Thursday, December 01, 2011

इस्लामी आतंकवाद का हौव्वा खड़ा करने में लगा है मीडिया


 
पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की कहानियों पर कभी सवाल नहीं उठाते हैं चैनल 

चिंता की बात यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों की इस पूर्वाग्रहग्रस्त रिपोर्टिंग और कवरेज का नतीजा यह हुआ है कि पूरे मुस्लिम समुदाय की छवि आतंकवादी या आतंकवाद के समर्थक या उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले समुदाय की बना दी गई है. यही नहीं, ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ऐसा हौव्वा खड़ा किया गया है जिसकी आड़ में पिछले एक-डेढ़ दशक में होनेवाली हर आतंकवादी घटना को बिना किसी जांच-पड़ताल के इस्लाम और मुसलमानों से जोड़ देना बहुत आसान हो गया है.

यहाँ तक कि कई मामलों में अपनी नाकामी को छुपाने के लिए पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियां भी मीडिया की इस कमजोरी का फायदा उठाकर बम विस्फोटों और आतंकवादी हमलों का दोष मुस्लिम तंजीमों पर थोपती रही हैं और निर्दोष मुस्लिम युवाओं को इन हमलों में शामिल बताकर पकड़ती और अपनी पीठ ठोंकती रही हैं.

ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें निर्दोष मुस्लिम युवाओं को आतंकवादी बताकर पकड़ा गया और मीडिया ने बिना किसी छानबीन और पड़ताल के पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की रिपोर्टों पर आँख मूंदकर भरोसा किया.

यही नहीं, न्यूज चैनलों में ख़ुफ़िया एजेंसियों और पुलिस द्वारा मुहैया कराई गई आधी-अधूरी, गढ़ी हुई और सच्ची-झूठी जानकारियों में और नमक-मिर्च लगाकर उसे एक्सक्लूसिव और खोजी रिपोर्ट के बतौर पेश करने की होड़ भी लगी रहती है. इसमें वे निर्दोष मुस्लिम युवाओं को पुलिस से आगे बढ़कर बिना किसी ट्रायल के ही आतंकवादी घोषित कर देते हैं. उनके खिलाफ पूरा मीडिया ट्रायल चलता है जिसके कारण आम जनमत के साथ-साथ न्यायपालिका भी प्रभावित हो जाती है.

हालत यह हो जाती है कि आतंकवादी घोषित कर दिए गए इन मुस्लिम युवाओं को निष्पक्ष ट्रायल के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाता है. उन्हें वकील तक नहीं मिलते हैं. कोई वकील उनका मुकदमा नहीं लड़ना चाहता है और जो लड़ता है, उसे भी आतंकवादियों के समर्थक या उनसे सहानुभूति रखनेवाले के बतौर पेश किया जाता है.

इसके बावजूद ऐसे अनेकों मामले हैं जिनमें फर्जी सबूतों और कमजोर जांच के कारण अदालतों ने आतंकवादी घोषित किये गए युवाओं को निर्दोष बताकर रिहा कर दिया. लेकिन इन युवाओं के लिए एक सामान्य जीवन शुरू कर पाना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि मीडिया ने उनकी जो छवि बना दी होती है, उस दाग को छुडा पाना आसान नहीं होता है.

इस मामले में कश्मीरी पत्रकार इफ्तेखार गिलानी की गिरफ्तारी और फिर उन्हें मीडिया के जरिये आतंकवादी और देशद्रोही घोषित करने के मामले का उल्लेख जरूरी है. गिलानी ने अपनी किताब में विस्तार से बताया है कि कैसे मीडिया ने उनके बारे में झूठी और गढ़ी हुई ‘खबरें’ पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों के हवाले से छापीं और दिखाईं जिसके कारण बनी उनकी छवि के कारण जेल में उनकी पिटाई होती थी.

अभी हाल में, मालेगांव बम विस्फोट मामले में पिछले पांच वर्ष से गिरफ्तार कोई आधा दर्जन मुस्लिम युवकों को जमानत पर छोड़ना पड़ा है क्योंकि यह सच्चाई सामने आ चुकी है कि इस मामले में असली मुजरिम हिंदू उग्रवादी संगठन हैं. हैदराबाद के मक्का मस्जिद मामले में भी यही हुआ था.

