क्या संयोग है! 22 जनवरी 1999 की रात को उडीसा के क्योंझर क्षेत्र में दारा सिंह और उसके मदांध कट्टर सहयोगियों ने ईसाई समुदाय के फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके छह और दस साल के बेटों टिमोथी और फिलिप को जलाकर मार डाला था. और, 12 साल बाद 21-22 जनवरी 2011 के अखबारों और न्यूज चैनलों में यही खबर प्रमुख सुर्खी बनी कि सुप्रीम कोर्ट ने दारा सिंह और महेंद्र हेम्ब्रम को उच्च न्यायालय द्वारा सुनाई गई उम्र कैद की सजा को बरकरार रखा. दारा सिंह को फांसी दिलाने की सीबीआइ की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने भले ही खारिज कर दी हो, लेकिन हिन्दू कट्टरपंथियों को यह स्पष्ट संदेश जरूर गया कि कानून के साथ खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नहीं है और हर तबके को अपनी हद में ही रहना चाहिए.
दारा सिंह पक्ष की ये दलील भी काम नहीं आई कि वो तो सिर्फ फादर स्टेन्स को धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर सबक सिखाने गया था, लेकिन भीड़ ने फादर स्टेन्स और उनके बेटों को जला दिया और उसने खुद ऐसा नहीं किया था. दारा सिंह के वकीलों ने यह भी तर्क दिया कि गाड़ी में आग लगाने वाली भीड़ 'दारा सिंह जिंदाबाद' के साथ ही 'बजरंग बली जिंदाबाद' के नारे भी लगा रही थी, तो क्या बजरंगबली को भी सजा दी जाएगी? ठीक है सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि फांसी की सजा 'दुर्लभ से भी दुर्लभतम' (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर) मामले में दी जाती है. यह प्रत्येक मामले में तथ्यों और हालात पर भी निर्भर करती है. इस संदर्भ में कोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले में जुर्म भले ही कड़ी भर्त्सना के योग्य है, फिर भी यह 'दुर्लभ से भी दुर्लभतम' मामले की श्रेणी में नहीं आता है. इसलिए इसमें फांसी नहीं दी जा सकती. साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और किसी को दबाव, प्रलोभन या जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन का अधिकार नहीं है. अब विश्लेषणकर्ताओं के बीच बहस का मुद्दा यही है कि क्या फादर स्टेन्स के साथ छह और दस साल के बच्चों को बंद गाड़ी में जलाकर मार डालना 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' की श्रेणी में नहीं आता, क्या वाकई मासूम-निरपराध बच्चों की दर्दनाक हत्या को दुनिया का कोई कानून दुर्लभ से भी दुर्लभतम की श्रेणी में नहीं रखता?
यहां विचारणीय पक्ष यह भी है कि 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जिस तरह से देश के विभिन्न भागों में ईसाई धर्मावलंबियों पर सुनियोजित हमले हुए हैं, वे किसी से छुपे नहीं हैं. कट्टरपंथियों की विद्वेषपरक हरकतों को लेकर अनेक बार शोर-शराबे भी हुए, जांच समितियां भी बैठीं, लेकिन नतीजा रहा वही ढाक के तीन पात. गुजरात के दंगे इन्हीं संदर्भों में सामुदायिक 'हादसों' की भयानक परिणति थी. भले ही इसमें ईसाई समुदाय निशाने पर नहीं था, लेकिन प्रवृत्ति तो वही थी. ये अलग बात है कि उड़ीसा के इस मामले में देर के बावजूद नतीजे पर पहुंचा जा सका. 1999 में घटित इस हत्याकांड के बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जेपी वाधवा की अध्यक्षता में न्यायिक जांच आयोग गठित किया. आयोग ने कार्यवाही शुरू की. मामले की जांच राज्य पुलिस अपराध शाखा से लेकर सीबीआई को सौंपी गई. फिर छह महीने की जांच के बाद आयोग ने रिपोर्ट में दारा सिंह को दोषी ठहराया. सीबीआई ने जून 1999 में ही 18 लोगों के खिलाफ आरोपपत्र भी दाखिल किया. तभी घटना के एक साल बाद जनवरी 2000 में दारा सिंह को मयूरभंज के जंगलों से गिरफ्तार किया गया. फिर 2003 में मामले की सुनवाई खत्म हुई और दारा सिंह और उसके 12 सहयोगियों को दोषी ठहराते हुए दारा को सजा-ए-मौत और 12 अन्य को उम्र कैद की सजा सुनाई गई. लेकिन फिर 2005 में उड़ीसा हाइकोर्ट ने दारा की मौत की सजा को खत्म कर उम्र कैद की सजा सुनाई और हेम्ब्रम को भी उम्र कैद की सजा दी, जबकि अन्य 11 आरोपियों को बरी कर दिया गया और अब सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट की सजा को बरकरार रखा है.
