Sunday, February 13, 2011

जाति, जनगणना और संसद के साथ धोखा

2011 की जनगणना में जाति को शामिल करने का मामला राजनीतिक-बौद्धिक विमर्श के रूप में शुरू जरूर हुआ था, लेकिन देखते ही देखते जनता के बहुसंख्य तबके की आंकाक्षाएं इससे जुड़ गई और यह एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। संसद से लेकर सेमिनारों और विश्वविद्यालयों तथा अकादमिक संस्थानों में इस सवाल पर व्यापक चर्चाएं हुईं। जनमानस में यह सवाल काफी गंभीरता से जगह बना चुका है कि आखिर सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान जाति को जनगणना से बाहर रखने के सवाल पर इस कदर अड़े हुए क्यों हैं? वर्चस्व की शक्तियों और खास कर सवर्ण बुद्धिजीवियों ने जातिवादी नजरिए से इस विचार का जितना विरोध किया, उसी अनुपात में जातिवार जनगणना के लिए समर्थन बढ़ता चला गया। सवर्ण वर्चस्व के बावजूद मीडिया इस प्रश्न पर जनभावनाओं को मोड़ने में नाकाम साबित हुआ।

संसद मे सहमति बनी, फिर क्या हुआ:
आखिरकार इस देश की कैबिनेट ने लोकसभा में बनी व्यापक सहमति की धज्जियां उड़ाते हुए 2011 की जनगणना से जाति को बाहर कर दिया। यानी 2011 के फरवरी महीने में जनगणना के लिए सरकारी कर्मचारी जब आपके पास आएंगे (यह आलेख दिसंबर, 2010 में लिखा गया है) तो वे आपकी जाति नहीं पूछेंगे। जनगणना के फॉर्म में हमेशा की तरह अनुसूचित जाति और जनजाति का कॉलम तो होगा, इसके अलावा बाकी सभी कॉलम होंगे, लेकिन जाति का कॉलम नहीं होगा। भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए इसके मायने बेहद गंभीर हैं।

संसद के बजट सत्र में लोकसभा में इस बात पर आम सहमित बनी थी कि 2011 में होने वाली जनगणना में जाति को शामिल किया जाए।[i] लोकसभा में ऐसे मौके कम आते हैं जब पक्ष और विपक्ष का भेद मिट जाता है। जनगणना में जाति को शामिल करने को लेकर लोकसभा में हुई बहस में यही हुआ। कांग्रेस और बीजेपी के साथ ही वामपंथी दलों और तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों ने इस बात का समर्थन किया कि जनगणना में जाति को शामिल करना अब जरूरी हो गया है और मौजूदा जनगणना में जाति को शामिल कर लिया जाए। संसद में हुई बहस के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि “लोकसभा की भावना से सरकार वाकिफ है और इस बारे में कैबिनेट फैसला करेगी।” उनकी इस घोषणा का लोकसभा में जोरदार स्वागत हुआ और इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में देखा गया। इस घोषणा के लिए तमाम दलों के सांसदों ने प्रधानमंत्री और यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्षा सोनिया गांधी की जमकर वाहवाही की।

ऐसे देश में 2010 के बजट सत्र में जनता के प्रतिनिधियों ने आम राय से जिस बात का समर्थन किया था, उसे शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले पलट दिया जाए, तो इस पर चिंता होनी चाहिए। आजादी के बाद भारत ने राजकाज के लिए संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को चुना और इस नाते देश के लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सबसे प्रमुख मंच हमारे देश की संसद है। जनता द्वारा सीधे चुने प्रतिनिधियों की संस्था होने के नाते लोकसभा को संसद के दोनों सदनों में ऊंचा दर्जा हासिल है। देश पर वही सरकार राज करती है, जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन हासिल हो।

7 मई, 2010 को दोपहर ढाई बजे के बाद लोकसभा की कार्यवाही इस तरह चली। देखिए उस कार्यवाही के अंश जिसे लोकसभा की वेबसाइट से शब्दश: लिया गया है -

THE PRIME MINISTER (DR. MANMOHAN SINGH): Madam, the hon. Home Minister has made a detailed statement on the issue of Census, 2011. I am aware of the views of hon. Members belonging to all sections of the House. I assure you that the Cabinet will take a decision shortly. (गृह मंत्री ने 2011 की जनगणना के बारे में विस्तृत बयान दिया है। मैं सदन के सभी तबकों के सदस्यों के विचारों से अवगत हूं। मैं आपको आश्वासन देता हूं कि कैबिनेट जल्द ही इस बारे में फैसला करेगी)

