उत्तर प्रदेश में भीषण चुनाव महासंग्राम छिड़
चुका है। राज्य की राजनीति में सक्रिय सभी राष्ट्रीय,क्षेत्रीय व कई नवगठित
क्षेत्रीय दल चुनाव मैदान में अपनी भूमिका निभाने को तैयार हैं। तरह-तरह के प्रयोग
किए जा रहे हैं। सत्तारुढ़ बहुजन समाज पार्टी अपने पूरे शासनकाल के दौरान भले ही
घोर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप क्यों न झेलती रही हो परंतु अब यही पार्टी
जनता को स्वयं भ्रष्टाचार विरोधी दिखाई देना चाहती है। इस सिलसिले में पार्टी ने
कई मंत्रियों व विधायकों को पार्टी से बाहर भी निकाल दिया है। जिनमें सबसे प्रमुख
नाम बाबू सिंह कुशवाहा का है जोकि राज्य सरकार में चंद दिनों पहले तक मुख्यमंत्री
मायावती के अति विश्वासपात्र व विशेष सहयोगी मंत्री के रूप में जाने जाते थे। इसके
अतिरिक्त मायावती ने राज्य को चार हिस्सों में बांटने का भी एक शगूफा चुनाव पूर्व
छोड़ दिया है। उन्हें उम्मीद है कि यह शगूफा भी उन्हें लाभ पहुंचाएगा। उधर
समाजवादी पार्टी ने राज्य के बाहुबली नेता डी पी यादव को आज़म खां की इच्छा के
बावजूद पार्टी में शामिल करने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि सपा भी अब अपने आप
को दबंगों व बाहुबलियों की पार्टी नहीं कहलवाना चाहती। इन सबके बीच भारतीय जनता
पार्टी राज्य में पूरी तरह दिशा विहीन नज़र आ रही है तथा स्वयं को मज़बूत करने की
खा़तिर वह इन दिनों एक ऐसे ‘राजनैतिक कूड़ेदान’ के रूप में अपनी पहचान बना रही है
जिसमें कि किसी भी संगठन का कोई भी भ्रष्ट या अपराधी प्रवृति का निष्कासित नेता
पनाह ले सकता है। जैसा कि पिछले दिनों बाबू सिंह कुशवाहा व कुछ अन्य बसपा से
निष्कासित नेताओं के भाजपा में शामिल होने के वक्त देखने को मिला। खबर तो यहां तक
है कि बाबू सिंह कुशवाहा ने भाजपा में शामिल होने के लिए पार्टी के कुछ नेताओं को
बहुत मोटी रकम भी भेंट चढ़ाई है।
वहीं कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी उत्तर
प्रदेश में गत् दो वर्षों से इस प्रयास में लगे हैं कि किसी प्रकार वे दलितों व
मुस्लिमों के कांग्रेस के पारंपरिक रहे वोट को पार्टी से पुन: जोड़ सकें। इसके लिए
कभी कांग्रेस बुनकरों को विशेष पैकेज दे रही है तो कभी राहुल गांधी दलितों के घरों
में जाकर अपनी रातें गुज़ारते हैं। उन्ही के हाथों का बना खाना खाते हैं व उन्हीं
के घर में हैंडपंप के पानी से नहाते हुए दिखाई देते हैं। गोया यह सारी कवायद केवल
इसीलिए की जा रही है ताकि सभी दल मतदाताओं को यह समझा सकें कि वही उनके सबसे बड़े
हितैषी हैं। जनता को लुभाने के प्रयास केवल इन्हीं प्रमुख राजनैतिक दलों द्वारा
नहीं किए जा रहे हैं बल्कि इस बार के विधानसभा चुनावों में कई नवगठित व छोटे स्तर
पर बनाए गए राजनैतिक दल भी अपनी अहम भूमिका निभाने की फिराक़ में हैं। ऐसे छोटे
राजनैतिक दलों का एक नया गठबंधन भले ही राज्य में अधिक सीटें जीतने में कामयाब न
हो परंतु इतना तो ज़रूर लगता है कि यह नया गठबंधन राज्य की कम से कम 200 विधानसभा
सीटों के चुनाव परिणामों को प्रभावित ज़रूर कर सकता है।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख अजीत
