Friday, February 18, 2011

जिसकी करनी उसी की कथनी


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समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव में हुए बम धमाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक शामिल थे, स्वामी असीमानंद का इकबालिया बयान यह साबित करता पहला पुख्ता कानूनी सबूत है. 42 पन्नों का यह दस्तावेज नफरत की एक डरावनी कहानी कहता है. आशीष खेतान की रिपोर्ट:

18 दिसंबर, 2010. दिल्ली की तिहाड़ जेल से नव कुमार सरकार नाम के एक व्यक्ति को लेकर सीबीआई की एक टीम तीस हजारी कोर्ट पहुंची. स्वामी असीमानंद के नाम से जाने जाने वाले 59 साल के इस शख्स को वहां मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट दीपक डबास के सामने पेश किया जाना था. असीमानंद 2007 में हैदराबाद स्थित मक्का मस्जिद में हुए उस बम विस्फोट का मुख्य आरोपित है जिसमें नौ लोगों की मौत हो गई थी. पिछले लगभग 48 घंटों के दौरान कोर्ट में उसकी यह दूसरी पेशी थी. इससे पहले 16 दिसंबर को असीमानंद ने मजिस्ट्रेट से प्रार्थना की थी कि कई आतंकी हमलों में उसकी भागीदारी से संबंधित उसका इकबालिया बयान रिकॉर्ड किया जाए. उसने यह भी कहा था कि वह ऐसा किसी डर, दबाव या लालच के बिना कर रहा है. कानून के हिसाब से चलते हुए मजिस्ट्रेट ने असीमानंद से कहा था कि वह अपने फैसले पर एक बार फिर विचार कर ले. इसके बाद उन्होंने उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया था ताकि वह पुलिस के किसी दखल या असर से दूर रहे.
असीमानंद ने मजिस्ट्रेट से कहा, 'मैं जानता हूं कि मुझे मौत की सजा हो सकती है, मगर मैं फिर भी इकबालिया बयान देना चाहता हूं'
18 दिसंबर को असीमानंद की फिर से पेशी हुई. लेकिन उसका इरादा बदला नहीं था. मजिस्ट्रेट ने हुक्म दिया कि उनके स्टेनोग्राफर को छोड़कर हर कोई उनके चैंबर से बाहर चला जाए. अब असीमानंद को बोलना था. उसने कहा, 'मैं जानता हूं कि मुझे मौत की सजा हो सकती है, मगर मैं फिर भी इकबालिया बयान देना चाहता हूं.'
इसके बाद अगले पांच घंटों के दौरान जो हुआ वह अप्रत्याशित था. असीमानंद ने विस्तार से बताया कि किस तरह वह और चंद हिंदूवादी नेता सिलसिलेवार तरीके से किए गए कई बम धमाकों की योजना बनाने और उसे अंजाम देने में शामिल थे. उसके इस बयान से इस मामले की वे सारी कड़ियां जुड़ती नजर आ रही थीं जो पिछले दो वर्षों के दौरान उजागर हुई थीं. पहली, 2008 में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, दयानंद पांडे, ले. कर्नल श्रीकांत पुरोहित और कुछ दूसरे लोगों की गिरफ्तारी. दूसरी, पांडे के लैपटॉप से 37 ऑडियो टेपों की बरामदगी जिनमें ये सारे लोग अपनी आतंकी गतिविधियों के बारे में चर्चा करते सुनाई दे रहे थे और सबसे हालिया, 2007 के अजमेर शरीफ धमाके में राजस्थान एटीएस की चार्जशीट. असीमानंद का यह इकबालिया बयान जांच एजेंसियों के लिए इस मामले के सबसे अहम सबूतों में से एक है.
आपराधिक प्रक्रिया संहिता यानी सीपीसी की धारा 164 कहती है कि किसी मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया इकबालिया बयान कानूनी तौर पर सबूत माना जाए. इस लिहाज से असीमानंद का बयान बहुत अहम है जिसका असर बहुत दूर तक जाएगा. 1992 में जब मुंबई में सिलसिलेवार बम धमाके हुए तो देश में इस तरह की यह पहली वारदात थी. उसके बाद से स्थितियां कुछ ऐसी बदलीं कि ज्यादातर लोगों को यही लगने लगा कि हर आतंकी धमाके के पीछे किसी मुसलमान का हाथ होता है. कुछ हद तक यह पूर्वाग्रह पुलिस और खुफिया एजेंसियों का भी रहा. जब भी कोई बम धमाका होता, मीडिया और सरकार के जबर्दस्त दबाव के चलते सुरक्षा एजेंसियां गहन जांच करके असल अपराधियों को पकड़ने की बजाय कट्टरपंथी संगठनों से जुड़े मुस्लिम नौजवानों को उठा लेतीं और उन्हें आतंक का मास्टमाइंड घोषित कर देतीं. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी बिना कोई सवाल किए इन एजेंसियों द्वारा दी जाने वाली जानकारियों को ज्यों का त्यों छाप देता. इससे मुसलिम समुदाय में निराशा  तो थी ही, बेचैनी और गुस्सा भी था. लेकिन नागरिक समाज के कुछ लोगों और तहलका जैसे चंद मीडिया संगठनों के अलावा किसी को भी हिम्मत नहीं हुई कि वह इस पूर्वाग्रह पर कोई सवाल उठाता. साध्वी प्रज्ञा और ले. कर्नल पुरोहित की गिरफ्तारी के बाद यह नजरिया कुछ-कुछ बदला, मगर ज्यादातर लोगों द्वारा इन्हें छोटे-मोटे अपवाद कहकर खारिज किया जाता रहा. अब असीमानंद का इकबालिया बयान इस पूर्वाग्रह पर कहीं तगड़ी चोट करता है.
