Saturday, December 10, 2011

मुसलमानो की हालत के लिये उनकी मज़हबी सोच भी ज़िम्मेदार?

मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को लेकर अकसर यह बहस होती रही है कि वे दीनी तालीम को ही असली शिक्षा क्यों समझते हैं? आजकल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की ज़ोरशोर से वकालत की जा रही है। हम यहां इस बात पर चर्चा नहीं करना चाहते कि यह कवायद इस समय यूपी का चुनाव नज़दीक देखकर मुसलमानों को वोटों के लिये पटाने के लिये की जा रही है या वास्तव में उनका भला करने की नीयत है? अगर उनका वाक़ई कल्याण करना है तो केवल आरक्षण से काम नहीं चलेगा। यह सवाल जल्दी ही सामने आ जायेगा कि दलितों की तरह उनके लिये नौकरियां तो उपलब्ध करा दी गयीं लेकिन वे इतने पढ़े लिखे हैं ही नहीं कि उनको आरक्षित नौकरी भी दी जा सके।

एक आंकड़ें से इस बात को समझा जा सकता है। एक शिकायत यह की जाती है कि मुसलमानों की आबादी तो देश में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 13.5 प्रतिशत है जबकि खुद मुसलमान इस प्रतिशत को सही नहीं मानते और असली आबादी 20 परसेंट से भी अधिक बताते हैं और भागीदारी सरकार की ए क्लास सेवाओं में मात्र एक से दो प्रतिशत है। इसका कारण उनके साथ पक्षपात होना बताया जाता है जबकि हमें यह बात पूरी तरह ठीक इसलिये नज़र नहीं आती क्योंकि एक तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिये चयन का तरीका इतना पारदर्शी और निष्पक्ष है कि उसमें भेदभाव की गुंजाइश ही नहीं है। इसका सबूत दारूलउलूम के एक मौलाना और कश्मीर का वह युवा फैसल है जिसने कुछ साल पहले आईएएस परीक्षा में टॉप किया था।

एक वजह और है। इस तरह की सेवाओं के लिये ग्रेज्युएट होना ज़रूरी है जबकि मुसलमानों में स्नातक पास लोगों की दर 3.6 प्रतिशत है। ऐसा सच्चर कमैटी की रिपोर्ट में दर्ज है। एक समय था जब सर सैयद अहमद खां ने इस ज़रूरत को समझा था और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की स्थापना की। उनको अंग्रेज़ों का एजेंट बताया गया और बाक़ायदा अंग्रेज़ी पढ़ने और उनके खिलाफ़ अरब से फ़तवा लाया गया। मुसलमानों को यह बात समझनी होगी कि आज केवल मदरसे की तालीम से वे दुनिया की दौड़ में आगे नहीं बढ़ सकते।

शहर नजीबाबाद ज़िला बिजनौर यूपी में देखता हूं। यहां मुसलमानों की आबादी 65 प्रतिशत से अधिक है। यहां 12 इंटर कालेज हैं जिनमें से केवल 2 मुस्लिमों के हैं। दो डिग्री कालेजों में से उनका एक भी नहीं है। इन 14 में से 4 जिनमें दोनों डिग्री कालेज भी शामिल हैं, एक और अल्पसंख्यक समाज जैन बंधुओं के बनाये हुए हैं। मात्र एक प्रतिशत आबादी वाले सिख समाज का भी एक इंटर कालेज है। ईसाई तो बेहतरीन सैंट मैरिज़ स्कूल हर नगर कस्बे की तरह यहां भी चला ही रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि जो दो कालेज हैं उनमें प्रबंधतंत्र में भयंकर विवाद है।

दूसरी तरफ देखिये नजीबाबाद में पिछले दिनों मस्जिदों का नवीनीकरण और नये मदरसे बनाने का बड़े पैमाने पर अभियान चल रहा है। हो सकता है यह अभियान कमोबेश और स्थानों पर भी चल रहा हो लेकिन मुझे वहां के बारे में पक्का मालूम नहीं है। नजीबाबाद की लगभग पचास मस्जिदों को सजाने संवारने में दस लाख से लेकर एक करोड़ रुपया तक ख़र्च किया जा रहा है। इस रुपये का अधिकांश हिस्सा स्थानीय मुसलमानों ने अपने खून पसीने की कमाई से चंदे की शक्ल में दिया है।

ऐसा ही कुछ मामला मदरसों के नवीनीकरण और नवनिर्माण का भी है। इन मदरसों का मौलाना सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद आधुनिकीकरण कर साइंस और मैथ पढ़ाने को तैयार नहीं हैं, ऐसे में मुसलमान दुनियावी, अंग्रेजी मीडियम और उच्च शिक्षा जब नहीं लेंगे तो वे आरक्षण पाकर भी कैसे आगे बढ़ सकते हैं। इस पर बहस होनी ही चाहिये कि इसी मज़हबी सोच की वजह से भी तो कहीं उनकी आज यह हालत नहीं हुई???