सिंह के नेतृत्व में गत् वर्ष प्रदेश में एक राज्यस्तरीय गठबंधन ‘लोक क्रांति
मोर्चा’ के नाम से गठित किया गया था। इस गठबंधन में आठ क्षेत्रीय पार्टियां समिलित
थीं। इनमें राष्ट्रीय लोकदल, पीस पार्टी ऑफ इंडिया, एकता दल, इंडियन जस्टिस पार्टी, भारतीय लोकहित पार्टी,
अति पिछड़ा महासंघ, शोषित समाज दल और लोकमंच
नामक क्षेत्रीय पार्टियां शामिल थीं। अपने गठन के मात्र 6 माह बाद ही यह मोर्चा
कमज़ोर पडऩे लगा और अजीत सिंह द्वारा कांग्रेस से हाथ मिलाने के बाद तथा उनके
केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने के पश्चात आख़िरकार यह मोर्चा धराशायी हो गया।
अब जबकि राज्य में चुनाव घोषित हो चुके हैं एक बार फिर नई क्षेत्रीय पार्टियों के
गठबंधन की कोशिशें तेज़ हो गई हैं। फिलहाल अब तक जिन तीन छोटे दलों ने आपस में हाथ
मिलाया है वे हैं पीस पार्टी ऑफ इंडिया, अपना दल तथा
बुंदेलखंड कांग्रेस। अभी तक इन तीनों दलों में हुए सीटों के बंटवारे के अनुसार पीस
पार्टी 230 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि अपना दल 130 सीटों पर तथा बुंदेलखंड
कांग्रेस 30 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
जहां तक पीस पार्टी का प्रश्र है तो डा० मोहमद
अयूब के नेतृत्व वाली यह पार्टी ‘ढोंगपूर्ण धर्मनिरपेक्षता’ का विरोध करती है तथा
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी तथा बहुजन
समाज पार्टी के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष चेहरे को चुनौती देती है। इसके अतिरिक्त डा० अयूब
का दावा है कि वे राज्य को गैर सांप्रदायिक व भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की योजना
व क्षमता रखते हैं। यहां यह बताना ज़रूरी है कि पीस पार्टी इस से पहले भी राज्य के
कई विधानसभा क्षेत्रों में व कई उपचुनावों में अपनी ताकत आज़मा चुकी है। इनमें कई
चुनाव क्षेत्र ऐसे भी थे जहां कि पीस पार्टी ने दूसरे व तीसरे स्थान पर रहकर अपनी
ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराई। गोरखपुर से लेकर सहारनपुर तक होने वाली पीस पार्टी की
सभाओं में अच्छी-खासी भीड़ भी जुटती देखी गई है जोकि राज्य के पारंपरिक राजनैतिक
दलों के लिए सिरदर्द व चेतावनी बनी हुई है। मज़े की बात यह है कि पीस पार्टी
इस्लामपरस्ती या मुस्लिम तुष्टीकरण की बात भी नहीं करती। बजाए इसके यह पार्टी
राज्य की सभी पूर्व सरकारों को बेनकाब करने तथा उनकी कथनी व करनी को उजागर करने व
उनके स्थान पर एक मज़बूत, कारगर व सक्षम विकल्प देने का दावा
पेश करती है।
पीस पार्टी के साथ दूसरा क्षेत्रीय दल अपना दल
है। जिसका नेतृत्व कृष्णा पटेल नाम के एक पिछड़े वर्ग के नेता के हाथ में है।
कृष्णा पटेल भी राज्य के पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में अपनी अच्छी पैठ रखते हैं।
पटेल भी राज्य के पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को काफी समय से यह समझाने की कोशिश कर
रहे हैं कि पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले राज्य के कई नेताओं द्वारा उन्हें
