‘‘इस प्रश्न का उत्तर सरल है। यह जटिल विषय नहीं है। जैसा कि हम सब जानते हैं डॉ. अम्बेडकर एक अछूत परिवार में जन्मे थे। इस तरह उन्हें व्यक्तिगत कडुवे और विकट अनुभव का ज्ञान था कि सवर्ण हिन्दू जातियों द्वारा उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जाना कैसा लगा। उन्होंने यह भी देखा कि उनका अनुभव अपूर्व नहीं था, बल्कि भारत भर में करोड़ों अन्य लोगों के साथ भी ऐसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता था। बहुत वर्षों तक डॉ. अम्बेडकर ने सवर्ण हिन्दुओं को अपना व्यवहार बदलने और इसमें सुधार लाने के लिए समझाने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। अन्ततः वे इस नतीजे पर पहुंचे कि कम से कम व्यवहारिक रूप में हिन्दू धर्म और छूतछात एक दूसरे से अलग होने वाले नहीं हैं, और यदि कोई मनुष्य अपने आपको छुआछूत की दुर्गति से मुक्त करवाना चाहता है, जाति-पांति की लानत से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे हिन्दू मत को एकदम तिलांजलि देनी होगी। इसलिए 1935 में उन्होंने ऐलान किया,
‘यद्यपि मैं हिन्दू जन्मा हूं , मैं हिन्दू मरूंगा नहीं।‘
संक्षेप में , यही कारण था कि डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्यागा। उन्होंने देखा कि हिन्दू धर्म में अछूत के रूप में पैदा हुए मनुष्य के लिए मानव की तरह सुशीलता और शान से जीवन व्यतीत करना असम्भव है।‘‘
डॉ. अम्बेडकर की सच्ची महानता : संघरक्षित, पृष्ठ 32 से साभार
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