लालू प्रसाद (आरजेडी): माननीय अध्यक्ष महोदय, माननीय प्रधानमंत्री जी, नेता सदन और आप पर सदन का पूरा भरोसा है। आज आपके आश्वासन देने के बाद हमने अपना एजिटेशन रोक दिया।

मुलायम सिंह यादव (समाजवादी पार्टी): माननीय प्रधानमंत्री जी और नेता सदन दोनों को बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई। मुझे विश्वास है कि आम तौर पर जो देश की बड़ी तादाद है, उनका भावनाओं का आदर करेंगे और बहुत से उच्च जातियों के जिन लोगों ने समर्थन दिया, उन्हें भी मैं विशेष बधाई देता हूं।

शरद यादव (जेडी-एस): अध्यक्ष महोदया, आज पिछले साठ साल से जो एक तनाव था, उसका आज आपने समाधान निकाला है। मैं पूरी तरह से आपके इस बयान का स्वागत करता हूं। इस देश के करोड़ों गरीब लोग साठ साल से इस मांग को उठाते रहे, जिसका आज आपने बड़े दिल का परिचय देकर समाधान निकाला है। इसलिए आपको सलाम के साथ बहुत-बहुत धन्यवाद करते हैं।

मुलायम सिंह यादव (समाजवादी पार्टी): हम सोनिया जी का भी धन्यवाद करते हैं।

गोपीनाथ मुंडे (बीजेपी): अध्यक्ष महोदया, आजादी के बाद पहली बार ओबीसी की जनगणना की मांग थी। माननीय प्रधानमंत्री और सदन के नेता ने कई दिनों से इस बारे में तनाव था, उसे उन्होंने आज हल किया और इस पर फैसला किया। इसलिए मैं सरकार का अभिनंदन और स्वागत करता हूं।

दारा सिंह चौहान (बीएसपी): माननीय अध्यक्ष जी, मैं माननीय प्रधानमंत्री, नेता सदन, गृह मंत्री जी और उन सभी सहयोगियों को अपने दल की तरफ से धन्यवाद देता हूं। कल से संसद में जो तनाव बना हुआ था, यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी जी के दिशा निर्देश में यह तय हुआ है, उसके लिए मैं श्रीमती सोनिया गांधी जी और आप सभी को बधाई देता हूं।

लालू प्रसाद (आरजेडी): हम सोनिया जी को भी धन्यवाद देते हैं।

प्रधानमंत्री की लोकसभा में घोषणा के बाद इस मामले पर विचार करने के लिए कैबिनेट मंत्रियों की एक समिति गठित की गई, जिसके अध्यक्ष वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी बनाए गए। जिस सवाल पर लोकसभा में आम सहमति हो और प्रधानमंत्री जिसके लिए सदन में आश्वासन दे चुके हों[ii], उस पर पुनर्विचार के लिए मंत्रियों की समिति गठित करने का निर्णय आश्चर्यजनक है। इस कमेटी ने तीन बैठकें कीं और फिर एक अजीबोगरीब विचार लेकर सामने आई। मंत्रियों के समूह ने अपनी सिफारिश में कहा कि 2011 की जनगणना को जस का तस होने दिया जाए और यूनीक आईडेंटिटी (यू-आईडी) नंबर देने के क्रम में होने वाले बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ जाति की गणना कराई जाए। संसद के मानसून सत्र में इसपर हंगामा मचा और कहा गया कि यह गणना तो 100 साल में भी शायद ही पूरी होगी तो सरकार ने यह प्रस्ताव वापस ले लिया। बायोमैट्रिक चरण में जनगणना कराने के प्रस्ताव पर हम आगे चर्चा करेंगे। जब मानसून सत्र में सरकार ने इस बेतुकी सिफारिश को वापस ले लिया तो उम्मीद जगी कि 2011 में जनगणना के दौरान जाति को शामिल कर लिया जाएगा।

