Friday, February 25, 2011

मौलाना अबुलकलाम आज़ाद-हिन्दुस्तानी मुसलमानों का आईना - अज़ीज़ बर्नी


Aziz Burneyअल्लाह का बड़ा शुक्र और एहसान है कि मुहतमिम दारुलउलूम देवबंद के विषय पर उठा विवाद बिना किसी टकराव के टल गया। इसके लिए भरपूर मुबारकबाद के पात्र हैं मजलिस-ए-शूरा के सभी सदस्यगण तथा अन्य संबंधित व्यक्ति। हालंाकि यह मसला पूरी तरह हल हो गया, यह कहना शायद अभी असमय होगा, इसलिए कि एक महीने के अंदर आने वाली रिपोर्ट के बाद अंतिम स्थिति क्या रहती है, इसकी प्रतीक्षा रहेगी। फिर भी प्रसन्नता एवं संतोष की बात यह है कि 23 फरवरी 2011 को होने वाली मजलिस-ए-शूरा की बैठक, जिस पर पूरे भारत की नज़र लगी थी, बिना किसी अप्रिय घटना के सम्पन्न हुई और जो भी फ़ैसला आया वह सर्वसम्मति से था, यह फ़ैसला कितना संतोषजनक है, इस बहस में जाने की आवश्यकता इसलिए नहीं कि यह बहरहाल शूरा का फ़ैसला है और हम सब के लिए इतना ही काफ़ी होना चाहिए कि जिन आशंकाओं के बारे में सोचा जा रहा था, वैसा कुछ नहीं हुआ। उम्मीद की जा सकती है कि छात्र अब अपना ध्यान पूरी तरह अपनी शिक्षा पर केंद्रित कर सकेंगे। उन्हें किसी प्रकार के विवाद या आपसी टकराव का शिकार नहीं होना पड़ेगा।
गोधरा त्रासदी पर साबरमती सेंट्रल जेल की विशेष न्यायालय का फ़ैसला न कोई जीता न कोई हारा की तर्ज़ पर दोनों समुदायों को अपने अपने लिए संतोषजनक नज़र आने वाला है। जहां एक वर्ग इस बात को लेकर संतुष्ट हो सकता है कि 63 अभियुक्तों को रिहाई का अवसर मिला, जो बेगुनाह होते हुए भी जेल की सलाख़ों के पीछे थे। वहीं दूसरा वर्ग इस बात पर संतुष्ट हो सकता है कि यूसी बनर्जी कमीशन की रिपोर्ट ने साबरमती एक्सप्रेस त्रासदी को दुर्घटना क़रार दे दिया था, जबकि इस फ़ैसले ने इसे षड़यंत्र क़रार दिया है। बहरहाल यह एक ऐसा विषय है, जिस पर विस्तार के साथ लिखने की आवश्यकता है। 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस त्रासदी के तुरंत बाद लेखक ने गुजरात की यात्रा की थी। साबरमती एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे पीड़ितों से मुलाक़ात की, घटना का कारण जाना, वापसी के बाद रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के इन्हीं पृष्ठों पर विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की और गुजरात त्रासदी को विभिन्न दृष्टिकोण से देख कर तीन अलग-अलग पुस्तकें लिखीं, जिनमें ‘दास्तान-ए-हिदं’ पूर्ण रूप से गुजरात के उन दंगों पर आधारित है, साबरमती एक्सप्रेस त्रासदी सहित लगभग सभी घटनाओं का विवरण इस में दर्ज है। ‘चश्मदीद गवाह’ बेस्ट बैकरी केस को सामने रख कर लिखी गई और ‘रद्देअमल’ (प्रतिक्रिया) बलात्कार की शिकार बिलक़ीस बानो की रूदाद को एक नाॅवेल का रूप देकर गुजरात के हालात का चितरण करने का एक प्रयास था। साबरमती एक्सप्रेस त्रासदी और विशेष न्यायालय के इस फ़ैसले को सामने रख कर शीघ्र ही एक पूरा लेख पाठकों की सेवा में पेश किया जाएगा।
