Thursday, December 30, 2010

अपराधी को निर्दोष तथा निर्दोष को अपराधी साबित किया जाता है

डॉक्टर बिनायक सेन को सजा के प्रश्न पर पक्ष और विपक्ष में बहस जारी है। मुख्य समस्या यह है कि पुलिस या अन्वेषण एजेंसी किसी भी मामले की विवेचना करती है। उसके पश्चात आरोप पत्र न्यायालय भेजा जाता है। संज्ञेय अपराधों में अभियुक्त को पुलिस गिरफ्तार कर मजिस्टरेट के समक्ष पेश करती है। वहीँ से शुरू होते हैं जमानत के मामले। देश के अन्दर जांच एजेंसियों की विवेचना का स्तर अत्यधिक घटिया है। जिस कारण अपराधी बेदाग छूट जाते हें और निर्दोष सजा पा जाते हें। स्तिथि बद से बदतर है, हत्या के अपराध में लोग आजीवन कारावास की सजा न्यायालयों से पा गए बाद में मृतक व्यक्ति जिन्दा होकर पुन: आ गया। अपहरण के मामलों में अक्सर होता है कि अपहरण हुआ भी नहीं लोग सालों जेलों में रहे और सजा भी पा गए। ब्रिटिश कालीन विधि में यह व्यवस्था थी कि जो भी शासन सत्ता के विरुद्ध जरा सा भी जाता था। उसको राजद्रोह जैसे अपराधों में गिरफ्तार कर न्यायालय से दण्डित करा दिया जाता था। ब्रिटिश कानून से ही भारतीय दंड संहिता पैदा हुई है। इसमें जगह-जगह बड़े आदमियों के अपराधों को लघु करने तथा लघु अपराध को गंभीर अपराध बनाने की व्यवस्था है। जो साफ़-साफ़ आये दिन दिखाई भी देती है। जब पुलिस चाहती है तो गंभीर अपराध को लघु अपराध घोषित कर देती है और जब चाहती है तो लघु अपराध को गंभीर अपराध घोषित कर देती है। जिससे निर्दोष को महीनो जेल में रहना पड़ता है और अपराधी को तुरंत जमानत मिल जाती है। न्यायालय में प्रक्रिया विधि चलती है और प्रक्रिया के तहत ही फैसले होते रहते हें। अपराधों की बढ़ोतरी को देखते हुए न्यायालय दरोगा की भूमिका में आ गए हैं और उनकी समझ यह है कि ज्यादा से ज्यादा सजा देकर हम अपराध का नियंत्रण कर रहे हैं। अभी तक न्याय व्यवस्था का मुख्य सिद्धांत है कि किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए चाहे अपराधी छूट जाए लेकिन अब इस सिद्धांत में मौखिक रूप से संशोधन हो चूका है निर्दोष व सदोष देखना उनका मकसद नहीं रह गया प्रक्रिया पूरी है तो सजा दे देनी है। देश में जब तमाम सारी अव्यस्थाएं है तो उनके खिलाफ बोलना, आन्दोलन करना, प्रदर्शन करना, भाषण करना आदि लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं हैं लेकिन जब राज्य चाहे तो अपने नागरिक का दमन करने के लिए उसको राज्य के विरुद्ध अपराधी मान कर दण्डित करती है। डॉक्टर बिनायक सेन जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ रहे आदिवासी कमजोर तबकों की मदद कर रहे थे और राज्य इजारेदार कंपनियों के लिए किसी न किसी बहाने प्राकृतिक सम्पदा अधिग्रहित करना चाहता है। उसका विरोध करना इजारेदार कंपनियों का विरोध नहीं बल्कि राज्य का विरोध है। इजारेदार कम्पनियां आपका घर, आपकी हवा, आपका पानी, सब कुछ ले लें आप विरोध न करें। यह देश टाटा का है, बिरला का है, अम्बानी का है। इनके मुनाफे में जो भी बाधक होगा वह डॉक्टर बिनायक सेन हो जायेगा।

यही सन्देश भारतीय राज्य, न्याय व्यवस्था ने दिया है।


-लोकसंघर्ष !

No comments:

Post a Comment