लेकिन शीतकालीन सत्र से पहले ऐसा कुछ हुआ कि 2011 की जनगणना से जाति को बाहर कर दिया गया। यह शायद हम कभी नहीं जान पाएंगे कि लोकसभा में बनी आम राय को बदलने के लिए परदे के पीछे क्या कुछ हुआ होगा। इस समिति की सिफारिशों के बाद कैबिनेट ने यह फैसला किया कि फरवरी, 2011 से शुरू होने वाली जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा बल्कि उसी वर्ष जून से सितंबर के बीच जाति की अलग से गिनती कर ली जाएगी। महत्वपूर्ण बात यह यह है 6-7 मई, 2010 को लोकसभा में जनगणना पर हुई बहस के बाद जाति जनगणना संबंधी सभी घोषणाएं संसद से बाहर की जा रही हैं। यह संसद की, और एक तरह से भारतीय लोकतंत्र और जनता की अवमानना है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 के मुताबिक कैबिनेट सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी है। जाहिर है, संसद को कैबिनेट के ऊपर दर्जा दिया गया है और संसद का विश्वास खोने के बाद कैबिनेट को इस्तीफा देना होता है।

संसद से ऊपर कौन बैठा है
जनगणना को लेकर कैबिनेट ने जो फैसला किया उसकी सबसे बड़ी प्रक्रियागत खामी यह है कि जिस बात को लेकर चर्चा संसद में हुई हो और जिस तरह की सहमति बनी हो, उसे पलटने का फैसला कैबिनेट ने उस दौरान किया, जब संसद का सत्र नहीं चल रहा था। अगर यही फैसला करना था कि जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा, तो फिर इसके लिए किसी भी तरह की जल्दबाजी नहीं थी। आजादी के बाद से ही भारत में जाति का प्रश्न जोड़े बगैर जनगणना होती रही है और जनगणना के मामले में यथास्थिति को बनाए रखने यानी जैसी जनगणना होती रही है, उसे जारी रखने की घोषणा करने के लिए संसद के दो सत्रों के बीच का समय किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। अगर यह घोषणा संसद के मानसून या शीतकालीन सत्र के दौरान होती तो सांसदों के पास यह मौका होता कि वे इस पर फिर से विचार करते। अगर कैबिनेट की यही राय थी कि जनगणना के बारे में फैसले को तत्काल घोषित करना आवश्यक है तो इसके लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने का विकल्प भी था।

संसद में इस फैसले की घोषणा न करने से यह संदेह पैदा होता कि है कि इस सवाल पर कुछ पर्दादारी थी। जनगणना से जाति को अलग करने का फैसला 9 सितंबर, 2010 को घोषित किया गया।[iii] गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इसकी घोषणा इस तरह की थी-

“After considering various options, based on the responses of various political parties, a separate house to house enumeration of caste will be done from June 2011 to September 2011. (विभिन्न विकल्पों पर विचार करने और राजनीतिक दलों की राय के आधार पर फैसला किया गया है कि 2011 में जून से सितंबर के बीच घर-घर जाकर जाति की गणना की जाएगी।)

इस दिन जारी गृह मंत्रालय की विज्ञप्ति को देखें। इसमें कैबिनेट के फैसले का जिक्र इस तरह किया गया:

a) ‘Caste’ of all persons as returned by them would be canvassed.
b) The caste enumeration would be conducted as a separate exercise from the month of June 2011 and completed in a phased manner by September 2011 after the Population Enumeration phase (to be conducted in February-March 2011) of the Census 2011 is over.
c) A suitable legal regime for collection of data on Castes would be formulated in consultation with the Ministry of Law & Justice.
d) The Office of the Registrar General and Census Commissioner India would conduct the field operations of the caste enumeration. The Government of India would constitute an Expert Group to classify the caste/tribe returns after the enumeration is completed. The Office of the Registrar General and Census Commissioner India would hand over the details of the castes/tribes returned in the enumeration to the proposed Expert Group.

एक तरफ घोषणा, दूसरी तरफ कई जिलों में जनगणना शुरू:
इस घोषणा के तुरंत बाद देश के उन इलाकों में जनगणना शुरू हो गई, जहां सर्दियों में बर्फ गिरती है। मिसाल के तौर पर हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में जनगणना सितंबर महीने में कर ली गई। यानी कैबिनेट ने जनगणना के बारे में फैसला इस तरह किया गया कि संसद को इस फैसले को सुधारने या फिर से विचार करने का मौका न मिले। शीतकालीन सत्र में अगर कैबिनेट के फैसले को बदलने पर विचार होता भी है तो यह एक विचित्र स्थिति होगी क्योंकि उस समय तक कई जिलों में जनगणना संपन्न हो चुकी होगी। सरकार के सामने यह विकल्प था कि वह बर्फबारी वाले जिलों में जनगणना का काम बर्फ पिघलने के बाद कराती। यह इसलिए भी सही होता क्योंकि जाति आधारित जनगणना पर विवाद चल रहा है और इस सवाल पर लोकसभा एक अलग नतीजे पर पहुंची थी।

