एक विचित्र संयोग है कि जहां एक ओर कतिपय स्वनाम धन्य ईमानदार{?} सफ़ेद पोश लोग लगातार भृष्टाचार पर अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए हैं, और भारत को दुनिया में भ्रष्टतम देश सावित करने में जुटे हुए हैं. वहीं दूसरी ओर विश्व स्तरीय ‘ग्लोवल क्रेडिट रेटिंग एजेंसी फिच’ के प्रवक्ता रिचर्ड हंटर ने कहा है कि “भारत में भृष्टाचार औरों कि बनिस्पत कम है” अमेरिका. ब्रिटेन और अरब राष्ट्रों में तो इन्तहा हो चुकी है. फिर भी सदियों तक गुलाम रही, शोषण की अनवरत शिकार जनता मानती है कि भारत में इतना भृष्टाचार है कि गिने-चुने सरकारी विभागों को छोड़कर कहीं भी बिना कुछ दिए लिए कोई काम नहीं होता, यदि आपका राजनैतिक रुतवा है या आप “धाक” रखते हैं तो विना दिए लिए घर बैठे भी आपका उल्लू सीधा हो सकता है, ये रीति सनातन से चली आ रही थी किन्तु जब से मनमोहनी नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों का आगाज हुआ है तबसे प्रतिस्पर्धा में निर्वल वर्ग बेहद तेजी से पिछड़ रहा है, सवल को तेजी से ताकत के इंजेक्सन देकर उतरोत्तर सफलता के शिखर पर पहुँचाया जा रहा है. कुछ ताकतवर लोग जो इस भ्रष्ट व्यवस्था में अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा गुजार चुके हैं, शायद ऊबने लगे हैं या अब अपनी वैयक्तिक ख्याति और चरम यश- लोलुपता के आवेग में सरकार पर लाल-पीले हो रहे हैं. जबकि दूरगामी राष्ट्रीय हितों से सरोकार रखने वाले कोई वैकल्पिक उपाय उनके पास नहीं हैं. वे अर्थशाश्त्र, राजनीति, अधुनातान साइंस और टेक्नालोजी के बारे में ककहरा भी नहीं जानते लेकिन वे किसी खास अनुत्पादक पेशे से ताल्लुक रखने के कारन आधुनिक परजीवी वर्ग में अपनी पेठ बना चुके ये ढपोरशंखी चाहते हिं कि देश में, हर घर में भगतसिंह पैदा हो किन्तु उनके अपने घर में नहीं. देश की ८०% मेहनतकश जनता को -जो रोज कमाती और बड़ी मुस्किल से उदरपूर्ती के साधन जुटा पाती है, इन तथाकथित स्वनामधन् ईमानदारों से कोई लेना -देना नहीं. किसी को यकीन न हो तो दिल्ली-मुंबई, कलकत्ता मद्रास में भवन निर्माण में लगे या सड़कें बनाने में जुटे किसी मजदूर से पूंछे की किरण बेदी या स्वामी अग्निवेश कौन हैं? अन्ना हजारे या अरुंधती कौन हैं? खेतों में पसीना बहाते किसी खेतिहर मजदूर से पूंछो या झाबुआ, अबूझमांड के आदिवासी से पूंछो कि लोम-विलोम वाले बाबाजी का नाम क्या है? प्राणायाम क्या होता है? भृष्टाचार क्या है? लब्बो लुआब ये है कि वर्तमान दौर के इन सफ़ेदपाशों ने यदि गजानन माधव मुक्तिबोध,दुष्यंतकुमार,गणेशशंकर विद्ध्यार्थी या हरिशंकर परसाई ,शरद जोशी जैसें साहित्यकारों को ही ठीक से पढ़ा होता तो भृष्टाचार और राजनीति पर इस तरह कि तोतली बातें नहीं करते.इन सस्ती लोकप्रियता के सम्बाह्कों में से कोई भी दूध का धुला नहीं है चाहे वो कितना भी ईमानदार क्यों न बनता हो दावे से नहीं कह सकता कि वह वर्तमान दौर के जिम्मेदार राजनीतिज्ञों{कांग्रेसी ,भाजपाई ,वामपंथी} का बेहतर विकल्प बन सकता है.सत्ता में जो हैं उनकी जबाबदेही जनता और जनता कि सबसे बड़ी पंचायत अर्थात संसद के प्रति है,सत्ताधारी लोग यदि गलत करते हैं तो जनता अपने मताधिकार कि ताकत से सत्ताचुत कर सकती है.आज जो विपक्ष में हैं वे अपने उत्तरदायित्व का भरसक निर्वहन कर ही रहें हैं कल को सत्ता में भी आ सकते हैं. न्यायपालिका कि सक्रियता जग जाहिर है.यदि सत्ता पक्ष ने कुछ ऐसा वैसा किया है तो भारत कोई ट्युनिसिया नहीं ,मनमोहन सिंह कोई गद्द्फी नहीं ,भारत कि जनता कोई भेड़िया धसान नहीं.कुछ भी जनता के नियंत्रण से बाहर नहीं.