इस बयान के मुताबिक 2006 और 2008 में मालेगांव और 2007 में समझौता एक्सप्रेस, अजमेर शरीफ और मक्का मस्जिद में बम धमाके करने वाले कोई मुसलिम नौजवानों ने नहीं किए थे बल्कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों की एक टीम थी. जितना दुखद इन धमाकों में बेगुनाहों का मरना है उससे भी चिंताजनक यह है कि अपनी आदत के मुताबिक पुलिस ने इन मामलों के संबंध में कई मुसलिम नौजवानों को उठाया और उन्हें जेल में रखकर यातनाएं दीं. इससे जनमानस में यह डर पैदा हुआ कि देश में इस्लामी आतंक का एक नेटवर्क बन गया है. इनमें से कई नौजवान कई साल जेल में बिताने के बाद छूट गए. कुछ आज भी जेल में हैं. उनकी जवानी और भविष्य पर ग्रहण लग चुका है.
' मैंने बताया कि अजमेर ऐसी जगह है कि वहां की दरगाह में हिंदू भी काफी संख्या में जाते हैं, इसलिए अजमेर में भी एक बम रखना चाहिए '
असीमानंद ने अपना अपराध कबूल क्यों किया यह जानना दिलचस्प है. उसका कहना है कि जेल में बंद मुसलिम नौजवानों में से एक के साथ हुई मुलाकात ने उसकी अंतरात्मा को झिंझोड़ दिया. असीमानंद ने जज से कहा, 'सर, जब मैं हैदराबाद की चंचलगुड़ा जिला जेल में था, तो मेरे साथ कलीम नाम का एक नौजवान भी वहां था. कलीम के साथ बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि उसे पहले मक्का मस्जिद धमाके के मामले में गिरफ्तार किया गया था और इसलिए उसे डेढ़ साल जेल में रहना पड़ा. जेल में रहने के दौरान कलीम मेरी बहुत मदद करता था. वह पानी, खाना आदि लाकर मेरी सेवा किया करता था. कलीम के अच्छे व्यवहार ने मुझे द्रवित कर दिया. मेरी अंतरात्मा ने मुझसे कहा कि मैं इकबालिया बयान दूं ताकि वास्तविक दोषियों को सजा हो सके और किसी निर्दोष को दंड न भुगतना पड़े.'
असीमानंद के यह बात कहने पर मजिस्ट्रेट ने अपने स्टेनोग्राफर को भी बाहर जाने के लिए कह दिया ताकि इकबालिया बयान बिना किसी दिक्कत के जारी रह सके. इसके बाद हिंदी में लिखे गए 42 पन्नों के इस हस्ताक्षरित बयान में, जिसकी एक प्रति तहलका के पास है, असीमानंद ने हिंदूवादी आतंकी नेटवर्क की कार्यशैली के बारे में विस्तार से बताया है. उसके मुताबिक धमाकों में सिर्फ अभिनव भारत सरीखे छोटे-मोटे कट्टर हिंदूवादी संगठन शामिल नहीं थे. असीमानंद की मानें तो संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार ने भी कथित तौर पर कुछ संघ प्रचारकों को खुद चुनकर उन्हें ये आतंकी हमले करने के लिए पैसा दिया था. मजिस्ट्रेट को दिए बयान में उसने कहा है.
'2005 में शबरी धाम में इंद्रेश जी, जो आरएसएस की कार्यकारिणी समिति के सदस्य हैं, हमें मिले थे. उनके साथ में आरएसएस के सभी बड़े पदाधिकारी भी थे...इंद्रेश जी ने हमको बताया कि आप जो बम का जवाब बम की बात करते हो वह आपका काम नहीं है...उन्होंने बताया कि आप जो सोच रहे हैं हम लोग भी इस विषय पर सोचते हैं. सुनील को इस काम के लिए जिम्मेदारी दिया गया है. इंद्रेश जी ने कहा कि सुनील को जो मदद चाहिए वो हम करेंगे.'
असीमानंद ने आगे यह भी बताया है कि कैसे इंद्रेश ने जोशी को उसकी आतंकी गतिविधियों के लिए पैसा दिया और ऐसे लोग भी मुहैया करवाए जिन्हें बम रखने का काम करना था. असीमानंद ने इस योजना में अपनी भूमिका भी स्वीकार की और बताया कि किस तरह उसने कुछ संघ प्रचारकों और दूसरे हिंदू कट्टरपंथियों को मालेगांव, हैदराबाद और अजमेर में बम धमाकों को अंजाम देने के लिए प्रोत्साहित किया. (तहलका ने इंद्रेश कुमार से इस मसले पर कई बार बात करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि वे हमें वापस फोन करेंगे, मगर उनका फोन नहीं आया.)
2002 में गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर मुसलिम आत्मघाती हमलावरों के हमलों के बाद  असीमानंद को बम का जवाब बम से देने की सूझी
मक्का मस्जिद और अजमेर धमाकों में संघ के प्रचारकों की भूमिका है, इसके सबूत तो हर नई गिरफ्तारी के साथ बढ़ ही रहे हैं. अब असीमानंद का इकबालिया बयान मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों में हिंदू कट्टरपंथियों की भागीदारी का पहला प्रत्यक्ष सबूत है. सीबीआई ने जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सबूत जमा किए हैं उन्हें जोड़ने पर पता चलता है कि मुसलमानों और उनके धर्मस्थलों पर आतंकी हमले करने की एक व्यापक रणनीति 2001 के आसपास बनाई गई.
ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश के तीन संघ प्रचारक सुनील जोशी, रामचंद्र कालसांगरा और संदीप डांगे-इस पूरी साजिश के केंद्र में थे. इन तीनों का दुस्साहस जैसे-जैसे बढ़ता गया, उन्होंने दूसरे राज्यों, खासकर महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान से अपने जैसे विचार रखने वाले उग्र हिंदुओं की भर्ती शुरू की. ज्यादातर नए लोग संघ, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद से थे. कुछ सदस्य अभिनव भारत, जय वंदे मातरम और वनवासी कल्याण आश्रम जैसे छोटे संगठनों से भी आए.