मिस्र में हुसनी मुबारक सरकार के पतन, फिर उसके बाद लीबिया की चिंताजनक स्थिति और बहरीन के बदलते परिदृश्य को सामने रख कर भी बहुत कुछ लिखने की आवश्यकता है। अगर हम केवल यह महसूस कर रहे हैं कि इन देशों की जनता आज़ादी की इच्छुक है और शासकों के विरुद्ध उठाई गई यह आवाज़ उन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर आगे बढ़ने की प्रक्रिया है तो शायद यह पूर्ण सच नहीं होगा। हमें बहुत गहराई के साथ इन बदलते हालात पर विचार करना होगा। उनके दूरगामी परिणामों को समझना होगा। साथ ही यह भी तय करना होगा कि इन हालात में हमारा अमल क्या हो। इन्शाअल्लाह मेरा कल का लेख इसी विषय पर होगा और मेरा अपने पाठकों से यह निवेदन भी होगा कि समय निकाल कर इस लेख को अवश्य पढ़ें। यही कारण है कि आज का यह लेख किसी एक विषय पर आधारित नहीं है, बल्कि इस बीच जितने भी ऐसे विषय मेरे सामने आए, जिन पर क़लम उठाना आवश्यक था, परंतु समय के अभाव के कारण यह संभव नहीं हो सका, इन सभी विषयों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए आज मैं उनका आंशिक रूप से उल्लेख कर रहा हूं। अतिसंभव है कि लिखते-लिखते और भी कोई बड़ा मामला सामने आ जाए और उस पर भी लिखना आवश्यक हो। लेकिन जिन विषयों को चिन्हित मैं आज के इस लेख में कर रहा हूं इन्शाअल्लाह उन सब पर भरपूर गुफ़्तगू होगी। इसलिए कि इनमें से कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिस पर कुछ वाक्य लिख कर बात समाप्त कर दी जाए।
पिछले सप्ताह बदायूं और बिजनौर में शांति सम्मेलन आयोजित किए गए, लाखों की संख्या में शंतिप्रिय लोगों ने इसमें भाग लिया। इसी बीच मुहतमिम दारुलउलूम देवबंद के विषय पर उठा विवाद तो समाचारपत्रों में स्थान पाता रहा, लेकिन मुस्लिम संस्थाओं द्वारा इस्लामी बैनर तले इतने बड़े पैमाने पर आयोजित किए जाने वाले सम्मेलनों को मीडिया में उतना स्थान नहीं मिला, जितना कि मिलना चाहिए था और अगर मैं इस समय यह लिख दूं कि इन सार्थक सम्मेलनों में भाग लेने वालों के अलावा शायद भारत की जनता इस बारे में कुछ ख़ास जान नहीं पाई कि आख़िर वहां गुफ़्तगू क्या हुई थी, इसका उद्देश्य क्या था तो ग़लत नहीं होगा। मैं इस विषय पर भी एक पूरा लेख लिखना चाहता हूं जोकि शीघ्र ही इन्शाअल्लाह आपकी सेवा में पेश किया जाएगा।
आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर बताया कि कर्नल पुरोहित तो उनके प्राण लेना चाहता था। मैंने उस चार्जशीट की विभिन्न जानकारियों का गहन अध्ययन किया है जिनमें यह दर्ज है कि इंद्रेश और मोहन भागवत को मारने का इरादा था और अगर हमारे पाठकों को याद हो तो मैंने अपने इसी क़िस्तवार काॅलम में एक लेख लिख कर यह भी स्पष्ट किया था कि अगर यह मान लिया जाए कि अगर ऐसा होता तो क्या होता, देश को किन हालात से गुज़रना पड़ता, आरोप किस पर आता और कौन सबसे अधिक दिक़्क़तों, कठिनाइयों को सामना करता। कर्नल पुरोहित का नाम तो शायद हत्यारे के रूप में किसी के सानगुमान में भी नहीं होता। इस समय मेरे सामने है प्रधानमंत्री को लिखे गए मोहन भागवत के पत्र का मैटर और जहां यह दर्ज है कि कर्नल पुरोहित मोहन भागवत और इंद्रेश की हत्या करने का इरादा रखता था, वहीं और बहुत कुछ दर्ज है, निश्चय ही यह पत्र पढ़ने से पूर्व वह सब भी भागवत जी की नज़रों से गुज़रा होगा। ज़रूरी है कि अन्य आवश्यक बातें भी प्रधानमंत्री के सामने रखी जाएं, ताकि वह श्री मोहन भागवत और इंद्रेश जी की सुरक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था तो करें ही, देश की सुरक्षा के लिए और क्या-क्या सावधानी दरकार है, उस पर विचार कर लें।
