Friday, February 25, 2011

फासीवाद के बढ़ते कदम और न्याय की अवधारणा


राष्ट्रीय मानवाधिकार जनसम्मेलन
स्थान- संजरपुर, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश

तिथि- 27 फरवरी 2010, रविवार

समय- सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक

साथियों,
पिछले दिनों एक के बाद एक आए न्यायालयों के फैसलों ने मानवाधिकार आंदोलन के सामने चुनौती खडी कर दी है कि जब लोकतंत्र में न्याय पाने के एक मात्र संस्थान न्यायालय भी सत्ता के दबाव में निर्णय दे रहों तो, नागरिकों के मानवाधिकार को कैसे सुरक्षित रखा जाए। वरिष्ठ मानवाधिकार नेता और पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनायक सेन को जिस तरह बिना ठोस सुबूत के रायपुर की एक अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाई या फिर पिछले साल पांच फरवरी 2010 को उत्तर प्रदेश की पीयूसीएल की संगठन मंत्री सीमा आजाद को माओवाद के नाम पर गिरफ्तार किया गया, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम लोगों को आतंकवादी या नक्सलवादी बताकर जेलों में सड़ा देना हमारे तंत्र के लिए किताना आसान हो गया है। हकीम तारिक और खालिद की फर्जी गिरफ्तारी पर सवाल उठने के बाद यूपी सरकार ने आरडी निमेश जांच आयोग बैठाया था और जिसे 6 महीने में रिपोर्ट देनी थी। आज दो साल से ज्यादा वक्त गुजर जाने के बाद भी उसने रिपोर्ट नहीं दी।
हम आजमगढ़ के लोग जिन्होंने अपने कई निर्दोष बच्चों को बाटला हाउस से लेकर विभिन्न फर्जी एनकाउंटरों में कत्ल किए जाते, जेलों में सड़ाए जाते और न्याय मिलने की आस में न्यायलय पहुंचे अपने वकीलों को पीटे जाते देखा है, खुद इसके कहीं न सुने जाने वाले गवाह हैं। देश में मानवाधिकार रक्षा के लिए बने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भूमिका को भी हमने देखा है कि किस तरह उसने हमारे मासूमों जो बाटला हाउस में मारे गए पर फर्जी जांच रिपोर्ट पेश कर एनकाउंटर के नाम पर सत्ता द्वारा ठंडे दिमाग से की गई हत्या को जायज ठहराया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट तक को झूठे तर्को के आधार पर लंबे समय तक छुपाया गया।
इस सबके बीच इन्साफ का तराजू साम्प्रदायिक शक्तियों के पक्ष में किस हद तक झुकता चला गया है, इसका अंदाजा इसी से लग जाता है कि मालेगांव, मक्का मस्जिद, अजमेर शरीफ और समझौता एक्सप्रेस जैसे आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने वाले संघियांे की आत्मस्वीकृतियों के बावजूद इन्हीं घटनाओं में पुलिस और न्यायलयों ने र्निदोष मुस्लिम नौजवानों को जेलों में कैद कर रखा है। इस दहशत और आतंक के माहौल में पिछले दो सालों से हमारे दर्जनों लड़के लापता हैं और एक आशंका लगातार बनी रहती है कि अगला नंबर किसका है?

इन साझा अनुभवों ने हमारे सामने स्पष्ट कर दिया है कि अब इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त की जा चुकी है। जिसके सबसे ज्यादा शिकार समाज के सबसे दबे-कुचले समूह और उनके सवाल उठाने वाले लोग हो रहे हैं। इस सिलसिले में सबसे अधिक दुखद न्यायालय का राजनीतिक दुरुपयोग है। जिसने देश के अंदर राज्य प्रायोजित आतंकवाद को वैधता देने के लिए यहां तक तर्क दिए हैं कि अगर फर्जी एनकाउंटरों पर न्यायिक जांच होगी तो पुलिस का मनोबल टूटेगा। यानी न्यायपालिका अब खुद ही भारत को एक लोकतांत्रिक देश से सैन्य राष्ट्र में तब्दील करने की फासिस्ट मुहीम की अगुवाई करने लगी है। अयोध्या मुद्दे पर तथ्यों के बजाय धर्मोन्मादी आस्था के आधार पर फैसला हो या बाटला हाउस एनकाउंटर पर जांच की मांग से इसकी पुष्टि होती है कि यह फासीवाद सिर्फ चुनावी रास्ते से नहीं बल्कि कानूनी रास्ते से स्थापित किया जा रहा है।
ऐसे में हम आजमगढ़ के लोग जिन्होंने बाटला हाउस और उसके बाद हुए विभिन्न कथित आंतकवादी वारदातों में अपने लोगों और अपने शहर के प्रति सरकार, नौकरशाही और न्यायपालिका के फासीवादी व्यवहार को देखा है, आज इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि लोकतंत्र में न्याय की पूरी अवधारणा पर ही नए सिरे से बहस जरुरी हो जाती है। इसलिए लंबे समय से राज्य प्रायोजित मानवाधिकार हनन का केंद्र बन चुके आजमगढ़ में हम पूरे देश में चल रहे मानवाधिकार हनन और न्यायपालिका के राजनीतिक इस्तेमाल पर एक राष्ट्रीय जनसम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। इस महत्वपूर्ण आयोजन में हम आपसे शामिल हाने का आग्रह करते हैं।