जोशी, कालसांगरा और डांगे ने यह सावधानी बरती कि कोर ग्रुप से बाहर के किसी सदस्य को योजना की पूरी जानकारी न हो. यानी ऐसे हर सदस्य को सिर्फ अपने हिस्से के काम के बारे में पता होता था. डांग में वनवासी कल्याण आश्रम चलाने वाले असीमानंद का सुनील जोशी से पहला संपर्क 2003 में हुआ. मगर आतंकी हमले की इस साजिश में वह सक्रिय रूप से मार्च, 2006 में शामिल हुआ.
हिंदुत्व की यह व्यापक आतंकी साजिश 2008 में सबसे पहले तब उजागर हुई थी जब मालेगांव बम धमाके में महाराष्ट्र एटीएस के तत्कालीन मुखिया हेमंत करकरे ने 11 हिंदू कट्टरपंथियों को गिरफ्तार किया था. इसमें सैन्य खुफिया तंत्र की नासिक इकाई में तैनात ले. कर्नल पुरोहित, जम्मू में शारदा पीठ चलाने वाला स्वयंभू धर्मगुरु दयानंद पांडे और पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में रह चुकी साध्वी प्रज्ञा शामिल थी.
मगर इसी साल मुंबई में इस्लामी जेहादियों द्वारा किए गए हमले में करकरे शहीद हो गए और इसी के साथ इस मामले की जांच भी पटरी से उतर गई. महाराष्ट्र एटीएस के नए मुखिया केपी रघुवंशी बने, मगर उनकी टीम रामचंद्र कालसांगरा और संदीप डांगे को गिरफ्तार करने में विफल रही और इसकी बजाय उन्हें आरोप पत्र में उन्हें छोटा-मोटा खिलाड़ी बताया गया.
जांच ने मई, 2010 में एक बार फिर रफ्तार पकड़ी जब अजमेर बम धमाके की जांच कर रही राजस्थान एटीएस ने संघ के दो प्रचारकों देवेंद्र गुप्ता और लोकेश शर्मा को गिरफ्तार किया. गुप्ता बिहार के मुजफ्फरपुर में संघ का प्रचारक था. उसने जोशी, कालसांगरा और डांगे को मदद मुहैया करवाई. उसने कालसांगरा और डांगे को तब संघ के कार्यालयों में शरण भी दिलवाई जब वे जांच एजेंसियों से भागे-भागे फिर रहे थे.
लोकेश शर्मा, जोशी का करीबी था. उसी ने वे दो नोकिया मोबाइल फोन खरीदे थे जिन्हें मक्का मस्जिद और अजमेर शरीफ पर हुए बम धमाकों में ट्रिगर की तरह इस्तेमाल किया गया. शर्मा से हुई पूछताछ में ही पहली बार यह बात निकलकर सामने आई थी कि आतंक की इस साजिश में संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार भी शामिल हैं. राजस्थान एटीएस और सीबीआई की संयुक्त जांच में यह बात भी सामने आई कि महाराष्ट्र एटीएस ने 2008 में जिन लोगों को गिरफ्तार किया था उनमें से प्रज्ञा सिंह ठाकुर को छोड़कर सभी इस खेल के छोटे-मोटे मोहरे थे और इस साजिश में मुख्य भूमिका कथित रूप से इंद्रेश कुमार, कालसांगरा और डांगे से मिलकर बने कोर ग्रुप की ही थी.
जून, 2010 में सीबीआई ने भरत रितेश्वर नाम के एक गवाह से पूछताछ की. स्वामी असीमानंद का करीबी रितेश्वर गुजरात के वलसाड़ जिले के रहने वाला है. उसने सीबीआई को बताया कि सुनील जोशी इंद्रेश का चेला था और आतंकी हमले करने के लिए उसे जोशी ने सिर्फ सहमति ही नहीं बल्कि दूसरी कई तरह की सहायता भी दी थी. 19 नवंबर, 2010 को सीबीआई ने हरिद्वार के एक गुप्त ठिकाने पर छापा मारा और स्वामी असीमानंद को गिरफ्तार किया जो 2008 में साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी के बाद से ही फरार चल रहा था. इस गिरफ्तारी से कई और गुत्थियां सुलझीं.
' हम चारों की बैठक में मैंने सुझाव दिया कि महाराष्ट्र के मालेगांव में 80 प्रतिशत मुसलिम रहते हैं इसलिए पहला बम वहीं रखना चाहिए '
नव कुमार उर्फ स्वामी असीमानंद मूल रूप से प. बंगाल के हुगली जिले में स्थित कुमारपुकुर नाम के एक गांव का रहने वाला है. यह वही गांव है जहां रामकृष्ण परमहंस भी पैदा हुए थे. 1971 में हुगली से बीएससी करने के बाद मास्टर डिग्री लेने के लिए नव कुमार बर्धमान जिले में रहने लगा. वैसे तो वह स्कूली दिनों से ही संघ की गतिविधियों में शामिल रहा था लेकिन पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान वह संघ का सक्रिय सदस्य बन गया. 1977 में उसने संघ द्वारा पुरुलिया और बांकुरा जिले में चलाए जा रहे वनवासी कल्याण केंद्र में काम करना शुरू कर दिया. 1981 में उसके गुरु स्वामी परमानंद ने उसे स्वामी असीमानंद नाम दिया.
इसके बाद 1988 से 1993 तक असीमानंद अंडमान और निकोबार स्थित वनवासी कल्याण आश्रम में रहा. 1993 से 1997 के बीच आदिवासियों में हिंदू धर्म का प्रचार करने के लिए उसने देश भर की यात्राएं कीं. 1997 में वह गुजरात के डांग जिले में स्थायी तौर पर काम करने लगा. यहां उसने शबरी धाम नाम का एक आदिवासी कल्याण संगठन खोल लिया था. असीमानंद को इलाके में अपने उन्मादी अल्पसंख्यक विरोधी भाषणों और ईसाई मिशनरियों के खिलाफ अपने अभियानों के लिए जाना जाता था.
