चाल, चरित्र और चेहरा बदला-बदला सा लग रहा है। यह वह चेहरा नहीं है जो अमूमन दिखाई देता है और न ही वह चरित्र और चाल जिसकी दुहाई देते भारतीय जनता पार्टी थकती नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अपने इस चाल, चेहरे और चरित्र पर बेहद गुमान था। लेकिन अब चेहरा बदला-बदला नजर आ रहा है और चाल व चरित्र भी। भाजपा के चेहरे पर गोल टोपी है और उसके कंधे पर चारख़ाने की बनी लाल-काले रंगों का वह गमछा जो अमूमन मुसलमानों की पहचान हुआ करता है। कमी थी तो सिर्फ हाथ में तसबीह की। फिलहाल उसकी जरूरत नहीं थी इसलिए पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने इससे परहेज किया लेकिन इसके अलावा हर वह चीज की जो उनके चाल, चरत्रि और चेहरे के नारे को दरकिनार करता है। बिहार में चुनाव का मौसम है और मुसलमानों को लुभाने का खेल शुरू हो चुका है। रमज़ान से अच्छा मौका भला और हो भी क्या सकता था। इसलिए मंडी में मुसलमानों को लाने के लिए इफ्तार की दावत से अच्छा बहाना भला क्या हो सकता था। थोड़ी देर के लिए लालू प्रसाद यादव, रामवविलास पासवान या इन जैसे दूसरे नेताओं की इफ्तार की दावत देने की बात तो समझ में आती है लेकिन सुशील कुमार मोदी इफ्तार की दावत दें, यह बात बहुत सारे लोगों के गले से नीचे नहीं उतरेगी लेकिन हुआ ऐसा ही। चाल, चरित्र और चेहरे की दुहाई देने वाली भाजपा ने बिहार में मुसलमानों को रिझाने के लिए इफ्तार पार्टी दी, उलेमाओं को गले लगाया और ‘मजहब’ को लेकर ऐसी-ऐसी बातें कहीं जो धर्मनिरपेक्षता की अलमबरदार दूसरी पार्टियों ने भी आज तक नहीं की होगी।
भाजपा का यह सेक्युलर चेहरा था। यह चेहरा अमूमन चुनावों के वक्त ही दिखता है। लेकिन इस बार यह चेहरा थोड़ा फकर् के साथ हमारे सामने था। इस बार भाजपा का यह चेहरा पहले से कहीं उदार दिखाई दे रहा था। सर पर सफेद गोल टोपी, कंधे पर लाल और काले रंग के चारखाने का गमछा, होंठों पर मुस्कान और जबान शहद से भी ज्यादा मीठी। इन चेहरों पर दिलों पर खुदी इबारत का कहीं कोई अक्स दिखाई नहीं दे रहा था। शायद राजनीति की कालिख ने उस इबारत को छुपा कर उस उजले और शफ्फ चेहरे को ही हमारे सामने ला खड़ा किया था जो मजहब को इंसानियत से जोड़ कर देखने की बात कर रहा था। इन चेहरों को इससे पहले मुसलमानों के ख़िलाफ बारहा बोलते सुना-देखा है। मुसलमानों के हर सवाल पर यह चेहरा उग्र हो कर हिंदुत्व की दुहाई देने लगता था और मुसलमानों की हर जायज मांग पर तुष्टिकरण शब्द उछाल कर मुसलमानों को उनके अधिकारों से वंचित करने की हर मुमकिन कोशिश करता। लेकिन बिहार में इस बार यह चेहरा मुसलमानों को दुलारने में लगा था और दुलार कर उनका तुष्टिकरण करने से भी नहीं चूक रहा था।
लेकिन बिहार में भाजपा ही इस खेल में लगी थी, ऐसी बात नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मुसलमानों को पुचकारने में लगे रहे। मुसलमानों को खुश करने के लिए अपनी सहयोगी भाजपा को नाराज करने से भी वे नहीं चूके। कहां बहुत दिन हुए जब नरेंद्र मोदी के साथ विज्ञापन के तौर पर छपी एक तस्वीर को लेकर वे आगबबूला हो उठे थे। नाराजगी इतनी ज्यादा थी कि भाजपा के साथ उनका गठबंधन टूट के कगार तक पहुंच गया था। हालांकि यह वही नीतीश कुमार हैं जो राजग की रैली में उन्हीं नरेंद्र मोदी के साथ एक मंच से वोट मांगा था और हाथों में हाथ डाल कर फोटो खिंचवाई थी। गुजरात दंगों के समय भी नीतीश कुमार केंद्र में वाजपेयी सरकार में मंत्री थे। लेकिन तब उनके एजंडे पर मुसलमान नहीं था। इसलिए रेल मंत्री रहते हुए भी गोधरा में ट्रेन जलाए जाने की घटना की जांच कराने की उन्होंने जहमत नहीं उठाई न ही उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रायोजित हिंसा की कभी आलोचना की। आज भी उन दंगों पर