गुजरात दंगों की जांच के लिए नियुक्त विशेष जांच दल (एसआईटी) ने अपनी रपट दिसंबर 2010 में उच्चतम न्यायालय को सौंपी. इसके कुछ ही समय बाद देश के एक जाने-माने अख़बार ने अपने पहले पृष्ठ पर एक ख़बर छापी, जिसका शीर्षक था एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट दी. इस ख़बर को मीडिया के एक बड़े हिस्से ने हाथोंहाथ लिया और मोदी को गुजरात का विकास पुरुष बता दिया गया. उद्योगपतियों की एक लॉबी पहले ही मोदी को भविष्य का प्रधानमंत्री निरूपित कर चुकी है. मोदी को क्लीन चिट मिलने की ख़बर से सांप्रदायिक ताक़तों की बांछें खिल गईं. दूसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह विश्वास करना कठिन था कि मोदी को निर्दोष पाया गया है. कई जन जांच समितियां पहले ही गुजरात दंगों का सच जनता के सामने ला चुकी थीं. इन दंगों को अकारण राज्य प्रायोजित कत्लेआम नहीं कहा गया था. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दंगा पीड़ितों से विस्तृत चर्चा करके एवं दस्तावेजों के आधार पर, गुजरात में क्या हुआ था, इसका खाका पहले ही खींच दिया था. लगभग सभी जन जांच समितियां एवं जन न्यायाधिकरण इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि गुजरात हिंसा ने इतना भयावह रूप इसलिए लिया, क्योंकि मोदी सरकार ने दंगाइयों को सहायता दी.
भाजपा के दोहरे मानदंडों का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है. जब लीक से हमें लाभ होता है, तब वह स्वस्थ पत्रकारिता है और जब नहीं, तब वह ग़ैर क़ानूनी हरकत है. बीते नौ सालों में गुजरात दंगों के पीड़ित अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है. सभी छोटे-बड़े शहर मुसलमान और हिंदू इलाक़ों में बंट गए हैं.
इन सारे खुलासों के बाद भी जनता के एक बड़े तबके की निगाहों में मोदी अब भी हीरो थे. जब मामला अल्पसंख्यकों या समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों पर ज़्यादतियों का हो, तब सच को कितनी सफाई से छुपाया जाता है, गुजरात दंगे इसका उदाहरण हैं. यद्यपि अनमने भाव से यह स्वीकार किया जाता था कि दंगों को नियंत्रित करने के लिए समुचित प्रयास नहीं किए गए, परंतु जोर गोधरा कांड और उसमें मुसलमानों की हिस्सेदारी पर रहता था. हिंदुओं द्वारा की गई हिंसा को बदले की कार्यवाही बताकर औचित्यपूर्ण ठहराया जाता था. बनर्जी आयोग ने साफ कहा कि गोधरा कांड मुसलमानों द्वारा रची गई किसी साजिश का नतीजा नहीं था. इस रपट का भी कोई असर नहीं पड़ा. मीडिया एवं मोदी के प्रचार तंत्र के चलते जनता के दिमाग़ में यह मान्यता घर कर गई थी कि हिंसक और आक्रामक मुसलमानों ने निर्दोष कारसेवकों को ज़िंदा जला दिया.
उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त एसआईटी के परिदृश्य पर उभरने से यह आस बंधी थी कि अब गुजरात दंगों के राज्य प्रायोजित होने का सच सामने आएगा, दोषियों को सज़ा मिलेगी और पीड़ितों को न्याय. लेकिन जब यह ख़बर सामने आई कि एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट दे दी है तो दंगा पीड़ित एवं सामाजिक कार्यकर्ता अवाक रह गए. इसने व्यवस्था पर उनके विश्वास को गहरी क्षति पहुंचाई. एकबारगी ऐसा लगा कि इस देश में न्याय पाना संभव नहीं है. सौभाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ. तहलका की सनसनीखेज ख़बर (5 फरवरी, 2011) से यह साफ हो गया कि मोदी को क्लीन चिट दिए जाने की ख़बर झूठी थी. सच यह है कि एसआईटी ने मोदी को दंगों के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया है. रपट से मोदी के विरुद्ध लगाए गए सभी आरोप सही सिद्ध हो गए और साफ हो गया कि विभिन्न जन जांच समितियां एवं जन न्यायाधिकरण सही निष्कर्षों पर पहुंचे थे.