असीमानंद के बारे में माना जाता है कि वह संघ नेतृत्व के करीब है. अतीत में शबरी धाम में आयोजित विभिन्न धार्मिक आयोजनों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, संघ के पूर्व मुखिया केएस सुदर्शन और वर्तमान मुखिया मोहन भागवत भी शामिल हो चुके हैं. असीमानंद के कबूलनामे के अनुसार 2002 में जब मुसलिम आत्मघाती हमलावरों ने गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमला किया और उसमें कई भक्त मारे गए तो पहली बार उसे लगा कि इन आतंकी हमलों का जवाब ऐसे ही हमलों से दिया जाना चाहिए. उसके शब्दों में, '2002 से हिंदू मंदिरों पर मुसलिम द्वारा बम अटैक हो रहे थे. इससे मैं बहुत विचलित रहता था. मैं इसे बारे में वलसाड के भरत भाई से चर्चा करता रहता था.'
2003 में असीमानंद सुनील जोशी और प्रज्ञा सिंह ठाकुर के संपर्क में आया. वह इन लोगों के साथ अकसर इस्लामी आतंकवाद पर चर्चा किया करता. उसका कहना है कि जब मार्च, 2006 में बनारस के संकटमोचक मंदिर पर आतंकी हमला हुआ तो उसे लगा कि अब बहुत हो चुका. अपने बयान में उसने कहा है, 'मार्च 2006 में प्रज्ञा सिंह, मनोज उर्फ सुनील जोशी और भरत भाई शबरी धाम आए  हुए थे. संकटमोचन मंदिर में हुए बम ब्लास्ट से हम सभी विचलित थे और हमने तय कर लिया कि इसका जवाब हमें देना चाहिए.'
असीमानंद ने जोशी को 25,000 रु. दिए ताकि इनसे वह धमाकों के लिए जरूरी इंतजामात कर सके. उसने जोशी और रितेश्वर को गोरखपुर भेजा. वहां उनकी भाजपा के फायरब्रांड नेता योगी आदित्यनाथ से इस काम के लिए मदद लेने की योजना थी. कहा जाता है कि अप्रैल, 2006 में जोशी ने आदित्यनाथ के साथ एक गोपनीय बैठक की, लेकिन इसका खास फायदा नहीं हुआ. उसके शब्दों में, 'सुनील जोशी ने कहा कि आदित्यनाथ से कोई मदद नहीं मिली.'
लेकिन इससे असीमानंद के कदम डिगे नहीं. वह अपनी योजना पर आगे बढ़ता गया. जून, 2006 में असीमानंद, रितेश्वर, साध्वी प्रज्ञा और जोशी फिर से वलसाड में रितेश्वर के घर पर मिले. इसका नतीजा काफी दूर तक जाने वाला था. इसमें पहली बार जोशी अपने साथ अपने चार सहयोगियों को लेकर पहुंचा--डांगे, कालसांगरा, लोकेश शर्मा और अशोक उर्फ अमित. असीमानंद के शब्दों में 'मैंने सबको बताया कि बम का जवाब बम से देना चाहिए. मुझे मीटिंग में महसूस हुआ कि ये लोग पहले से ही इस विषय में कुछ सोच रहे हैं और कर ही रहे हैं.'
आगे असीमानंद ने कहा है, 'मीटिंग के बाद हमने भोजन किया और उसके बाद मैं, सुनील, भरत भाई और प्रज्ञा सिंह अलग से एक जगह पर बैठे. बाकी चार लोग अलग से बैठे थे. हम चारों की बैठक में मैंने सुझाव दिया कि महाराष्ट्र के मालेगांव में 80 प्रतिशत मुसलिम रहते हैं इसलिए नजदीक से ही हमारा काम शुरू होना चाहिए और पहला बम वहीं रखना चाहिए. फिर मैंने कहा कि स्वतंत्रता के समय हैदराबाद के निजाम ने पाकिस्तान के साथ जाने का निर्णय लिया था इसलिए हैदराबाद को भी सबक सिखाना चाहिए. फिर मैंने बताया कि अजमेर ऐसी जगह है कि वहां की दरगाह में हिंदू भी काफी संख्या में जाते हैं इसलिए अजमेर में भी एक बम रखना चाहिए जिससे हिंदू डर जाएंगे और वहां नहीं जाएंगे. मैंने यह भी बताया कि अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में भी बम रखना चाहिए.'
असीमानंद के मुताबिक सब इन जगहों को निशाना बनाने पर सहमत हो गए. इसके बाद असीमानंद ने कहा है, 'सुनील जोशी ने भी सुझाव दिया कि इंडिया-पाकिस्तान के बीच में चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में केवल पाकिस्तानी ही यात्रा करते हैं इसलिए समझौता एक्सप्रेस में भी बम ब्लास्ट करना चाहिए. इसकी जिम्मेदारी जोशी ने स्वयं ली. उसने यह भी बताया कि समझौता एक्सप्रेस में बम ब्लास्ट सिम कार्ड की मदद से नहीं हो सकता. उसके लिए कुछ कैमिकल्स की जरूरत पड़ेगी जिनकी व्यवस्था डांगे करेगा.'
' जोशी ने बताया कि पेपर देखते रहना, कुछ अच्छा खबर मिलेगा. तीन-चार दिन बाद मक्का मस्जिद में बम ब्लास्ट की खबर आई '
असीमानंद की स्वीकारोक्ति और भी विस्तार में जाती है,  'जोशी ने बताया कि बम ब्लास्ट करने के लिए तीन ग्रुप होने चाहिए. एक ग्रुप आर्थिक मदद और बाकी व्यवस्था करेगा. एक ग्रुप बम के सामान के संग्रह का काम करेगा और तीसरा ग्रुप बम रखने का काम करेगा. सुनील ने यह भी कहा कि एक ग्रुप का आदमी दूसरे ग्रुप के बारे में नहीं जानेगा और पूछताछ भी नहीं करेगा क्योंकि यदि एक भी व्यक्ति पकड़ा गया तो सब पकड़े जाएंगे.'
