भ्रष्टाचार से बुरी तरह घिर चुके कर्नाटक के मुख्यमंत्री
येदियुरप्पा की संपत्ति महज तीन साल में ही १.८२ करोड़ से २० करोड़ से ऊपर हो गयी| ४६ साल पहले, येदियुरप्पा ने समाज कल्याण विभाग में साधारण से क्लर्क की नौकरी छोड़कर राजनीति
में कदम रखा|
वे शुरू से ही आर.एस.एस. के कार्यकर्ता के रूप में
कार्यरत थे| येदियुरप्पा का
संघ के प्रति निष्ठा और समर्पण ने उन्हें २००८ में कर्नाटक के शीर्ष कुर्सी पर बैठा
दिया और बहुत कम समय में ही इन्होंने बी.जे.पी. के मजबूत नेता के रूप में अपनी पहचान
स्थापित कर ली| आखिर ऐसा कौन सा चमत्कार दो साल में हो गया कि
येदियुरप्पा करोड़ों के मालिक हो गए? उनकी करोड़ों के जायदाद
में ५० लाख रुपये का ढाई किलो सोना और हीरा, १७ लाख के ७६ किलो
चांदी, उनके खाते में लगभग ५० लाख रुपये हैं, इसके अलावे अचल संपत्ति में २७ एकड़ कृषि भूमि के साथ, बैंगलोर के राजमहल विलास क्षेत्र धवलगिरी में लगभग एक करोड़ का मकान है,
इस तरह इन्होंने ६०० फीसदी संपत्ति बहुत कम समय में बढ़ा लिया|
येदियुरप्पा की संपत्ति जो आम लोगों के सामने है ये सिर्फ हाथी के दिखने
वाले दांत के जैसे हैं, बेनामी संपत्ति का कोई थाह ही नही है|
येदियुरप्पा ने प्रदेश में अवैध खनन और भूमि घोटालों
से २ - ४ सौ करोड़ से भी अधिक संपत्ति अर्जित किया है| लोकायुत संतोष हेगड़े ने तो स्पष्ट
रूप से कहा है, “येदियुरप्पा के कार्यकाल में कर्नाटका में अब
तक सैकड़ों – करोड़ों भूमि घोटाले सामने आये| मुख्यमंत्री पर
आरोप है कि इन्होंने राज्य सरकार की भूमि को अपने बेटों और सहयोगियों में आवंटित किया|
उन पर प्रदेश में लोह अयस्क के खनन
को बढ़ावा देने का सीधा आरोप लगा| मात्र दक्षिण – पश्चिम
के क्षेत्र को लीज़ पर देने के लिए येदिय्राप्पा ने २० करोड़ घूस लिए और दान के रूप
में १० करोड़ रुपये लिए, इसके बाद तमाम विरोध के वाबजूद,
बेल्लारी जिले में अवैध खनन को मज़रंदाज़ किया| लगातार आरोप के वाबजूद भी कैबिनेट में सामिल रेड्डी बंधुओं पर कोई करवाई नहीं
की|”
वैसे मैं यह समझता हूँ कि हमाम में सब नंगे हैं| आज राजनीति की स्तिथि समाज में
यह है कि जनता - नेता दोनों मस्त| हर डाल पर उल्लू बैठा है अंजामे
गुलिस्तां क्या होगा? वैसे राजनीति की इस मकड़जाल में से ईमानदार
और संत को ढूंड पाना बहुत मुश्किल है|
एक कहावत है, एक संत प्रति दिन एक बूढी बीमार वैश्या की सेवा करने जाता था क्योंकि
उसे देखने वाला कोई नही था| उसके दर्द में हिस्सेदार बनने वाला
कोई नहीं था| आम आदमी नहीं समझ पाया कि वो संत वहाँ क्यों जाते
हैं| समाज को लगा कि ये संत भी उसी रंग में रंग चुके हैं|
कुछ देर के लिए उन्हें भी आलोचना के दौर से गुजरना पड़ा, परन्तु बाद में सच्चाई सामने आई कि वो किसी बीमार, नि:सहाय,
अबला की सेवा करने जाते थे| समाज में उस संत का
स्थान और ऊँचा हो गया| वर्त्तमान भारत की राजनीति में यही स्तिथि
कुछ बचे-खुचे ईमानदारों और संतों का है|
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