Thursday, May 03, 2012

आ केहू खराब नइखे, सबे ठीक बा...


nitish-kumar
जब भी किसी राज्य की सरकार बदलती है, समाज की आबोहवा करवट लेती है। भले ही इस करवट से कांटे चुभे या मखमली गद्दे सा अहसास हो, परिर्वतन स्वाभाविक है। बिहार में नीतीश से पहले राजद का शासन था। जब लालू प्रसाद का शासनकाल आया था तब भी कमोबेश वैसे ही सकारात्मक बदलाव की सुगबुगाहट थी, जैसे नीतीश कुमार की सत्ता में आने पर हुई।

लालू के पहले चरण के शासनकाल में दबी-कुचली पिछड़ी जाति का आत्मविश्वास बढ़ा। उन्हें एहसास हुआ कि वे भी शासकों की जमात में शामिल हो सकते हैं, लेकिन धीरे-धीरे लालू के शासन से लोग बोर होने लगे। प्रदेश की विकास की रफ्तार जड़ हो गई। लोग उबने लगे। नई तकनीक से देश-दुनिया में बदलाव का दौर चला। बिहार की जड़ मनोदशा में भी बदलने की सुगबुगाहट हुई। जनता ने रंग दिखाया। राजद की सत्ता उखाड़कर नीतीश को कमान सौंपी।

नीतीश के पहले दौर के शासन और अब के माहौल में खासा अंतर है। विकास की तेज रफ्तार पकड़ कर देश दुनिया में नया कीर्तिमान रचने वाले राज्य की वर्तमान हालात जानने के लिए अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में घटित कुछ घटनाओं को देखिये।

गोपालगंज जिले के जादोपुर थाना क्षेत्र के बगहां गांव में पूर्व से चल रहे भूमि विवाद को लेकर कुछ लोगों ने एक अधेड़ की पीटकर हत्या कर दी। एक अन्य घटना में गोपालगंज जिले के ही हथुआ थाना क्षेत्र के जुड़ौनी नाम की जगह पर एक छात्र को रौंदने वाले जीपचालक को भीड़ ने मार-मार कर अधमरा कर दिया। जीप में आग लगा दी। अधमरे जीप चालक के हाथ-पांव बांधकर जलती जीप में फेंक दिया। तड़पते चालक ने आग से निकल कर भागने की कोशिश की तो भीड़ ने फिर उसे दुबारा आग में फेंक दिया। एक तीसरी घटना देखिये-गोपालगंज के ही प्रसिद्ध थावे दुर्गा मंदिर परिसर में आयोजित पारिवारिक कार्यक्रम में भाग लेने आई एक महिला का उसके दो मासूम बच्चों के साथ अपहरण कर लिया गया।

जिस तरह चावल के एक दाने से पूरे भात के पकने का अनुमान लगाया जा सकता है, उसी तरह से बिहार के एक जिले की इन घटनाओं से 'सुशासन' में प्रशासनिक व्यवस्था की पोल खुल जाती है। बिहार पर केन्द्रित 'अपना बिहार' नामक समाचार वेबसाइट पर प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 25 अप्रैल को विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचार के अनुसार अलग-अलग घटनाओं में कुल 19 हत्या, 29 लूट और चोरी और दो बलात्कार की घटनाएं हुर्इं। जरा गौर करें, जिस समाज में एक ही दिन में 19 हत्या हो, भीड़ कानून को हाथ में लेकर एक व्यक्ति के हाथ-पांव बांध कर जिंदा आगे के हवाले कर दे, संपत्ति के लिए अधेड़ को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दे, क्या ये मजबूत होते 'सुशासन' के लक्षण हैं।

सुनियोजित और संगठित आपराधिक कांडों के आंकड़े भले ही बिहार में कम हुए हैं, लेकिन आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने वाली क्रूरता जनमानस से निकली नहीं है। इन दिनों सबसे ज्यादा पचड़े किसी न किसी तरह से संपत्ति मामले को लेकर हैं।

लालू राज में बिहार की बदतर सड़कें कुशासन की गवाह होती थीं। अब यही सड़कें नीतीश के विकास की गाधा गाती हैं। इन सड़कों को रौंदने के लिए ढेरों नये वाहन उतर आए। आटो इंडस्ट्री को चोखा मुनाफा हुआ। सरकार की झोली में राजस्व भी आया, लेकिन सड़कों पर रौंदने वाले वाहनों के अनुशासन पर नियंत्रण कहां है। जितनी तेजी से सड़कें बनी हैं नीतीश के शासन में, उतनी ही तेजी से सड़क दुर्घटनाएं बढ़ीं हैं।

बिजली की समस्या बिहार के लिए सदाबहार रही। नीतीश के सुशासन में टुकड़ों-टुकड़ों में 6-8 घंटे जल्दी बिजली राहत तो देती है, लेकिन अभी यह बिजली किसी उद्योग को शुरू करने का भरोसे लायक विश्वास नहीं जगाती। विज्ञापन और सत्ता से अन्य लाभ के लालच में भले ही बिहार का मीडिया नीतीश के यशोगान में लगा है, लेकिन गांव के अनुभवी अनपढ़ बुजुर्गों से नीतीश और लालू के राज की तुलना में कौन अच्छा है, पूछने पर चतुराई भरा जवाब मिलता है- ...आ केहू खराब नइखे, सबे ठीक बा...।

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