अरबी में 'फतवे' का अर्थ होता है 'कानूनी सुझाव', लेकिन कालांतर में लोगों ने अपने हितों के मुताबिक इसमें बदलाव और व्याख्या करनी शुरू कर दी, और अंतत: फतवे के प्रति लोगों के मन में यह छवि बना दी गई कि यह एक कानूनी आदेश है जिसे मानना सबकी मजबूरी है. इस काम को मौलानाओं ने कानूनी संस्थाओं के साथ मिलकर योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया. जबकि यह पूरी तरह से फतवे के मूल विचार और इस्लामी मान्यताओं के खिलाफ है.
इतिहास इस बात का गवाह है कि हर दौर में उलेमाओं के कारनामों ने इस्लाम के दामन पर दाग लगाने का काम किया है
इस्लामी कानून भी देश के बाकी दूसरे कानूनों की तरह ही देश के संविधान द्वारा स्थापित कानूनी संस्थाओं द्वारा ही लागू किए जाने चाहिए. इन्हें लागू करने का अधिकार मुल्लाओं और मदरसों के शिक्षकों के हाथ में नहीं होना चाहिए. संभव है कि मदरसों के शिक्षक कानून के अच्छे जानकार हों पर उनके हाथ में राज्य की ताकत नहीं दी जा सकती. हां, सुझाव या राय देने के लिए सभी स्वतंत्र हैं. अपनी मशहूर किताब 'फिक़ उमर' में शाह वलीउल्लाह ने इस तरह के एक दिलचस्प वाकये का जिक्र किया है. यह वाकया पैगंबर मुहम्मद साहब के निकटतम सहयोगी अब्दुल्ला बिन मसूद से जुड़ा है जो उस वक्त कुफ़ा में कुरान की शिक्षाएं देने के लिए नियुक्त थे. उनसे एक आदमी मिलने आया. उसके खिलाफ कुछ फतवे जारी हुए थे और वह उनका निदान चाहता था. जैसे ही खलीफा उमर को इस बात का पता चला उन्होंने अब्दुल्ला को पत्र लिखकर पूछा, 'मैंने सुना है कि आपने लोगों के कानूनी झगड़े भी निपटाने शुरू कर दिए हैं, जबकि आपको इसका अधिकार भी नहीं हैं.' इसी तरह के एक अन्य पत्र में खलीफा उमर ने अबू मूसा अंसारी को साफ शब्दों में बताया, 'कानूनी झगड़ों का निपटारा सिर्फ कानूनी तौर पर स्थापित संस्थाएं करेंगी. इसके अलावा कोई नहीं करेगा.'उस हद तक फतवे में कोई बुराई नहीं है जब तक वह इस बात को स्पष्ट करते हुए चले कि यह उस व्यक्ति का निजी विचार है और साथ ही यह बात भी साफ होनी चाहिए कि वह व्यक्ति संबंधित मामले का जानकार है. समस्या तब होती है जब फतवा कानूनी आदेश के रूप में धार्मिक चोला ओढ़कर सामने आता है. इस हालत में यह कानून और न्याय व्यवस्था के लिए चुनौती बन जाता है. कुरान ऐसे लोगों की पुरजोर मुजम्मत करता है, 'उन पर मुसीबत आना तय है जो खुद के शब्द गढ़ते हैं और अपने तुच्छ फायदे के लिए उन्हें अल्लाह के शब्द बताते हैं.' (कुरान 2.79)
फतवों का बेजा इस्तेमाल पहली दफा नहीं हो रहा. पेशेवर मुल्ला-मौलाना हमेशा से ही फतवे का मजाक बनाते आ रहे हैं. अगर आप अरबी साहित्य पर थोड़ी निगाह डालें तो आप पाएंगे कि वहां सबसे ज्यादा बदनाम पद काजी का रहा है. मौलाना आजाद ने अपने एक लेख में लिखा है, 'मुफ्ती की कलम (फतवा जारी करने वाला व्यक्ति) हमेशा से मुसलिम आतताइयों की साझीदार रही है और दोनों ही तमाम ऐसे विद्वान और स्वाभिमानी लोगों के कत्ल में बराबर के जिम्मेदार हैं जिन्होंने इनकी ताकत के आगे सिर झुकाने से इनकार कर दिया.' मौलानाओं के कृत्य के प्रति और भी कठोर नजरिया अपनाते हुए उन्होंने 1946 में एक साक्षात्कार में कहा, 'हमारा इतिहास इस बात का गवाह है कि हर दौर में उलेमाओं के कारनामों ने इस्लाम के ऊपर धब्बा लगाया है.'