इन मामलों ने यह साबित कर दिया है कि पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों का किस हद तक साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है. वे मीडिया और न्यूज चैनलों के जरिये खुद अपने ही फैलाये झूठ पर इतना विश्वास करने लगी हैं कि किसी भी आतंकवादी हमले या बम विस्फोट के बाद उनका सबसे पहला शक मुसलमानों खासकर मुस्लिम युवाओं पर जाता है.

इस कारण हाल के वर्षों में ऐसे मामलों की संख्या बढ़ी है जिनमें अपनी नाकामयाबी छुपाने और वाहवाही लूटने (ईनाम और प्रोमोशन) के लिए वे बिना किसी ठोस सबूत और जांच-पड़ताल के निर्दोष मुस्लिम युवाओं को पकड़ने में भी हिचकिचा नहीं रहे हैं. ऐसे मामले अक्सर अदालतों में मुंह के बल गिर रहे हैं लेकिन इससे उनके रवैये पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है.

दरअसल, पुलिस, स्पेशल सेल, ए.टी.एस और अन्य ख़ुफ़िया एजेंसियों का साहस इसलिए भी बढ़ा हुआ है क्योंकि उन्हें मीडिया और न्यूज चैनलों का समर्थन मिला हुआ है. इक्का-दुक्का चैनलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश न्यूज चैनलों ने आतंकवादी हमलों और बम विस्फोटों से लेकर इन मामलों में कथित दोषियों और आतंकवादी प्लाटों के कथित भंडाफोड के बाद होनेवाली गिरफ्तारियों तक के बारे में पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की ‘कहानियों’ की न तो कभी स्वतंत्र जांच-पड़ताल करने और उनपर सवाल उठाने की कोशिश की और न ही कभी निर्दोष युवकों की खोज-खबर लेने की जरूरत समझी.

असल में, इस ‘इस्लामी आतंकवाद’ का हौव्वा खड़ा करने के मामले में अखबार और चैनल और राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सभी प्रकार के समाचार माध्यमों का रवैया कमोबेश एक समान ही रहता है. हालांकि इस हौव्वे को खड़ा करने में सबसे बड़ी भूमिका सरकार, शासक और सांप्रदायिक दलों और सुरक्षा-ख़ुफ़िया एजेंसियों की है.
  
लेकिन उनके इस प्रोपेगंडा अभियान के सबसे बड़े और विश्वसनीय भोंपू के बतौर मुख्यधारा के न्यूज चैनलों समेत समूचे समाचार मीडिया की सक्रिय भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. यहाँ तक कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ के भूत को खड़ा करने के लिए न्यूज चैनलों और अखबारों ने अक्सर खबरें ‘गढ़ने’ और ‘बनाने’ में भी संकोच नहीं किया है.

चैनल और अखबार यह हौव्वा कैसे खड़ा करते हैं, इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण है, पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनपद आजमगढ़ को ‘आतंकगढ़’ और ‘आतंकवाद की नर्सरी’ घोषित कर देना. आजमगढ़ पर मीडिया की अतिरेक भरी रिपोर्टिंग के कारण जिले की ऐसी छवि गढ़ी गई, गोया यहाँ का हर युवा आतंकवादी हो गया हो.

नतीजा, आजमगढ़ के हर मुसलमान पर आतंकवादी या उसका समर्थक होने का शक किया जाने लगा. यहाँ की ऐसी छवि बन गई है कि यहाँ के मुस्लिम युवाओं के लिए जिले से बाहर जाकर पढाई और रोजगार करना मुश्किल हो गया है. उन्हें दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में किराये पर घर तक नहीं मिलते. यहाँ तक कि मुस्लिम बहुल इलाकों में भी उन्हें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.

इसी तरह, मीडिया की एकतरफा और अतिरेकपूर्ण कवरेज ने मदरसों की ‘इस्लामी आतंकवाद की नर्सरी’ की ऐसी छवि गढ़ दी है जिससे आम जनमानस मदरसों को शक की निगाह से देखने लगा है. मदरसों की यह छवि इतनी स्टीरियोटाइप है कि आम जनमानस को यह लगता है कि मदरसों में बच्चों को केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है, कुरआन पढाया जाता है, उनमें धार्मिक असहिष्णुता और घृणा के बीज बोये जाते हैं और दकियानूसी सोच भरी जाती है.

खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में जब भी मदरसों पर कोई रिपोर्ट दिखाई जाती है उसमें एक खास विजुअल को ही बार-बार चलाया जाता है जिसमें टोपी लगाये बच्चों को कतार में बैठकर जोर-जोर से धार्मिक ग्रन्थ पढते हुए दिखाया जाता है.

जारी...


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