Saturday, January 29, 2011

आजादी के तीन रंगों से सजे रथ को अब नहीं ढो सकता एक पहिया


आजादी के तीन रंगों से सजे रथ को अब नहीं ढो सकता एक पहिया
आजादी के ६३ वर्ष पर भी आज यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या हम आजादी का सही मतलब जानते है! यदि सोचे तो पता चलेगा कि आजादी क्या है! क्या हम सही मायनों में आजाद है ? क्या हम ने आज भी सही मायने में आजादी का सही मतलब जाना है ! हमें तो अंग्रेजों से देश आजाद करा लिया पर हम अभी भी जातिवाद सत्तावाद, सामंतवाद, रूढ़ीवाद, भाषावाद, आतंकवाद और भ्रष्टाचार की अनगिनत बेड़ियों मे जकड़े है ! 
कही पर अन्य प्रदेश से आये हुए लोगो को इस लिया मारा जाता है कि वो उनकी वेश भाषा से अनभिज्ञ है !
तो कही लाचार बेबसों को आतकवाद और माओवादी कहकर मौत के घाट उतार दिया जाता है !
तो कही बेसहारो की झोपड़ पट्टियों  में आग लगा रहे है पूजीवादी !
तो कही मिनरल वाटर से मुंह धो रहे लोग है, तो कही एक बूँद पीने  के पानी को तरस रहे है लोग !
कही महिलाऊँ को अस्मिता के लिया मार दिया जाता है !
तो कही उन्हें प्रेम की सजा मृत्यु दंड दिया जाता है !
तो कही रोजगार के लिए  दर दर भटक रहे है लोग !
आज़ादी के 63 साल बाद भी औरत आज़ाद नहीं हो पायी। औरत के प्रगति की गति तेज़ तो हुई लेकिन उसके स्थिति की सुधार की प्रक्रिया बहुत धीमी रही। कभी भावना की बेड़ियों में, कभी मोहब्बत के छलावे में, कभी सरमायेदारों के दबदबों में ही उसे जीना पड़ा। बात चाहे विवेका बाबाजी की आत्महत्या की हो या मोहब्बत करने वालियों की झूठी शान  के नाम पर हत्या की, शिकार तो औरत का हुआ ही। कितनी भिन्न तस्वीर है औरत की। गांवों में तो उनकी दुर्दशा है ही, शहरों में भी कमोवेश वही हाल है। केवल कुछ ग्लैमरस औरतों को देखकर ही हिन्दुस्तान भर की औरतों के हाल को अच्छा नहीं कहा जा सकता। औरत को आज़ाद तभी माना जा सकता है जब उसे बेड़ियों और भेड़ियों से रिहा कर दिया जाय। कहने का अर्थ उसे भी बराबरी का दर्जा दिया जाय। प्यार, सम्मान और सुरक्षा की दरकार उसे भी है तथा औरत की आज़ादी के मायने भी यही हैं।
आज भी देश में ७५% लोग गरीबी रेखा से नीच जीवन यापन करने के लिए  मजबूर है ! प्रश्न यहाँ उठता है कि क्या देश में जनसंख्या के अनुपात से भोजन चिकित्सा सेवाए और शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है तो उत्तर मिलता है नहीं ! आज भी अधिकतम लोग अपने जीवन को अपने शर्तो पर न जीने के लिया असमर्थ है… कैसी यहाँ विडंबना है?  आज एक आम आदमी १०० रुपया में भी पर्याप्त भोजन करने में असमर्थ है ! यह किसका दोष है , जनता का दोष है यह चुने हुए जन प्रतिनिधि का दोष है! आज यहाँ सवाल हमारेदेश कि जनता के सामने मुंह बाये खड़ा है!


लेखिका मनु मंजू शुक्ला अवध रीगल टाइम्स की संपादिका है

प्रश्न यह उठता है कि देश को आजाद करने के लिये जिन्होंने कुरबानिया दी, क्या वो कुरबानिया बेकार रही! इस सम्बन्ध में देश की  जनता और बुद्धिजीवियो को विचार करना चहिये कि जो आज कि व्यवस्था है उसे कैसे सुधारा जाये?


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