चुनावों के दौरान बार-बार ठगा जा रहा है। लिहाज़ा समय आ गया है जबकि वे संगठित
होकर अपने साथ हो रहे शोषण व अन्याय का मुकाबला करें। इसी प्रकार फिल्म जगत से
जुड़े राजा बुंदेला जिन्होंने कि गत् वर्ष मार्च के महीने में कांग्रेस से अपना
नाता तोड़ा वे भी अब बुदेलखंड कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना चुके हैं।
गौरतलब है कि राजा बुंदेला पहले कांग्रेस पार्टी में रहते हुए बुंदेलखंड मुक्ति
मोर्चा नामक एक ऐसे संगठन के अध्यक्ष थे जोकि अलग बुंदेलखंड राज्य के गठन की मांग
करने हेतु बनाया गया था। परंतु राजा बुंदेला के अनुसार जब उन्होंने देखा कि
कांग्रेस पार्टी अलग बुंदेलखंड राज्य के गठन में दिलचस्पी नहीं ले रही है तब
उन्होंने कांग्रेस पार्टी से नाता तोडक़र बुंदेलखंड कांग्रेस नामक अपना राजनैतिक दल
खड़ा कर लिया। और अब यही दल पीस पार्टी ऑफ इंडिया व अपना दल के साथ तीसरे गठबंधन
सदस्य के रूप में शामिल हो गया है तथा बुंदेलखंड क्षेत्र में तीस विधानसभा
क्षेत्रों पर चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहा है। यह गठबंधन राज्य में मुस्लिम अथवा
महिला मुख्यमंत्री बनाए जाने का भी हिमायती है।
आज़ादी के 67 वर्षों के बाद भी विकास के मुद्दे
को लेकर राज्य की जो स्थिति है वह किसी से छुपी नहीं है। आज रोज़गार की तलाश में
सबसे अधिक पलायन उत्तर प्रदेश से ही होता है। ज़ाहिर है राज्य में रोज़गार के अवसर
में कमी होने की वजह से ही ऐसा है। सांप्रदायिकता व जातिवाद भी इस राज्य की सबसे
खतरनाक ‘बीमारी’ है। ज़ाहिर है इन सब कमियों की जिम्मेदारी उन्ही राजनैतिक दलों की
है जो स्वतंत्रता से लेकर अब तक राज्य की सत्ता में रहे हैं। कहना गलत नहीं होगा कि
सत्तारुढ़ पार्टियों ने हमेशा ही आम मतदाताओं की भावनाओं से खिलवाड़ मात्र करने का
प्रयास किया है। कभी बाबरी मस्जिद गिराकर तो कभी रामजन्मभूमि के निर्माण को लेकर, कभी पुन: विवादित स्थल पर
मस्जिद बनवाए जाने के नाम पर तो कभी दलितों के उत्थान के नाम पर। कभी शहरों व
जि़लों के नाम बदलकर तो कभी चौराहों व पार्कों में अनावश्यक रूप से मूर्तियां
लगवाकर। इनमें से कोई भी काम ऐसा नहीं है जिससे कि किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष
का पारिवारिक या सामुदायिक विकास हो सके। आम लोगों में निर्भरता आ सके। लोगों को
रोज़गार, व्यापार, शिक्षा आदि के अवसर
मिल सकें। ऐसी सारी बातें लोकहितकारी होने के बजाए लोकलुभावनी मात्र ही हैं। ऐसे
में इस प्रकार के पारंपरिक हथकंडों से ऊब चुके राज्य के मतदाता आने वाले विधानसभा
चुनावों में क्या पै़सला लेंगे यह वास्तव में देखने योग्य होगा। हां यदि क्षेत्रीय
व छोटी पार्टियों के नवगठित गठबंधन ने राज्य के मतदाताओं तक अपनी बात सलीक़े से
पहुंचा दी व मतदाता इनके चुनावी एजेंडे से प्रभवित हो गए तो कोई आश्चर्य नहीं कि
उत्तर प्रदेश के यह विधानसभा चुनाव कुछ ऐसे परिणाम सामने लाएं जोकि पूरी तरह से
अप्रत्याशित हों।
तनवीर जाफरी
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