सूची मौजूद है तो क्यों चाहिए एक्सपर्ट कमेटी:
गृह मंत्रालय की विज्ञप्ति को गौर से देखें तो जाहिर हो जाएगा कि सरकार ने जाति जनगणना के आंकड़े जारी करने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है। जातियों की गिनती का ब्यौरा सितंबर, 2011 तक जुटाने की बात जरूर की गई है लेकिन इन ब्यौरों को एक एक्सपर्ट कमेटी को सौंप दिया जाएगा। वह एक्सपर्ट कमेटी जातियों को अलग अलग समूहों में बांटेगी। यह काम कितने विवादों को जन्म देगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। विभिन्न जातियों के लोग और संगठन अपने जाति से जुड़े मामलों को लेकर अदालतों में जा सकते हैं और इस वजह से जातियों की गणना और आंकड़े जारी करने के काम में बाधा आएगी। सरकार ने अनावश्यक रूप से इस मामले में एक्सपर्ट कमेटी गठित करने का फैसला किया है। इस समय हर राज्य में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों की सूची मौजूद है। इन सूचियों के होते हुए भी सरकार जातियों को समूहों में रखने के लिए एक्सपर्ट कमेटी क्यों गठित करना चाहती है, ये समझना मुश्किल नहीं है। सरकार दरअसल यही चाहती है कि जाति समूहों के बारे में नई-नई उलझनें पैदा हों, जिसकी आड़ में जाति गणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने का काम टाला जा सके। साथ ही एक्सपर्ट कमेटी के बहाने से सरकार समाजशास्त्रियों और राजनीतिविज्ञानियों के आगे एक तरह का चारा भी फेंक रही है ताकि उन्हें अपने पक्ष में किया जा सके।

आर्थिक-शैक्षणिक ब्यौरा छिपाने के लिए खर्च किए जाएंगे लगभग 2000 करोड़ रु.
बायोमैट्रिक जाति गणना की तरह ही अलग से जाति गणना का फैसला भी निरर्थक है। इस फैसले की सबसे बड़ी खामी यह यह कि अलग से जातियों की गिनती करने से सिर्फ यह जानकारी मिलेगी कि इस देश में किस जाति के कितने लोग हैं। यह आंकड़ा राजनीति करने वालों के अलावा किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है। जनगणना से दरअसल यह आंकड़ा सामने आना चाहिए कि किस जाति की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है। इस जानकारी के बगैर सिर्फ यह जानकर कोई क्या करेगा कि विभिन्न जातियों की संख्या कितनी है।

आर्थिक-शैक्षणिक स्तर की जानकारी देश में विकास योजनाओं को बनाने का महत्वपूर्ण आधार साबित होगी। इससे यह पता चलेगा कि आजादी के 63 साल बाद किस जाति और जाति समूह ने विकास का सफर तय किया है और कौन से समूह और जातियां पीछे रह गई हैं। इस तरह मिले आंकड़ों के आधार पर खास जातियों और समूहों के लिए विकास और शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। आरक्षण प्राप्त करने के लिए अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्ग में शामिल होने या किसी समुदाय को आरक्षित समूह की सूची से बाहर करने की मांग को लेकर हुए आंदोलनों की वजह से इस देश में काफी खून बहा है। जनगणना में जाति को शामिल करने से जो आंकड़े सामने आएंगे, उससे इस तरह के सवालों को हल किया जा सकेगा। इस मायने में जनगणना से बाहर जाति की किसी भी तरह की गिनती बेमानी है। योजना आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से लेकर कार्मिक मंत्रालय तथा संसदीय समितियों तक ने लगातार इस बात की सिफारिश की है भारत में जाति आधारित आर्थिक-शैक्षणिक आकड़ों की जरूरत है।

