लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत काम करने वाले संगठनों
की एक विशेषता यह भी होती है कि वे अपने इतिहास के बलबूते अपने जनाधार और सांगठनिक
ढांचे को मजबूत करने की कोशिश करते हैं। इस दृष्टि से लोकतंत्र में संगठनों का
इतिहास उनकी स्वीकार्यता और प्रासंगिकता को तय करने वाला एक बड़ा कारक होता है।
इसीलिये हम देखते हैं कि कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम के अपने गौरवशाली इतिहास से, कम्यूनिस्ट संगठन भगत सिंह और उस आंदोलन के
क्रांतिकारी विरासत और समाजवादी संगठन जेपी आंदोलन के इतिहास से लोगों को अपनी तरफ
आकर्षित करने की कोशिश करते हैं। अगर संगठनों की इस कार्यपद्धति को लोकतांत्रिक
व्यवस्था का मानक मान लिया जाये तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसका चुनावी
मोर्चा भाजपा कई मायनों में एक लोकतंत्र विरोधी संगठन साबित होते हैं। ऐसा
इसलिये कि यह एक मात्र ऐसा अनोखा संगठन है जो लगातार अपने इतिहास को झुठलाने और
छिपाने की कोशिश करता है। जिसका ताजा उदाहरण पिछले दिनों लखनऊ में संघ प्रमुख मोहन
भागवत द्वारा दिया गया बयान है जिसमें उन्होंने लोगों से 6 दिसम्बर की घटना को
भूलने की अपील की है। यहां गौरतलब है कि संघ परिवार और भाजपा के शीर्श नेतृत्व का
एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक तौर पर 6 दिसम्बर यानि इस संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा
चार सौ साल पुरानी बाबरी मस्जिद के विध्वंस को भूलने की अपील पहले भी करते रहे
हैं।
सवाल उठता है कि जिस बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने संघ और
भाजपा को राष्ट्रीय राजनीति और सत्ता के केंद्र में ला दिया, आखिर वह लोगों से उसे भूल जाने की अपील
क्यूं करते हैं? इसका एक सामान्य जवाब तो यह हो सकता है कि चूँकि
वह मामला कोर्ट में विचाराधीन था इसलिये बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक
लोकतंत्रविरोधी और आपराधिक कृत्य था। दूसरा चूंकि उस घटना के बाद हुये दंगों में
काफी लोग मारे गये और देश की जनता ने इसके लिये संघ और भाजपा को जिम्मेदार माना
इसलिये वह उसे भुलाने की अपील कर के जनता की निगाह में स्वयं को भी उस आरोप से
मुक्त करना चाहती है। लेकिन चूंकि संघ और भाजपा का अपने इतिहास के किसी महत्वपूर्ण
तथ्य को जनता से भुला देने की यह कोई पहली अपील नहीं है इसलिये यह सामान्य जवाब
संघ परिवार के विशिष्ट चरित्र से जुडे सवालों का जवाब नहीं हो सकता।
मसलन बाबरी मस्जिद की तरह ही संघ परिवार और भाजपा गुजरात
2002 की राज्य सरकार प्रायोजित मुस्लिम विरोधी हिंसा को भी जनता से भूलने की अपील
करते रहे हैं। जबकि इस घटना के बाद उत्पन्न हुये साम्प्रदायिक माहौल के बदौलत ही
नरेंद्र मोदी आज तक गुजरात के मुख्यमंत्री बने हुये हैं।
जाहिर है जिन आपराधिक कृत्यों से संघ और भाजपा व्यक्तिगत
तौर पर फायदे में रहते हों उन्हें सार्वजनिक तौर पर जनता से भूल जाने की अपील करना
उसकी रणनीतिक कार्यपद्धति का एक अहम हिस्सा है। लेकिन ऐसा क्यों है?
