देश की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अगले कुछ
हफ्तों में जम्हूरियत के सबसे बड़े जश्न यानी चुनावों में शामिल होने जा रहा है।
पर क्या आपको कहीं भी उत्सव का माहौल लगता है? हर तरफ सिर्फ और सिर्फ कीचड़ उछाला जा रहा है। संसार के सबसे
बड़े लोकतंत्र की यह विडंबना है कि हमें हर बार इसी कीचड़ और सड़ांध से गुजरकर
चुनावों में शामिल होना पड़ता है।
होना तो यह चाहिए था कि सभी राजनीतिक दल मतदाता
के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड रखते। जो सत्ता में हैं, वे कहते कि हुकूमत के अपने
दिनों में हमने इतने जनकल्याणकारी कार्य किए और उनसे प्रदेश के लोगों की जिंदगी
में यह फर्क आया। ऐसा नहीं हो रहा। लगभग हर सूबे में राजनेता एक सी चाल चल रहे
हैं। राज्यारोहण के शुरुआती तीन साल में वे अपने निहित स्वार्थों में लिप्त रहे।
पिछले दो साल में उन्होंने तथाकथित लोक
कल्याणकारी घोषणाओं की झड़ी लगा दी। कोई दलितों के उत्थान की बात कर रहा है, तो किसी को मुस्लिमों को
आरक्षण रास नहीं आ रहा। कहीं इस बात पर विवाद है कि केंद्र ने राज्य को अरबों
रुपये दिए, पर उसकी मशीनरी इसे खा गई। विपक्ष के लोग भी ऐसे
ही वैचारिक लकवे के मारे हुए हैं। वे यह नहीं बता रहे कि जन कल्याण की खातिर
उन्होंने विभिन्न सदनों में कितने सवाल उठाए, कितने आंदोलन
किए और कितनी बार जेल गए। दुर्भाग्य देखिए। आज बहुत से ऐसे नेता पक्ष और विपक्ष
में हैं, जिन्होंने बाकायदा पुलिस की लाठियां खाई हैं और
जेलों में भी रहे हैं। लंबे संघर्ष के बाद वे इस ऊंचाई तक पहुंचे हैं, पर अब वे अपनी भूमिका भूल गए हैं। बहुत चालाकी से सियासी बाजीगरों ने अपने
लिए सहूलियत के तमाम आश्रय बना लिए हैं। इसलिए उन्हें इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता
कि वे सत्ता सदन के अंदर हैं या बाहर।
मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल बड़े राज्यों
के 90 प्रतिशत नेताओं को न जाने किससे जान का खतरा है? उन्हें हरदम अजीबो-गरीब
भाव-भंगिमा वाले सुरक्षाकर्मी घेरे रहते हैं। गांव के निरीह और भोले मतदाता इसे
अपने नेता की शान समझते हैं और अक्सर पढ़े-लिखे लोग भी इसे जायज ठहराने की कोशिश
करते हैं। पिछले 31 दिसंबर की रात को बीमा कंपनी के एक मॉडर्न मैनेजर ने मुझसे कहा
कि अरे साहब, अमुक जी तो राजा हैं। वह अपनी विरासत भला किसे
सौंपेंगे? अपने बेटे को या दामाद को। इसमें बुरा क्या है?
हमारे हिन्दुस्तान में तो हजारों साल से ऐसा ही होता आया है। संयोग
से मैनेजर साहब उसी जाति में जन्मे हैं, जिसके उनके नेता
अगुवा माने जाते हैं। मेरे मन में सवाल उठा कि जब तक इस तरह के लोग हमारे बीच हैं,
हम जम्हूरियत में जनता के सच्चे प्रतिनिधि को चुन ही कैसे सकते हैं?
यही वजह है कि इन चुनावों को मैं निजी तौर पर
आम आदमी की परीक्षा मानता हूं। अदना-सा माना जाने वाला वह आम आदमी ही है, जिसकी वजह से यह देश है और
जिसकी ताकत के बूते पर हमारे हुक्मरां कहते हैं कि हम एक दिन संसार की सबसे बड़ी
आर्थिक शक्ति बनेंगे।
यही वे लोग हैं, जिन्होंने एक विकासशील देश को विकसित देशों की दौड़ में लाकर
खड़ा किया है। यही वे लोग हैं, जिनके पुरखे कभी रामराज्य में
रहते थे और जिनके सपनों में अभी तक ‘त्रेता’ की वह हुकूमत रची-बसी है। वे हर नेता
में राम देखते हैं और हर बार छले जाते हैं। यह समय है, जब हम
अपने द्वारा ही बनाए वंचनाओं के किले को तोड़ें और अपने माथे से निरीहता के दाग धो
डालें। भूलिए मत कि आपकी पहचान का एक हिस्सा आपका नेतृत्व भी है। जरा सोचिए,
कैसे हैं हमारे नेता?