लेकिन अदालत की इन कार्रवाइयों से दूसरी ओर कंधमाल, मयूरभंज और आसपास के इलाके सांप्रदायिक गतिविधियों से सुलगते रहे. खबरें तो ये भी हैं कि स्टेन्स और उनके बेटों की हत्या के बाद स्वामी असीमानंद और उनके सहयोगियों की गतिविधियां वहां निरंतर जारी रहीं. बाद में ऐसी ही गतिविधियों की नकारात्मक परिणति 2008 में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के रूप में सामने आई. शुरू में शक की सुई ईसाई तबके की ओर उठी, लेकिन बाद में जांच में खुलासा हुआ कि लक्ष्मणानंद की हत्या माओवादियों ने की. वैसे हत्या चाहे किसी ने की हो, लेकिन निश्चित रूप से यह उतनी ही निंदनीय है, जितनी फादर स्टेन्स और उनके बेटों की. जरूरत इस तथ्य को आज न केवल समझे जाने की है, बल्कि आत्मसात करके व्यवहार में परिणित करने की भी. सुप्रीम कोर्ट ने महात्मा गांधी के संदेश को उद्धृत करते हुए ठीक ही कहा है कि देश की एकता और समृद्धि के लिए जरूरी है कि हम ऐसी नकारात्मक और खतरनाक प्रवृत्तियों से दूर रहें जो न केवल हमारे मजबूत सामाजिक ताने-बाने को तोड़ती हैं, बल्कि संविधान निर्माताओं ने जिस स्वस्थ समाज का सपना देखा था, उसकी जड़ पर ही प्रहार करती हैं. ऐसे में यहां मूल सवाल यही है कि क्या हम ऐसा कर पाएंगे?
उधर, ग्राहम स्टेन्स की विधवा ग्लैडिज ने दारा सिंह के लिए उम्र कैद की सजा की पुष्टि पर संतोष जताया है. वैसे, उन्होंने पिछले वर्षों में उड़ीसा के सम्बद्ध क्षेत्रों के दौरे के दौरान पहले ही कह दिया था कि वो अपने पति और दोनों बेटों के हत्यारों को माफ करती हैं. यह खुद में एक व्यक्ति के तौर पर ग्लैडिज के बडे दिल का नायाब उदाहरण है. अब फिर से ग्लैडिज ने ईसाई समुदाय के संगठन के हवाले से कहा है कि ’’हर व्यक्ति को अपनी जिंदगी फिर से बनाने-संवारने का मौका दिया जाना चाहिए, और हम फांसी में नहीं, जीवन में विश्वास करते हैं'' - निश्चित रूप से कट्टरपंथियों को इससे बेहतर संदेश दूसरा नहीं हो सकता है, जो उन्हें देश के लोकतांत्रिक-बहुलवादी चरित्र के बारे में सोचने को बाध्य करे.
इस पूरे प्रकरण में उल्लेखनीय पक्ष यही है कि किसी भी तरह की कट्टरता या नाराज-विद्वेषी प्रतिक्रिया से नितांत दूर ग्लैडिज की उदारमना विशालता ने पूरे मामले पर ठंडा पानी डालने का ही काम किया है. आखिर जिसने अपना सबकुछ खो दिया हो, उसके स्तर पर ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं. ईसाई संगठनों ने भी ग्लैडिज के मत से रजामंदी व्यक्त कर निश्चित रूप से एक सकारात्मक उदाहरण ही पेश किया है. आखिर कीचड़ को कीचड़ से तो नहीं ही साफ किया जा सकता है. उसे दूर करने के लिए साफ पानी की ही जरूरत होती है. यही उदारता धर्म का मर्म भी है और भारतीय सांस्कृतिक धरोहर भी. काश! कट्टरवादी जमात इस धर्म के मर्म के अर्थ को समझ पाती.
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका ये लिखा आज लोकमत में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीश से संपर्कgirishmisra@lokmat.com के जरिए किया जा सकता है.
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