फतवे का स्वरूप लोकतांत्रिक बनाने और अंतिम निर्णय में ज्यादा से ज्यादा लोगों के विचारों को शामिल करने के लिए इसमें आम आदमी की भागीदारी इस्लाम के नजरिये से बेहद महत्वपूर्ण है. यहां एक बात साफ तौर पर समझनी होगी कि मूल इस्लाम किसी भी तरह के पंडा-पुजारीवाद का विरोधी है. पैगंबर साहब ने खुद कहा है कि व्यक्ति को बंधनों और रूढ़ियों से आजाद करना होगा क्योंकि उसकी आजादी में सबसे बड़ी बाधा यही है. उन्होंने कहा है, 'ला रहबानियत फी इस्लाम' यानी इस्लाम में पुजारीवाद के लिए कोई स्थान नहीं है.
इस्लाम स्पष्ट शब्दों में हर स्त्री और पुरुष को इजाजत देता है कि वह धर्म के मूल सिद्धांतों की समझ के साथ अपनी सोच और ज्ञान का दायरा बढ़ाए ताकि अपनी जिंदगी से जुड़े मसलों पर वह खुद फैसले ले सके. कुछ मसलों में अगर वह खुद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है तो जानकारों से सलाह ली जा सकती है. पर यहां जोर व्यक्ति के ऊपर ही है. अपने मसलों में मुफ्ती, काजी सब कुछ वह व्यक्ति ही है. किसी तीसरे व्यक्ति को उसके निजी जिंदगी से जुड़े फैसले करने का अधिकार नहीं है.
अकसर फतवे को संस्थागत करने की बात भी चलती है. लेकिन इसकी कोई जरूरत नहीं है. ऐसा करने से देश की न्यायपालिका के समक्ष एक समानांतर न्यायिक तंत्र खड़ा हो जाएगा. यह हमारे संविधान के मूल धर्म निरपेक्ष स्वरूप के खिलाफ है और साथ ही किस हद तक इसका दुरुपयोग हो सकता है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. फतवे को किसी तरह की वैधता प्रदान करने की कोशिश से संविधान द्वारा स्थापित न्यायपालिका के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिसकी इजाजत कभी नहीं दी जा सकती. 1864 में देश भर से काजी दफ्तर की व्यवस्था खत्म करने के बाद से ही उलेमा और मौलाना देश के कानूनों से नाराजगी और विरोध जताते आ रहे हैं. लिहाजा इस तरह का कोई संस्थान खड़ा करना उन्हें दोबारा से न्यायिक ताकत देने जैसा होगा.
यह जरूरी है कि फतवे सभी पक्षों की बात सुनकर, परिस्थितियों और सबूतों का सम्यक मूल्यांकन करने के बाद ही दिए जाएं. पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. फतवा एक पक्ष के सवालों के जवाब के रूप में होता है और इसे सुझाव की बजाय बाध्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है. अगर यह सिलसिला जारी रहा तो इसके नतीजे बेहद विनाशकारी होंगे. सीधे शब्दों में कहें तो मौजूदा दौर में फतवा व्यक्ति की आजादी और निजता में ही दखल नहीं है बल्कि नृशंस है और आम आदमी को इस नृशंसता से बचाना समय की जरूरत है.
(अतुल चौरसिया से बातचीत पर आधारित)
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी, एवँ सुलझे विचार ।