केंद्रीय सतर्कता आयुक्त ने फरवरी, 2011 में सुप्रीम कोर्ट को
बताया था कि हमारे 153 सांसद दागी हैं। इनमें से 74 के खिलाफ गंभीर आरोप हैं। 2002
में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में करीब 200 दागी लोग विधायक चुने गए।
अगले चुनावों में हालात थोड़े से सुधरे। इस बार आपराधिक कृत्यों-वारदातों के आरोपी
139 लोग एमएलए बने। इनमें से 73 के खिलाफ बेहद गंभीर आरोप हैं।
अफसोस इस बात का है कि सभी पार्टियों ने ऐसे
लोगों को टिकट दिए। इनमें से तमाम तो मंत्री भी रहे। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं
है। मायावती अब तक अपने 21 मंत्रियों को बर्खास्त कर चुकी हैं और लगभग सौ मौजूदा
विधायकों के टिकट काट चुकी हैं। तो क्या इससे यह मान लें कि राजनीतिज्ञों का
दागियों से मोहभंग हो गया है?
ऐसा नहीं है। बाबू सिंह कुशवाहा का उदाहरण ले
लीजिए। फर्श से अर्श पर पहुंचे ये श्रीमंत जब बसपा से निकाले गए, तो भाजपा ने इन्हें गले से लगा
लिया। इसके बाद ‘औरों से अलग’ होने का दावा करने वाला यह दल एक और नए दलदल में जा
फंसा है। बहुत दिन नहीं हुए, जब भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं
में एक लालकृष्ण आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत यात्रा पर निकले थे।
कुशवाहा के खैर-मकदम के बाद पार्टी के तमाम आला
नेताओं से जवाब देते नहीं बन रहा है कि यह कदम क्यों उठाया गया? उनके समर्थक कह रहे हैं कि वह
कुशवाहा जाति के नेता हैं और इससे पार्टी का भला होगा। पर क्या उत्तर प्रदेश का
कुशवाहा समाज ऐसे लोगों को अपना नेता मानता है? क्या बाबू
सिंह जैसे लोग वाकई अपनी जातियों का कुछ भला करते हैं या वह सिर्फ खुद को और अपने
आकाओं को लाभ पहुंचाते हैं?
एक उदाहरण। फूलन देवी को जब समाजवादी पार्टी ने
लोकसभा की चौखट में दाखिल कराया था, तब कई सवाल उठे थे। सांसद बनने से पहले वह ‘दस्यु सुंदरी’ के
नाम से जानी और मानी जाती थीं। तब कहा गया था कि वह मल्लाहों की प्रतिनिधि हैं।
क्या फूलन ने लोकसभा में जाने के बाद ऐसा कोई काम किया, जिससे
उनकी जाति को कोई लाभ हुआ हो? अगर नेता अपनी जातियों को लाभ
पहुंचा रहे होते, तो यह देश कहां का कहां होता।
यहीं सवाल उठता है कि क्या इन पांच राज्यों के
लोग एक बार फिर खुद को सियासी ठगों के हवाले कर देंगे? तर्को-कुतर्को की इस काली आंधी
के बीच मुझे उम्मीद के तमाम तारे टिमटिमाते नजर आते हैं।
अपना एक अनुभव साझा करना चाहूंगा। बिहार के
पिछले विधानसभा चुनावों में मैंने दजर्नों लोगों से पूछा था कि आपकी नजर में फैसले
कैसे होंगे? सबने जातियों
पर आधारित घिसे-पिटे पुराने मुहावरों का इस्तेमाल किया था। मेरा हरेक से सवाल होता
था कि लगभग 30 साल पहले मैंने पहला चुनाव ‘कवर’ किया था, तब
भी इसी तरह की बातें होती थीं, क्या इक्कीसवीं सदी के भारत
में कुछ नहीं बदला है? परिणाम आए, तो
सब चौंक गए। जीत तरक्की की चाहत की हुई थी और नीतीश कुमार इसमें प्रतीक पुरुष के
तौर पर उभरे।
मुझे लगा था कि जातियों, फिरकों और तबकों में बंटा हुआ
हमारा समाज कितना भी रूढ़िवादी लगे, पर वैचारिक प्रगति हमारी
परंपरा है। आइए, इस चुनाव में पूरी दुनिया के सामने इस सच को
एक बार फिर उजागर करें।
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