Friday, January 28, 2011

लूटतंत्र में तब्दील होता गणतंत्र


लूटतंत्र में तब्दील होता गणतंत्र
ओमकार चौधरी , लेखक दैनिक हरिभूमि के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं.
ओमकार चौधरी
26 जनवरी 1950 को जब मौजूदा संविधान को अंगीकार किया गया था, तब इसके निर्माताओं ने नहीं सोचा होगा कि जिस तंत्र पर इसे गण की भलाई के लिए लागू करने की जिम्मेदारी है, वही इसका सबसे अधिक दुरुपयोग करेगा। हमारा गणतंत्र साठ साल का हो गया है लेकिन इन छह दशकों में गणतंत्र लूटतंत्र में तब्दील हो चुका है। लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं। विधायिका और कार्यपालिका बरसों पहले आम जन का विश्वास खो चुके हैं। पिछले कुछ सालों में मीडिया और न्यायपालिका पर भी गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। इस समय भी कई जज साहेबान भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की जद में हैं। देश के नेतृत्व को अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी  से पूछना चाहिए कि क्या वह वास्तव में संविधान की मूल भावना का आदर कर पा रहा है? जिस तरह व्यवस्था में बैठे लोग और पूरा तंत्र भ्रष्टाचार में लिप्त है, उसके चलते क्या गणतंत्र दिवस मनाने का कोई औचित्य रह गया है? क्या इस गणतंत्र में गण की तंत्र को चिंता है?
पांच साल पहले 2005 में वाचडाग ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने एक सर्वे कराया। उसके नतीजे चौंकाने वाले हैं। इससे पता चलता है कि हमारा तंत्र किस कदर भ्रष्ट हो चुका है। उसमें पाया गया कि पचास प्रतिशत भारतीयों को अपने सही कार्य कराने के लिए भी सरकारी दफ्तरों में रिश्वत देनी पड़ती है। ट्रक वाले हर साल पुलिस और चुंगी अधिकारियों को 22 हजार पांच सौ करोड़ रुपये की रिश्वत देते हैं। लालफीतों में फंसी फाइलों को आगे सरकाने की एवज में छोटे से लेकर बड़े पदों पर बैठे नौकरशाह कुछ सौ रूपए से लेकर करोड़ों रुपयों तक की रिश्वत वसूलते हैं। मनरेगा, राशन कार्ड और इसी तरह की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए गरीबों को भी भ्रष्ट तंत्र को रिश्वत देनी पड़ रही है। 2007 में भारत में हुए टीआई के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को भी मूलभूत और आवश्यकता आधारित सेवाएं पाने के लिए 900 करोड़ रुपये रिश्वत के तौर पर देने पड़े।
यह आज का कड़वा सच है कि मनरेगा जैसी  योजनाओं के लिए केन्द्र से जारी होने वाला पैसा जरूरतमंदों के बजाय सफेदपोश नेताओं, ठेकेदारों और नौकरशाहों की तिजोरियों में पहुंच रहा है। प्रणब मुखर्जी कहते हैं कि करीब 16 हजार करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में जमा है, लेकिन टीआई का दावा है कि भारत का विदेशी बैंकों में 462 अरब रुपया जमा है। हकीकत यह है कि राजनीति ही भ्रष्टाचार का पोषण करती रही है। सत्ता में बैठे लोग गैरकानूनी तरीकों से अपनी तिजोरियों को भरने में लगे हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत का दुनिया के अत्यंत भ्रष्ट देशों में 87वां स्थान है। भारत के अनेक राजनेता भ्रष्टाचार से सीधे तौर पर जुड़े हैं। आप यह जानकर हैरान होंगे कि 2009 के लोकसभा चुनाव में नेताओं ने प्रचार और दूसरे कार्यो पर करीब 10 हजार करोड़ रुपया खर्च किया है। उन्हें देश को बताना चाहिए कि उनके पास इतनी दौलत कहां से और कैसे आ रही है?