22 फरवरी को बरसी होती है मौलाना अबुलकलाम आज़ाद की। लगभग पूरे सप्ताह इस विषय पर गोष्ठियां, सम्मेलन देश भर में आयोजित किए गए। ऐसे तीन कार्यक्रम में मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला। पहला 18 फ़रवरी 2011 को मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवसर्टी हैदराबाद में मास मीडिया स्टूडेंट से संबोधन, उसके अगले दिन प्रियदर्शनी काॅलेज, नामपल्ली हैदराबाद में अखिल भारतीय उर्दू तालीमी कमेटी द्वारा आयोजित किया जाने वाला सम्मेलन व मुशायरा और कल 22 फ़रवरी को आंध्र भवन, दिल्ली में आयोजित किए गए सेमिनार में उपस्थित सभी वक्ताओं द्वारा प्रकट विचारों को यहां दर्ज करना तो संभव नहीं है, रिपोर्ट के रूप में बहुत कुछ पाठकों की सेवा में पेश किया जा चुका है, लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो समाचारों के रूप में पेश नहीं की जा सकी हैं, और उनका पाठकों तक पहुंचना अत्यंत आवश्यक है। आंध्र भवन दिल्ली में भाषण देते हुए मौलाना आज़ाद के व्यक्तित्व पर मैंने जो कुछ वाक्य कहे, मैं उन्हें भारत भर में अपने पाठकों तक पहुंचाना ज़रूरी समझता हूं। वक्ताओं ने मौलाना आज़ाद के व्यक्तित्व को किसी सीमित दायरे में क़ैद न किए जाने पर बल दिया, मैंने उनके विचार से सहमति प्रकट करने के बावजूद इसमें कुछ वृद्धि करने की ज़रूरत महसूस की। भारतीय मुसलमान आज अपनी पहचान को लेकर अत्यंत परेशान और चिंतित हैं। जब जिसका जी चाहता है, उसकी पहचान किसी से भी जोड़ देता है। कभी उसकी पहचान बिन लादेन से जोड़ दी जाती है, कभी दाऊद इब्राहीम से तो कभी भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान का समर्थक क़रार दे दिया जाता है, जबकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि देश के विभाजन के बाद भारतीय मुसलमानों के सामने अगर कोई एक ऐसा चेहरा था, जिसे वह अपना प्रतिनिधि स्वीकार करते थे और जिसके नेतृत्व में रह जाने को उन्होंने वरीयता दी मुहम्मद अली जिन्ना पर तो वह मौलाना आज़ाद का चेहरा था। जो आवाज़ उस समय के भारतीय मुसलमानों के मन में गूंजती थी वह जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़े होकर किया गया मौलाना अबुलकलाम आज़ाद का वह भाषण था जिसमें उन्होंने धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान के मुक़ाबले धर्मनिर्पेक्ष भारत को मुसलमानों के हक़ में क़रार दिया था। यह वह समय था जब अधिकतर मुसलमान पाकिस्तान जाने के लिए तैयारियां पूरी कर चुके थे। गोया उन्होंने अपने बिस्तर बांध लिए थे, परंतु मौलाना आज़ाद के इस भाषण के बाद उन्होंने भारत को अपना देश स्वीकार किया और भारत को छोड़ कर न जाने का फ़ैसला किया, अपने बिस्तर खोल