गुस्से और नफरत की आग अब एक हद से आगे चली गई थी. आठ सितंबर, 2006 को डेढ़ बजे महाराष्ट्र के मालेगांव में चार बम फटे. सांप्रदायिक तनाव के लिहाज से संवेदनशील माने जाने वाले इस कस्बे में जिस दिन यह घटना हुई उस दिन शुक्रवार तो था ही,शब-ए-बरात का पर्व भी था. तीन बम हमीदिया मस्जिद के कंपाउंड और बड़ा कब्रिस्तान में फटे जबकि चौथा मुशावरत चौक पर.
पहले तीन बमों में से एक हमीदिया मस्जिद और बड़ा कब्रिस्तान के गेट पर रखा गया था, दूसरा भीतर कंपाउंड में बनी पार्किंग में रखी एक साइकिल पर और तीसरा कंपाउंड के भीतर ही बने हुए वजूखाने के सामने बने पावर सप्लाई रूम की दीवार पर. चौथा बम मुशावरत चौक पर एक खंभे के पास खड़ी एक साइकिल पर रखा गया था. इस चौक पर बहुत भीड़भाड़ रहती है. यानी हमला बहुत सुनियोजित था. बम एक के बाद एक करके फटे. 30 लोग मारे गए और 312 से भी ज्यादा घायल हुए.हरकत में आते हुए महाराष्ट्र एटीएस ने हमले के 90 दिन के भीतर मालेगांव से नौ मुसलमानों को पकड़ा. इनमें से आठ प्रतिबंधित संगठन सिमी के सदस्य थे. मालेगांव से ही ताल्लुक रखने वाले तीन मुसलमानों को फरार बताया गया. इन पर कठोर कानून मकोका के प्रावधान लगाए गए. 21 दिसंबर, 2006 को महाराष्ट्र सरकार ने यह मामला सीबीआई के सुपुर्द कर दिया. उसी दिन एटीएस ने उपरोक्त नौ लोगों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किए थे. इस तरह देखा जाए तो सीबीआई को एक तरह से सुलझाया हुआ मामला दे दिया गया था क्योंकि मामले की जांच करके आरोपपत्र दाखिल किए जा चुके थे.
एक साल पहले सीबीआई ने इस मामले में एक पूरक आरोपपत्र दाखिल किया, मगर वह कोई स्पष्ट सबूत पेश करने में असफल रही. इस तरह चार साल से भी ज्यादा समय से मालेगांव के ये छह मुसलमान जेल में बंद हैं. असीमानंद का कबूलनामा इस बात को वजन देता लगता है कि ये नौजवान निर्दोष थे और उन्हें सिर्फ इसलिए गिरफ्तार किया गया था ताकि जनता को यह दिखाकर बहलाया जा सके कि मामले के दोषी पकड़े जा चुके हैं.
असीमानंद के मुताबिक इस हमले का वास्तविक मास्टरमाइंड सुनील जोशी था और यह असीमानंद ही था जिसने उसे मालेगांव में धमाका करने के लिए राजी किया था. असीमानंद ने मजिस्ट्रेट से कहा है,  'दीवाली पर उसी साल सुनील मुझसे मिलने शबरी धाम आया. तब तक मालेगांव का बम ब्लास्ट हो चुका था. सुनील ने मुझे बताया कि मालेगांव में जो बम ब्लास्ट हुआ है वो हमारे आदमियों ने किया है. मैंने सुनील को कहा कि अखबार में तो खबर आई है कि कुछ मुसलिम लोगों ने यह किया है और कुछ मुसलिम पकड़े भी गए हैं. मैंने सुनील से पूछा कि हमारे किन लोगों ने यह ब्लास्ट किया है तो सुनील ने बताने से मना कर दिया.'
18 फरवरी, 2007 यानी भारत-पाक शांति वार्ता के तहत पाकिस्तानी विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी के भारतीय दौरे की पूर्व संध्या पर दिल्ली से लाहौर के बीच चलने वाली भारत-पाक समझौता एक्सप्रेस के दो डिब्बों में आधी रात को दो भीषण बम धमाके हुए. तब ट्रेन दिल्ली से 80 किमी दूर पानीपत के पास दिवाना से गुजर रही थी. ट्रेन में ही एक और बम भी रखा गया था, मगर वह नहीं फटा. 68 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए. शांति वार्ता को इस घटना से बड़ा झटका लगा.
जांच के दौरान पता चला कि इन तीन डिब्बों में चुपके से तीन सूटकेस रखे गए थे. इनके भीतर डेटोनेटर, टाइमर, विस्फोटकों से भरी लोहे की छड़ें और पेट्रोल और केरोसीन से भरी बोतलें रखी हुई थीं. शक की सुई तुरंत पाकिस्तान आतंकियों की तरफ घूमी. अलग-अलग जांच एजेंसियों ने अलग-अलग नाम लिए. इनमें मुख्य थे पाकिस्तान स्थित हरकत उल जिहाद इस्लामी यानी हूजी और लश्कर ए तैयबा. भारत ही नहीं बल्कि अमेरिकी विदेश विभाग ने भी इस हमले को इन दोनों संगठनों का संयुक्त अभियान बताया. हरियाणा पुलिस को पता चला कि धमाके में इस्तेमाल हुआ कुछ सामान इंदौर से खरीदा गया था, मगर जल्दी ही मामले की जांच ठंडी पड़ गई.
नवंबर, 2008 में महाराष्ट्र एटीएस ने नासिक की एक अदालत को बताया कि ले. कर्नल पुरोहित ने 2006 में जम्मू-कश्मीर से 60 किलो आरडीएक्स खरीदा था और संदेह है कि इसका कुछ हिस्सा समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों में इस्तेमाल किया गया है. मगर एटीएस इस दावे की पुष्टि में सबूत पेश करने में नाकाम रही और अपने रुख से पीछे हटने पर मजबूर हो गई. हरियाणा पुलिस की एक टीम पुरोहित और मालेगांव धमाके के दूसरे आरोपितों से पूछताछ करने मुंबई पहुंची, मगर उसे ऐसे कोई सबूत नहीं मिल पाया है, जो उनका संबंध समझौता एक्सप्रेस में हुए धमाकों से जोड़ पाते. जुलाई, 2010 में समझौता एक्सप्रेस में हुए धमाकों की जांच एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) को सौंप दी गई. हालांकि अब भी कुछ सवाल हैं जिनका जवाब नहीं मिल पाया है, फिर भी असीमानंद की यह स्वीकारोक्ति समझौता एक्सप्रेस में हुए धमाकों के संबंध में कई जवाब दे देती है.