दूसरी तरफ देखें तो आज पूरी दुनिया में यह सवाल बहस का मुद्दा बना हुआ है कि इस्लाम इतना शांतिप्रिय धर्म होते हुए भी उसके मानने वाले यानी मुसलमान उच्च शिक्षा की बजाये आतंकवाद, मारकाट और खूनख़राबे में क्यों शामिल हो रहे हैं। विडंबना यह है कि जो मुसलमान जेहाद के नाम पर यह खून बहा रहे हैं उनके लिये गैर मुस्लिम ही नहीं बल्कि उनके अपने मज़हब से जुड़े शिया, अहमदी, और क़ादियानी तक कहे जाने वाले लोग उनके निशाने पर हैं। उनका दावा है कि उनके अलावा कोई भी पक्का सच्चा मुसलमान नहीं है। पाकिस्तान मे तो बाकायदा 1974 में अहमदी लोगों को गैर मुस्लिम घोषित किया जा चुका है। इतना ही नहीं उनकी इबादतगाहों को मस्जिद कहे जाने पर भी कानूनी तौर पर रोक लगा दी गयी है। बात यहां तक होती तो भी ख़ैर थी लेकिन अब हालत यह हो गयी है कि आयेदिन वहाबी सोच के कट्टरपंथी गैर देवबंदी लोगों पर जानलेवा हमले कर रहे हैं। अब लड़ाई बरेलवी और देवबंदी तक आ पहुंची है।

मतभेद इतने बढ़ चुके हैं दोनों एक दूसरे पर इस्लाम की परंपरागत शिक्षाओं को न मानने का आरोप लगाकर ईमान से खारिज होने का दावा कर रहे हैं। दूसरी तरफ दुनिया के जिन अरब देशों में तेल के खेल के नाम पर तानाशाही हटाकर जम्हूरियत लाने के बहाने अमेरिका और नाटों की सेनायें क़ब्ज़ा जमा रही हैं वहां जेहाद के नाम पर मुस्लिम कट्टरपंथियों को मोर्चा खोलने और इस्लाम ख़तरे में होने का नारा बुलंद करने का सुअवसर मिल गया है। जो काम अमेरिका ने अफगानिस्तान से सोवियत फौजों को निकालने के लिये ज़िया उल हक़ जैसे तानाशाह के ज़रिये इस्लामी जेहाद के बहाने शुरू किया था आज वह पूरी दुनिया में अमेरिका और यूरूप के खिलाफ ‘आतंकवाद’ के रूप में फैलता देखा जा रहा है।

किसी भी रोग के इलाज के लिये सबसे पहले यह मानना पड़ता है कि आप बीमार हैं। अगर आप अपनी कमियों और बुराइयों के लिये किसी दूसरे की साज़िश को ज़िम्मेदार ठहराकर केवल कोसते रहेंगे तो कभी समस्या का हल नहीं हो पायेगा। यह तो मानना ही पड़ेगा कि अगर मुसलमानों का एक हिस्सा आज पूरी दुनिया में आतंकवाद और जेहाद के लिये कसूरवार ठहराया जा रहा है तो उसमें कुछ सच्चाई तो होगी ही। तिल का ही ताड़ बनता है। यह आरोप लगाना बहुत आसान है कि हमारे साथ पक्षपात होता है। अगर आज मुसलमान शिक्षा, व्यापार, राजनीति, अर्थजगत, विज्ञान, तकनीक, शोध कार्यों, सरकारी सेवाओं और उद्योग आदि क्षेत्रों में पीछे है तो इसके लिये उनको अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा न कि दूसरे लोगों को दोष देकर इसमें कोई सुधार होगा।

समय के साथ बदलाव जो लोग स्वीकार नहीं करते उनको तरक्की की दौड़ में पीछे रहने से कोई बचा नहीं सकता। अंधविश्वास और भाग्य के भरोसे पड़े रहने से जो कुछ आपके पास मौजूद है उसके भी खो जाने की आशंका अधिक हैं। हम यह नहीं कह सकते कि प्रगति और उन्नति के लिये हम अपने मज़हब को छोड़कर आधुनिकता और भौतिकता के नंगे और स्वार्थी रास्ते पर आंखे बंद करके चल पड़ें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज के दौर में जो लोग आगे बढ़कर अपना हक़ खुद हासिल करने को संगठित और परस्पर सहयोग और तालमेल का रास्ता दूसरे लोगों के साथ नहीं अपनायेंगे उनको पिछड़ने से कोई बचा नहीं सकता। मुसलमानों को यह सोचना होगा कि समाज के दूसरे वर्गों के साथ कैसे मिलजुलकर कट्टरपंथ को छोड़कर आगे बढ़ना है।

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