Monday, December 20, 2010

नितिन गडकरी अपनी टीम के साथ इस्राईल में क्यों, किसलिए?-अज़ीज़ बर्नी

‘‘सब चुप ह्न हुआ क्या? दिग्विजय सिंह के बयान की जांच तो होनी ही चाहिए’’। इसी शीर्षक के तहत मुझे लिखना था कल, लेकिन यौम-ए-आशूरा (10 वीं मुहर्रम) केे कारण यह संभव नहीं हो सका। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के कई शहरों में कार्यालय भी यौम-ए-आशूरा को बंद रहते हैं, इसलिए हमारे सभी पाठकों तक यह लेख नहीं पहुंच सकता था लेकिन आज हालात एकदम बदल गए, वह विषय जिस पर गत एक सप्ताह से बहस जारी थी, सभी मीडिया, इलैक्ट्रानिक मीडिया भी और प्रिंट भी, विभिन्न दृष्टिकोण से केवल और केवल दिग्विजय सिंह के उस बयान पर गुफ़्तगू कर रहा था जो उन्होंने 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर आतंकी हमले से पूर्व या यूं कहिए कि हेमंत करकरे ने अपनी शहादत से मात्र 3 घंटे पहले उनसे गुफ़्तगू पर आधारित था। हर तरफ़ से था चुभता हुआ सवाल उनके इस बयान पर..... सबूत पेश करने की, भारी मांग थी, मोबाइल काॅल रिकार्ड प्राप्त करने की आवश्यकता पर ज़ोर था..... शहीद हेमंत करकरे की विधवा श्रीमती कविता करकरे से पुष्टि की आवश्यकता थी..... शायद अपने बयान में दिग्विजय सिंह जी ने कुछ ऐसा कह दिया जो बिल्कुल अप्रत्याशित था, कल्पना से बहुत दूर था। मैंने अपने पिछले लेखों में स्पष्ट कर दिया कि दरअसल दिग्विजय सिंह जी के उस बयान में कुछ भी नया नहीं था। कल अगर लेख लिखने का अवसर मिला होता तो इसी विषय पर और भी प्रमाणिक अंदाज़ में गुफ़्तगू की जाती, कोशिश रहेगी कि अगर आज भी इस लेख की समाप्ति से पूर्व जितनी पंक्तियां भी लिखने की गुंजाइश बाक़ी बचेगी, चर्चा इसी विषय पर समाप्त हो, लेकिन पहले कुछ वाक्य ताज़ा हंगामे के पेशे नज़र।

20 जुलाई 2009 को राहुल गांधी ने हिलेरी क्लिंटन की यात्रा के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए भोज में अमेरिकी राजदूत से गुफ़्तगू करते हुए यह कहा कि देश को ख़तरा लश्कर-ए-तय्यबा से भी अधिक हिंदू कट्टरपंथी संगठनों से है। यह दावा है विकीलिक्स द्वारा किए गए रहस्योदघाटनों का। हालांकि कुछ ही देर में यह स्पष्टीकरण भी आ गया कि सभी तरह के आतंकवाद से देश को ख़तरा है, जिस पर शायद किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए, फिर भी मैं आवश्यक समझता हूं कि इस पहलू पर विचारविमर्श हो। पहली बात तो यह कि क्या हम विकिलीक्स द्वारा किए जा रहे रहस्योदघाटनों को पूर्णरूप से विश्वास किए जाने योग्य मान लें और यह स्वीकार कर लें कि यह रहस्योदघाटन किसी षड़यंत्र का हिस्सा नहीं हैं, किसी दुश्मन ताक़त की राजनीतिक रणनीति नहीं है वाक़ई यह वह ख़ुफ़िया दस्तावेज़ हैं, जिनकी सच्चाई पर बिना किसी संदेह के विश्वास कर लिया जाना चाहिए। इनमें सच के साथ झूठ को मिलाने का प्रयास भी नहीं किया गया होगा तब तो लाखों की संख्या में इंटरनेट पर बिखरे पड़े उन दस्तावेज़ों में से जिन्हें अपनी आवश्यकता के अनुसार जो चाहिए प्राप्त हो सकता है तो क्या हमें दिनप्रतिदिन होने वाले नए नए रहस्योदघाटनों की आशंकाओं की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देना चाहिए। अपनी बात को जारी रखते हुए इस सिलसिल में आगे कुछ कहने से पूर्व मैं ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदी नज़ाद की प्रतिक्रिया की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा। विकिलीक्स द्वारा किए जा रहे इन्हीं रहस्योदघाटनों में यह भी सामने आया था कि सऊदी अरब ने ईरान के विरुद्ध जंग की मंशा प्रकट की थी अर्थात सऊदी अरब चाहता था कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान और ईराक़ की तरह ईरान को भी तबाह व बर्बाद कर दे। बात बहुत बड़ी थी, सऊदी अरब और ईरान मे बीच संबंधों में तनाव पैदा हो सकते थे और अप्रिय परिस्थितियां भी उत्पन्न हो सकती थीं, लेकिन अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदी नजाद ने सिरे से इस रहस्योदघाटन को महत्वहीन माना और रद्दी की टोकरी में फैंक दिए जाने के लायक़ ठहरा दिया साथ ही अपने संबंधों में किसी भी परिवर्तन को संभावना से परे बताया। क्या हमें महमूद अहमदी नजाद के इस फ़ैसले पर ध्यान नहीं देना चाहिए?

