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हुकूमत में आने के बाद यूपीए सरकार ने सच्चर कमिटी का गठन
किया था ताकि मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक हालत का अंदाजा लगाया जाए। यह इस तरह
की पहली कमिटी नहीं थी। २६ साल पहले भी गोपाल सिंह कमिटी का गठन किया गया था। उसकी
रिपोर्ट को इंदिरा गांधी सरकार ने न तो पार्लियामेंट में पेश किया और न ही छापा।
जब वी.पी. सिंह सरकार हुकूमत में आई तो कमिटी की रिपोर्ट पार्लियामेंट में पेश हुई, लेकिन उसकी सिफारिशों को लागू नहीं किया
गया। अब सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के साथ क्या होगा, यह तो
वक्त ही बताएगा। वैसे सरकार के पास जो आंकड़े मौजूद हैं और समय-समय पर जो सर्वे
होते रहते हैं, उनके बाद किसी खास कमिटी को नामजद करने की
जरूरत नहीं होनी चाहिए थी।
सरकार समय-समय पर क्यों मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक
हैसियत का अंदाजा लगाने के लिए कमिटियां बनाती है और फिर सिफारिशों को अमल में
नहीं लाती? इसकी वजह जानने के लिए दो
हकीकतों को समझना जरूरी है। पिछले सौ बरसों से मुसलमानों के रहनुमाओं का रोना रहा
है कि उनकी कौम की हालत बेहद पिछड़ी है जिसकी जिम्मेदारी सरकार पर है, क्योंकि मुसलमान भेदभाव के शिकार रहे हैं और उनका पिछड़ापन सरकार की इसी
साजिश का नतीजा है। मुसलमान रहनुमा इस बहस को इसलिए नहीं चलाते कि कौम की भलाई में
उनकी दिलचस्पी रही है बल्कि इसलिए कि यह बहस चला कर वे सरकार से कुछ सुविधाएं
हासिल कर सकें। मुसलमान अपनी मासूमियत में इस खेल को समझ नहीं पाते और उम्मीद लगा
बैठते हैं कि शायद सरकार अब उनके लिए कुछ करेगी। यह न अब तक हुआ है और न ही आगे
होने जा रहा है।
दूसरी वजह सियासी है। यह मुल्क अलग-अलग समुदायों और जातियों
से बना है। किसी एक समुदाय के दम पर कोई भी पार्टी हुकूमत में नहीं आ सकती, उसे कई फिरकों और जातियों का एक गठजोड़
खड़ा करना पड़ता है। चूंकि मुसलमानों की इस लिहाज से अहमियत है इसलिए कई पार्टियां
उन्हें साथ लाना चाहती हैं। जब पार्टियों और खासतौर से कांग्रेस को गुमान होता है
कि मुसलमान उससे दूर हट रहा है, तो वह एक कमिटी बना देती है,
ताकि उन्हें उम्मीद बंधे कि सरकार उनकी समस्याओं को तवज्जो देने जा
रही है।
यह सोच लेना आसान है कि इस पिछड़ेपन के लिए मुसलमानों के
प्रति सरकार और समाज का रवैया ही जिम्मेदार है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है
कि आजादी के बाद से इस मुल्क में मुसलमान भेदभाव के शिकार रहे हैं और पिछले कुछ
बरसों में भेदभाव की फिजा में इजाफा हुआ है। लेकिन आसानी से यह नतीजा निकाल लेना
कि मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए भेदभाव की फिजा ही जिम्मेदार है, सही नहीं है। उनका पिछड़ापन तारीखी है और
आजादी के पहले से चला आ रहा है। इसलिए गौरतलब सवाल यह है कि क्या इस पिछड़ेपन की
वजह मुसलमानों की सोच और सामाजिक ढांचा भी है?
आमतौर पर मुसलमान सोचते हैं कि सभी मुसलमान एक हैं और उनके
अंदर जात-बिरादरी की बुनियाद पर भेदभाव नहीं है। मुसलमान रहनुमा इस बात को छिपाते
हैं लेकिन असलियत यह है कि मुसलमान न सिर्फ सामाजिक तौर पर बंटे हुए हैं, बल्कि उनमें जातियों और बिरादरियों का फर्क
भी है। इसकी वजह से कुछ मुसलमान हैसियत की बुनियाद पर खुशहाल हैं, जबकि कुछ मुसलमान, खासतौर पर नीची जाति और
बिरादरियों से ताल्लुक रखनेवाले न सिर्फ पिछड़े हैं बल्कि मुल्क की तरक्की की
पेशकश से भी फायदा नहीं उठा पाए हैं। आर्थिक तौर पर कमजोर, तालीम
से महरूम और छोटे-छोटे कारोबार से जुड़े ये मुसलमान तरक्की के रास्तों की पहचान भी
नहीं कर पाए।
सच्चर कमिटी ने इस सामाजिक हकीकत की ताईद की है। शायद
इसीलिए कमिटी ने सिफारिश की है कि मुसलमानों की बेहतरी के लिए एक खास अप्रोच
कामयाब नहीं हो सकती। जरूरत इस बात की है कि कई अलग-अलग तरीके अपनाए जाएं, ताकि अलग-अलग फिरकों के मुसलमानों की
समस्याओं का हल निकाला जा सके। यह जरूरी नहीं कि सिर्फ एक ही जरिए से सभी की
तरक्की का रास्ता खुले। जो मुनासिब हो और जिसकी जरूरत हो, उसके
हिसाब से रास्ता तय किया जाए।
मुसलमानों को रिजर्वेशन की मांग पहले से रही है। कुछ लोग इस
रिपोर्ट से इसकी उम्मीद कर रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिलहाल पिछड़े मुसलमानों को ओबीसी कोटे का फायदा मिल
रहा है। अगर सभी मुसलमानों के लिए रिजवेर्शन हो जाता, तो
उन्हें अगड़ों से मुकाबला करना पड़ता और नुकसान उठाना पड़ता। सच्चर कमिटी ने
दलितों जैसे काम में लगे मुसलमानों को रिजर्वेशन की सिफारिश की है, जो मेरे हिसाब से ठीक है। १९५२ के इगेक्युटिव ऑर्डर में मुसलमान दलितों को
रिजर्वेशन से बाहर छोड़ दिया गया है। इसमें सुधार होना चाहिए। इसके अलावा मुसलमान
ओबीसी की लिस्ट को बड़ा कर उन सभी जमातों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए, जो जरूरतमंद हैं।
जहां तक तालीमी पिछड़ेपन का सवाल है, उसे दूर करना तरक्की में मुसलमान की
साझेदारी बढ़ाने के लिए जरूरी है। लिहाजा मुसलमान रहनुमा पुरजोर मुहिम चलाएं कि
तालीम सभी को मिले। इसके लिए मुसलमान रहनुमाओं और खास तौर पर उल्मा हजरात के लिए,
जो दीनी तालीम को ही अहम समझते हैं, अपनी सोच
को बदलना जरूरी है। सरकार स्कूल खोल सकती है और दाखिलों में रिजर्वेशन दे सकती है
लेकिन अगर मुसलमान का रुझान तालीम में नहीं है तो तालीमी पिछड़ापन दूर नहीं हो
सकता है। जब तक लोगों में सूरतेहाल बदलने का जज्बा नहीं उजागर होता है, उनके हालात नहीं बदल सकते।
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