प्रदर्शन के दौरान कई शहरों में लोग हिंसा पर उतर
आए. प्रदर्शनकारियों ने मीडिया के लोगों पर हमले किए, कई जगह गाड़ियों और दुकानों में
आग लगाई, औऱ कई जगहों पर लूटमार के वाकये हुए.
सांप्रदायिक हिंसा में मुसलमान निशाना बनते रहे
हैं. एक हफ्ते पहले मुंबई में ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान मुसलमानों का हुजूम हिंसा
पर उतरा तो पुलिस पर हमले और महिला पुलिस के साथ यौन हिंसा से लेकर आजादी के झंडा बुलंद
करने वालों की यादगार की बेइज्जती कर डाली.
आए थे असम के हालात को उजागर करने और खुद ही खबर
बन गए.
असम में पिछले हफ्तों के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा
हुई है. प्रेक्षक कहते हैं कि आजादी के बाद शायद ये सबसे बड़े दंगे हैं जिनमें करीब
चार लाख लोग बेघर हो गए हैं. दंगों के करीब एक महीने के बाद भी इस वक्त कम से
कम तीन लाख लोग राहत शिविरों में पनाह लिए हुए हैं. इनमें से ज्यादातर मुसलमान हैं.
ये कभी अपने घरों को लौट सकेंगे, ये कोई नहीं जानता.
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में
लिखा है कि सोचे-समझे हमलों के बाद मुसममानों के घरों को लूटा गया और उसके बाद उनके
गाँवों को पूरी तरह जला दिया गया, और ये लोग अपने घरों को दोबारा नहीं लौट सकेंगे.
अवैध घुसपैठियों का मसला इस इलाके के लिए गंभीर
मामला है लेकिन हर पार्टी इसे हल करने की बजाए इसे अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल
करती आई है और इसमें मजहबी नफरत का पहलू भी शामिल है.
भारत के मीडिया ने असम में भयानक जुल्म की खबरें
नहीं छापी. इन रिलीफ कैंप्स की तस्वीरें कहीं-कहीं ही दिखी है.
भारत की संसद पर असम की हालत पर जब भी बहस हुई है
तो विपक्ष की ये दलील इस बात पर ध्यान केंद्रित करती रही है कि इस हिंसा के पीछे बांग्लादेशी
घुसपैठियों का हाथ है और वो भारत के इस हिस्से पर कब्जा करने के लिए एक साजिश के तहत
कई करोड़ की तादाद में असम और पड़ोसी राज्यों में आकर आबाद हो गए हैं.
अगर भाजपा और दूसरी दक्षिणपंथी हिंदू पार्टियों
के प्रचार पर नजर डालें तो उनके मुताबिक बांग्लादेश की एक-तिहाई आबादी इन रियासतों
में गैर-कानूनी तौर पर दाखिल हो चुकी है. और ये करोड़ों लोग सिर्फ रोजगार की तलाश में
ही भारत नहीं आए हैं, बल्कि
ये भी कि ये धार्मिक उन्माद फैलाने की भावना से आए हैं.
इन दंगों का विश्वेषण करते हुए मौजूदा चुनाव आयुक्त
ने एक अखबार में लिखा है कि असम के 27 जिलों में से 11 के हालात गंभीर हो चुके हैं
और वहाँ मुसलमानों की तादाद इतनी बढ़ गई है कि वहाँ उनकी मौजारिटी हो गई है.
वहीं असम मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि ये
दावा गलत है कि मुसलमानों की जनसंख्या में बहुत ज्यादा बढोत्तरी हुई है और क्या मुसलमानों
की संख्या मात्र बढ़ने से वहाँ हालात खराब हो सकते हैं?
मीडिया ने असम की असलियत को तो नहीं दिखाया लेकिन
सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर असम से जुड़ी झूठी-सच्ची तस्वीरें जरूर छपी हैं और जब
मुसलमान इन तस्वीरों को देखते हैं तो वो कभी मुंबई तो कभी लखनऊ, तो कभी कानपुर तो कभी इलाहाबाद
की सड़कों पर निकल आते हैं और जसबात में बहकर हिंसा पर उतर आते हैं.
वो ऐसे लोगों को निशाना बनाते हैं जिनका इससे कोई
लेना-देना नहीं है.
लोकतंत्र में हक की लड़ाई सिर्फ लोकतांत्रिक और
शांतिपूर्वक तरीकों से ही जीती जा सकती है. मुसलमान पढ़ाई, स्वास्थ्य, कारोबार सहित दूसरे क्षेत्रों में सबसे निचले स्तर पर हैं इसलिए वो जुल्म और
जज्बात की लड़ाई का शिकार हैं.
बीबीसी संवाददाता
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