1964 में संतानम समिति ने टिप्पणी की थी कि ईमानदारी पर खरा नहीं उतरना मंत्रियों में असामान्य बात नहीं है। जो लोग पिछले सोलह साल (1947 से 63 तक) सत्ता में रहे हैं, उन्होंने गैरकानूनी तरीके  से अपनी तिजोरियां भरी हैं। यह टिप्पणी बीसवीं सदी के सातवें दशक में आई थी, लेकिन आज इस इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत में हम कह सकते हैं कि तंत्र में बैठे लोग देश और देशवासियों की कतई परवाह नहीं करते और उन्हें जब भी, जहां भी मौका मिलता है-वे लूट में शामिल हो जाते हैं। विभिन्न मौकों पर कई नेताओं के नाम सामने आए हैं। लालू यादव और सुखराम जसे इक्का-दुक्का जेलों की हवा भी खा चुके हैं परन्तु अधिकांश का बाल भी बांका नहीं होता। कामनवेल्थ घोटाले में सुरेश कलमाड़ी एंड कंपनी का नाम जगजाहिर है लेकिन उन्हें कमेटी के अध्यक्ष पद से हटाए जाने का फैसला अब जाकर हुआ है।
देश में घपलों-घोटालों की लंबी फेहरिश्त है। 1991 में जालसाज अब्दुल करीब तेलगी हत्थे चढ़ा तो 43 हजार करोड़ के घोटाले का पर्दाफाश हुआ। उसने नकली स्टांप पेपर छपवाकर बैंकों, विदेशी निवेशकों, बीमा कंपनियों और शेयर बाजार के खिलाड़ियों को बेचने के लिए पूरा नेटवर्क खड़ा कर लिया था। तब शरद पवार और छगन भुजबल का नाम सामने आया लेकिन जल्दी ही दब भी गया। 2009 में सत्यम कंप्यूटर कंपनी में जालसाजी का मामला खुला। घोटाला हुआ 24 हजार करोड़ का। देश के इस सबसे बड़े कारपोरेट घोटाले के सूत्रधार बने रामलिंगा राजू, जिसके कई राजनेताओं से नजदीकी रिश्ते रहे हैं। 1987 में 64 करोड़ रुपये का बोफोर्स तोप घोटाला हुआ, जिसने राजीव गांधी सरकार की नींव हिलाकर रख दी। 1996 में 950 करोड़ रुपये का चारा घोटाला सामने आया, जिसमें बिहार के दो मुख्यमंत्रियों जगन्नाथ मिश्र  और लालू प्रसाद यादव के नाम सामने आए। लालू को जेल भी जाना पड़ा।
1996 में ही 810 करोड़ रुपये का हवाला घोटाला सामने आया, जिसमें देश के अनेक जाने-माने नेताओं के नाम सामने आए। उससे पहले 1992 में हर्षद मेहता के 4000 करोड़ के प्रतिभूति घोटाले ने देश में तहलका मचाया था। 2000 में 32 करोड़ का यूटीआई घोटाला सामने आया। 2006 में 61 करोड़ रुपये का आईपीओ घोटाला, 2001 में 1350 करोड़ रुपये का म्युचुअल फंड घोटाला, 2009 में 4000 करोड़ रुपये का मधु कौड़ा घोटाला, 1995 में 1200 करोड़ रुपये का भंसाली घोटाला सामने आया, जिसने पूरे देश को शर्मसार किया। और इनके अलावा 2005 के तेल के बदले अनाज घोटाले, 2002 के होम ट्रेड घोटाला, 2000 के मैच फिक्सिंग , 1996 के यूरिया घोटाले, 1992 के इंडियन बैंक घोटाले, 1995 के झामुमो घूस कांड, 1996 के पल्प कांड और 1996 के ही दूरसंचार घोटाले को कैसे विस्मृत किया जा सकता है, जिसमें सुखराम को जेल की हवा भी खानी पड़ी है। इससे पहले 1974 में मारुति घोटाला, 1976 में कुआ तेल घोटाला, 1981 में अंतुले ट्रस्ट घोटाला, 1987 में एचडीडब्ल्यू दलाली और 1994 में चीनी आयात घोटाले भी सामने आ चुके हैं।
क्या इससे यह नहीं लगता कि हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र पूरी तरह लूटतंत्र में तब्दील होता जा रहा है? कार्यपालिका और विधायिका से काफी पहले लोगों का विश्वास उठ चुका है-ले देकर मीडिया और न्यायपालिका पर भरोसा बना हुआ था, जो अब टूटता नजर आ रहा है। नीरा राडिया टैप कांड से साफ हो गया है कि देश मीडिया के जिन नामचीन चेहरों पर भरोसा करता रहा है, दरअसल वे खुद दूसरों के हाथों की कठपुतली बनकर काम करते हैं। हाल ही में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के दामादों की संपत्तियों के संबंध में जो खुलासे हुए हैं, उससे तो देशवासी हिल गए हैं। जिस समय बालकृष्णन पद पर थे, उस समय उनके दामादों पर माया की बरसात हो रही थी। उन्होंने आय से अधिक संपत्ति अर्जित की और कई जमीनों के सौदे किए।
लेखक दैनिक हरिभूमि के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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