वक्ता-
हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता
शबनम हाशमी, सामाजिक कार्यकर्ता
प्रो. एस. ए. आर. गिलानी, प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय
अनिल चमड़िया, वरिष्ठ पत्रकार
संदीप पाण्डे, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता
एस. आर. दारापुरी, पूर्व पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश
मो. शोएब, अधिवक्ता, लखनऊ
चितरंजन सिंह, राष्ट्रीय सचिव, पीयूसीएल
जमाल अहमद, अधिवक्ता, फैजाबाद
के के राय, अधिवक्ता, इलाहाबाद
डॉ. जावेद अख्तर,
एच ए आजमी, पूर्व विभागाध्यक्ष पत्रकारिता विभाग, बीएचयू
महंत युगलकिशोर शरण शास्त्री, सरयूकुंज अयोध्या, फैजाबाद
जमील आजमी, अधिवक्ता, इलाहाबाद
खालीद शेख, अधिवक्ता, अहमदाबाद, गुजरात
तुलिका श्रीवास्तव, आली
फिरोज मिठीबोलबाला, सामाजिक कार्यकर्ता, महाराष्ट्र
तेजबहादुर यादव, समाजसेवी, आजमगढ़
जावेद मोहम्मद, सामाजिक कार्यकर्ता, इलाहाबाद
अफरोज आलम, सूचना अधिकार कार्यकर्ता, दिल्ली
महताब आलम, मानवाधिकार कार्यकर्ता, रांची

निवेदक- मसीहुद्दीन संजरी (09455571488), शाहनवाज आलम (09415254919), राजीव यादव (09452800752), तारिक शफीक (09454291958), विनोद यादव (09450476417), जितेन्द्र हरि पाण्डेय, सालीम दाउदी, शफीक एडवोकेट, रवि शेखर, विजय प्रताप, सुनील, अंशुमाला सिंह, गंुजन सिंह, फहीम अहमद (प्रधान संजरपुर), मोअज्म शाहबाज, अबु बकर, मो. अकरम, आफताब, अब्दुल्ला, तबरेज, सरफराज कमर, गुलाम अम्बीया, निलेश यादव, राजेन्द्र यादव, कलीम अहमद, आबीद हसन, ग्यासुद्दीन, मुज्जीबुल रहमान, विनय श्रीवास्तव, मो. शाकिर, मो. शाहिद, मो. आसिफ, शमीम अहमद, सरफुद्दीन। 

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (PUCL), शहीद शेख रजब अली सोशल एंड वेलफयर सोसाइटी, डिबेट सोसायटी, कारवां, जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (JUCS)।

1 comment:

  1. निम्न रचना मेरे द्वारा रचित नहीं है पर मैं आप लोगों के साथ शेयर करना चाहता हूँ .

    क्या अIप मेंरे साथ चाय पीना चाहैगे…….?

    जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब
    कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के
    चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो
    कप चाय " हमें याद आती है ।

    दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा
    कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...

    उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और
    उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें
    एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या
    बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे -
    छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी
    सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने
    पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब
    प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना
    शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी
    नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी
    पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा
    .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में
    डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...

    प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –

    इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....
    टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे
    , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,
    छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और
    रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..
    अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की
    गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो
    गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...

    ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे
    पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों
    के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये
    तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो ,
    सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल
    फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले
    करो , वही महत्वपूर्ण है ...... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी
    सब तो रेत है ..

    छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे ... अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह
    नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले
    .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...

    इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे ,
    लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।

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