आज ईद है… पर पता
नहीं क्यों मुझे इस ईद में वो खुशी नहीं मिल रही है, जो खुशी बचपन में हुआ करती थी.
महंगाई ने तो ईदी देने की परंपरा को भी लगभग समाप्त कर दिया है. मुझे याद है कि
बचपन में हमारा सारा दिन पैसे गिनने में निकल जाता था. जब लोगों की आमदनी हज़ार
रूपये भी नहीं होती थी, तब उस ज़माने में हमें दो-तीन हज़ार
रूपये आसानी से मिल जाते थे. पर अफसोस आज तो अभी तक बोहनी भी नहीं हुई. काश अब्बू
होते तो हाथ में दो-चार सौ रूपये ज़रूर होते…
न जाने क्यों, ईद के
नमाज़ के बाद से ही कहीं जाने को दिल नहीं है. तन्हाई में फेसबुक पर ईद की झूठी खुशियां
दोस्तों से शेयर कर रहा हूं. पता नहीं क्यों, मुझे यक़ीन ही नहीं
हो रहा है कि आज सुबह मैंने ईद की नमाज़ पढ़ी है…
मैं अतीत की उन यादों में खो जाता हूं, जिन्हें मैं कभी
याद करना नहीं चाहता…
आज भी मुझे वो तमाम दृश्य
याद हैं. सारे के सारे दृश्य किसी फ़िल्म की भयानक सीन की तरह मेरे दृष्टि-पटल पे चल
रहे हैं. दिमाग कभी हर शॉट को जूम इन कर रहा है तो कभी जूम आउट… कभी आँख कैमरे की तरह
पैन करते हुए किसी ख़ास शॉट पर आकर रुक जाती है, और कभी-कभी शॉट इतने जूम आउट हो
जाते हैं कि कैमरे की तरह आंखों के सामने अँधेरा छा जाता है.
22 सितम्बर 2007… रात
के आठ बजने को थे. अचानक लोगों की भीड़ इधर-उधर भागना शुरू कर देती है… तमाम दुकानों
के शटर गिर चुके थे… घरों के दरवाज़े बंद हो रहे थे… भागो… भागो… ठहरो… ठहरो… की आवाजें
फिज़ा में गूंज उठती है… लोग एक-दुसरे से पूछ रहे थे कि क्या हुआ….? क्यूँ
हुआ…? कैसे हुआ…? आदि-अनादी.
“नारे-तकबीर, अल्लाहो-अकबर”
की सदा गूंज उठती है. फिजा की कैफियत बदल जाती है. भीड़ पागल हो चुकी थी. मैं आगे बढ़ने
की कोशिश कर रहा हूँ. एक व्यक्ति शफ़क़त भरे लहजे में कहता है- आगे मत बढो…! खतरा हो
सकता है. मैं खतरा मोल लेते हुए आगे बढ़ता जाता हूँ. गोलियों के तड़तड़ाहट की आवाज़
साफ़ सुनाई दे रही थी. मैं वापस पीछे की ओर भागता हूँ. भीड़ से हटने के बाद मैं ख़ुद
को आंसुओं में पाता हूँ. मैं पीछे हटता जाता हूँ. लेकिन आंसों गैस के गोले मेरा पीछा
नही छोड़ रहे हैं…
सैकडों-हजारों लोग सड़को
पर तरह-तरह की बातें कर रहे हैं… पुलिस ने कुरान की बेहुरमती की… पुलिस ने जान बुझ
कर ऐसा किया होगा… मेरा ख्याल है कि अनजाने में हो गया… सब सरकार करा रही है… हाँ!
तुम सही कह रहे हो, इलेक्शन नज़दीक आ रहे हैं… ये लो नमक! हिम्मत
हारने की ज़रूरत नहीं… लोग पागल हैं… खामोशी के साथ मामले को हल कर लेना चाहिए…
तभी देखता हूँ कुछ लोग
एक ज़ख्मी नौजवान को ठेले पर भीड़ की तरफ ला रहे हैं. इसे तुंरत नज़दीक के एक डिस्पेंसरी
में दाखिल कराया जाता है. लोगों की भीड़ उग्र हो चुकी थी. एक पुलिस वाले को पीट-पीट
कर अधमरा कर दिया. इलाके के तीनों थाने आग के हवाले…
हालात इतने गंभीर हो
चुके थे कि कुछ कहा नहीं जा सकता. बी.बी.सी. के पत्रकार मित्र (जो उस समय मेरे साथ
ही थे) ने कहा कि- आप अपना हैंडीकैम ले आओ. फिर मैं एक पत्रकार मित्र के साथ हैंडीकैम
लेकर हाज़िर हो गया. तब तक ख़बर आई कि तीन और लोगों को गोली लगी है, उन्हें
पास के होली फैमली हॉस्पिटल में भरती कराया गया है. खैर मैं रिकॉर्डिंग करने लगा. मेरे
यहाँ का हर शॉट बहुत खास था. कैमरा देख कर लोगों में और जोश भर आया. एक बार फिर नारे
लगने लगे थे.
तभी अचानक सैकडों लोगों
की भीड़ हमारे तरफ़ बढ़ने लगी… इससे पहले मुझे दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया जाता कि
कुछ लोग मेरी हिफाज़त में खड़े हो गए. दरअसल, ये मेरे लिए अल्लाह के फ़रिश्ते
थे. खुद पीटते रहे, लेकिन मुझे एक खरोंच तक नहीं आने दिया. उधर
लोग कुछ ज्यादा ही उग्र हो चुके थे.