दिए। मौलाना अबुलकलाम आज़ाद नहीं चाहते थे कि देश का विभाजन हो, मौलाना अबुलकलाम साम्प्रदायिक सदभावना के अगुवा थे। वह भारत के पहले शिक्षा मंत्री ही नहीं, भारत की राजनीति और पत्रकारिता के लिए एक मशअल-ए-राह हैं, इसलिए कि भारतीय मुसलमानों की पहचान अगर मौलाना अबुलकलाम आज़ाद की पहचान से जोड़ दी जाए तो फिर कोई उनसे यह प्रश्न नहीं कर सकेगा कि तुम्हें तुम्हारा देश पाकिस्तान के रूप में मिल चुका है या तुम पाकिस्तान से सहानुभूति अथवा प्रेम रखते हो, इसलिए कि भारत में रह जाने वाले मुसलमानों ने तो 1947 में ही यह फ़ैसला कर लिया था कि उनका देश भारत है और उन्हें भारत में ही रहना है। अगर कोई चेहरा उनके सामने था, जिससे वह प्रभावित थे, जिसे अपना नेता मानते थे, जिसकी अगुवाई में उन्हें अपना भविष्य नज़र आता था तो वह मौलाना अबुलकलाम आज़ाद ही का चेहरा था और उसी चेहरे को उनकी पहचान क़रार दिया जा सकता है। इसलिए फिर किस तरह बिन लादेन या दाऊद इब्राहीम के चेहरों में भारतीय मुसलमान का चेहरा देखा जा सकता है। इतिहास गवाह है कि अगर उनके चेहरे का कोई आईना था या है तो वह मौलाना अबुलकलाम आज़ाद थे।
मैंने रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा की पत्रकारिता की चर्चा करते हुए हवाला पेश किया ‘अल-हिलाल और अल-बलाग़’ की पत्रकारिता का। मैंने अर्ज़ किया कि आज भी जब मैं लिखता हूं तो मेरे सम्पादकीय उस उद्देश्य से प्रभावित होते हैं, जो उद्देश्य मौलाना अबुलकलाम आज़ाद का था। निःसंदेह आज हालात ज़रा बदल गए हैं, उस समय जब मौलाना अबुलकलाम आज़ाद अपना लेख लिखने के लिए क़लम उठाते थे तो अंग्रेज़ों की ग़्ाुलामी से छुटकारा उनके क़लम का उद्देश्य होता था और जब मैं क़लम उठाता हूं तो हक़ व इन्साफ़ की प्राप्ति मेरे क़लम का उद्देश्य होता है। मुझे यह इन्साफ़ अधूरा इन्साफ़ नज़र आता है, जहां 9 वर्ष तक सज़ा काटने के बाद 63 अभियुक्तों को यह कह कर रिहा कर दिया जाए कि जाओ तुम्हारी कोई ख़ता नहीं थी, क्या उनके ख़ूबसूरत 9 वर्षों को एक पीड़ादायक, लज्जापूर्ण क़ैद में परिवर्तित करने वालों से कोई जवाब तलब नहीं किया जाना चाहिए, यह मात्र एक घटना है, जिसको मिसाल स्वरूप यहां पेश कर रहा हूं। यह अकेला मामला नहीं है बात कलीम हैदराबादी की रिहाई की हो या मालेगांव बम धमाका के अभियुक्तों की, जो रिहाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उन्हें पूर्ण न्याय दिलाना अगर इस क़लम की ज़िम्मेदारी है, जिसे रोशनी मिली मौलाना अबुलकलाम आज़ाद से तो इस क़ौम की भी ज़िम्मेदारी है जिसने बीते हुए कल में मौलाना अबुलकलाम आज़ाद की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर देश को अंगे्रेज़ों की ग़ुलामी से निजात दिलाई, आज उसी क़ौम को देश को, आतंकवाद और साम्प्रदायिक तनाव से निजात दिलाने के लिए आगे आना होगा। हक़ और इन्साफ़ की इस जंग को धर्म तथा जाति से ऊपर उठ कर देश तथा क़ौम की उन्नति के लिए लड़ना होगा और सिद्ध करना होगा कि हमारे चेहरों में मौलाना अबुलकलाम आज़ाद का चेहरा नज़र आए।
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