अलग से जाति गणना में कई और खामियां भी हैं। मिसाल के तौर पर, इस वजह से देश के राजकोष पर लगभग 2,000 करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा।[iv] देश में जनगणना के लिए अलग से कानून है। अलग से जाति की गणना के लिए कानूनी प्रक्रिया तय करनी पड़ेगी। जनगणना कानून की वजह से लोग बिना किसी हिचक के जानकारियां देते हैं, क्योंकि जनगणना अधिकारी को दी गई निजी सूचनाओं को सार्वजनिक करने पर रोक है। कानूनी तौर पर ऐसी पाबंदी के बिना जाति की गिनती कराने पर सही जानकारी देने में लोग हिचक सकते हैं। जनगणना में देश के लगभग 21 लाख सरकारी शिक्षक शामिल होगें और इस प्रक्रिया में तीन हफ्ते से ज्यादा समय लगेगा। जनगणना खत्म होने के तीन महीने बाद जाति गणना के लिए शिक्षकों को इससे भी ज्यादा समय के लिए स्कूलों से दूर रहना होगा। सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की शिक्षा पर इसका बुरा असर पड़ेगा। और फिर सवाल उठता है कि अलग से जाति गणना क्यों। इस तरह अलग से गिनती कराने से जातियों से जुड़े आर्थिक और शैक्षणिक आंकड़े नहीं आएंगे। स्पष्ट है कि अलग से जाति की गणना कुछ जानने के लिए नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण आंकड़ों को छिपाने के लिए की जाएगी। 2,000 करोड़ रुपए का खर्च इसलिए होगा ताकि जातियों से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां छिपी रहें जबकि उद्देश्य अगर सूचनाएं जुटाना है, तो इसके लिए कोई खर्च नहीं करना होगा। 2011 के जनगणना फॉर्म में जाति का एक कॉलम जोड़ देने से जातियों की संख्या भी सामने आ जाती और उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति भी।

लेकिन सरकार नहीं चाहती कि ये आंकड़े सामने आएं। इसलिए जनगणना में जाति को शामिल करने की जगह जनगणना से जाति को अलग कर दिया गया। यह सब लोकसभा में बनी सहमति का निरादर करके किया जा रहा है। प्रश्न यह है कि इस देश में आखिर वह कौन सी सत्ता है जो देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की अनदेखी कर सकती है। कहीं यह भारतीय समाज की वर्चस्ववादी व्यवस्था तो नहीं, जिसके आगे संसद की भी नहीं चलती?

सांसद एस रामासुब्बू ने गृह मंत्रालय से यह जानना चाहा था कि अलग से जातियों की गिनती कराने पर कितना खर्च आएगा और इसकी क्या उपयोगिता है। केंद्रीय गृह मंत्री अजय माकन ने 9 नवंबर, 2010 को इस सवाल के लिखित जवाब में यह तो कहा कि खर्च का आकलन अभी किया जा रहा है, लेकिन अलग से जाति गणना की उपोगिता के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा।[v] इससे भी जाहिर होता है कि जाति की अलग से गिनती के लिए सरकार के पास तर्क नहीं हैं।

जातिवार जनगणना: साजिश दर साजिश
जाति जनगणना के प्रश्न पर सरकार जिस तरह से लगातार व्यवहार करती रही है, उसकी वजह से संदेह का वातावरण बन गया है। मई महीने में केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जाति आधारित जनगणना के खिलाफ यह तर्क दिया था कि जनगणना की शुचिता को बनाए रखना आवश्यक है। इस बाद संसद में चर्चा के दौरान उन्होंने जनगणना महानिदेशक के हवाले से कहा कि सभी जातियों की गिनती में कितनी जटिलताएं हैं।[vi] जबकि जनगणना महानिदेशक पहले ही कह चुके हैं कि अगर सरकार इस बारे में फैसला करती है तो उनका कार्यालय जाति आधारित जनगणना करा सकता है। वैसे भी 1941 तक देश में सभी जातियों की गिनती होती रही है और अब तो आधुनिक तकनीक और कंप्यूटर का जमाना है। मौजूदा समय में जाति आधारित जनगणना की बात करना तर्कसंगत नहीं है।