'फरवरी, 2007 में सुनील जोशी और भरत भाई, भरतभाई के घर से मोटरसाइकिल से बलपुर नामक स्थान पर एक शिव मंदिर में आए. मैं पहले से ही वहां पर मौजूद था. हमने यह पहले ही तय कर रखा था कि शिवरात्रि के दिन वहां मिलना है. वहां सुनील ने मुझे बताया कि एक -दो दिन में ही कुछ अच्छी खबर मिलेगी. फिर वो अपने घर चले गए और मैं शबरीधाम आ गया. उसके दो तीन दिन बाद मैं फिर भरत भाई के घर गया जहां पर सुनील और प्रज्ञा पहले से मौजूद थे. तब तक समझौता बम ब्लास्ट की खबर पेपर में आ चुकी थी. मैंने सुनील को बताया कि समझौता एक्सप्रेस की घटना तो हो चुकी है और तुम तो यहीं पर बैठे हो. जवाब में उसने बताया कि ये हमारे ही लोगों ने किया है.'
आगे असीमानंद बताता है, 'सुनील जोशी ने हमसे भारत भाई के घर में हैदराबाद में बम ब्लास्ट करने के लिए 40,000 रु लिए. इसके एक-दो महीने के बाद सुनील जोशी ने मुझे फोन किया और बताया कि पेपर देखते रहना, एक-दो दिन में कुछ अच्छा खबर मिलेगा. तीन-चार दिन बाद हैदराबाद की मक्का मस्जिद में बम ब्लास्ट की खबर अखबार में आई. उसके सात-आठ दिन बाद सुनील जोशी एक तेलुगू न्यूजपेपर लेकर शबरीधाम में आ गया. उसमें मक्का मस्जिद में हुई घटना का चित्र भी था. मैंने सुनील को बताया कि पेपर में आया है कि कुछ मुसलिम लोग पकड़े गए हैं. सुनील ने फिर कहा कि यह हमारे लोगों ने ही किया है.'
2006 के मालेगांव बम धमाकों की तरह ही 17 मई, 2007 को शुक्रवार था. दोपहर के डेढ़ बजे 4,000 से ज्यादा मुसलिम हैदराबाद में चारमीनार के नजदीक स्थित मक्का मस्जिद में नमाज के लिए इकट्ठा हुए और तभी मस्जिद के भीतर वुजू खाना के पास एक बम धमाका हो गया. मस्जिद के उत्तरी दरवाजे की तरफ एक और बैग पड़ा हुआ था. रैगजीन के इस नीले बैग में भी आईईडी (उच्च क्षमता का विस्फोटक पदार्थ) था. संयोग से यह बम नहीं फट पाया.


इस धमाके की जांच में हैदराबाद पुलिस को कोई पुख्ता सुराग नहीं मिल रहा था. नतीजे तक पहुंचने की जल्दबाजी में हैदराबाद पुलिस ने स्थानीय मुसलिम युवाओं, जो सुन्नी मुसलमानों के कट्टरपंथी संगठन अहल -ए-हदीस के सदस्य थे, के खिलाफ एक अभियान छेड़ दिया. इस दौरान कुछ स्थानीय चरमपंथी जैसे शाहिद बिलाल, जो पाकिस्तान भाग चुके हैं, के रिश्तेदारों और दोस्तों से भी पूछताछ की गई. दो हफ्तों के भीतर मालकपेट और साहिबाबाद से तीन दर्जन से ज्यादा नौजवानों को हिरासत में लेकर उन्हें यातनाएं दी गईं. हालांकि जब पुलिस इन पर कोई मामला साबित नहीं कर पाई तो उनके ऊपर तीन फर्जी मामले बना दिए गए. नौ जून, 2007 को सीबीआई ने मक्का मस्जिद मामले की जांच अपने हाथ में ले ली.
संघ प्रचारकों और उनसे जुड़े लोगों के धमाकों में शामिल होने के सबूत बढ़ते जा रहे हैं. इसके बाद संघ के शीर्ष नेतृत्व की क्या प्रतिक्रिया होगी?