दरअसल एक विचारधारा के बतौर संघ परिवार दो स्तरों पर काम
करता है। पहला, आंतरिक और दूसरा, बाह्य। आंतरिक तौर पर वह एक सामंती और पिछडी चेतना का वाहक संगठन है जिसका
उदेश्य इस आधुनिक दौर में भारत को एक मध्ययुगीन नस्लवादी और अंधधार्मिक राष्ट्र
बनाना है। लेकिन चूंकि उसे एक आधुनिक समय जहां लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता
राजनीतिक व्यवस्था के मूल आधार हैं, में काम करना पडता है,
उसके लिये इस आधुनिक व्यवस्था को सूट करने वाला एक मुखौटा ओढना भी
मजबूरी हो जाता है। इसीलिये वो अपनी शाखाओं में 6 दिसम्बर को गौरव दिवस के बतौर
मनाता है लेकिन सार्वजनिक तौर पर कभी लाल कृष्ण आडवाणी उसे अपने जीवन का सबसे दुखद
दिन बताते हैं तो कभी सरसंघचालक उसे जनता से भूल जाने की अपील करते हैं।
संघ और भाजपा के इस अंतर्विरोधी कार्यपद्धति को समझने का
सबसे अच्छा उदाहरण भाजपा नीत राजग सरकार का कार्यकाल हो सकता है। मसलन, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने जब राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ के संस्थापक हेडगेवार की जीवनी प्रकाशित की तो उस पर संसद में काफी
सवाल उठे। विपक्ष ने जब हेडगेवार की पुस्तक ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन’ के उन हिस्सों पर सरकार
का स्टैंड जानना चाहा जिसमें उन्होंने मुसलमानों समेत गैर हिंदुओं से मताधिकार छीन
लेने की बात कही थी या हिंदुओं को हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाए से सबक सीख कर
भारत के मुसलमानों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करने का आह्वान किया था,
तब वाजपेयी सरकार ने जो प्रतिक्रियाएं दीं वह उसके इस कार्यपद्धति
का उत्कृष्ट नमूना है। मसलन, पहले सरकार ने सफाई दी कि यह
विचार हेडगेवार के हैं ही नहीं। लेकिन जब विपक्ष ने हेडगेवार की मूल पुस्तक ही
संसद में उद्धृत कर दिया तब सरकार ने पैंतरा मारा कि हेडगेवार के नाम से उस पुस्तक
को किसी और ने लिखा है। लेकिन जब उसका यह पैंतरा भी पिट गया तब उसने सफाई दी कि यह
हेडगवार के निजी विचार हैं और भाजपा और राजग सरकार उससे सहमति नहीं रखते। सरकार और भाजपा की यही स्थिति अटल बिहारी वाजपेयी के स्वतंत्रता आंदोलन
में निभाई गयी भूमिका के सवाल पर भी देखने को मिली। गौरतलब है कि संघ परिवार,
जिसकी स्वतंत्रता आंदोलन में कुल भूमिका द्वितीय विश्व युद्ध में
अंग्रेजों के लिये चंदा इकठ्ठा करना, साम्प्रदायिक माहौल बना
कर आजादी की लड़ाई को कमजोर करना और मुस्लिम लीग के साथ बंगाल में साझी सरकार
चलाना भर था, ने अटल बिहारी वाजपेयी को अचानक 1942 के भारत
छोडो आंदोलन से सम्बद्ध बता कर स्वतंत्रता सेनानी साबित करने की कोशिश की थी। संघ
की तरफ से प्रचारित किया गया कि वे आगरा के बटेश्वर तहसील में हुये ब्रिटिश सरकार
विरोधी क्रांतिकारी आंदोलन के नेता थे। लेकिन जब वरिष्ठ पत्रकार मानिनी चटर्जी ने
प्रमाणिक दस्तावेजों के साथ अंग्रेजी पत्रिका फ्रंटलाइन में साबित कर दिया कि
सच्चाई ठीक इसके उलट है तो भाजपा अपने घोषित स्टैंड से बैकफुट पर आ गयी। दरअसल हुआ
यह कि उक्त पत्रकार ने उन लीलाधर बाजपेयी को ढूढ निकाला जो उस आंदोलन के नेता थे
और जिन्हें अटल बिहारी वाजपेयी और उनके भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी के बयान के चलते
तीन साल की सजा हुयी थी। पत्रिका द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों जिसमें वाजपेयी
बंधुओं की गवाही और हस्ताक्षर भी थे, पर अटल बिहारी वाजपेयी
ने सफाई दी थी कि उस समय वे नाबालिग थे और उन्हें राजनीति की समझ नहीं थी। लेकिन यहाँ
गौरतलब है कि अटल बिहारी वाजपेयी 1939 तक संघ के समर्पित कार्यकर्ता बन चुके थे।
और उन्हीं द्वारा संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ‘आर्गनाईजर’ में 7 मई 1995 को लिखे एक
लेख के मुताबिक वे 1940, 1941 और 1942 में संघ कार्यकर्ताओं
के सबसे महत्वपूर्ण टेनिंग कैम्प ओटीसी कर चुके थे। जाहिर है अटल बिहारी
वाजपेयी ने बचकानेपन के बजाए संघ के उसी सिद्धांत के अनूरूप लीलाधर बाजपेयी के
खिलाफ गवाही दी थी जिसके तहत संघ आजादी की लडाई को न सिर्फ कमजोर करने में लगा रहा
बल्कि अंग्रेजों की ‘बांटों और राज करो’ की रणनीति का अलमबरदार भी बना रहा।
जाहिर है, आज अगर
संघ परिवार 6 दिसम्बर को भूलने की अपील करता है तो ऐसा किसी अपराधबोध या हृदय
परिवर्तन के चलते नहीं बल्कि अपनी रणनीतिक जरूरत के चलते कर रहा है।
शाहनवाज आलम स्वतंत्र पत्रकार/संगठन
सचिव पीयूसीएल, यूपी,
लेखक स्वतंत्र पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता
एवं राज्य प्रायोजित आतंकवाद के विशेषज्ञ हैं।
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