वे कुछ नहीं बोलते लेकिन सियासत का जो चेहरा सामने वे रखना चाहते हैं वह चेहरा एक मुसलिम दोस्त का सा लगना चाहिए, इसका वे पूरा ख्याल रखते हैं क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव है और चुनाव में मुसलमानों का वोट उन्हें चाहिए। ईद मिलन समारोहों और इफ्तार जैसे कार्यक्रमों में शिरकत की औपचारिकता के अलावा नीतीश ने अपने चाल-चलन में बदलाव लाने की हाल के कुछ महीनों में बेतरह कोशिश की है। उन्होंने न सिर्फ मुसलमानों के नए मसीहा बनने की कवायद की बल्कि खुद को भाजपा से अलग दिखाने के लिए भी बेतरह हाथ-पांव चलाया। भागलपुर दंगों में पीड़ितों को मुआवजे दिलाने का ढोल भी उन्होंने जोरशोर से पीटा। लेकिन नीतीश की इस कोशिश के पीछ उनकी मंशा साफ थी। पहली तो यह कि मुसलमानों को खुश किया जाए और दूसरी यह कि लालू यादव के ‘एमवाई’ समीकरण की काट भी की जाए, क्योंकि भागलपुर दंगों का मुख्य आरोपी यादव समुदाय से आता है। लेकिन भागलपुर दंगों से बहुत पहले हुए बिहारशरीफ दंगों के न तो पीड़ितों की आंसू पोछने की उन्होंने कोशिश की और न ही उन लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाने या उन्हें सजा दिलाने के लिए किसी तरह की पहल की। जितनी तत्परता उन्होंने भागलपुर दंगों के दोषियों को सजा दिलाने और पीड़ितों को मुआवजा दिलाने के लिए की थी, बिहारशरीफ दंगों को लेकर ऐसा कुछ भी नहीं किया। जबकि नीतीश का वह घर है और वहां के पीड़ितों को इंसाफ दिलाना उनकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर होना चाहिए था लेकिन नीतीश अगर ऐसा करते तो गर्दन उनकी भी फंसती क्योंकि बिहारशरीफ के दंगों में जिन पर आरोप लगे थे वे उसी कुर्मी जाति से आते हैं, जिससे नीतीश भी आते हैं। अगर वे बिहारशरीफ के दंगों की फाइल खोलते तो फिर उनका सारा गणित बिगड़ जाता। मुसलमानों को भले वे खुश कर लेते लेकिन अपनी जाति के लोगों को वे जवाब शायद ही दे पाते। इसलिए बिहारशरीफ के दंगों पर न तो उन्होंने कुछ किया और न कुछ बोलने की जहमत ही जुटाई।
मुसलमानों के नए मसीहा बने नीतीश से सवाल किया जा सकता है कि उन्होंने अपने पांच साल के कार्यकाल में कितने मुसलमानों को नौकरियां दीं, मुसलमानों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए, अपनी विश्वास और विकास यात्रा के दौरान कितने मुसलिम बहुल गांवों में गए, स्कूल-कालेजों में कितने मुसलिम शिक्षक नियुक्त किए, कितने मुसलमानों को विश्वविद्यालयों का उपकुलपति बनाया और ऐसे ही न जाने कितने सवाल उनसे पूछे जाने चाहिए थे। अपनी उपलिब्धयों के नाम पर जो आंकड़े पेश किए हैं उनमें अल्पसंख्यकों के नाम पर ढेरों काम गिनवा डाले हैं। लेकिन वे यह नहीं बता पाए कि उन्होंने अपने पांच साल के कार्यकाल में कितने मुसलमानों को नौकरी दी। नीतीश सरकार ने जिन उपलब्धियों को गिनाया है, उसमें कुछ भी नया नहीं है। नया है तो बस इतना कि उन्होंने इन उपलब्धियों को इस तरह गिनाया है मानो मुसलमानों को उनका अधिकार देकर एहसान किया है।
लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान भी इस खेल में भला कहां पीछे रहने वाले हैं। बिहार में लालू ने मुसलमानों का कम शोषण नहीं किया है। मुसलमानों के सबसे बड़े मसीहा होने की ख़ुशफहमी पालने वाले लालू ही थे जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में मुसलमान मुख्यमंत्री के रामविलास पासवान की पेशकश को ठुकरा दिया था। अगर लालू ने वह पेशकश मान ली होती तो नीतीश शायद ही सत्ता में आते लेकिन लालू के माई समीकरण में मुसलमान हाशिए पर ही रहे और लालू इस माई को ‘मेरा’ ही मान कर मुसलमानों को ठगते रहे। पंद्रह साल तक उन्होंने मुसलमानों को दहशतजदा कर उनका खूब शोषण किया। ‘शोले’ फिल्म का एक प्रचलित संवाद याद आता है-‘यहां से पचास-पचास कोस दूर गांव में जब बच्चा रात में रोता है तो मां कहती है बेटा सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा’, लालू भी ठीक इसी तजर् पर मुसलमानों को धमकाते रहे ‘हमें वोट दो नहीं तो भाजपा आजाएगी।’ दंगों की आग में झुलसा, लुटा-पिटा बेचारा मुसलमान लालू के इस संवाद के चक्कर में पंद्रह साल तक लगातार उन्हें वोट करता रहा और बदले में लालू ने उनका खूब शोषण किया। लालू ने अपने कार्यकाल में मुसलमानों की आर्थिक व तालीमी हालात को सुधारने के लिए किसी तरह की पहल नहीं की। हां, उन्होंने बिहार में सांप्रदायिक दंगों पर जरूर लगाम लगाया और बदले में मुसलमानों को मंडी में खड़ा कर उनके वोटों को इसी एक बुनियाद पर ख़रीद लिया। मुसलमानों के पास तब लालू के अलावा और कोई चारा भी नहीं था क्योंकि बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद कांग्रेस से उसका मोह भंग हुआ था, तब लालू के रूप में उसे एक नया रहनुमा दिखा और बिना कुछ सोचे-विचारे मुसलमान बिहार में लालू के साथ हो लिया। लेकिन उन्हीं लालू ने मुसलमानों को तब ठेंगा दिखा दिया जब पिछले विधानसभा चुनाव के बाद रामविलास पासवान ने मुसलमान मुख्यमंत्री बनाने की बात कही थी। तब वे राबड़ी देवी से कम की कीमत पर तैयार नहीं हुए। नतीजे में उनके हाथ से बिहार की सत्ता निकल गई और नीतीश ने भाजपा की मदद से बिहार में सत्ता संभाल ली। नीतीश को जब यह बात समझ में आई कि बिना मुसलमानों की मदद से वे दोबारा सत्ता में नहीं आ सकते हैं तो उन्होंने लालू के फार्मूले को अपने ढंग से अमल में लाया और मुसलमानों को अपने कारख़ाने में बनाए वादों की नई लालीपाप थमाने में लग गए। उन्होंने मुसलमानों को जातीय आधार पर तोड़ने की कोशिश की और पसमांदा मुसलमानों के नाम पर एक नया समूह बनाने में वे कामयाब हुए। मुसलमानों के इस तबके से उन्हें सहयोग भी मिला लेकिन धीरे-धीरे नीतीश के इस मुसलिम प्रेम का सच सामने आने लगा तब उन्होंने सियासी बिसात पर नई चाल चली और खुद को भाजपा से अलग दिखाने की कोशिश में लग गए।
पांच साल पहले मुसलमान मुख्यमंत्री की बात कहने वाले रामविलास पासवान ने इस बार सत्ता में आने पर मुसलमान उपमुख्यमंत्री की बात कह कर लालू को फिर परेशानी में डाला है। हालांकि पासवान की नीयत पर सवाल भी खड़े किए जा रहे हैं लेकिन सच तो यह भी है कि सार्वजनिक मंचों से पासवान ही मुसलमानों को सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी की बात करते हैं। वर्ना दूसरे दल तो इस तरह की बात करते भी नहीं हैं। लोग भूले नहीं होंगे कि पासवान के मुसलिम मुख्यमंत्री की बात पर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने इसे अव्यवाहारिक बताया था। उनके कहने का मतलब साफ था कि इस देश में राजपूत मुख्यमंत्री बन सकता है, ब्राह्मण मुख्यमंत्री बन सकता है, भुमिहार, पिछड़ा, दलित, जाट, गुर्जर मुख्यमंत्री बन सकता है लेकिन मुसलमान मुख्यमंत्री नहीं बन सकता है। दिग्विजय सिंह का वह बयान एक पूरी कौम पर सवाल खड़ा करने वाला था। हालांकि किसी भी समझदार मुसलमान के लिए दिग्विजय सिंह का यह बयान बहुत हैरत में डालने वाला नहीं था। मुसलमानों को कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक के नाम पर जितना छला है उतना तो शायद ही किसी दल ने छला होगा। कांग्रेस के शासनकाल में सांप्रदायिक दंगों का इतिाहस रहा है। बाबरी मस्जिद मामले पर ही कांग्रेस ने जो खेल खेला वह किसी से ढका-छुपा नहीं है। कांग्रेस के दो प्रधानमंत्रियों ने बाबरी मस्जिद की शहादत में बड़ी भूमिका निभाई। राजीव गांधी ने ताला खुलवाया और शिलान्यास करवाया तो नरसिंहराव ने भाजपा के साथ मिल कर मस्जिद को गिराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन सबके बावजूद वह अपनी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हुए नहीं थकती है और ख़ुद को मुसलमानों का सबसे बड़ा हमदर्द बताती है। लेकिन कोई बताए कि कांग्रेस के शासनकाल में मुसलमानों का कितना भला हुआ है।