एसआईटी रपट कहती है कि मोदी ने गुलबर्ग सोसायटी की घटना को उचित ठहराते हुए बयान दिया था कि हर क्रिया की समान एवं विपरीत प्रतिक्रिया होती है. रपट इस तथ्य की पुष्टि करती है कि गुजरात सरकार ने मंत्रियों को पुलिस नियंत्रण कक्षों में तैनात किया था, ताकि हिंसा का राजनीतिक प्रबंधन किया जा सके. यह तो सर्वज्ञात है कि जिन ईमानदार पुलिस अधिकारियों ने अपने राजनीतिक आकाओं के अवैध आदेश मानने से इंकार कर दिया और कर्तव्य पालन करते रहे, उन्हें महत्वहीन पदों पर बैठा दिया गया. तहलका ने यह खुलासा भी किया है कि गुजरात सरकार ने दंगों की अवधि के पुलिस वायरलेस रिकार्ड नष्ट कर दिए हैं. मोदी ने अल्पसंख्यक दंगा पीड़ितों की उपेक्षा की और काफी दिनों तक वह उनके शिविरों एवं मोहल्लों में नहीं गए. आरएसएस से जुड़े वकीलों को दंगों के मामलों में सरकारी वकील नियुक्त किया गया. मोदी ने विहिप द्वारा किए गए बंद, जिसका भाजपा ने समर्थन किया था, को रोकने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए. इस बंद के बाद ही व्यापक हिंसा शुरू हुई. एसआईटी ने इस बात की भी पुष्टि की कि सरकारी अधिकारियों ने चुनाव आयोग को गुमराह किया. राज्य में हिंसा और तनाव का वातावरण होते हुए भी आयोग से कहा गया कि वहां चुनाव कराने के लिए उपयुक्त वातावरण है. पुलिस ने नरोडा पाटिया एवं गुलबर्ग सोसायटी मामलों की जांच में घोर लापरवाही बरती.
तहलका की ख़बर पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि रपट से साफ है कि नरेंद्र मोदी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने के लिए पर्याप्त आधार हैं. भाजपा यह पता लगाने में व्यस्त है कि एसआईटी की रपट किसने और कैसे लीक की. दिलचस्प बात यह है कि अब भाजपा इस रिपोर्ट के तहलका तक पहुंचने की जांच की मांग कर रही है, वहीं जब एक अख़बार ने मोदी को क्लीन चिट दिए जाने की बात छापी थी, तब उसे रिपोर्ट लीक होने पर कोई आपत्ति नहीं थी. भाजपा के दोहरे मानदंडों का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है. जब लीक से हमें लाभ होता है, तब वह स्वस्थ पत्रकारिता है और जब नहीं, तब वह ग़ैर क़ानूनी हरकत है. बीते नौ सालों में गुजरात दंगों के पीड़ित अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है. सभी छोटे-बड़े शहर मुसलमान और हिंदू इलाक़ों में बंट गए हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा सामने लाए गए चंद मामलों को छोड़कर अधिकांश पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिल सका है.
इस पूरे घटनाक्रम से जनमत के निर्माण संबंधी व्यापक प्रश्न उठे हैं. गोधरा कांड के बाद से ही गुजरात दंगे के दोषियों के विचार और उनका नज़रिया मीडिया द्वारा प्रचारित किए जाते रहे हैं. मोदी का विरोध करने वालों को मीडिया नीची निगाहों से देखता रहा है. मोदी को एसआईटी द्वारा क्लीन चिट देने संबंधी ख़बर पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो सामाजिक कार्यकर्ता और अल्पसंख्यक देश की मुसीबतों की जड़ हैं. यही सामाजिक सोच मोदी जैसे लोगों के लिए मददगार सिद्ध होती है. यह चिंताजनक है कि आमजनों के दिलोदिमाग पर क़ब्ज़ा करने की लड़ाई में सांप्रदायिक ताक़तें सफलता हासिल करती जा रही हैं. गुजरात में तो गोएबेल्स को भी मात दे दी गई. ऐसे में हमारे लिए इस मुद्दे पर चिंतन करना आवश्यक हो गया है कि देश के ध्येय वाक्य सत्यमेव जयते का पालन हम कैसे सुनिश्चित करेंगे. हमें यह भी पता लगाना होगा कि वे कौन सी ताक़तें हैं, जो मोदी को क्लीन चिट दिए जाने जैसी झूठी ख़बरें मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित कराती हैं. इन मुद्दों पर विचार किया जाना ज़रूरी इसलिए है, क्योंकि अगर इस संबंध में कुछ नहीं किया गया तो सामूहिक हत्याएं करने वाले न केवल हमारे देश पर शासन करते रहेंगे, वरन् उद्योगपति और मीडिया उनकी जय-जयकार भी करते रहेंगे.
(लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्राध्यापक हैं)
No comments:
Post a Comment