कांग्रेस के महासचिव जनाब दिग्विजय सिंह ने मेरी किताब ‘‘आरएसएस की साज़िश-26/11?’’ के विमोचन समारोह में जहां एक शानदार और ऐतिहासिक भाषण दिया वहीं उसके कुछ वाक्य ऐसे भी थे जिन्हें मैंने अपने संबोधन का शीर्षक बनाना ज़रूरी समझा। मैं इस समय वही वाक्य आपके ज़हनों पर अंकित करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ख़ुदा के लिए इसे काग़ज़ और रोशनाई तक सीमित न रहने दीजिए, नक़्श कर लीजिए अपने दिल व दिमाग़ पर इसलिए कि आज़ाद भारत को पहली बार अपने देश पर किसी दुश्मन देश की सेना से नहीं, बल्कि एक आतंकवादी हमले का सामना करना पड़ा और वह भी सीमाओं पर नहीं बल्कि भारत की आर्थिक राजधानी समझे जाने वाले नगर मुंबई की उस बंदरगाह, जहां सैकड़ों वर्ष से पानी के जहाज़ आकर रुका करते थे और जहां आज भी गेटवे आॅफ़ इंडिया भारत की आन बान शान के तर्जुमान की हैसियत से खड़ा है। इससे कुछ क़दम के फ़ासले पर होटल ताज उस आतंकवादी हमले का केंद्र था और तिथि थी 26 नवम्बर 2008, मैं अपने आज के इस लेख में हमले से 3 घंटे पूर्व अर्थात केवल 180 मिनट पहले की एक टेलीफोन काॅल की चर्चा करने जा रहा हूं, जो शहीदे वतन हेमंत करकरे की काॅल थी और सत्ताधारी दल अर्थात कांग्रेस के महासचिव जनाब दिग्विजय सिंह के मोबाइल फोन पर थी। यह फोन किया था स्वयं शहीद हेमंत करकरे ने। मैं एक एक बात को अत्यंत स्पष्टता के साथ इसलिए दर्ज कर रहा हूं कि हर बात के कुछ मायने होते हैं। अगर यह फोन जनाब दिग्विजय सिंह द्वारा हेमंत करकरे को किया जाता तो बात कुछ और होती, इसका मतलब कुछ और होता, उसे हम एक संयोग क़रार दे सकते थे, लेकिन जब कोई व्यक्ति परेशान होता है, ग़मज़दा होता है या कभी कुछ महान व्यक्तियों को आने वाले समय का अंदाज़ा हो जाता है, जिससे उन्हें कुछ देर बाद गुज़रना होता है, तब उनकी आंखें तलाश करती हैं किसी ऐसे हमदर्द को जिससे जीवन के अंतिम क्षण में कुछ कह सकें। ऐसे वाक्य वसीयत का स्थान रखते हैं। आमतौर पर मृत्यु शय्या पर अपने जीवन के अंतिम क्षणों को निकट महसूस करते हुए हर व्यक्ति अपने सगे संबंधियों से अपने दिल की बात करता है और अगर कोई संदेश देना चाहता है तो ऐसे व्यक्ति का चयन करता है, जिसके द्वारा यह संदेश वहां तक पहुंच सके, जहां वह पहुंचाना चाहता है। हमारी न्याय पालिकाएं किसी भी व्यक्ति की मृत्यु पूर्व के अंतिम बयानको अत्यंत महत्वपूर्ण मानती हैं। उसे अंतिम सत्य क़रार दिया जाता है। इस लिहाज़ से शहीद हेमंत करकरे के उन वाक्यों को देखें, जो उन्होंने दिग्विजय सिंह को फ़ोन करके कहा, ‘‘मैं बहुत कष्टदायक अवस्था में हूं। मैंने अपने जीवन में इतना परेशान करने वाला दौर नहीं देखा। मेरा 17 वर्षीय बेटा जो विद्यार्थी है, उसे दुबई में एक बड़ा कन्ट्रेक्टर बताकर बदनाम किया जा रहा है। मेरे परिवार वाले जो नागपुर में हैं, उन्हें बम से उड़ा देने की धमकियां दी जा रही हैं।’’ और इस सबके लिए उन्होंने संघ परिवार को नामज़द किया था। फिर ज़हननशीं कर लें, संघ परिवार को नामज़द किया था। अपनी मृत्यु से केवल 3 घंटे पहले। अपनी जान को ख़तरे में बताया था। अपने सम्बन्धियों को बम से उड़ा दिए जाने की बात कही थी। अपने बेटे को 500 करोड़ रुपए के कान्ट्रेक्ट के झूठे आरोप में फंसाने की बात कही थी, और फिर हुआ मुंबई पर आतंकवादी हमला, जिसका पहला शिकार हुए शहीद हेमंत करकरे। मैं पहले गुफ़्तगू को यहीं समाप्त कर दूं, ताकि स्पष्ट हो जाए टेलीफोन पर की जाने वाली गुफ़्तगू कहां से कहां तक थी। इस हवाले में अंतिम वाक्य जो मैंने लिखा कि मुंबई पर आतंकवादी हमले का शिकार हुए शहीद हेमंत करकरे, यह मेरा वाक्य था और इससे पहले मैं जिन बातों की चर्चा कर रहा था वह शहीद हेमंत करकरे और जनाब दिग्विजय सिंह के बीच हुई गुफ़्तगू थी। मैंने अपनी किताब के विमोचन के अवसर पर अपना संक्षिप्त भाषण इसी शीर्षक के साथ आरंभ किया। मौक़ा नहीं था कि मैं विस्तार से उस समय इस अत्यंत महत्वपूर्ण वाक्य को सामने रख कर सभी घटनाओं के प्रकाश में यह ऐतिहासिक वास्तविकता उसी समय पेश कर देता, जो अब निम्नलिखित शब्दों द्वारा आपकी सेवा में पेश कर रहा हूं।
नरेमन हाउस वह स्थान था, जहां बुद्धवारापीठ पर समुद्र के किनारे पहुंचने वाले आतंकवादी नाव से उतरने के बाद सबसे पहले पहुंचे और जो यहूदी, इस्राईली रब्बी का निवास स्थान था। जैसे ही यह सूचना नरेमन हाउस तक पहुंची कि हेमंत करकरे इस आतंकवादी हमले में हताहत हो गए हैं, वहां मिठाइयां बांटी गईं। मैं ने अपने पिछले क्रमवार लेख ‘‘मुसलमानाने हिंद ह्न माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल???’’ की 100वीं क़िस्त ‘‘शहीद हेमंत करकरे की शहादत को सलाम’’ के शीर्षक से उस महान व्यक्ति को श्रधंाजली के रूप में पेश किया था। मिठाइयां बांटने वाली घटना विस्तार के साथ उस 100वीं किस्त में पेश की थी और अब अपनी नई पुस्तक ‘‘आरएसएस की साज़िश-26/11?’’ में भी। मैं एक और बात पहले दिन से ही कहता चला आ रहा हूं। निश्चिय ही मेरे पाठकों को याद होगा कि मैं अजमल आमिर क़साब के उस चित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाता रहा हूं, जो सीएसटी स्टेशन पर उसके हाथ में राइफ़ल लिए हुए है। कल 7/12/2010 के अंग्रेज़ी दैनिक ‘‘हिंदू’’ का समाचार मेरे सामने है जिसका अनुवाद पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करने जा हा हूं, जिसमें स्पष्ट शब्दों में दर्ज है कि क़साब ने उस चित्र को झूठा क़रार दिया है यह बात उसके वकील अमीन साॅलकर ने कही है और चित्र खींचने वाले सिबासेशन डिसोज़ा फोटो ग्राफर ने भी यह स्वीकार किया है कि हां यह संभव है अर्थात जो बात हमने 2 वर्ष पहले कह दी थी आज उस बात की पुष्टि हो रही है, जो बात हम लगातार पिछले 2 वर्षों से कहते चले आ रहे हैं, अगर शहीद हेमंत करकरे के वह अंतिम वाक्य जो जनाब दिग्विजय सिंह से उन्होंने स्व्यं फोन करके कहे, उन्हीं की ओर इशारा कर रहे हैं, जिनकी ओर हम करते रहे हैं तो फिर जांच उस दिशा में क्यों नहीं की जाती? मुलाहिज़ा फ़रमाएं ‘‘हिंदू’’ का यह समाचार, उसके बाद मेरा लेख जारी रहेगा।
पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल आमिर क़साब ने कहा है कि वह 26/11 मुंबई हमलों के दौरान छत्रपति शिवाजी रेलवे टर्मिनल और कामा हस्पताल पर मौजूद नहीं था। सोमवार के दिन उसने दावा किया कि जिन चित्रों में उसे और उसके साथी इस्माईल को उन स्थानों पर दिखाया गया, उनसे छेड़छाड़ की गई है। मुंबई हाईकोर्ट के जज साहिबान जस्टिस रंजन देसाई और जस्टिस आरवी मोरे को, जोकि क़साब की सज़ाए मौत की पुष्टि से संबंधित दलीलों की सुनवाई कर रहे हैं अधिवकता अमीन साॅलकर ने बताया कि ‘‘क़साब कामा अस्पताल पर आतंकवादी हमलों के समय उन स्थानों पर मौजूद नहीं था और उसके चित्रों से जो कि ट्रायल कोर्ट में पेश किए गए हैं छेड़छाड़ की गई है। ’’ क़साब अदालत में लगाए गए उस स्क्रीन पर भी नहीं आया था जोकि इसलिए लगाई गई थी ताकि वह आर्थर रोड जेल में, जहां वह इस समय क़ैदी है, मुक़द्दमे की कार्यवाही को सुन सके।
फ़ोटोग्राफ़र का बयान
श्री साॅलकर ने बताया कि मीडिया फोटोग्राफ़र सिबासेतन डिसोज़ा जिसने सीएसटी अर्थात छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर क़साब के चित्र खींचने का दावा किया था, जिरह के दौरान इस बात को स्वीकार किया है कि चित्र से छेड़छाड़ की जा सकती है। फिर भी हम इसके साथ ही साथ वह अपने पिछले बयान पर भी अड़ा रहा कि न्यायालय में दाख़िल की गई क़साब और इस्माईल की तस्वीरें असली हैं। श्री साॅलकर का कहना था कि श्री सिबासतेन डिसोज़ा (फोटोग्राफ़र) ने जांच के दौरान पुलिस को अपने कैमरे का मैमोरी कार्ड नहीं दिया था। उसके बजाए कुछ चित्रों की उन्होंने एक सीडी निकाली थी और उसे दक्षिणी मंुबई के फोर्ट क्षेत्र के एक प्राइवेट स्टूडियो से डेवलप कराया था। श्री सिबासतेन ने न तो उस स्टूडियो की कोई रसीद पुलिस को दी थी और न ही उस दुकान या उसके मालिक का नाम पुलिस को बताया था।
26/11 पर लिखने का यह सिलसिला अभी देर तक चलना है अतिसंभव है कि मेरे पिछले लेख ‘‘मुसलमानाने हिंद ह्न माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल???’’ की तरह मेरे इस क़िस्तवार लेख ‘‘आज़ाद भारत का इतिहास’’ की 200वीं क़िस्त भी इसी विषय पर हो, इसलिए कि यह फ़ासला भी अब अधिक दूर नहीं रह गया है। लेकिन आजका यह लेख समाप्त करने से पूर्व अगर मैं बनारस में हुए बम धमाके पर गुफ़्गू नहीं करूंगा तो बात अधूरी रह जाएगी यह, इसलिए भी कि कल सुबह (9 दिसम्बर 2010) मुझे प्रधानमंत्री के साथ बैल्जियम और जर्मनी की यात्रा पर जाना है और इस लेख की अगली कड़ी विदेश यात्रा से वापसी के बाद ही संभव है इसलिए उस समय तक अगर मैं बनारस पर हुए बम धमाके पर न लिखूं तो यह पुराना हो जाएगा।