ज़माना बड़ी तेज़ी से बदल रहा है अब जंग तीर व तलवार से हमला करके नहीं बल्कि सम्मान तथा चरित्र पर हमला करके लड़ी जाने लगी है। अमेरिका जो पूरी दुनिया पर अपना वर्चस्व चाहता है, युद्ध की शक्ति के माध्यम से वह इस बात का पूरी दुनिया को यह एहसास करा चुका है कि वह किसी भी देश पर हमला कर सकता है, परंतु वह यह भी अच्छी तरह जानता है कि शक्ति का संतुलन अब कुछ इस तरह है कि किसी को भी अत्यंत निर्बल समझना भारी भूल होगी। इस्राईल जैसा पिद्दी देश अपनी न्यूक्लियाई ताक़त के आधार पर अपने से बड़े देशों के लिए ख़तरा बना रहता है। अमेरिका अच्छी तरह जानता है कि दुनिया के अधिकतर देश सामरिक दृष्टि से न्यूक्लियाई हथियारों का प्रयोग करने की पोज़िशन में हैं, इसलिए युद्ध के भय से सभी को डराया नहीं जा सकता। यूं भी इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान को युद्ध द्वारा तबाह करके अमेरिका ने अपनी साख को जो बट्टा लगाया है उसकी भरपाई बहुत आसान नहीं है। फिर क्या यह संभव नहीं है कि अमेरिका ने अपनी जंग के लिए विकिलीक्स के रूप में एक ऐसा हथियार ढूंढ निकाला हो जो हथियारों की जंग के बिना भी उसके इरादों को पूरा कर सके। आतंकवाद के कारण जो देश कमज़ोर हो रहे हैं, जिनकी प्रगति में रुकावट पड़ रही है, यह किसी से छुपा नहीं है। गृह युद्ध के हालात अगर किसी भी देश में पैदा होते हैं तो उसके लिए यह आतंकवाद से भी कठिन होगा। अगर विकिलीक्स के ख़ुलासे उसी दिशा में जा रहे है कि कहीं दो देशों (ईरान तथा सऊदी अरब) के बीच युद्ध के हालात पैदा हों तो कहीं साम्प्रदायिक तनाव के आधार पर गृह युद्ध के। यह संदेह इसलिए हुआ कि विकिलीक्स के रहस्योदघाटनों पर सबसे पहले और सबसे अधिक नाराज़ होने वाले अमेरिका के विरुद्ध अभी तक कोई ऐसा दस्तावेज़ सामने नहीं आया है, जो उसके लिए किसी परेशानी का कारण बने। हां, यह अवश्य ज़ाहिर होने लगा है कि उसके राजनयिक जिन देशों में तयनात होते हैं वहां वह राजनयिक की हैसियत से काम करने के साथ साथ एक जासूस की तरह भी काम करते हैं और उनसे की जाने वाली कोई भी बात मात्र सदभावना में की जाने वाली गुफ़्तगू नहीं समझी जा सकती, वह उस समय भी कुछ रहस्य उगलवाने की खोज में लगे रहते हैं जब किसी वार्ता टेबल पर न होकर खाने की मेज़ पर बैठे हों। शायद उनके इस अमल से पूरी तरह सतर्क रहने की ज़रूरत है।

