फैसले पर अखबारों, चैनलों और नेट पर काफी बहस चल रही है। जैसा कि इन माध्यमों में होता है, बहस सतही और गंभीर दोनों स्तर की है। उसके विस्तार में हम नहीं जाएँगे। लोगों की नजर में न्यायपालिका की मान्यता और फैसले की संतुलित प्रकृति ने शुरू में स्वागत और खुशी का माहौल पैदा किया। सामान्यतः माना गया कि फैसला अच्छा है, न किसी की जीत है, न किसी की हार। लेकिन जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि फैसला न न्यायपालिका की मान्यता के अनुकूल है, न संतुलित। वे तथ्य, जो न्यायपालिका के फैसलों का आधार होते हैं, हैं नहीं, यह फैसला तो आस्था और विश्वास पर तथा संतुलन/समन्वय नहीं बहुसंख्यावाद पर आधरित है। यह भी जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि फैसला देने वाले तीन न्यायाधीशों में से एक धर्मवीर शर्मा ने फैसले की जगह आर.एस.एस का पेंफलेट जैसा लिखा है और बाकी के दो न्यायाधीशों सुधीर अग्रवाल और यू.एस खान ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज की ‘आस्था के तर्क’ के सामने सिर झुकाया है।
मजेदारी देखिए, न्यायाधीश शर्मा कहते हैं कि तोड़ा गया ढाँचा मस्जिद नहीं थी क्योंकि उसका निर्माण इस्लाम के सिद्धांतों को दरकिनार करके किया गया था। जाहिर है, उन्हें रात के अँधेरे में कपट-पूर्वक मस्जिद में मूर्तियाँ रखना, संतो-साध्वियों का चोला पहने ‘रामभक्तों’ द्वारा अश्लीलतम भाषा में मुसलमानों के खिलाफ खुलेआम घृणा फैलाना, उन्मादी भीड़ को आगे करके अपनी मौजूदगी में मस्जिद तोड़ना और उसकी सजा से बचने के लिए हर तरह का झूठ-फरेब करना हिन्दू धर्म के सिद्धांतों के मुताबिक लगता है! संघ संप्रदाय जिसे आस्था मानता है उस पराजित मानसिकता के उन्माद का शिकार न्यायाधीश स्तर के लोग भी होते हैं तो इससे ज्यादा गंभीर संकट की स्थिति नहीं हो सकती।
फैसले को बारूदी सुरंग हटाने जैसा जोखिम भरा काम मानने वाले न्यायाधीश यू.एस-खान तो भयभीत नजर आते हैं। जिस देश में जज भयभीत हों वहाँ सामान्य नागरिकों का हाल समझा जा सकता है। न्यायालय की तरफ से संदेश है कि अब सबको डर कर रहने की जरूरत है।
‘विधर्मियों’ को ही नहीं, हिन्दू धर्म के संघी संस्करण को नहीं मानने वाले सभी आस्तिक-नास्तिक भारतीयों को भी। कैसी विडंबना है, मठों और मंदिरों पर कट्टरता की चोट पड़ने के बावजूद मध्यकाल में धर्म का लोकतंत्र बना रहता है, लेकिन आधुनिक न्यायपालिका कट्टरता के पक्ष में फैसला देती है। यह सही है कि न्यायालय के बाहर सामाजिक-राजनैतिक समूह और संस्थाओं द्वारा लंबे समय तक किसी सुलह पर नहीं पहुँचने के बाद न्यायालय ने यह ‘पंचायत’ की है। लेकिन यह पंचायत, वह उदार धारा के मद्देनजर और हक में भी कर सकता था। उससे दबा दी गई उदार धारा को उभरने और बढ़ने का मौका मिलता जो भारतीय राष्ट्र और समाज के लिए अनिवार्य है। अफसोस कि न्यायालय भी कट्टरता वादी बहाव में बह गया।
स्पष्ट है कि फैसले ने लालकृष्ण आडवाणी और उनके नेतृत्व में संतों-साध्वियों द्वारा फैलाए गए सांप्रदायिक उन्माद और फिर मस्जिद के ध्वंस को सही ठहरा दिया है। आर.एस.एस खुशी से पागल है, जो कहता था कि न्यायपालिका के फैसले को कभी स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि वह जानता था कि फैसला अगर वाकई न्यायपालिका का होगा तो संपत्ति के स्वामित्व को लेकर होगा, जन्मस्थान को लेकर नहीं। संघ संप्रदाय की यह बड़ी सफलता है कि न्यायपालिका उसकी दबोच में आ गई है। वरना वह उसे ही अपने रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा मानता था। अब वह खुल कर और पूरे उत्साह से अन्य संस्थाओं को दबोचने का काम करेगा। न्यायालय ने हिन्दू-राष्ट्र के लिए संजीवनी और पहले से ही लड़खड़ाते भारतीय राष्ट्र के लिए विखंडन का आदेश लिख दिया है।
