदीन, उलेमाओं, इमामों, और हर एक मुसलमान से गुजारिश करता हूं कि वो इस तहरीक की कामयाबी के लिए खुदा से दुआ करें। अल्लाह ताआला हमें सत्ता में साझेदार बना कर लोगों का ख़िदमत गुज़ार बना दे। दोस्तो दुआ के साथ-साथ दवा भी करनी पड़ेगी। शायद तभी बरसों पुरानी बीमारी का इलाज हो सके।



मैंने ढेर सारे चुनावों की कवरेज की है। अकसर देखा है कि हम लोग ठीक चुनाव के दिन वोटर लिस्ट में अपना नाम तलाशते फिरते हैं। अकसर मुसलमानों के नाम वोटर लिस्ट से ग़ायब पाए जाते हैं। इसके लिए लोगों में जागरुकता लाने की ज़रूरत है। हर मुसलमान को चाहिए कि वो वक़्त निकाल कर अपना वोटर आई.डी कार्ड बनवाने के साथ-साथ मतदाता सूची में भी नाम दर्ज करवाने का काम करे। ये काम बहुत ज़रूरी है। इसे नज़र अंदाज़ करेंगे तो अपना ही कुछ खोऐंगे। चुनाव वाले दिन से पहले ही मतदाता सूची में अपना नाम जरूर खंगाल लेना चाहिए। अगर ख़ुद पढ़े लिखे न हों तो दूसरे पढ़े लिखे लोगों की मदद लें। वोट की ताक़त को कभी कम न समझें। इसके अलावा मतदान जिसे भी करें पर उसमें हिस्सा ज़रूर लें। अकसर पढ़े लिखे लोग और नौजवान, मतदान के दिन बूथ से ग़ायब रहते हैं। अपने वोट का इस्तेमाल न करना देश और क़ौम के लिए बेहद नुक़सानदेह है।