कुछ महीनों बाद 11 अक्टूबर, 2007 को एक और बम विस्फोट हुआ. यह रमजान का महीना था और सुबह सवा छह बजे धार्मिक मुसलिमों के एक समूह ने अजमेर शरीफ दरगाह में इफ्तार शुरू किया ही था कि गलियारे में लगे एक पेड़ के पास जोरदार धमाका हुआ. इसमें तीन लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए. जांच कर्ताओं को बाद में स्थल से एक और बम मिला जो उस समय नहीं फट पाया था. असीमानंद के मुताबिक यह धमाका मुसलिम लड़कों ने किया था और इसके पीछे इंद्रेश कुमार का हाथ था. असीमानंद अपने बयान में कहता है, ' ब्लास्ट के दो-तीन दिन बाद सुनील मेरे पास आया. उसके साथ में दो और लड़के थे जिनके नाम राज और मेहुल थे. राज और मेहुल शबरी धाम सुनील के साथ पहले 3-4 बार आ चुके थे. सुनील ने मुझे बताया कि अजमेर में जो बम कांड हुआ है वो हमारे ही लोगों ने ही किया है. सुनील ने यह भी बताया कि वो भी वहां पर था. मैंने सुनील से पूछा कि आपके साथ और कौन-कौन थे. सुनील ने मुझे बताया कि हमारे साथ और दो मुसलिम लड़के थे. मैंने सुनील जोशी से यह पूछा कि मुसलिम लड़के तुम्हें कैसे मिले. तो सुनील जोशी ने कहा कि लड़के इंद्रेश जी ने दिए थे. मैंने सुनील जोशी को बताया कि इंद्रेश जी ने अगर आपको मुसलिम लड़के दिए हंै तो आप जब पकड़े जाएंगे तो इंद्रेश जी का नाम भी आ सकता है. मैंने सुनील जोशी को कहा कि उसको इंद्रेश जी से जान का खतरा है. मैंने सुनील जोशी को यह भी कहा कि तुमने मुसलिम से काम करवाया है तो तुम्हें मुसलिम से भी अपनी जान का खतरा है. मैंने सुनील जोशी को कहा कि तुम कहीं मत जाओ यहीं पर रुको. सुनील जोशी ने मुझे बताया कि उसे देवास, मध्य प्रदेश में कुछ काम है और वो जाकर जल्दी वापस आ जाएगा. सुनील ने कहा कि राज और मेहुल को वो वहीं पर छोड़कर जाएगा. सुनील जोशी ने यह भी बताया कि राज और मेहुल बडौदा के बेस्ट बेकरी कांड ( 2002 के गुजरात में हुए दंगों के दौरान बेस्ट बेकरी में 12 मुसलिम मारे गए थे) में वांटेड हैं. मैंने सुनील से कहा कि बेस्ट बेकरी केस भी गुजरात का है और शबरी धाम भी गुजरात में है इसलिए इनको यहां रखना ठीक नहीं है, इसलिए यहां से इन्हें ले जाओ. जोशी उन दोनों को लेकर दूसरे दिन देवास चला गया.'
बमुश्किल दो महीने ही बीते थे कि असीमानंद की आशंका सच साबित हो गई. 29 दिसंबर, 2007 को देवास में सुनील जोशी की उसके घर के सामने हत्या कर दी गई. जोशी का परिवार दावा करता है कि हत्या उसी के संगठन के लोगों ने की है. हिरासत के दौरान साध्वी प्रज्ञा ने भी यह स्वीकार किया है. हालांकि मध्य प्रदेश पुलिस इस हत्या की तह तक नहीं पहुंच पाई और बाद में उसने अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी. दिसंबर, 2010 में मध्य प्रदेश पुलिस ने इस मामले की गुत्थी सुलझाते हुए माना कि जोशी की हत्या संघ में शामिल उसके कुछ दोस्तों ने ही की है. पुलिस ने जोशी की हत्या के पीछे गुजरात के मयंक, हर्षद सोलंकी, मेहुल, मोहन, इंदौर के राज कटारे और देवास के वासुदेव परमार को जिम्मेदार ठहराया. मेहुल और मोहन अभी पुलिस की पकड़ में नहीं आ पाए हैं जबकि सोलंकी ने देवास की एक अदालत में हत्या का आरोप स्वीकार कर लिया है. हालांकि गिरफ्तारियों से इस मामले की टूटी हुई कड़ियां नहीं जुड़तीं. पुलिस दावा कर रही है कि हत्या की वजह आपसी रंजिश थी. सीबीआई इस हत्याकांड के पीछे सुनील जोशी को हमेशा के लिए चुप कराना वजह मानती है. जोशी को आतंकी षड्यंत्र की काफी जानकारी थी और उसके सूत्रधारों को अंदेशा था कि यदि वह पकड़ा गया तो सच्चाई उजागर हो जाएगी.
सुनील जोशी की हत्या से जुड़े कई अनसुलझे सवाल भी हैं. मसलन यदि आतंकी कार्रवाईयों में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, जैसा कि बम धमाकों के सिलसिले में पकड़े गए सभी आरोपितों ने माना है, तो उसके साथी उसकी हत्या करना क्यों चाहेंगे? यदि वह इंद्रेश कुमार का खास आदमी था और उनके कहे मुताबिक काम करता था तो कोई अपने वफादार की हत्या क्यों करवाएगा? उनके बीच रंजिश या झगड़े की वजह क्या हो सकती है? हत्या से एक संकेत यह भी मिलता है कि इसके पीछे आतंकी संगठन में चल रही गुटबाजी एक वजह हो सकती है.
असीमानंद का इकबालिया बयान उन बातों पर आधारित है जो जोशी ने उसे बम धमाकों के बारे में बताई थीं. लेकिन जोशी की हत्या हो चुकी है. ऐसे में लग सकता है कि किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए असीमानंद के बयानों का महत्व काफी कम हो गया है. लेकिन जोशी इस मामले की अकेली महत्वपूर्ण कड़ी नहीं था. असीमानंद का बयान इस लिहाज से काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह  न सिर्फ खुद हिंदुत्व प्रचारकों के इस नेटवर्क में शामिल रहा बल्कि उनको संरक्षण देने में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. जांचकर्ताओं का मानना है कि कालसांगरा और डांगे से इस गुत्थी की गुम हुई कड़ियां जोड़ी जा सकती हैं. जोशी की मौत का मतलब यह नहीं था कि बम धमाकों का सिलसिला रुक गया हो. कम से कम अतिवादी हिंदू संगठनों के लिए तो बिलकुल भी नहीं. जोशी ने संघ के कुछ सदस्यों के साथ जो नेटवर्क बनाया था वह बाद में भी काम करता रहा.
असीमानंद ने अपने बयान में यह भी माना है कि वह जनवरी, 2007 में एक संदिग्ध हिंदू आतंकवादी संगठन अभिनव भारत के संपर्क में भी आया. कर्नल पुरोहित इस संगठन का एक संस्थापक सदस्य है. असीमानंद ने अप्रैल, 2008 में भोपाल में अभिनव भारत की बैठक में और बम धमाके करने का प्रस्ताव दिया था. साध्वी प्रज्ञा, भरत रितेश्वर, कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे भी इस बैठक में शामिल थे. असीमानंद अपने बयान में कहता है, ' मैंने अभिनव भारत की कई बैठकों में हिस्सा लिया जिसमें मैंने बम के बदले बम का जवाब देने का प्रस्ताव रखा था.'