कोई राष्ट्र भौगोलिक रूप से एक रहते हुए भी अंदरखाने टूटा हुआ हो सकता है, आज का भारत उसकी एक ज्वलंत मिसाल है। जाति और लिंग जैसे परंपरागत कटघरों एवं गरीब और अमीर भारत के विभाजन के अलावा उसमें और भी कई टूटें सिर उठाए देखी जा सकती हैं। इन टूटों को अक्सर पुरातनता और गरीबी के मत्थे मढ़ दिया जाता है। लेकिन आधुनिकता और अमीरी का अमृत छकने वाले मध्यवर्ग में भी राष्ट्रीय एकता के प्रति सरोकार दिखावे भर का है। वह खुद निम्न, मध्य और उच्च के सोपानों में विभाजित प्रतिस्पर्धी गुटों का अखाड़ा बना हुआ है। कट्टरता की ऐसी करामात है कि भारत में बुद्धिजीवी और कलाकार तक गिरोहबंदी चलाते हैं। कहने का आशय यह है कि भारतीय राष्ट्र को विखंडित करने वाली कट्टरता का फैलाव केवल संघ संप्रदाय तक सीमित नहीं है।
1950 में लोहिया लिखते हैं, ‘‘आज हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिंदू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिंदू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है, उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान देगा जो पाँच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए हैं। कोई हिंदू-मुसलमान के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। उदार और कट्टर हिन्दू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुँच गई है और संभव है कि उसका अंत भी नजदीक ही हो। कट्टरपंथी हिन्दू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो, भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे, न सिर्फ हिन्दू, मुस्लिम की दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिन्दू ही राज्य को कायम कर सकते हैं।’’ वे आगाह करते हैं, ‘‘अतः पाँच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गई है कि एक राजनैतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिन्दुस्तान के लोगों की हस्ती इस बात पर निर्भर है कि हिन्दू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो।’’
लोहिया ने इस निबंध में एक जगह यह भी कहा है कि देश में एकता लाने की भारत के लोगों और महात्मा गांधी की आखिरी कोशिश की आंशिक सफलता को पाँच हजार सालों की कट्टरपंथी धाराएँ मिल कर असफल बनाने के लिए जोर लगा रही हैं। उनके विचार में ‘‘अगर इस बार कट्टरता की हार हुई, तो वह फिर नहीं उठेगी।’’ लेकिन भारत के शासक वर्ग ने कट्टरता को मारने के बजाय भारत के लोगों और गांधी को मारने का काम चुना जो आज भी जारी है। उसने ऊपर से जो भी फँू-फाँ की हो, जैसे कि समाजवाद या रोशनी बुझ गई आदि, वह कट्टरता के साथ जुट कर खड़ा हुआ। शासक वर्ग का पिछलग्गू, जो अब उसका हिस्सा ही है, आधुनिक बुद्धिजीवी-वह पूँजीवादी हो या साम्यवादी या तटस्थ? सादगी और शांति के विचार की भ्रूण-हत्या करने के लिए आमादा रहता है। उसी तरह जिस तरह भारत का पढ़ा-लिखा खाता-पीता मध्यवर्ग बालिकाओं की भ्रूण-हत्या करता है। गांधी को मारने की इस परिघटना की विस्तृत पड़ताल हमने अपनी आने वाली पुस्तक ‘हम गांधी को क्यों मारते हैं?’ में करने की कोशिश की हैं।
