ब्लैक एंड ह्वाइट के जमाने में एक फिल्म आई थी बूट
पालिस। इस फिल्म में सौतेली मां की क्रूर निर्दयता की कहानी दिल को झकझोरती है। कैसे
मासूम बच्चे न चाहते हुए भी भीख मांगने के लिए मजबूर हैं। हालांकि वे इस पेशे को छोड़ना
चाहते हैं, लेकिन उन्हें
कहीं से इसके लिए प्रोत्साहन नहीं है। तब समाज में ऐसे लोग थे जो ऐसे नौनिहालों को
गले लगाकर अपनी संतान की तरह परवरिश करते थे। लिहाजा, फिल्म का
अंत सुखांत होता है। जमाना बदला। स्लमडॉग मिलेनियर फिल्म आई। नौनिहालों का शोषण धंधे
में बदल गया, मगर ऐसे बच्चों को गले लगा कर बचाने वाले नहीं बचे।
भीख मांगने का कारोबार करोड़ों में है। बच्चों को बहला-फुलसलाकर या गरीबों से खरीद
कर उन्हें बड़े शहरों में भीख मंगवाने का धंधा तेजी से फलफूल रहा है। ताजा उदाहरण ऐसे
शहर का है तो देश और दुनिया में आईटी हब के नाम से प्रसिद्ध बेंगलुरु है। बहुराष्ट्रीय
कंपनियों की चमक-धमक और विकास की तेज रफ्तार के बीच दूसरे का बचपन बेच मोटी कमाई के
धंधा का उजागर हुआ।
दिसंबर के मध्य में बेंगलुरु पुलिस ने भिखारी माफिया
के चंगुल से लगभग 3 सौ बच्चों को छुड़ाया। महानगरों की सड़कों पर गरीब मांओं की गोद
में भूखे, बीमार, लाचार
बच्चे और उनके द्वारा भीख मांगे जाने का दृश्य किस ने नहीं देखा होगा। यह अनुमान लगाना
मुश्किल है कि मासूम अपनी असली मां की गोद में है या किराए पर लाया गया है। बेंगलुरु
में जिन बच्चों को पुलिस ने छुड़ाया है, उनमें से अधिकतर दूसरे
राज्यों से अपहृत अथवा मां-बाप द्वारा बेच दिए गए या किराए पर दिए गए बच्चे थे। केवल
गरीबी के कारण ही बच्चे इस स्थिति में नहीं
पहुँच रहे हैं । क्रूरता यह है कि नशा करवाकर
मासूमों से भीख मंगवाने का संगठित धंधा चलाकर कुछ अपराधी कानूनी पंजे से दूर ऐश मौज
कर रहे हैं।
दो महीने से दो साल तक के अबोध बच्चों को नशे का
आदी बनाकर फिर किराए की मांओं की गोद में डाल दिया जाता है। ताकि ये भूख से रोएं नहीं
या किसी और की गोद में जाने की जिद न करे, बस अचेतन अवस्था में पड़े रहें और इनसे ऐसी स्थिति में रख कर भीख
मांगने में आसानी हो। पुलिस ने अब तक सिर्फ 3 सौ बच्चे छुड़ाएं हैं, लेकिन सैकड़ों और बच्चे अभी भी ऐसे गिरोहों के चंगुल में फंसे हो सकते हैं।
छुड़ाए गए बच्चों में कर्नाटक के अलावा आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़
और राजस्थान के बच्चे भी थे। इन बच्चों को बेहद बुरी हालत में पुलिस ने पाया। कई घंटे
बाद ये बच्चे होश में आ पाए और इनमें से अधिकतर भूखे थे।
आंकड़ों के मुताबिक सालाना साठ हजार बच्चों की गुमशुदगी
की रिपोर्ट पुलिस के पास दर्ज होती है। इनमें से कितने बच्चे अपने मां-बाप के पास सुरक्षित
पहुंचते होंगे, कहना कठिन है।
लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पुलिस, गैर सरकारी संगठनों
व अन्य कल्याणकारी संस्थाओं की मदद जिन बच्चों तक नहीं पहुंच पाती होगी, जिन्हें आपराधिक संगठनों के चंगुल से नही बचाया जाता होगा, उनका भविष्य क्या होता होगा और इनसे बनने वाले देश का भविष्य क्या होगा?
हो सकता है राज्य सरकारों की कार्रवाई से कुछ लोग
कानून के फंदे में आ जाएं। किंतु अभी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है। एक समाचारपत्र
ने अपने संपादकीय में इस घटना पर तीन सवाल उठाया। बच्चों को नशा करवा कर उनसे भीख मंगवाने
जैसे गंभीर अपराध करने वालों के लिए कितनी कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि यह केवल भीख मंगवाने का
अपराध और मासूमों की जिंदगी की बलि देकर अपनी जेब भरने का धंधा भर नहीं है,
बल्कि उन मासूमों को नशे की दुनिया में धकेलने का क्रूर खेल भी है,
जिन्होंने अभी ठीक से आंखे खोलकर दुनिया देखना भी नहीं सीखा है।
दूसरा सवाल, गरीबी के कारण समाज में पनपने वाले अपराध को समाजशास्त्रीय,
राजनीतिक और आर्थिक नजरिए से परख कर उसका निदान किस तरह नीति-नियंता
करेंगे? तीसरा सवाल यह है कि विकास की चमक से चौंधियाई हमारी
आंखे समाज में पनप रहे इस अंधकार को कब तक अनदेखा करती रहेंगी?
बेंगलुरु में ऐसे गैंग का पर्दाफाश तब हुआ जब कुछ
गैरसरकारी संस्थाओं की शिकायत पर पुलिस ने कार्रवाई की। ऐसे गैर-सरकारी संस्थाओं को
कार्य समाज में सम्मान के योग्य हैं। इनसे प्रेरणा लेकर व्यक्तिगत स्तर पर भी बच्चों
का बचपन बचाने के लिए हरसंभव कोशिश के संकल्प से नये साल का शुभारंभ किया जा सकता है।
क्या आप ले रहे हैं बचपन को एक छांव देने के प्रयास का संकल्प ?
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