मेरी किताब पढ़ने के बाद सत्ता में बैठे लोग इस बात की दलील ज़रूर देंगे कि आज़ादी के बाद से देश के मुसलमानों की हालात में सुधार हुआ है। इस बात से मुझे भी कोई इंकार नहीं है। लेकिन ये भी सच है कि इस क़ौम का शोषण भी कुछ कम नहीं हुआ है। लेकिन अपने हालात के लिए हम ख़ुद ही ज़िम्मेदार हैं। और हालात बदलने के लिए हमें संगठित होकर आंदोलन करना पड़ेगा। ज़रूरत है एक आंधी की। लेकिन ये आंधी किस दिशा में बहेगी और किस मक़सद के लिए, ये भी हमें साफ मालूम होना चाहिये। बिना दिशा की आंधी केवल तबाही ही मचाती है। पहले ये जानना ज़रूरी है कि इस ग़रीबी और बेबसी के चक्र से हम अपने आप को कैसे निकालें। मेरा ये मानना है कि संगठित होने के साथ-साथ शिक्षित भी होना पड़ेगा। बिना तालीम के इंसान एक भेड़-बकरी जैसा ही होता है, जिसे चरवाहा मनमाफिक दिशा में हांक देता है। यही कारण है कि पिछले 62 साल में मुसलमानों को खद्दरधारियों ने एक बकरी के झुंड के समान अपने स्वार्थ के लिए कभी इस खूंटे, तो कभी उस खूंटे बांधा है। और हम, बेतालीम बेअक़ल, बंधते चले गए। अगर हालात नहीं बदले तो आगे भी बंधते खूंटे से ही बंधते चले जाएंगे। इस वक़्त मैं ये भी कहना चाहूंगा कि हमें महिलाओं की शिक्षा पर ख़ास घ्यान देना होगा। इसके पीछे दो कारण हैं। पहला तो ये कि महिलाओं का वोट भी उतना ही क़ीमती है जितना कि किसी मर्द का। और दूसरा इसलिए कि घर पर एक मां ही शिक्षक होती है। एक अंग्रज़ी कहावत है, कि अगर आप एक मर्द को पढ़ाते हैं तो आप केवल एक इंसान को ही पढ़ा रहे हैं, लेकिन अगर आप एक महिला को पढ़ाते हैं तो आप एक पूरे परिवार को तालीम दे रहे हैं। इसलिए ये ज़रूरी है कि हर महिला को कम से कम प्राथमिक शिक्षा मिलनी ज़रूरी है। लेकिन तालीम पाना अपने आप में लक्ष्य नहीं है। ये तो केवल एक माध्यम है। जिसके ज़रिये हम अपने लक्ष्य तक पहुंचेंगे। और वो है देश चलाने में साझेदारी का। दूसरा क़दम हमें जो उठाना है वो है एक ऐसा संगठन या कमेटी बनाना जो हमें हमारे लक्ष्य तक पहुंचाने में हमारा मार्ग दर्शन करे। यानि हमारी रहबरी करे। इस कमेटी में कुछ चुनिंदा लोग हों, जो ग़ैर मुसलमान भी हो सकते हैं, लेकिन अपने अपने इलाक़ों में उनकी पकड़ हो। फिलहाल हमें दो तरह के एक्सपर्ट चाहिऐं। फाईनैन्स और मीडिया। ये दोनों लाज़मी हैं। इसके अलावा हमें और लोग भी चाहिए होंगे। यही कमैटी इस आंदोलन, इस आंधी को, राह दिखाएगी। ज़ाहिर बात है कि कोई आंदोलन भूखे पेट नहीं चलता। इसलिये इस कमेटी का एक काम इस मुहिम के लिए पैसे जुटाना भी होगा। इसमें वो मुसलमान भाई कमैटी की मदद कर सकते हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं। आंदोलन को परवान चढ़ाने के लिए हमें ज़रूरत होगी एक ऐसे मीडिया सेल की जो देश भर में फैले मुसलमानों को खबरें पहुंचाता रहे। इस मीडिया सेल की अहमियत चुनावों के समय और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी। एक बात मैं एकदम साफ करना चाहता हूं कि ऐसा नहीं होगा की पूरे देश की हर सीट पर, या फिर अधिकतर सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार ही चुनाव लड़ें। न ही इस वक़्त हम आर्थिक तौर पर ऐसी स्थिति में हैं कि हम अपना उम्मीदवार लड़ा सकें। ऐसे में हमारी कमेटी को ऐसे दानिशवरों की पहचान करनी होगी जो मुसलमानों की आवाज़ पर ग़ौर करें और हमारे मुद्दों को अपना मुद्दा समझ कर हमारी आवाज़ उठाएं। ये लोग चाहे मुसलमान हों या फिर हिंदू, या फिर ईसाइ। हमें ऐसे लोगों का ही साथ देना होगा, जो ऊंची सोच रखते हैं और जिनके मन में हमारा हित हो। समय आने पर, जब हमारा ये आंदोलन अपने पैरों पर खड़ा हो जाए, हम ज़्यादा से ज़्यादा मुसलमानों को चुनाव लड़ाने और जिताने में मदद करें। लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं कि हम उन दानिशवरों का साथ छोड़ दें जिन के दिल में देश और मुसलमान एक साथ बसते हैं। एक चुनावी उम्मीदवार को सिर्फ इसलिए समर्थन देना कि वो मुसलमान है। शायद ये ग़ैरवाजिब होगा। हां, पर इसलिए हमारा समर्थन ज़रूरी है कि ये हमारे और देश के हित में है। फिर वो मुसलमान हो या नहीं। ऐसे लोगों को ढूंढना और उनका समर्थन करना इस ख़ास कमटी का काम होगा। हमारा लक्ष्य साफ है। आने वाले वक़्त में लोकसभा और राज्यसभा में मुसलमान सांसदों की संख्या कम से कम पचास पचास होनी चाहिये। और दोनों सदनों में कम से कम सौ सौ सांसद ऐसे होने चाहिये जो मुसलमानों को केवल वोट बैंक न समझते हों। बल्कि हमारी समस्याओं पर दोनों सदनों में आवाज़ बुलंद करने वाले हों। लेकिन शुरुआत छोटे से करनी होगी। इसलिए हमारा पहला लक्ष्य स्थानीय चुनाव होने चाहिए, जैसे निगम, नगरपालिका, ग्राम पंचायत, लोकल कमिशनर वगैरह। दिल्ली उत्तर, प्रदेश और बिहार के विधानसभा चुनावों पर हमारी ख़ास नज़र होनी चाहिये। दिल्ली, यूपी और बिहार में रुतबा रखने वालों की ही पूरे देश भर में पूछ होती है।