जाति जनगणना : बायोमैट्रिक के नाम पर धोखा देने की कोशिश
जनगणना में जाति को शामिल करने के सवाल पर साजिशों की पूरी श्रंखला है, जिसमें सबसे हास्यास्पद था बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ जाति जनगणना का प्रस्ताव। लोकसभा में प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद गठित मंत्रियों की समिति ने ऐसा लगता है कि जाति जनगणना न कराने के तमाम तरीकों पर विचार करने के बाद श्रेष्ठ उपाय के तौर पर बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ इसे जोड़ने का फैसला किया था। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों के समूह का जो फॉर्मूला दिया था, उसके आधार पर जाति की गणना अगले पांच साल तक जारी ही रहती और जो आंकड़े आते, उसमें देश की लगभग आधी आबादी को शामिल नहीं किया जाता। बायोमैट्रिक ब्यौरा जुटाने के साथ जाति गणना की एक बड़ी दिक्कत के बारे में केंद्रीय गृह सचिव जी. के. पिल्लई कैबिनेट नोट में लिख चुके हैं। बायोमैट्रिक आंकड़ा संकलन के साथ जाति की गिनती करने से जातियों से जुड़े सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक तथ्य और आंकड़े सामने नहीं आएंगे। जनगणना के फॉर्म में ये सारी जानकारियां होती हैं, जबकि बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ यह काम संभव नहीं है। बायोमैट्रिक आंकड़ा जुटाते समय लोगों से जो जानकारियां ली जाएंगी वे इस प्रकार हैं – नाम, जन्म की तारीख, लिंग, पिता/माता, पति/पत्नी या अभिभावक का नाम, पता, आपकी तस्वीर, दसों अंगुलियों के निशान और आंख की पुतली का डिजिटल ब्यौरा।[vii]

सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक आंकड़ों के बिना मिले जाति के आंकड़े दरअसल सिर्फ जातियों की संख्या बताएंगे, जिनका कोई अर्थ नहीं होगा। सिर्फ जातियों की संख्या जानने से अलग अलग जाति और जाति समूहों की हैसियत के बारे में तुलनात्मक अध्ययन संभव नहीं होगा। यानी जिन आंकड़ों के अभाव की बात सुप्रीम कोर्ट और योजना आयोग ने कई बार की है, वे आंकड़े बायोमैट्रिक के साथ की गई जाति गणना से नहीं जुटाए जा सकेंगे।

जाति गणना और बायोमैट्रिक की धांधली:
जाति गणना पर मंत्रियों के समूह ने जो फॉर्मूला बनाया था, उसमें जाति की गिनती को जनगणना कार्य से बाहर कर दिया गया। मंत्रियों के समूह ने फैसला किया है कि जाति की गणना नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के तहत बायोमैट्रिक ब्यौरा जुटाने के क्रम में कर ली जाएगी।[x] बायोमैट्रिक ब्यौरा यूनिक आइडेंटिटी नंबर के लिए इकट्ठा किया जाना है। प्रस्ताव यह था कि जब लोग अपना यूआईडी नंबर के लिए जानकारी दर्ज कराने के लिए आएंगे तो उनसे उनकी जाति पूछ ली जाएगी। यह एक आश्चर्यजनक फैसला था। धर्म, भाषा, शैक्षणिक स्तर, आर्थिक स्तर से लेकर मकान पक्का है या कच्चा तक की सारी जानकारी जनगणना की प्रक्रिया के तहत जुटाई जाती है और ऐसा ही 2011 की जनगणना में भी किया जाएगा, लेकिन जाति की गिनती को जनगणना की जगह यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर के लिए होने वाली बायोमैट्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की बात की गई।

यहां एक समस्या यह है कि बायोमैट्रिक डाटा कलेक्शन करने के लिए यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (जिसके मुखिया नंदन निलेकणी हैं, जिन्हें सरकार ने कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा दिया है) को पांच साल का समय दिया गया है। साथ ही पांच साल में देश में सिर्फ 60 करोड़ आईडेंटिटी नंबर दिए जाएंगे। यानी प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने जब बायोमैट्रिक दौर में जाति की गणना कराने की सिफारिश की थी, तो उन्हें यह मालूम था कि इस तरह जाति गणना का काम पांच साल या उससे भी ज्यादा समय में कराया जाएगा और इसमें भी देश के लगभग 120 करोड़ लोगों में सिर्फ 60 करोड़ लोगों के आंकड़े ही आएंगे।[xi] क्योंकि सरकार ने यह तय किया है कि यूनिक आईडेंटिंटी नंबर सिर्फ उन लोगों को दिया जाएगा, जो 15 साल से ज्यादा उम्र के हैं, जबकि जनगणना में हर उम्र के लोगों का ब्यौरा दर्ज होता है। मंत्रियों के समूह ने देश के बहुजनों के साथ इतनी बड़ी धोखाधड़ी करने का साहस दिखाया, यह गौर करने लायक बात है। पांच साल बाद आए आकंड़ों का लेखा जोखा करने, अलग अलग जाति समूहों का आंकड़ा तैयार करने में अगर कुछ साल और लगा दिए गए, तो अगली जनगणना तक भी जाति के आंकड़े नहीं आ पाएंगे।