29 सितंबर, 2008 को आतंक की फिर वापसी हुई. इस्लाम के पवित्र महीने रमजान में मालेगांव में मुसलिम  बसाहट के नजदीक भिक्कू चौक पर एक और बम धमाका हुआ. बम एक मोटरसाइकिल में लगाया गया था और इसे सिमी के कार्यालय, जिसमें ताला लगा रहता है, के सामने रखा गया था. उस समय हर बम धमाके के पीछे यह बात आसानी से मान ली जाती थी कि धमाके में सिमी के सदस्यों का हाथ है. यह सिद्ध करने के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं पड़ती थी. हालांकि उस समय सिमी के ऑफिस के सामने रखा गया बम एक अतिवादी हिंदू संगठन की कार्रवाई थी.
इसी तरह का एक बम धमाका सैकड़ों मील दूर गुजरात के एक छोटे-से शहर मोडासा में भी हुआ. मालेगांव की तरह यह धमाका भी सुक्का बाजार में हुआ था. यहां एक मस्जिद है जिसमें उस दिन रमजान की विशेष नमाज के लिए मुसलमान इकट्ठे हुए थे. ये बम मोटरसाईकल में फिट किए गए थे. यहां पांच मिनट के अंतराल से दो बम धमाके हुए. मालेगांव बम धमाके में सात लोगों की मौत हुई थी इनमें एक तीन साल का बच्चा भी शामिल था. मोडासा बम धमाके में 15 साल के एक किशोर की मौत हुई थी और कई लोग घायल हुए थे.
इसे हमारी न्याय व्यवस्था में गहराई से धंसा पूर्वाग्रह ही कहा जाएगा कि जब मुसलिम बहुल इलाकों में बम धमाके हो रहे थे तब भी अपने आप ही शक की सुई मुसलिम नौजवानों की तरफ घूम रही थी और उनकी गिरफ्तारियां हो रही थीं. यह हर किसी की कल्पना से परे था कि इन धमाकों के पीछे अतिवादी हिंदू संगठनों का हाथ हो सकता है.
लेकिन जैसा कि असीमानंद ने अपने बयान के अंत में बताया है, 'अक्टूबर, 2008 में संदीप डांगे का फोन मेरे पास आया... उसने मुझे बताया कि वह व्यारा नाम के स्थान पर है और शबरी धाम आना चाहता है... मैंने उसे बताया कि मैं नांदियाड (गुजरात) जाने की तैयारी में हूं...संदीप ने कहा कि आप अगर नांदियाड जा रहे हैं तो हमें भी लेकर चलिए, हम बड़ौदा तक आपके साथ जाएंगे. मैं अपनी सेंट्रो कार से शबरी धाम से व्यारा बस स्टैंड पर आया. संदीप के साथ एक और आदमी था, उनके पास दो-तीन भारी बैग थे. मैंने उनसे पूछा कि वे कहां से आ रहे हैं. उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र से आ रहे हैं...मैं उनको लेकर राजपीपला होकर बडौदा राजपीपला रोड के जंक्शन तक लेकर आया...मुझे बाद में अहसास हुआ कि वो दोनों मालेगांव बम ब्लास्ट के अगले दिन ही मुझे वहां मिले थे....संदीप के साथ जो दूसरा आदमी था मुझे बाद में मालूम हुआ कि उसका नाम रामजी था.'
करकरे ने इस मामले में जो सबूत जुटाए थे उनकी पुष्टि असीमानंद के इकबालिया बयान से होती है. महाराष्ट्र एटीएस ने जब मालेगांव बम धमाके के सिलसिले में 2008 में साध्वी प्रज्ञा को हिरासत में लिया तब से असीमानंद फरार चल रहा था. पिछले साल सीबीआई ने नवंबर में उसे हरिद्वार में हिरासत में लिया.यह तय हो चुका है कि असीमानंद के इकबालिया बयान से संघ के सामने कई असहज कर देने वाले सवाल और दुविधाएं होंगी. ऐसा नहीं है कि कुछेक लोगों के काले कारनामों से पूरे संगठन को दागदार मान लिया जाए, लेकिन फिर भी जब ऐसे मामले सामने आ रहे हैं तो संघ को खुद अपने से कुछ सवाल पूछने होंगे और देश को भी इस बारे में आश्वस्त करना होगा.
इनमें से ज्यादातर बम धमाकों में की गई जांच के बाद एक तथ्य यह सामने आया है कि बम बनाने से लेकर उन्हें प्लांट करने तक का काम बेहद बारीकी से किया गया है. इसके अलावा आरडीएक्स वाले इन ज्यादातर बमों का डिजाइन काफी जटिल था. अब सवाल कई हैं. इन धमाकों के ज्यादातर आरोपितों की पृष्ठभूमि बेहद साधारण है. ऐसे में क्या यह संभव है कि वे बिना शीर्ष नेतृत्व की अनुमति और सहायता के इन धमाकों को अंजाम दें? संघ में जिस तरह का अनुक्रम और अनुशासन होता है, उसे देखते हुए क्या यह संभव है कि बिना वरिष्ठ सदस्यों की अनुमति से इन कारनामों को अंजाम दिया जा सके? इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अब जब संघ प्रचारकों और उनसे जुड़े लोगों के धमाकों में शामिल होने के सबूत बढ़ते जा रहे हैं तो संघ के शीर्ष नेतृत्व की क्या प्रतिक्रिया होगी. अगर यह सच है कि संगठन के कुछ सदस्य भटक गए हैं तो क्या संघ उनके खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई चाहेगा? सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस्लामी बनाम हिंदुत्व अतिवाद की आत्मघाती दौड़ में पड़ने की बजाय क्या संघ अपने भीतर झांककर अपने दामन पर पड़े धब्बों को साफ करने का समझदारी भरा विकल्प चुनेगा?

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