इस समय में बनारस में हुए बम धमाके के मात्र 24 घंटे बाद इस लेख को अंतिम रूप दे रहा हूं और अब तक इस बम धमाके की सभी कड़ियां जुड़ चुकी हैं। अपराधियों के नाम सामने आ चुके हैं, मास्टर माइन्ड कौन है पता चल चुका है, उसका नाम सामने आ गया है, वह इस समय कहां छुपा है, साज़िश कब रची गई, सब कुछ हमारी ख़ु़िफ़या एजेंसियों ने पता कर लिया है। कितनी तीव्र गति से उन्होंने इस कारनामे को अंजाम दिया, मुबारकबाद के पात्र हैं वह। ‘‘इंडियन मुजाहिदीन’’ ने इस बम धमाके की ज़िम्मेदारी ली है। 4 पृष्ठों का वह लम्बा पत्र भी मौजूद है जो उन्होंने मीडिया को भेजा है, ईमेल नवी मुंबई से किया गया जिनकी ईमेल आईडी को हैक किया गया उन दोनों के नाम निखिल और अखिल तनरेजा हैं, जिन्हें हिरासत में लेकर कुछ देर बाद ही छोड़ दिया गया। कितनी बुद्धिमत्ता और ईमानदारी से अपना अपराध स्वीकार करने वाले आतंकवादी हैं यह, दुर्घटना के तुरंत बाद पूर्व इसके कि दुर्घटना की जांच की दिशा तय की जाए, अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं, वह भी दो चार पंक्तियों में नहीं, इतने लम्बे पत्र के द्वारा कि बम बनाने और उसे प्लांट करने के लिए जितना समय दरकार हो, उससे भी अधिक समय वह अपराध का स्वीकार करने के लिए लिखे पत्र में करते हैं। अपराध स्वीकार करने की इबारत में सबसे ऊपर लिखते हैं ‘‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’’ (शुरू करते हैं उस अल्लाह के नाम से जो निहायत रहम करने वाला है), अर्थात हद दरजे की बेरहमी के अपराध को स्वीकार करने वाले अपने पत्र के पहले वाक्य को अल्लाह जो रहम करने वाला है, उसके नाम से आरंभ करते हैं। अगर वह वास्तव में अल्लाह की प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं और अपने काम को जिहाद का नाम देना चाहते हैं तो फिर यह किस तरह संभव है। निश्चय ही पाठकों को याद होगा, मैंने 2 नवम्बर 2008 को लिखे अपने लेख का शीर्षक दिया था ‘‘इंडियन मुजाहिदीन क्या बजरंग दल का कोड नेम है?’’ आज फिर मैं अपनी ख़ुफ़िया एजेंसियों से यह सादर निवेदन करना चाहता हूं कि जब वह इंडियन मुजाहिदीन के इस अपराध की गहराई से पहुंचने का प्रयास करें तो अपनी जांच में इस पहलु को भी शामिल रखें, इसलिए कि संघ परिवार साज़िशें रचने में कितना माहिर है, इसका अंदाज़ा तो 20 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के तुरंत बाद ही हो गया था। अगर नाथुराम गोडसे पकड़ा न जाता और उसकी वास्तविक पहचान सामने न आई होती तो महात्मा गांधी की हत्या का संदेह मुसलमानों पर ही जाता। जगह कम है, इसलिए फिर बहुत विस्तार से लिखना संभव नहीं हो पा रहा है। नांदेड़ बम धमाकों के बाद मिली नक़ली दाढ़ी और टोपी का हवाला देकर अपनी बात समाप्त करता हूं, यह भी इसलिए था कि बम धमाके वह करें और संदेह मुसलमानों पर जाए। बनारस में शीतला घाट पर हुआ बम धमाका क्या ऐसी एक साज़िश का हिस्सा तो नहीं कि इस समय जब मालेगांव, अजमेर, समझौता एक्सपे्रस, मक्का मस्जिद, हैदराबाद में हुए बम धमाकों से संघ परिवार से जुड़े अपराधियों के नाम सामने आ रहे हैं तो उनकी ओर से ध्यान हटाने के लिए बनारस में बम धमाका करके इंडियन मुजाहिदीन के हवाले से कुछ मुस्लिम नामों को सामने रखा जा रहा हो कि फिर एक बार शक की सूई उस तरफ़ मुड़ जाए और बात फिर वही पहुंचे जहां से आरंभ हुई थी।
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