बायोमैट्रिक जाति गणना के प्रस्ताव की कब्र ऐसे खुदी:
बायोमेट्रिक आंकड़ा संग्रह के साथ जातियों की गिनती कराने की मंत्रियों के समूह की सिफारिश की चालबाजी से जल्द ही पर्दा उठ गया। 12 अगस्त 2010 को लोकसभा में कई सांसदों ने इस धोखाधड़ी का सवाल उठाया। उस दिन लोकसभा की कार्यवाही के कुछ अंश देखें:

शरद यादव (जेडी-यू): मैं निवेदन करना चाहता हूं कि यह बहुत गंभीर मामला है जो कास्ट इनोमिरेशन (गिनती) का मामला था उसे बायोमैट्रिक में डाल दिया।

मुलायम सिंह (समाजवादी पार्टी): इसे उलझाया क्यों है। क्या हम सब लोगों को नासमझ समझ रखा है। ये समझ रखा है कि ये नासमझ हैं और इनको यह समझ में नहीं आएगा।

गोपीनाथ मुंडे (भाजपा): वादा किया था कि पार्लियामेंट को बताएंगे।

शरद यादव (जेडी-यू): यह जो हेडकाउंट हो रहा है, हेडकाउंट में नहीं रखा है, इसको बायोमैट्रिक में डाल दिया है।

शैलेंद्र कुमार (समाजवादी पार्टी): इस पर हमने एडजर्नमेंट मोशन (कार्यस्थगन प्रस्ताव) भी दिया है। जो विषय आज उठाया गया है, उस पर चर्चा की जाए।

दारा सिंह चौहान (बसपा): काउंटिंग नहीं करेंगे इसका क्या मतलब है।

शरद यादव (जेडी-यू): हेडकाउंट करना चाहिए था, बायोमैट्रिक से तो सौ साल में भी नहीं होगा।

दारा सिंह चौहान(बसपा): इस विषय पर सारे हाउस का एक मत है।

लालू प्रसाद (आरजेडी): सारे हाउस का एक ही मत है। प्रधानमंत्रीजी को सोनिया गांधी जी को…यह कहा गया कि कर रहे हैं, लेकिन चतुराई दिखा दी।

शरद यादव (जेडी-यू): 15 साल में इलेक्शन कमीशन का फोटो आईडेंटिटी कार्ड नहीं बन पाया है। यह सौ साल में भी नहीं होगा। बायोमैट्रिक क्या चीज है।

लालू प्रसाद (आरजेडी): इन्होंने गलत काम किया है।

(इसके बाद संसद की कार्यवाही स्थगित हो गई। दोपहर बाद वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपना उत्तर दिया)

THE MINISTER OF FINANCE (SHRI PRANAB MUKHERJEE): In the morning, some hon. Members expressed their views about the methodology of the caste census. As the hon. Members are aware, this issue was raised during the last Session. Thereafter, the hon. Prime Minister appointed a Group of Ministers, in a meeting of the Cabinet, to look into this aspect. The Group of Ministers wrote to all the political parties and we have received the response from the political parties. The Group of Ministers met yesterday and they considered the written response of all the political parties. The decision taken by the Group of Minister is that caste will be converged in the census without affecting the integrity of the headcount. How and when this should be done is under consideration.

Some suggestions have been made by the leaders today. All these will be kept in view and an appropriate decision on the mechanism will be taken shortly. As the decision will have to be taken by the Cabinet, only after the Cabinet takes the decision, I will be able to inform the House.

