उखाड़ने की कला में हम लोगों का जवाब नहीं। जंगल, पेड़, पहाड़, खंबा, सड़क, मकान, दुकान जो चाहे सो हमसे उखड़वा लो, हम उफ नहीं करेंगे। कोई कहे तो गाँव का गाँव, शहर का शहर उखाड़कर धर दें। दो सौ साल तक देश में मज़बूती से जमे अँग्रेजों को भी हमने यूँ ही चुटकियों में उखाड़ फेंका था। उसी ऐतिहासिक परम्परा को निबाहते हुए अभी कुछ ही समय पहले राजस्थान में आन्दोलनकारियों ने रेल की पटरियों को उखाड़ डाला। उखाड़ फेंकने के इस अत्योत्साह में खुद अपनी बिछाई पटरियाँ भी उन्होंने उखाड़ फेंकी हो तो कह नहीं सकते, रेल मंत्रालय को इसकी तस्दीक करनी चाहिए।
उखाड़ा-उखाड़ी राजनैतिक पार्टियों में खूब चलती है, यही लोकतंत्र की निशानी है। इस पार्टी ने उस पार्टी को उखाड़ फेंका, उस पार्टी ने इस पार्टी को उखाड़ फेंका, लोकतंत्र की स्थापना हो गई। कभी-कभी हालात मुआफिक ना हों तो पार्टियाँ बिना किसी के उखाडे़ खुद-ब-खुद भी उखड़ जाती हैं, और उन्हें इस लोकतांत्रिक हादसे का पता हादसा हो चुकने के बाद चलता है। ऐसा बासठ साल से ही चलता चला आ रहा है, जाने कब तक चलेगा।
उखाड़ने की क्रिया इतनी पापुलर है कि राजनैतिक पार्टियाँ आमतौर पर कुछ न कुछ गहरा गड़ा हुआ उखाड़ने का वादा करके ही सत्ता पर काबिज़ होती रहीं हैं, मगर पाँच वर्ष बीतने के बाद भी जब कहीं कोई तिनका तक नहीं उखड़ता, तो नौबत जनता के द्वारा उसका तंबू उखाड़ फेंकने तक आ पहुँचती है। कुछ पार्टियाँ आजीवन उखाड़ने की बातें कर जनता की उम्मीदों के ताजिए ठंडे करती रहती है।
फिलवक्त ‘भ्रष्टाचार’ को उखाड़ फेंकने का नारा बड़ा पापुलर है- ‘‘भष्टाचार को उखाड़ फेंको’’। दशकों से भ्रष्टाचार की जड़ें जमाने में खाद-पानी लेकर सबसे आगे खड़े राजनैतिक दल और उनके भ्रष्ट नरेश भी बेशर्मी से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने का नारा लगाते हुए नज़र आते हैं, लेकिन चाहता कोई नहीं है कि भ्रष्टाचार उखड़े, क्योंकि अगर देश से ‘भ्रष्टाचार’ ही उखड़ गया तो फिर क्या वे राजनीति में रहकर भूट्टे सेकेंगे!
बहरहाल, उखाड़ा-उखाड़ी एक किस्म का क्रान्तिकारी ‘किरियाकरम’ है, इसलिए हम हमेशा कुछ ना कुछ उखाड़ते रहते हैं स्थापित करने की चिंता करना मूर्खों का काम है।
No comments:
Post a Comment