बहरहाल यह तो था विकिलीक्स के रहस्योदघाटनों को समझने का एक पहलू, अब ज़रा दूसरे पहलू पर भी नज़र डाल ली जाए। अगर हम यह स्वीकार करते हैं कि विकिलीक्स के रहस्योदघाटनों के माध्यम से केवल और केवल सच सामने आ रहा है और जो कुछ इन दस्तावेज़ों में लिखा गया है, वही अंतिम सत्य है तो क्षमा कीजिए कल किसके विरुद्ध कौनसी दस्तावेज़ बरामद हो जाए, कहना कठिन है। हो सकता है जो आज राहुल गांधी के एक बयान को लेकर हंगामा कर रहे हैं कल विकिलीक्स उनके विरुद्ध भी कोई ऐसी दस्तावेज़ जारी कर दे कि उन्हें मुंह छुपाने के लिए जगह न मिले, इसलिए हमारी राय है कि इन ख़ुलासों पर नज़र तो रखी जाए, उनका जायज़ा भी लिया जाए, परंतु साथ ही इन दस्तावेज़ों की इबारत की ऊंच नीच को भी ध्यान में रखा जाए। हमें अपने देश को समझने के लिए, देश के हालात को समझने के लिए, अपने राजनीतिज्ञों को समझने के लिए किसी विदेशी के बयान पर किस हद तक आश्रित होना चाहिए, इस पर विचार करना भी आवश्यक है।