मारो… मारो… जासूस है…
मीडिया का आदमी है… नहीं! नहीं! पुलिस का आदमी है… अरे नहीं यार! ये अपना लड़का है…
अरे यहीं रहता है… नहीं! मारो साले को… कैमरा छीन लो… तोड़ दो साले को… अरे पागल हो
गए हो क्या… ये अपना बच्चा है… जाओ अपना काम करो… अरे ऐसे कैसे छोड़ दे साले को… हमारी
तस्वीरें ले रहा था हरामी…
मुझे कुछ समझ में नहीं
आ रहा था कि मैं क्या करूँ? मेरे पैरों तले की ज़मीं खिसक चुकी थी. दिल
की धड़कने अपने-आप रुकने लगी. मैं समझ चूका था कि आज बचने वाला नहीं… या तो मैं बचूंगा
या अपने कैमरे की कुर्बानी देनी होगी. फिर अचानक अंतिम हथकंडे के रूप अपने कैमरे से
कैसेट निकाल कर उनके हवाले कर दिया. जिसका उन्होंने एक-एक एटम अलग कर दिया होगा. फिर
सैकडों लोग अपनी सुरक्षा में मुझे मेरे घर सही-सलामत पहुंचा दिया. मैंने खुदा का शुक्रिया
अदा किया.
मेरे मोबाइल की घंटी
के बजने का एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ,जो छोटे बच्चे की तरह चुप होने का
नाम ही नहीं ले रही है. क्या हो रहा है… हालात कैसे हैं… ये सुनने में आ रहा है… वो
सुनने में आ रहा है… एक टेलीविजन चैनल वाले का कैमरा छीन लिया गया है… एक रिपोर्टर
को लोगों ने मार दिया… पुलिस ने मीडिया को भगा दिया… तुम कैसे हो… ज्यादा काबिल मत
बनो… चुपचाप कल की ट्रेन से वापस घर आ जाओ… ज्यादा हीरो बनने की ज़रूरत नहीं है…
बाहर अभी भी भागो… भागो…
ठहरो… ठहरो… नारे-तकबीर की सदा बुलंद हो रही थी. पुलिस भीड़ पर काबू पाने में कामयाब
हो गयी. सैकडों लोगों को गिरफ्तार किया जा चूका था. जिन में अभी कुछ की तादाद में लोग
जेलों में सड़ रहे हैं. हो सकता है कि शायद वो निर्दोष हों…
माफ कीजिएगा…. मेरा इरादा
आपको अपनी कहानी सुनाने का कतई नहीं था. मैं जज़्बात की रौ कहां से कहां बह गया कि
मुझे मालूम नहीं चला.
मैं आज यह सोचने पर मजबूर
हूं कि मैं तो खुदा की मेहरबानी से बिल्कुल सही-सलामत हूं. मेरी मां व घरवाले भी मुझसे
खुश हैं कि चाहे मैं साल भर जहां रहूं पर ईद व बकरीद में अपने घर पर ज़रूर होता हूं.
पर ज़रा सोचिए! उन घरों के हालात क्या होंगे, जिनके बेगुनाह बच्चे दहशतगर्दी के
इल्ज़ाम में कई सालों से जेलों में सड़ रहे हैं. उन मांओं का हाल क्या होगा जिनके घरों
के लोग दंगों के शिकार हो गएं. कश्मीर के उन 8 हज़ार मांओं के दिल पर क्या गुज़र रही
होगी, जिनके बच्चे कई सालों से गायब हैं.
मुझे इस मौके पर अपने
फिल्म ‘ईदियान’ के हर शॉट की याद आ रही है, जिसे हमने दो साल पहले अपने दोस्तों
के साथ शूट किया था. हालांकि फिल्म का हर शॉट बनावटी था, पर पता
नहीं क्यों मुझे हर शॉट खून के आंसू रूला रहे हैं. मैं उस मां के दर्द को नहीं भूल
पा रहा हूं, जो ईद के दिन अपने अरशद की याद में पागल है.
मैं अपने फिल्म का कैरेक्टर
सदफ को नहीं भूल पा रहा हूं, जो सिर्फ 7 साल की है, लेकिन हालात इस कम उम्री में भी न जाने कितना बड़ा बना दिया है. वो अपने चाचा
से मिले ईदी को इसलिए संभाल कर रखती है कि जब अरशद भाई जान आएंगे तो उनके साईकिल खरीदूंगी…
न जाने ऐसी कितनी मांएं व बहने इस दुनिया में होंगी, पता नहीं
उनकी ईद कैसे गुज़र रही होगी.
खैर, मुझे
जाना होगा… मेरी मां मुझे आवाज़ दे रही है… मैंने अपनी आंखों के आंसू पोंछ लिए हैं,
क्योंकि मैं अपनी मां की आंखों में आंसू नहीं देखना चाहता… पर वादा है
कि मैं इस ईद में मिलने वाली ईदी को अपने उपर खर्च नहीं करूंगा… बल्कि किसी मज़लूम
मां के हक़ की लड़ाई में लगा दूंगा… इंसानियत के नाम पर खर्च करूंगा… कभी लोगों को
धर्म के नाम पर लड़ने नहीं दूंगा… बल्कि लोगों को बताउंगा कि इंसानियत ही सबसे बड़ा
धर्म है… और शायद ईद का यही मक़सद भी है…
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