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उर्दू अख़बारों में विज्ञापन देकर कहा था कि कांग्रेस ही अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त कर सकती है और फ़िरक़ापरस्ती को शिकस्त दे सकती है। विज्ञापन में यह भी कहा गया था कि कांग्रेस ने ही धर्मरिपेक्ष उसूलों पर अमल कर मुल्क के अक़लियतों के हक़ूक़ को महफ़ूज़ रखा। कांग्रेस के इस विज्ञापन से मुसलमानों पर एहसान करने की बू आती है। एक दूसरे विज्ञापन में कहा गया था कि कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में अक़लियतों की नुमाइंदगी बढ़ी है और अल्पसंख्यक बहुल देश के नब्बे जिलों में विकास के लिए विशेष पैकेज दिए गए हैं। इतना ही नहीं अक़लियतों के लिए आर्थिक हद भी मुक़रर्र किए गए हैं। लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कांग्रेस के इन विज्ञापनों की पोल खोलती है। हद तो यह है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद भी कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने अब तक कुछ भी ऐसा नहीं किया जो मुसलमानों के हितों की रक्षा कर सके। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता का आलम तो यह है कि मुंबई दंगों को लेकर बनी श्रीकृष्ण रिपोर्ट तक को वह दबाए बैठी है जबकि महाराष्ट्र में कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार तीसरी बार सत्ता में लौटी है।
कांग्रेस के इन विज्ञापनों का सच तो देश के मुसलमानों के हालात हैं। कांग्रेस के कतिथ धर्मनिरपेक्षता को लेकर मुसलमानों के दिल में किसी तरह का संशय अब नहीं हैं। सच तो यह है कि कांग्रेस ने अक़लियतों के मज़हबी पहचान पर हमेशा फ़िरक़ापरस्ती की तलवार लटकाए रखी और उनकी संस्कृति, सभ्यता और विरासत, मज़हब और तालीमी इदारों पर हमले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस ने मुसलमानों को बेतरह परेशान किया ताकि वे तालीमी और आर्थिक मसलों पर शिद्दत के साथ तवज्जो नहीं दे सकें और सोची समझी साज़िश के तहत ही हमेशा उन्हें जज्बाती मसलों में उलझाए रखा। साथ ही असुरक्षा की भावना को भी उनके अंदर ज़िंदा रखा ताकि वे बिना सोच-विचार के कांग्रेस को वोट देते रहें। यही खेल बाद में बिहार में लालू यादव ने खेला। कांग्रेस बिहार में अपने खोए जनाधार को पाने के लिए फिर से मुसलमान-मुसलमान खेलने में लग गई है।
दरअसल सियासी दलों के लिए मुसलमानों का महत्त्व बस वोट तक ही होता है। चुनाव जब तक नहीं होते, तब तक उन्हें पुचकारा जाता है लेकिन चुनाव खत्म होते ही फिर से उन्हें इसी दुनिया में जीने के लिए छोड़ दिया जाता है। दरअसल सियासत की मंडी में मुसलमानों को ख़रीदने-बेचने का काम यों तो चलता ही रहता है, लकिन चुनाव के वक्त तिजारत का काम और तेज हो जाता है। तरह-तरह के ताजिर, अलग-अलग पर्टियों के झंडे-डंडे उठाए आते हैं और मुसलमानों का सौदा करके चलते बनते हैं। हैरत इस बात पर ज्यादा होती है कि मुसलमानों को पता भी नहीं चलता और उनका सौदा कर लिया जाता है। वोटों के ये सौदागर आज़ादी के बाद से ही धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमानों का सौदा करते आ रहे हैं। वोटों की तिजारत अब बढ़ गई है क्योंकि पार्टियां भी बढ़ गई हैं और मंडियां भी।
लेखक फज़ल इमाम मल्लिक वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा जनसत्ता से जुड़े हुए हैं. यह लेख उनके ब्लॉग सनद से साभार लिया गया है.
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