मुझे आज के इस लेख में बहुत कुछ लिखना बाक़ी है, लगता नहीं कि जगह की तंगी के कारण मैं इन विषयों पर भरपूर प्रकाश डाल पाऊंगा जिन पर कि मैं कल से ही लिखने का इरादा मन में लिए हुए था। मुझे अभी दिग्विजय सिंह जी के बयान पर उठे तूफ़ान पर चर्चा करनी है और भारतीय जनता पार्टी के के अध्यक्ष नितिन गडकरी की 4 दिन पूर्व शुरू हुई (14 दिसम्बर 2010) की इस्राईल यात्रा पर भी अपने विचार व्यक्त करने हैं। पहले कुछ पंक्तियां नितिन गडकरी की इस्राईल यात्रा पर। इसका उद्देश्य क्या है, उस व्यक्तव्य पर मत जाइए जो भारतीय जनता पार्टी के द्वारा सबके सामने रखा जाए। इस्राईल से भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के संबंध क्या हैं उस पर नज़र डालिए। जब जब संघ परिवार पर कोई मुसीबत आई है, इस्राईल उसका बेहतरीन दोस्त साबित हुआ है, अतीत की उन घटनाओं पर नज़र डालिए। नरेंद्र मोदी के रहते गुजरात में इस्राईल का दख़ल कितना बढ़ा है उन आंकड़ों की समीक्षा कीजिए, सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से हर व्यापारी घराने के दरवाज़े पर इस्राईली सुरक्षा कर्मियों की तयनाती की कितनी है उस पर नज़र डालिए। अपनी सुरक्षा के लिए इस्राईल से जिस टेक्नालाॅजी को मंगाया गया है उसका जायज़ा लीजिए, इस्राईल से उनके इस विश्वास के रिश्ते को ध्यान में रखिए, इस्राईल की मुस्लिम दुश्मनी को ज़हन में रखिए, नक्सलाइट से निमटने के लिए इस्राईल की सहायता ली जानी चाहिए, नितिन गडकरी के इस बयान से मानी मतलब को समझने का प्रयास कीजिए अंदाज़ा हो जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी के मुखिया अपनी टीम के साथ इस्राईल किसलिए गए हैं। क्या यात्रा से व्यापार को बढ़ाना उद्देश्य है जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारे हैं या फिर उन सरकारों का प्रयोग भारतीय जनता पार्टी अपने जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूर्व में करती रही है, उसी में वृद्धि के लिए इस्राईल का सहयोग दरकार है और इसके लिए यह यात्रा आवश्यक थी। इस समय यात्रा का उद्देश्य यही है क्योंकि यह यात्रा शुरू होने से पूर्व देश में जिस बात को लेकर हंगामा जारी था, वह 26/11 अर्थात भारत पर हुए आतंकवादी हमले को लेकर छिड़ी एक नई चर्चा थी। हमने अपने लेखों में जो सम्मिलित हैं हमारी नई पुस्तक ‘‘आरएसएस की साज़िश-26/11?’’ में जिसके विमोचन के अवसर पर किए गए भाषण ने एक हंगामा बरपा कर दिया। अपने इन लेखों में हमने 26/11 से इस्राईल के संबंध को भी बेनक़ाब किया है। विशेषरूप से स्पष्ट शब्दों में संघ परिवार और इस्राईल के गठजोड़ पर प्रश्न खड़े किए हैं इंटरनेट पर हमारे द्वारा लिखा गया एक एक शब्द पढ़ा जा सकता है अर्थात हमारे सभी लेख और चर्चा का विषय बनी पुस्तक भी पढ़ी जा सकती है। क्या नितिन गडकरी को अपनी टीम के साथ इस्राईल जाने की आवश्यकता इसी वार्तालाप के कारण पेश आई कि दिग्विजय सिंह जी के बयान पर उठा तूफ़ान तो थम जाएगा परंतु बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी, इसलिए कि शहीद हेमंत करकरे ने जो कुछ कहा उस आतंवादी हमले से केवल 3 घंटे पूर्व, उसे अगर झूठ भी मान लिया जाए तो हम किस किसको झूठा ठहराएंगे? किस किस के बयान को राजनीति पर आधारित साबित कर पाएंगे। अपनी मृत्यु से 1 दिन पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जूलियो रेबेरो से भी वही कहा, जो दिग्विजय सिंह जी से कहा, अपने साथी पुलिस अधिकारी जिनके साथ माॅर्निंग वाॅक के लिए जाया करते थे उनसे भी वही कहा जो दिग्विजय सिंह से कहा, यह बातें हम प्रकाशित कर चुके हैं और भी बहुत कुछ है अभी सामने लाने के लिए यदि राहुल गांधी के बयान के बाद सूरतेहाल में तब्दीली न आई होती तो एक के बाद दूसरे ऐसे बहुत से प्रमाण पेश किए जा सकते थे और पेश किए जा सकते हैं जिनसे साबित हो जाएगा कि शहीद हेमंत करकरे की शहादत के तुरंत बाद उनका अंतिम संस्कार होते ही ऐसी बातें शुरू हो गई थीं और लगभग सभी समाचारपत्रों ने उन्हें प्रकाशित किया था फिर अगर विकिलीक्स को आज हम एक ऐसे हथियार के रूप में देखें जैसा कि अतीत में जब जब आवश्यकता होती थी तो अमेरिका के राष्ट्रपति जाॅर्ज वाॅकर बुश को बिन लादेन का टेप उपलब्ध हो जाया करता था। आज जब किसी को यह लगे कि बहस में कमज़ोर पड़ रहे हैं, बात को बहुत दूर तक जाने की स्थिति में उन्हें ऐसे नुक़्सान का सामना करना पड़ सकता है, जिसकी भरपाई ना की जा सके तो फिर विकिलीक्स के पिटारे पर नज़र डाली जाए और वहां से ऐसा कुछ बरामद कर लिया जाए, जिससे देश का ध्यान इस ओर से हट जाए और चर्चा का एक नया विषय सामने आ जाए जिससे उन्हें राहत मिल जाए। क्या विकिलीक्स द्वारा मंज़रेआम पर लाया गया राहुल गांधी का बयान एक ऐसा ही प्रयास है। क्योंकि अतिशीघ्र यह वातावरण बनने वाला था कि दिग्विजय सिंह जी के बयान की जांच तो आवश्यक है ही और हम भी इस बात पर ज़ोर देने वाले थे कि वाक़ई उस बयान में कही गई बातों की जांच आवश्यक है। प्रश्न यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि यह बातें दिग्विजय सिंह ने कहीं, जूलियो रेबेरो ने कहीं या उनके साथी सुधाकर ने कहीं, आवश्यक यह है कि अपनी शहादत से पूर्व हेमंत करकरे ने क्या कहा? ज़रा सोचिए अगर यह सिद्ध हो जाए कि दिग्विजय सिंह के बयान का सारांश वही था जो शहीद हेमंत करकरे ने विभिन्न लोगों से कहा तो फिर हमें भारत के न्यायालयों से सैकड़ों ऐसी नज़ीरों को पेश करना क्या कठिन होगा कि ऐसे सभी लोग जांच के दायरे में आते ही हैं, जो किसी को हत्या की धमकी दें और अगले दिन उसकी हत्या हो जाए, भले ही वह किसी और ने क्यों न की हो।

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