आगे बढ़ने से पहले दो शब्द अपने देश, हिन्दुस्तान या भारत, के बारे में भी। हम लोग वैसे तो इस देश की बुराई करने का कोई मौक़ा नहीं चूकते। मैं भी बुराई करने वालों में शामिल हूं। सुधार लाने के लिए ये ज़रूरी भी है कि हम बुराई करने से गुरेज न करें। लेकिन मैंने देखा है कि कुछ लोग सिवाय बुराई के कुछ और करते ही नहीं। मेरी सोच से ये गलत है। पहली बात तो ये, कि ये देश जैसा भी है, हमारा है। एक ऐसा देश जहां हर इंसान को फलने फूलने का पूरा हक़ है। और अपना जीवन अपने ढंग से जीने की आज़ादी। आज ये बात साफ है कि जिन लोगों ने धर्म के नाम पर बटवारा कर पाकिस्तान बनाया, उनकी सोच खोटी थी। क्या हाल है आज पाकिस्तान का। जहां देखो दंगे, जंग और माथे पर एक आतंकी देश होने का कलंक। जहां औरतों के साथ जानवरों से बदतर सलूक किया जाता है। देश के ज़्यादातर हिस्से में फिरक़ापरस्त आतंकियों का हुक्म चलता है। अर्थव्यवस्था बेहाल और दूसरे देशों से भीख मांगने को मजबूर। पाकिस्तान में आज लोकतंत्र भी महज़ एक मज़ाक बन कर रह गया है। दूसरी तरफ है बांग्लादेश। जो दुनिया के सबसे ग़रीब देशों की फेहरिस्त में शामिल है। हिन्दुस्तान में आज हर मज़हब के लोग रहते हैं। ये भी सच है कि कभी कभी दंगे भी होते हैं। ऐसा होना स्वभाविक भी है, जब इतने भिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहेंगे तो कभी कभी उनके बीच तनाव भी होगा। लेकिन फिर भी हमारी हालत मज़हब के नाम पर बने कई देशों से ज़्यादा अच्छी है। ये वो देश है जहां एक ग़रीब मुसलमान डाकिये का बेटा, केवल अपने हुनर के दम पर, देश की क्रिकेट टीम का कपतान बन सकता है। जी हां, मैं मोहम्मद अज़हरुद्दीन की बात कर रहा हूं। इस देश में एक मुसलमान राष्ट्रपति बन सकता है। ये बात सच है कि जितने मुसलमान ऊंचे पदों पर होने चाहिये थे उतने नहीं हैं। लेकिन ये भी सच है कि हमें वहां तक पहुंचने से कोई रोक भी नहीं रहा। अगर हमारे इरादे पक्के हों, तो इस देश में हम भी बुलंदी को छू सकते हैं। मायावती ने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाकर ये साबित कर दिया है कि संगठित होकर एक पिछड़ा समाज भी इस देश को चलाने में भूमिका निभा सकता है। क्या ये बात हम पाकिस्तान या बांग्लादेश के लिए कह सकते हैं। पाकिस्तान का अब एक ही काम है। अपना देश जलाने के बाद अब वो हमारे देश में आग लगाने के तरीक़े ढूंढ रहा है। आए दिन हमारे नौजवानों को गुमराह करने की फिराक़ में लगा रहता है। इस देश के मुसलमानों से मेरी विनती है कि बहकावे में न आएं। ये देश हमारा है। हमें ही इसे बुलंदियों तक ले जाना है। अपने हक़ के लिए बेशक लड़िये, मैं भी आपका साथ दूंगा। लेकिन ये कभी न भूलें कि हम भारतीय हैं। गर्व के साथ अपने देश का झंडा ऊंचा रखिए और इसकी शान में कभी आंच न आने दीजिए। याद रहे, हमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान या फिर बंगलादेश नहीं बनना। मैं ख़ासतौर से मुसलमान नौजवानों से गुज़ारिश करता हूं कि पढ़ लिखकर राजनीति या फिर किसी भी फील्ड में हिस्सा लेकर अपने परिवार, अपने शहर और अपने देश का नाम रोशन करिए। ऐसे लोगों से दूर रहिए जो आपको हथियार उठाने की सलाह देते हैं। हर देश में कुछ न कुछ कमी होती है, हमारे देश में भी हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं की आप आतंक का साथ देने लग जाएं। पूरी दुनिया और हमारे देश में ख़ूब तरक़्क़ी हो रही है। इस तरक़्क़ी का हिस्सा बनिये, इसके रास्ते में अड़चन नहीं। एक अच्छे इंसान, एक अच्छे भारतीय, एक अच्छे मुसलमान बनिए।

साथियो छोटी सी ये किताब आपको कैसी लगी। इस पर आपकी राय ही मेरी पूंजी होगी। क्या कमी रह गई। किस पहलू को मैंने छोड़ दिया। ये तो मैं भी जानता हूं कि मुसलमानों के एक नहीं अनेकों मुद्दे इस किताब में जगह नहीं पा सके। लेकिन ऐसा मजबूरी के तहत हुआ है। फिर भी मैं ने बहुत कुछ मुद्दों को समेटने की कोशिश की है। लेकिन आपको टिप्पणी करने का पूरा अख़्तियार है। बुरा कहें, भला कहें, या शाबाशी के दो शब्द। लोकतंत्र में हर एक को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है। आपको भी पूरी आज़ादी है। लेखक के बारे में अपनी राय रखने की। जो लोग मेरी बात से सहमत हों तो लिखने का काम मैं कर चुका। मुसलमानों को जगाने की बारी अब आपकी है। यों तो क़लम मेरी रोटी रोज़ी है। मगर किताब के लिए मैंने अपनी क़लम का इस्तेमाल महज़ अपनी क़ौम के लिए किया है। दिल में तमन्ना है ये किताब एक क्रांति बन जाए। इसलिए कोशिश है ये किताब देश के हर मुसलमान तक पहुंच जाए। मुफ्त में बांटने की मेरी औक़ात नहीं है। दाम कम रखने की पूरी कोशिश की है। आर्थिक रूप से मेरी हैसियत बड़ी नहीं है। जो हैसियतमंद लोग हैं। वो किताब को दूसरे मुसलमान भाइयों तक पहुंचाने में मदद कर सकते हैं।



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