Saturday, October 08, 2011

गाँधीजी, कुरान और मुसलमान



वर्तमान परिदृष्य को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो गाँधीजी का भारत में जन्म हुआ ही नहीं हो। चारों ओर बेईमानी का चलन हो गया है। क्षेत्र चाहे राजनीति हो या कुछ और बजाय योग के भोग की आदत पड़ गई है लोगों को। अधिक से अधिक पैसा बनाना हर व्यक्ति की दिनचर्या का महत्वपूर्ण अंग बन गया है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह पैसा हलाल की कमाई का है या हराम की कमाई का। वैसे सच्चाई तो यह है कि ईमानदारी से काम करने वाले के हाथ सदा खाली ही रहते हैं।

ऐसे में गाँधीजी की बड़ी याद आती है। अब तो गाँधीजी को याद करना भी एक औपचारिकता ही रह गया है। हम हिन्दुस्तानियों का यह सौभाग्य था कि गाँधीजी यहाँ जन्मे, मगर यह दुर्भाग्य रहा कि उनके बताए रास्ते पर चलने की बजाय हमने उनकी खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी।एक बार सवेरे लगभग पौने पाँच बजे मौलाना आजाद गाँधीजी के निवास पर फज्र की नमाज के बाद गए तो देखा कि गाँधीजी कुरान पढ़ रहे हैं। पहले तो मौलाना साहब को विश्वास ही नहीं हुआ मगर जब उनके मुख से शुद्ध अरबी उच्चारण में 'सूरा-ए-इख्लास' सुनी तो वे स्तब्ध रह गए। मौलाना साहब की इस असमंजस वाली स्थिति को देखते हुए गाँधीजी बोले, 'मौलाना साहब, मैं रोज सवेरे कुरान शरीफ पढ़ता हूँ और तरजुमे से पढ़ता हूँ। इससे मुझे मन की अभूतपूर्व शांति प्राप्त होती है।' मौलाना साहब को अब तक यह पता नहीं था कि गाँधीजी को उर्दू, अरबी और फारसी का सटीक ज्ञान था और यह कि बचपन में मौलाना अब्दुल कादिर अहमदाबादी नक्शबंदी से उन्होंने यह ज्ञान गुजरात में ही प्राप्त किया था। उस दिन से मौलाना की नजरों में गाँधीजी का कद और भी ऊँचा हो गया था।आजादी से थोड़ा पहले ही संपूर्ण बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गए थे। गाँधीजी के वे दिन अवसादपूर्ण व निराशा से भरे थे। जब वे नोआखाली के बाबू बाजार में शांति यात्रा पर घर-घर जा रहे थे तो एक बंगाली मुसलमान भीड़ में से आया और उनका गला दबाते हुए उन्हें जमीन पर गिरा दिया और बोला- 'काफिर ! तेरी हिम्मत कैसे हुई यहाँ कदम रखने की?' गाँधीजी तो पहले ही उपवास रख कर जीर्ण-शीर्ण हो चुके थे, इस वार को न सह सके और गिरते-गिरते उन्होंने 'सूरा-ए-फातिहा' पढ़ी। यह देख वह बंगाली मुसलमान, जिसकी बड़ी चमकदार दाढ़ी थी,

भौंचक्का रह गया और यह सोचकर शर्म से पानी-पानी हो गया कि ऐसे सदोगुणी प्रवृत्ति वाले महात्मा पर उसने हाथ उठाया। उसने गाँधीजी के पाँव पकड़ लिए और क्षमा याचना की। गाँधीजी ने उसे माफ कर दिया। यही नहीं, अपने साथ चल रहे हिन्दू व मुसलमान हिमायतियों के रोष को भी उन्होंने ठंडा किया। इस घटना के पश्चात वह व्यक्ति, जिसका नाम अल्लाहदाद खान मोंडल था, गाँधीजी का पक्का अनुयायी बन गया और प्रत्येक व्यक्ति से यही कहा करता था कि गाँधीजी की एक बात उसके मन पर लिख गई। गाँधीजी ने अल्लाहदाद मोंडल से कहा था- 'देखो खुदा के निकट मैं तुमसे अच्छा मुसलमान हूँ।' इस घटना के तुरंत बाद गाँधीजी ने अपने साथ चल रहे लोगों को सख्त आदेश दिया था कि कोई भी इस बात का वर्णन आगे कहीं न करे। गाँधीजी के स्थान पर अन्य कोई और नेता होता तो अवश्य सांप्रदायिक आग की लपटें भड़क उठतीं मगर गाँधीजी सदा उन लोगों में से थे जिन्होंने आग पर हमेशा पानी ही डाला।विभाजन के तुरंत बाद गाँधीजी ने तनाव की खबरें आने पर फिर नोआखाली जाने का मन बनाया परंतु परिस्थिति को देखते हुए वे कलकत्ता छोड़ नहीं पाए। अविभाजित बंगाल के प्रधानमंत्री एचएस सुहरावर्दी ने गाँधीजी से अनुरोध किया था कि जब तक कलकत्ता में पूर्ण रूप से शांति न हो जाए, तब तक वे कलकत्ता में ही रहें। गाँधीजी मान गए परंतु उन्होंने शर्त रखी कि सुहरावर्दी भी उनके साथ ही एक ही छत के नीचे रहें।

