Monday, March 14, 2011

विकास के लिए लोगों को उजाड़ना क्यों जरूरी है?


नैशनल कैपिटल रीजन(NCR) के एक गांव भट्टा पारसौल में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ वहां के किसान करीब महीने भर से आंदोलनरत हैं। इस संबंध में प्रशासन और सरकार से पिछले दिनों उनकी बातचीत की कोशिशें भी विफल हो गईं, जिससे यह आंदोलन और उग्र हो गया है। दूसरी तरफ यूपी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून के तहत 40 अतिरिक्त गांवों की भी जमीन का अधिग्रहण करने की सूचना जारी कर दी है। अंग्रेजी कानून हमारे देश पर विदेशी शासन को चलाने के लिए था। उसी का जीता जागता उदाहरण भूमि अधिग्रहण कानून है। अंग्रजों ने यह कानून अपनी सेना की छावनी बनाने और अन्य कार्यो के लिए किसानों की जमीन हथियाने के लिए बनाया था। यह दुर्भाग्य है कि आज भी जमीन के अधिग्रहण के लिए हम उसी कानून का इस्तेमाल कर रहे हैं। 

रियल एस्टेट की जादूगरी 
जिस विकास के नाम पर हमारे शासक भूमि का अधिग्रहण कर रहे हैं, आखिर उसकी परिभाषा क्या है? विकास का तात्पर्य होता है कि ऐसे संसाधनों का विकास जिससे एक आम नागरिक की आर्थिक स्थिति अच्छी हो तथा देश के संसाधनों का उपयोग ठीक प्रकार से हो। परंतु अभी का विकास बिल्डरों, नेताओं और बाबुओं की जेब भरने के लिए किया जा रहा है। क्या सचमुच एनसीआर में घरों की कमी है, जिसका हवाला देते हुए इस पूरे क्षेत्र में नई-नई गृह योजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है? मीडिया रिपोर्टों के अनुसार अकेले ग्रेटर नोएडा में करीब सवा लाख मकान खाली पड़े हैं। यह शहर अपनी बसावट के 20 साल बाद भी कुल 20 प्रतिशत ही आबाद हो पाया है। वैशाली, इंदिरापुरम, नोएडा और ग्रेटर नोएडा में करीब पांच लाख मकान अपने रहने वालों की बाट जोह रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार यह स्थिति अगले 25 साल तक रहेगी, क्योंकि इनमें से ज्यादातर मकान लोगों ने अपनी रियल इस्टेट की भूख मिटाने के लिए खरीदे हैं। 

कंक्रीट का जंगल 
ऐसे में इस क्षेत्र में नई योजनाएं क्यों लाई जा रही हैं और इस कथित विकास के नाम पर गरीब गांव वालों की रोजी-रोटी क्यों छीनी जा रही है? क्यों इस पूरे क्षेत्र को कंक्रीट का जंगल बनाया जा रहा है? पश्चिमी देशों के शहर तो आज भी अपनी पुरानी पहचान बचाए हुए हैं। पेरिस के अंदर जिंदगी अभी भी काफी शांत है और चारों तरफ के माहौल को देखकर आत्मीयता महसूस होती है। क्या इस कंक्रीट के जंगल में अपनापन है? एनसीआर की इन बस्तियों को संवेदनशील शहर बनाने में न जाने कितना वक्त लगेगा। 

यमुना एक्सप्रेस वे बनाने तक तो किसानों ने सहमति से जमीन दी लेकिन इसका अगला कदम यह रहा कि बिल्डर माफिया यहां रियल  स्टेट की मंडी खोलने लगे। उन्हें कोई परवाह नहीं कि गंगा -यमुना का यह दोआब अन्न पैदा कर देश की भूख मिटाता है। इन्हें कोई चिंता नहीं कि इस क्षेत्र  के किसानों का पुर्नवास कैसे होगा। इन्हें लगता है कि इस क्षेत्र के गरीब लोग पैसे की चमक दमक मेंअपनी जमीन के साथ साथ अपनी पहचान भी इन्हें सौंप देंगे फिर ये बिल्डर इस जमीन को ऊंचे दामों पर बेचेंगे। यह इस क्षेत्र के किसानों मजदूरों के साथ बहुत बड़ा धोखा है। जमीन जाने के बादएक किसान का परिवार बेरोजगार हो जाता है। फिर धीरे धीरे ये बेरोजगार लोग अपने अपेन गांवको छोड़कर पलायन कर जाते हैं तथा अपनी पहचान खो देते हैं। 

जिन क्षेत्रों की भूमि करीब 20 साल पहले अधिगृहीत हो चुकी है उनकी सामाजिक स्थिति में बहुत नकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। बेरोजगारी यहां चरम सीमा पर है। खेती बाड़ी से जुड़े लोग इतने योग्य भी नहीं हैं कि इनको कुशल कारीगर के रूप में कहीं नौकरी मिल सके। ज्यादा से ज्यादा ये कहीं चपरासी बन पाए हैं या चाय के खोखे लगाने या टैक्सी चलाने जैसे काम करते हैं। पहले जो परिवार अपने खेत में काम करता था अपने खेतों और अपने आप पर गर्व करता थाआज वह खुद को नाकारा  अपमानित महसूस कर रहा है। अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी उसे अंधकारमय लग रहा है। किसानों का आत्मसम्मान खत्म हो जाने के कारण इस क्षेत्र में हिंसाबहुत बढ़ गई है। शिक्षा  प्रशिक्षण के अभाव में ये लोग मुआवजे में मिले पैसे का सदुपयोग नहीं कर सके हैं और अपना अधिकांश समय शराब पीने या ताश खेलने में बिता रहे हैं। 

मुआवजे की हालत देखें तो पाते हैं कि भूमि अधिग्रहण के रेट  प्राधिकरण के इस अधिकृत जमीनको बाजार में बेचने में जमीन आसमान का अंतर है। प्राधिकरण किसानों से जमीन 880 रुपये प्रतिवर्ग मी खरीद कर इसे 5500 रु प्रति वर्ग मी की दर से बेच रहा है जबकि तथा जमीन काबाजार भाव 12 से 15 हजार रु वर्ग मी है। यदि सरकार जनता की है और सरकारी तंत्र जनता केटैक्स से वेतन पाता है तो इस तंत्र को इतनी बड़ी धनराशि क्यों दी जा रही है 
किसानों का कहना है कि यदि बिचौलिए हमारी भूमि से बड़ा धन अर्जित करने वाले हैं तो उसका बड़ा हिस्सा हमें मिलना चाहिए। इसीलिए किसान जमीन के बाजार भाव का 80 प्रतिशत मांग रहे हैं।साथ ही उनका कहना है कि हर गांव का केवल आधा रकबा ही लिया जाए ताकि यहां के लोग अपने पुश्तैनी पेशे से जुड़े रहें। 
जमीन की कीमत 
राज्य सरकार को इस समय अपनी दमनकारी नीतियों जैसे पुलिस बल का प्रयोग किसानों पर झूठे मुकदमे लादना इत्यादि को रोकना चाहिए तथा एक स्वदेशी सरकार की तरह इन गरीब किसानों की मांगों को सहानुभूतिपूर्ण तरीके से सुलझाना चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री बारबार कह रहे हैं कि किसानों को उनकी उपज का पूरा पैसा मिलना चाहिए और बीच के लोगों का हिस्सा कम होना चाहिए। तो क्या वे इसी भावना के अंतर्गत किसानों को उनकी भूमि का उचित मूल्य दिलवाएंगे?

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