यानी सरकार ने इस समय तक यह तय कर लिया था कि जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा। उलझन सिर्फ अलग से जाति गणना के तरीके को लेकर थी, और यह फैसला कैबिनेट पर छोड़ दिया गया। इसका यह भी मतलब है कि जब बायोमैट्रिक स्तर पर जाति गणना कराने का संसद में विरोध हुआ तो सरकार ने फौरन कदम पीछे खींच लिए। इसलिए अगली बार सरकार ने अलग से जाति गणना कराने की घोषणा ऐसे समय में की (9 सितंबर, 2010) जब संसद का सत्र नहीं चल रहा था।

बायोमैट्रिक का षड्यंत्र यानी एससी, एसटी, ओबीसी की घटी हुई संख्या:
बायोमैट्रिक पद्धति से जाति गणना की आलोचना में ये तर्क दिए गए कि 15 साल में जिस देश में सभी मतदाताओं का मतदाता पहचान पत्र नहीं बना, उस देश में बायोमैट्रिक नंबर कितने साल में दिए जाते, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। मतदाता पहचान पत्र में तो सिर्फ मतदाता की फोटो ली जाती है जबकि बायोमैट्रिक नंबर के लिए तो फोटो के साथ ही अंगूठे का और आंख का डिजिटल निशान लिया जाएगा। इस काम के लिए कोई आपके घर नहीं आएगा बल्कि जगह जगह कैंप लगाकर यह काम किया जाएगा। इसमें कई लोग छूट जाएंगे जिनके लिए बार बार कैंप लगाए जाएंगे। दर्जनों बार कैंप लगने के बावजूद अभी तक वोटर आईडी कार्ड का काम पूरा नहीं हुआ है। यह तब है जबकि वोटर आईडेंटिटी कार्ड बनवाने में राजनीतिक पार्टियां दिलचस्पी लेती हैं। बायोमैट्रिक नंबर दिलाने में पार्टियों की कोई दिलचस्पी नहीं होगी। सरकार ने यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट पर साफ लिखा है कि यह नंबर लेना जरूरी नहीं है।[xii] यानी कोई न चाहे तो यह नंबर नहीं लेगा। बहुत सारे लोग इसका कोई और महत्व न देखकर इसे नहीं लेंगे। ऐसे में जाति की गणना से काफी लोग बाहर रह जाते। जबकि जनगणना के कर्मचारी हर गांव, बस्ती के हर घर में जाकर जानकारी लेते हैं और इसमें लोगों के छूट जाने की आशंका काफी कम होती है।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि देश में लाखों लोग घुमंतू जातियों के हैं। इन लोगों का बायोमैट्रिक आंकड़ा लेना संभव नहीं है। साथ ही शहरों में अस्थायी कामकाज के लिए आने वालों गरीबों का भी बायोमैट्रिक आंकड़ा लेना आसान नहीं हैं। इस तरह आबादी का एक बड़ा हिस्सा यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर के लिए बायोमैट्रिक आंकड़ा देने की गतिविधि में शामिल नहीं हो पाता और उस तरह उनकी जाति का हिसाब नहीं लगता। आप समझ सकते हैं कि इनमें से ज्यादातर लोग अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों से हैं। इस तरह स्पष्ट है कि बायोमैट्रिक के साथ जाति गणना कराने से एससी/एसटी/ओबीसी समूहों की संख्या घटकर आती। अच्छा है कि यह फर्जीवाड़ा जल्द ही खुल गया और संसद में विरोध के बाद इस किस्से का अंत हुआ।

बायोमैट्रिक के अलावा साजिशें और भी हैं:
जाहिर है जनगणना के साथ जाति गणना न कराना एक साजिश के अलावा कुछ नहीं है। इसका मकसद सिर्फ इतना है कि किसी भी तरह से ऐसा बंदोबस्त किया जाए कि जातियों से जुड़े आर्थिक-शैक्षणिक आंकड़े सामने न आएं। ये आंकड़ें भारतीय समाज और राजनीति में कई नए सवालों की पृष्ठभूमि बन सकते हैं। यह सवाल उठ सकता है कि आजादी के छह दशक बात भी कुछ समुदाय विकास की दौड़ में और अवसरों के बंटवारे में पीछे क्यों रह गए हैं। लगभग सारे संसाधन और सारे अवसर चंद समुदायों के हाथ में केंद्रित क्यों हैं? ये सवाल यथास्थिति को तोड़ने का आधार बन सकते हैं। इसलिए यथास्थिति की ताकतें नहीं चाहेंगी कि इन्हें कोई तार्किक आधार मिले। जातिवार जनगणना से वह तार्किक आधार खड़ा हो जाएगा, जिसके बाद समानता की मांग नए सिरे से जोर पकड़ सकती है।

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