कट्टरता की जीत के इस फैसले का विरोध जरूरी है और आशा करनी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय इसे अस्वीकार करेगा। उसके लिए जनमत बनाया जाना चाहिए। लेकिन यह काम गंभीरतापूर्वक सोच-समझ कर करने का है। विरोध के जो ज्यादातर स्वर सुनाई पड़ रहे हैं वे कट्टरता को हराने के बजाय अपने विमर्श या विचारधारा को जिताने की नीयत से ज्यादा परिचालित लगते हैं। कट्टरता को यह माफ़िक पड़ता है। ऐसे में वह उदारता की ताकत को भी अपने भीतर खींच लेती है। ऐसे माहौल में उदारता के फलने-फूलने को आकाश नहीं बचता। क्या हम कट्टरता से पूरित भारतीय सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में किसी रामकृष्ण परमहंस या गांधी की उत्पत्ति की कल्पना कर सकते हैं? कट्टरता तो फिर भी उन्हें एप्रोप्रिएट करती है, लेकिन उसके मुकाबले के दावेदार कहेंगे कि परमहंस और गांधी को न केवल पैदा नहीं होना चाहिए, बल्कि उनके पैदाइश से पैदा हुए प्रभावों को भी नष्ट करने का काम तेजी से होना चाहिए। भारत के सेकुलर और कट्टरपंथी दोनों खेमों का यह प्रण है। इस प्रण में दलितवादी और स्त्रीवादी शामिल हैं। मायावती का हाथी, जैसा कि उनकी सरकार ने न्यायालय को बताया, हिन्दू धर्म की कट्टरतावादी धारा का मजबूत वाहक और उसे पूँजीवादी कट्टरता से जोड़ने वाला है।
यह कोई रहस्य नहीं है। ये सब आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के नवीनतम चरण नव-उदारवाद अथवा नवसाम्राज्यवाद के प्रकट अथवा प्रच्छन्न भक्त हैं। ओबामा की जीत पर उसके साथ जब ये सब चिल्लाए थे- ‘यस वी कैन’ - तो उनकी मुराद यही थी कि हम भी अमेरिका बन सकते हैं। हम भी मानते हैं कि ‘वे ही’ अमेरिका बन सकते हैं। बल्कि नकली-सकली ढंग के अमेरिकन वे बने भी हुए हैं और अपनी कूद-फाँद उन्हें दिखाते भी रहते हैं। गांधी, आधुनिक औद्योगिक सभ्यता, जो साम्राज्यवादी होकर ही संभव होती है, के विकल्प हैं। इस गांधी को छोड़ कर ‘उदार हिन्दू गांधी’ की बात कुछ नवउदारवादी यदा-कदा करते हैं। लेकिन वे भी जानते हैं कि उसका कोई अर्थ नहीं होता है। धार्मिक और नव उदारवादी कट्टरताएँ एक-दूसरे के कीटाणुओं पर पलती हैं।
देश में फैसले के खिलाफ जनमत बनाते वक्त यह जरूरी है कि संवैधानिक मूल्यों, धर्म निरपेक्षता, समाजवाद और लोकतंत्र के आधार पर फैसले का विरोध करने वालों की खुद की निष्ठा उनमें अक्षुण्ण हो। विशेषकर पिछले दो दशकों से संविधान के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है, उस पर सरसरी निगाह डालने से ही पता चल जाता है कि देश का शासक वर्ग, जिसमें अकेले संघ संप्रदायी नहीं हैं, की संविधान के प्रति निष्ठा दिखावे के लिए रह गई है। यहाँ तक कि बुद्धिजीवियों का सरोकार अपनी स्वार्थपूर्ति का रह गया है। किसी विधेयक, अध्यादेश, संशोधन, कानून आदि द्वारा संविधान की मूल भावना को नष्ट किए जाने पर भी बुद्धिजीवी सरकारों के साथ हो जाते हैं। बड़े-बड़े महारथी शिक्षा के बाजारीकरण का बीड़ा उठाने वाले सैम पित्रोदा और कपिल सिब्बल के अनुगामी बन गए हैं। बात वहीं आ जाती है, संविधान को चुनौती देने वाली कट्टरतावादी ताकतें और संविधान के पालन के नाम पर पलने वाला शासक-वर्ग देश की मेहनतकश जनता का साझा प्रतिपक्ष बना हुआ है। ऐसे में वह सांप्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय, गोत्रीय आदि कट्टरताओं का शिकार होता है तो दोष पूरा उसका नहीं होता।
भारत का बुद्धिजीवी-वर्ग संक्रमण की अवधारणा को रणनीति की तरह इस्तेमाल करता है। वह कहता है कि यह चीजों के सही दिशा में बढ़ने का संक्रमण काल चल रहा है। इस रणनीति के तहत आधुनिक दुनिया के करोड़ों लोगों की मौत और पीड़ाओं का औचित्य प्रतिपादित किया जाता है लेकिन अपनी कोई जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की जाती। संक्रमण की रणनीति को हटा कर देखा जाए तो कुछ बातें स्पष्ट हैं। पूँजीवाद और उसकी गाँठ में बँधा समाजवाद, वह एक पार्टी की तानाशाही वाला हो या एक से अधिक पार्टियों के लोकतंत्र वाला, कट्टरता को बढ़ाते और बलवान बनाते हैं। कट्टरता की अपनी परंपरा और पैठ तो है ही। इन हकीकतों को अनदेखा करके कट्टरता के विरोध के कर्तव्य तय नहीं किए जा सकते।