कलकत्ता में जिस घर में गाँधीजी रह रहे थे वह किसी बूढ़ी मुस्लिम महिला का था। यह मकान एक ऐसे मुहाने पर था जिस पर आसानी से आक्रमण किया जा सकता था। हिन्दू नवयुवक बहुत नाराज थे क्योंकि वे मानते थे कि गाँधीजी मुसलमानों को अपना संरक्षण दे रहे हैं। उनका कहना था कि एक वर्ष पूर्व जब मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्ल किया था तब गाँधीजी कहाँ थे? गाँधीजी के लिए यह परिस्थिति कोई नई नहीं थी और वे भली- भाँति इससे परिचित थे। मगर बावजूद इसके उन्होंने किसी भी सशस्त्र पुलिस की सहायता लेने से इंकार कर दिया था।

एक बार तो उत्सुक भीड़ उतावली हो उठी और लोगों ने 'गाँधी वापस जाओ' के नारे लगाने शुरू कर दिए। लेकिन सुहरावर्दी के मना करते रहने पर भी वे दरवाजे पर आए और क्रुद्ध भीड़ का सामना किया। अंत में जब वे घर के भीतर आए तो भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया। घर के शीशे आदि तोड़ दिए गए और घर के अंदर पत्थरों की बारिश हो रही थी। गाँधीजी ने प्रदर्शनकारियों के पास अपना संदेश भेजा कि वे उनकी जान लेना चाहते हैं तो इस शर्त पर लें कि उसके बाद वे सुहरावर्दी या उनके साथियों का बाल भी बाँका नहीं करेंगे। गाँधीजी के इस संदेश का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा उस भीड़ पर और थोड़ी देर में ही लोग वहाँ से चले गए। उसके बाद सद्‌भावना की ऐसी बारिश हुई कि एक आमसभा में हिन्दू और मुस्लिम युवकों ने एक ही मंच से भारत की आजादी का संकल्प लिया।गाँधीजी एक साथ हजरत मुहम्मद, कृष्ण, गुरु नानक और ईसा मसीह से प्रभावित थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपने अनेक पत्रों में गाँधीजी की इस्लाम के प्रति जिज्ञासा का वर्णन किया है। 'अल-अहरार' संस्था के मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी को एक पत्र में उन्होंने लिखा कि हरिजनों से प्यार व छुआछूत से दूरी गाँधीजी ने हजरत मुहम्मद सल्ल से सीखी, जिन्होंने सभी इंसानों को बराबर समझा। गाँधीजी ने 'यंग इंडिया' एक संपादकीय में लिखा था कि गुलामों और यतीमों के साथ हजरत मुहम्मद सल्ल का व्यवहार कहीं अधिक अच्छा हुआ करता था। गुजराती में अपने प्रकाशन 'नवजीवन' में गाँधीजी लिखते हैं कि अहिंसा का मुख्य पाठ उन्होंने ईसा मसीह से सीखा और मजे की बात तो यह है कि वे बाइबिल का भी बड़े चाव से अध्ययन किया करते थे। यह कितने खेद की बात है कि आजकल गाँधीजी को गाली देने वालों की पूछ हो रही है। मायावती और बाल ठाकरे जैसे लोगों को इसके बदले कुर्सियाँ दी जा रही हैं। यह बड़ी सोचनीय और गंभीर समस्या है कि राष्ट्र पर सब कुछ न्योछावर कर देने वाले महात्मा को कोई भी ऐरा-गैरा-नत्थु-खैरा कुछ भी कह देता है। भारत के लिए गाँधीजी का स्थान अवतार जैसा है। ऐसा प्रतीत होता है कि आजकल के नेताओं के लिए यह फैशन सा हो गया है कि गाँधीजी को गाली दी जाएगी तो दुनिया में नाम होगा, मगर वास्तविकता यह है कि फैशन के मारे लोग गाँधीजी को गाली दें या कोसें, उनकी इज्जत बढ़ती ही जाएगी। अहिंसा के पुजारी गाँधीजी की महानता तो इस बात से ही आँकी जा सकती है कि उनको गाली देने वालों ने भी उनसे लाभ उठाया है। गाँधीजी का रुतबा हर दिन बढ़ता ही जा रहा है।

 - फिरोज बख्त अहमद
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं मौलाना आजाद के पौत्र हैं।)

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