क़मर आज़ाद हाशमी। तस्वीर सौजन्य : शबनम हाशमी |
दिल्ली सरकार की उर्दू अकादमी की ओर से कल एक ऐसी महिला का सम्मान किया गया, जिन्होंने मुसीबतों को हर मोड़ पर चुनौती दी है। दिल्ली के समाज के निर्माण में उनका खुद का और उनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान है। कमर आजाद हाशमी का जन्म 4 मार्च 1926 को झांसी में हुआ था। उनके पिता अजहर अली आजाद उर्दू और फारसी के विद्वान थे। उनकी मां जुबैदा खातून, दहेज के खिलाफ सक्रिय थीं, कई भाषाओं की जानकार थीं, घुड़सवारी करती थीं और राइफल चलाना जानती थीं। उनकी ससुराल के लोग दिल्ली की राजनीति में सक्रिय थे। उनके पति की मां, बेगम हाशमी नैशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन की संस्थापक अध्यक्ष थीं। मुल्क के बंटवारे के वक्त ऐसे हालात बने कि कमर आजाद हाशमी को अपने माता पिता के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा। वहां वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव, सज्जाद जहीर से मिलीं। सज्जाद जहीर को कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान भेजा था, जहां उन्हें पार्टी का गठन करना था। उन्हें मालूम था कि कमर की शादी हनीफ हाशमी से होने वाली थी। उन्होंने कमर को कहा कि वापस जाओ और हनीफ से शादी करके उसे भी पाकिस्तान लाओ, जिससे वहां वामपंथी आंदोलन को ताकत दी जा सके। कमर आजाद हाशमी जब दिल्ली आयीं, तो शादी तो उन्होंने हनीफ हाशमी से कर ली लेकिन वापस जाने की बात खत्म कर दी। बाद में स्व सज्जाद जहीर भी वापस हिंदुस्तान आ गये।
कमर आजाद हाशमी ने अपनी पहली किताब 69 साल की उम्र में लिखी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनकी पढ़ाई पर ब्रेक लग गयी थी क्योंकि 1947 के तकसीम-ए-मुल्क ने सब कुछ बदल दिया था। उन्होंने सत्तर साल की उम्र में एमए करने का फैसला किया और किया भी। मजदूरों के हक के लिए लड़ते हुए उनके 34 साल के बेटे को दिल्ली के पास साहिबाबाद में गुंडों ने मार डाला, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उस दिन उन्होंने दुःख में डूबे उसके साथियों का हौसला बढ़ाया था और कहा कि साथियो उठ खड़े हो और रोशनी फैलाने का काम जारी रखो क्योंकि अंधेरे के परदे को रोशनी से ही खत्म किया जा सकता है। उनके बेटे का नाम सफदर हाशमी था और आज उसे पूरी दुनिया में लोग जानते हैं।
कमर आजाद हाशमी के सफदर के अलावा चार और बच्चे हैं। इन्होंने अपने सभी बच्चों के अंदर पता नहीं क्या भर दिया है कि उनमें से कोई भी अन्याय के खिलाफ मोर्चा संभालने में एक मिनट नहीं लगाता। इनकी सबसे छोटी औलाद शबनम हाशमी हैं, जिन्होंने गुजरात नरसंहार 2002 के बाद दर्द के तूफान को झेल रहे हर गुजराती मुसलमान को ढाढ़स बंधाया और उसके साथ खड़ी रहीं। शबनम ने बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद संघी ताकतों का मुकाबला किया और देश में सेकुलर जमातों को एकजुट किया। इनके बड़े बेटे सुहेल हाशमी हैं, जो दिल्ली की विरासत के सबसे बड़े जानकारों में गिने जाते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक रूप को स्थापित करने में सुहेल का बड़ा योगदान है। इनकी दो और बेटियां हैं, जिन्होंने स्कूल टीचर के रूप में दिल्ली के दो नामी स्कूलों में काम किया और अपने विषय को बहुत ही लोकप्रिय बनाया। अपने बच्चों को कमर आजाद हाशमी ने बेहतर इंसान बनने की ट्रेनिंग अच्छी तरह से दे रखी है। दिल्ली में नर्सरी शिक्षा को एक सम्मानजनक मुकाम तक पंहुचाने में कमर आजाद हाशमी का खास योगदान है।
मुल्क के बंटवारे के बाद से दिल्ली और अलीगढ के बीच उन्होंने वक्त की हर मार को झेला और अपने बच्चों को मजबूत इंसान बनाया। उनके छोटे बेटे सफदर को 1989 में मार डाला गया। उसकी याद में ही सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक हस्तक्षेप का मंच, सहमत बनाया गया। शुरू में सहमत का संचालन उनकी छोटी बेटी शबनम हाशमी ने किया। बाद में शबनम ने अनहद का गठन किया जो शोषित पीड़ित जनता की लड़ाई का एक प्रमुख मोर्चा है। सहमत और अनहद से जुड़े ज्यादातर लोग कमर आजाद हाशमी को अम्माजी कहते हैं। सफदर को विषय बनाकर अम्माजी ने एक किताब भी लिखी जिसका नाम है, “पांचवां चिराग”। यह किताब कई भाषाओं में छप चुकी है। घोषित रूप से तो यह सफदर की जीवनी है लेकिन वास्तव में यह बीसवीं सदी में हो रहे बदलाव का एक आईना है। यह किताब उस औरत के अज्म की कहानी है, जिसका जवान बेटा राजनीतिक कारणों से शहीद कर दिया गया था। इस किताब में चारों तरफ बिखरे हुए सपने पड़े हैं, उम्मीदें हैं और हौसले हैं। इस किताब को पढ़ने के बाद लगता है कि एक औरत अगर तय कर ले तो मुसीबतें कहीं नहीं ठहरेगीं। अम्माजी को बहुत सारे सम्मान मिले हैं और आज भी काम करने का जज्बा ऐसा है कि अगले बीस साल तक के लिए प्लान बना चुकी हैं।
आजकल दिल्ली में अपनी छोटी बेटी शबनम हाशमी के साथ रहती हैं और अनहद के काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। अपने वालिद की फारसी गजलों और नज्मों का एक संकलन प्रकाशित कर चुकी हैं और दूसरे संकलन के बारे में काम चल रहा है। आज भी उनके पास बैठने पर लगता है कि काम करने का अगर हौसला हो तो बाकी चीजें अपने आप दुरुस्त हो जाएंगीं।
(शेष नारायण सिंह। मूलतः इतिहास के विद्यार्थी। पत्रकार। प्रिंट, रेडियो और टेलिविज़न में काम किया। 1992 से अब तक तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक व्यवहार पर अध्ययन करने के साथ साथ विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरी की। महात्मा गांधी पर काम किया। अब स्वतंत्र रूप से लिखने-पढ़ने के काम में लगे हैं। उनसे sheshji@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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