फैसले के बाद अशांति और हिंसा न फैलने की काफी तारीफ हुई है। कारण बताया गया कि भारत के लोग अब परिपक्व हो गए हैं। धर्म के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वालों की असलियत वे पहचान चुके हैं। उन्हें सांप्रदायिक भारत नहीं चाहिए। लोगों में पैदा हुए इस गुण को ज्यादातर ने नवउदारवाद की नियामत बताया है। यानी नवउदारवाद भारत के लोगों को सांप्रदायिकता से काट कर आर्थिक महाशक्ति से जोड़ता है। इसे उलट कर भी कह सकते हैं- भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने में जुटे लोगों के पास सांप्रदायिक ताकतों के लिए फुरसत नहीं है। शायद वे यह भी मानते होंगे कि नवउदारवाद के चलते लोगों को कुछ समय के लिए जो आर्थिक कष्ट झेलने पड़ रहे हैं, सांप्रदायिकता के राक्षस से मुक्ति पाने की वह बहुत छोटी कीमत है। बल्कि कल के लिए उनके दिमाग में यह कहने के लिए भी हो सकता है कि सांप्रदायिक कट्टरता को परास्त करने के लिए वे नवउदारवादी कट्टरता को झेलते जाएँ। वे तर्क देंगे, सांप्रदायिक कट्टरता पीछे और नवउदारवादी कट्टरता आगे ले जाने वाली है।
जो कहते हैं कि फैसले के बाद कोई दंगा नहीं हुआ, क्या वे कह सकते हैं कि फैसला हिन्दुओं के हक में नहीं आता तब भी वैसा ही होता? जो इस फैसले के बाद मुसलमानों से, फैसले के तहत हिस्से में आई जमीन को, छोड़ने और देश में लाखों जगहों पर लाखों मुकदमे दायर करने की ताल ठोंक रहे हैं, फैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के हक में आने पर क्या करते? क्या वे गारंटी दे सकते हैं कि मुस्लिम कट्टरता घात लगा कर वार नहीं करेगी?
कुछ सुधीजनों ने फैसले के बाद शांति कायम रहने के पीछे लोकतंत्र की मजबूती का तर्क भी दिया है। उनके मुताबिक हम इसी तरह अपने लोकतंत्र को मजबूत करते जाएँ तो सांप्रदायिकता से जल्दी ही मुक्ति पा लेंगे। सचमुच यह सोच आशा बँधने वाली है। कमियों और खामियों के बावजूद लोकतंत्र आशा का सबसे बड़ा आधार है। इस बिगड़े लोकतंत्र में भी पिछड़ी और दलित राजनीति आपस में मिल जाए तो संप्रदायवादी और नवउदारवादी कट्टरताओं पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। लेकिन थोड़ा ठहर कर सोचें, क्या नवउदारवाद की सेवा में जुटी लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में मजबूत कहा जाएगा? यह विस्तार से बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि देश में जो लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, वह कांग्रेस और भाजपा के वर्तमान और भविष्य की मजबूती का लोकतंत्र है। भारत के लोकतंत्र को लेकर मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी की एक राय है- देश में दो-कांग्रेस ओर भाजपा-पार्टियाँ रहनी चाहिए, बाकी क्षेत्रीय पार्टियों को इन दोनों में मिल जाना चाहिए।