किरण कर्णिक ने प्रधानमंत्री जी को तथाकथित एस-बैंड स्पेक्ट्रम स्केम के बारे में पत्र लिखा है. तदनुसार अव्वल तो इसरो ने किसी को कोई स्पेक्ट्रम दिया ही नहीं दूसरी बात जो रेखांकित कि गई वो ये कि इसरो के पास स्पेक्ट्रम नहीं बल्कि “आर्विट स्लाट्स” हैं.यह विद्दयुत चुम्बकीय तरंग क्षेत्र {स्पेक्ट्रम} न होकर एक किस्म का अंतर राष्ट्रीय अनुबंध का भारतीय अन्तरुक्षीय पारगमन क्षेत्र है. देवोस कम्पनी को इसे ऐसे ही दे देने का सवाल ही नहीं था. इन ‘आर्विट स्लाट्स’ को खरीदने जब कोई नहीं आया तो देवोस से एम् ओ यु बाबत चर्चा शुरूं ही हुई थी कि ‘दूध के जलों ने छांछ फूंकना’शुरू करदिया.अधकचरे ज्ञान वाले मीडिया और विकृत मस्तिष्क के उपरोक्त सयानो ने इसे इतिहास का सबसे बड़ा भृष्टाचार निरुपित करते हुए केंद्र सरकार पर हल्ला बोल दिया. अब जांच जारी है.जांच में क्या निकलेगा? जब कुछ हुआ ही नहीं तो नतीजा सिफ़र ही होगा.
निसंदेह आज के निजीकरण -उदारीकरण -भूमंडलीकरण के दौर ने दुनिया को एक गाँव जैसा बना दिया है, जिस तरह गाँव का बदमास और दवंग किसान अपने खेत की मेंड़ पर खड़े होकर अपने बेलों को दूसरे के खेत में चराता है; उसी तरह बाजारीकरण के दौर ने शक्तिशाली मुल्कों को यह अवसर प्रदान किया है कि वे निर्वल राष्ट्रों में अपनी घटिया कालातीत तकनीकी खपायें. अपने अनियंत्रित उत्पादनों को तथाकथित अविकसित या विकाशशील देशों में एन -केन-प्रकारेण जबरन खपायें. इन सब खुरापातों के लिए ये पूंजीवादी मुल्क आपस में एका करके विशेष फंड में कुछ रकम भी खर्च करते हैं,यही आवारा पूँजी वास्तव में तमाम आधुनिक बड़े -बड़े काण्डों की जननी है.
इस नव्य उदारवाद कि आवारा पूँजी से भारत जैसे देशों में सरकारें बनती हैं. सांसद खरीदे, बेचे जाते हैं,गठबंधन होते हैं, उन्हें चलाने कि मजबूरियाँ होतीं हैं, राजा होते हैं, रादियायें होतीं हैं. कभी एन डी ऐ सत्ता में होता, कभी यु पी ऐ सत्ता में होता, कभी चारा घोटाला होता, कभी बोफोर्स घोटाला होता, कभी टू -जी स्पेक्ट्रम घोटाला होता, कभी कामनवेल्थ कांड होता और कभी तेलगी, कभी हसन अली घोड़े वाला -हवाला कांड होता. ये एक सतत प्रक्रिया है जो एन डी ऐ, यू पी ऐ के ही नहीं बल्कि तब थी जब आदरणीय मनमोहनसिंह जी वित्त मंत्री हुआ करते थे. ये भृष्टाचार कि गटर गंगा तब भी बहा करती थी जब इंदिरा -मोरारजी या नेहरु थे. ये नासूर तब भी था जब अंग्रेज थे और तब भी था जब मुग़ल थे.फर्क सिर्फ इतना है किलक्ष्मी पहले बहुत कम लोगों को पतित कर पाती थी. अब इस बाजार बाद ने अधिक से अधिक लोगों को भृष्ट बना दिया है. यक्ष प्रश्न ये है कि या तो हम सब ईमानदार हो जाएँ या जो अभी तक इस गटर में नहाने से वंचित हैं उन्हें भी मौका दिया जाए. चूँकि ये दोनों ही असम्भव विकल्प हैं अतएव जो कम बेईमान हो उसे सत्ता में और राजनीति में स्वीकार्य बनाया जाये.
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