उनकी यह मान्यता निराधार नहीं है। देश की अन्य पार्टियाँ बारी-बारी से कांग्रेस या भाजपा के साथ जुड़ती रहती हैं। दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक यही स्थिति है। नीतीश कुमार भाजपा का साथ नहीं छोड़ते कि कहीं रामविलास पासवान न लपक लें। समाजवादी पार्टी मस्जिद ध्वंस के उपनायक कल्याण सिंह के साथ मिल चुकी है। इधर राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा है कि राजद ने कांग्रेस का साथ छोड़ कर गलती की। माकपा पोलित ब्यूरो ने कहा ही था कि कांग्रेस से संबंध-विच्छेद करना घाटे का सौदा रहा। नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, एम. करुणानिधि, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू आदि नेता भाजपा-कांग्रेस से सुविधानुसार मिलते-बिछुड़ते रहते हैं।। माक्र्सवादी पार्टियों को भी कुछ सयाने लोग रास्ता दिखा रहे हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में वामपंथी धारा की प्रतिष्ठा हो चुकी है। लिहाजा, उन्हें कम से कम कांग्रेस के साथ मिलने से ऐतराज नहीं होना चाहिए। संदेश यह है कि सांप्रदायिकता से बचने के लिए लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप को बदलने की जरूरत नहीं है।
जिस तरह से एक स्थानीय विवाद को कट्टरतावादी ताकतों ने पूरे देश के स्तर पर फैलाया, समाज में सांप्रदायिकता और वैमनस्य का ज़हर घोला, पहले मुलायम सिंह के शासन में कारसेवकों की और पीछे कल्याण सिंह के शासन में मस्जिद-ध्वंस के बाद हजारों निर्दोष नागरिकों की दंगों में मौत हुई, केंद्र में भाजपा नीति सरकार बनी और स्वाभाविक रूप से कट्टरता का कारोबार बढ़ा, कृष्णा आयोग की रपट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, संघ संप्रदाय के कतिपय हिंदुओं ने आतंकवादी कृत्यों को अंजाम दिया, गुजरात दंगा हुआ, उसके बाद निर्दोष नागरिकों पर आतंकवाद का कहर टूटा, जम्मू-कश्मीर जंग का मैदान बना, 49 बार कार्यकाल बढ़ाए जाने के बाद लिब्राहन आयोग की रपट आई और संसद से लेकर सड़क तक पिटी, और अब यह फैसला आया। किस दिमाग से कहा जा रहा है कि लोग सांप्रदायिकता से हट गए हैं या हट रहे हैं? यह नव उदारवाद और उसकी सेवा में समर्पित लोकतंत्र को बचाने वालों का ही दिमाग हो सकता है।
भारत के सेकुलर खेमे में सांप्रदायिक कट्टरता का विरोध एक तदर्थ कर्तव्य जैसा माना जाता है। यह मानते हुए कि आधुनिकता के साथ धर्म निरपेक्षता भी स्थापित हो जाएगी। इसलिए धर्म और दर्शन की उदार धारा को समझने और बचाने की कोई जरूरत नहीं है। उदारता के नाम पर सरकारी कार्यक्रमों में गंगा-जमुनी तहजीब की बात कर लेना काफी है। अंततः आधुनिकता ही सब संकटों से बचाएगी, इस विश्वास के चलते तात्कालिक और फुटकर किस्म के उपायों से काम निकाला जाता है। संकट गहराने पर किए जाने वाले कार्यक्रमों में सेकुलर दायरे के विभिन्न समूहों का थोड़ा-थोड़ा साझा कर लिया जाता है। कट्टरता का कहर जब बलि लेकर चला जाता है, सब अपनी-अपनी कंदराओं में लौट जाते हैं। राजग सरकार बनने और फिर गुजरात में मुसलमानों का राज्य-प्रायोजित नरसंहार होने पर माक्र्सवादी विद्वान कुछ दूसरे समूहों से भी बात करने लगे थे। उन दिनों एक-दो वामपंथी पत्रिकाओं ने लोहिया का ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ निबंध भी प्रकाशित किया। लेकिन जैसे ही कांग्रेस सत्ता में आ गई, वे अपनी दुनिया में लौट गए।
दरअसल, इस मामले में कट्टरता की जीत का फैसला तो 6 दिसंबर 1992 को ही हो गया था। न्यायालय का फैसला उसकी ही एक अभिव्यक्ति है। आशा की जानी चाहिए कि सेकुलर खेमा, पहले की तरह, फैसले के विरोध के नाम पर सांप्रदायिक ताकतों की रस्मी भत्र्सना करके ही नहीं रह जाएगा। वह खुद भी अपनी समझ और रणनीति पर गंभीरता से विचार करेगा।
-प्रेम सिंह
मोबाइल- 09873276726
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोशिएट प्रोफेसर हैं)
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