Thursday, April 21, 2011

दलित मुस्लिमों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा मिला ?


दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति के दायरे में शामिल करने की लड़ाई दिनोदिन लंबी होती जा रही है. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को 4 साल होने को आए, लेकिन आज भी यूपीए सरकार इस रिपोर्ट की स़िफारिशों को अमल में लाने को लेकर कश्मकश में है, जबकि संसद के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर सरकार पर रंगनाथ मिश्र आयोग की स़िफारिशें लागू करने का ज़बरदस्त दबाव है. हाल ही में एक बार फिर इस मांग को लेकर मुंबई स्थित कैथोलिक सेक्युलर फोरम, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिला और उनसे मांग की कि दलित मुसलमानों और ईसाइयों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए उन्हें जल्द से जल्द अनुसूचित जाति का दर्जा प्रदान किया जाए. प्रधानमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया कि इस मसले पर जल्द ही आख़िरी फैसला लिया जाएगा. फिलव़क्त, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 का अनुच्छेद-3 दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की राह में सबसे बड़ी रुकावट है. इसमें कहा गया है कि अनुसूचित जाति को यदि रिज़र्वेशन का फायदा उठाना है तो सभी दलितों को एक ख़ास मज़हब से ताल्लुक़ रखना होगा. ज़ाहिर है, यह काला क़ानून अनुच्छेद 341 (1) के प्रावधान और संविधान के तहत अवाम को दिए गए मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन है. इस क़ानून को चुनौती देने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में साल 2004 से विचारधीन है, लेकिन अभी तक इस पर फैसला नहीं आ पाया है. दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने के लिए यूपीए सरकार कितनी संजीदा है, यह इस बात से मालूम होता है कि 7 साल हो गए, लेकिन सरकार अभी तक इस मसले पर अपने विचार सुप्रीम कोर्ट में नहीं रख पाई है. इस दौरान कई सूबाई सरकारें सार्वजनिक तौर पर केंद्र में दलित मुसलमानों और ईसाइयों के अधिकारों को लागू करने की अपील कर चुकी हैं. यही नहीं मुल्क में धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव दूर करने के रास्तों की तलाश के लिए ख़ुद यूपीए सरकार द्वारा गठित रंगनाथ मिश्र आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों की सामाजिक, आर्थिक हालत में सुधार का सुझाव दिया था और उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने की वकालत की थी.

1950 में हिंदुस्तान के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी उद्घोषणा द्वारा हिंदू दलितो को तो अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया, मगर बाक़ी बचे ग़ैर हिंदू दलितों को सूची से हटा दिया. नतीजतन 85 फीसदी दलित मुसलमान इससे वंचित रह गए.
दरअसल, गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में है और मिश्र आयोग की स़िफारिशों के बाद सरकार को ही इस मुद्दे पर अपना आख़िरी फैसला करना है. ऐसा नहीं है कि इस मसले पर पहले कोई क़दम नहीं उठाया गया, बल्कि साल 1996 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष व दलित नेता सीताराम केसरी की पहल पर कांग्रेस सरकार एक विधेयक, आदेश 1950 के अनुच्छेद 3 में संशोधन के लिए लोकसभा में लाई थी, लेकिन शिवराज पाटिल ने जो उस व़क्त लोकसभा स्पीकर थे, तकनीकी कमी बताकर विधेयक को रद्द कर दिया था. अब जबकि एक बार फिर केंद्र मे कांग्रेसनीत सरकार हुकूमत में है, तो उसका नैतिक उत्तरदायित्व बनता है कि वह इस विधेयक को दोबारा सदन में लाए और उस ऐतिहासिक भूल को दुरुस्त करे, जिसका ख़ामियाज़ा लंबे समय से दलित मुसलमान और ईसाई भुगत रहे हैं. उनको अनुसूचित जाति में शामिल नहीं किया जाना, एक संवैधानिक त्रुटि है और यह भारतीय संविधान की मूल भावना के ख़िला़फहै.
दरअसल, दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग उतनी ही पुरानी है, जितना 1935 का भारतीय सरकार अधिनियम. यह अधिनियम हिंदुस्तान के सभी दलितों को शिक्षा, रोज़गार और न्याय का अधिकार प्रदान करता है. लिहाज़ा, सदियों से उपेक्षित, प्रताड़ित इन तबक़ों की सामाजिक व माली हालत सुधारने के लिए शासन ने संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत सभी दलितों को अनुसूचित जाति में शामिल किया. बहरहाल, 1950 में हिंदुस्तान के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी उद्घोषणा द्वारा हिंदू दलितो को तो अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया, मगर बाक़ी बचे ग़ैर हिंदू दलितों को सूची से हटा दिया. नतीजतन 85 फीसदी दलित मुसलमान इससे वंचित रह गए. तब से आज तक दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग कई बार उठी, लेकिन सही प्लेटफार्म न मिलने और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह मांग ख़ुद-ब-ख़ुद दम तोड़ती रही. आज़ादी से पहले जो हिंदू दलित जातियां मुसलमानों के मुक़ाबले बद से बदतर हालात में थीं, वे अनुसूचित जाति में शामिल होने के बाद आरक्षण के फायदों से बेहतर हालत में आ गईं. वहीं आज मुसलमान अनुसूचित जातियों से भी पीछे हो गए. आलम यह है कि मुसलमानों की कुल आबादी के 80 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा से नीचे ज़िंदगी ग़ुजार रहे हैं. मुसलमानों की अधिकतम तादाद आज भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए छोटे-मोटे धंधों लघु उद्यमों और कम आमदनी वाली प्राइवेट नौकरियों आदि के आसरे है. सरकारी नौकरियां उनके लिए महज़ ख्वाब हैं. तालीम के अभाव में अव्वल तो वे नौकरियों के लिए परीक्षा में बैठ ही नहीं पाते हैं और अगर कहीं तालीमयाफ्ता हो भी जाएं तो कंपटीशन में दूसरोंके मुक़ाबले कहीं से भी टिक नहीं पाते. इसके कारण जो मुस्लिम समुदाय आज़ादी से पहले सरकारी नौकरियों में आला पदों पर क़ायम था, वह आहिस्ता-आहिस्ता नौकरियों से लगभग बेदख़ल हो गया. इसका जीता जागता सबूत सरकारी नौकरियों में हिंदुस्तान भर में मुसलमानों की हिस्सेदारी है, जो निम्नतर स्तरों पर भी कभी 6 फीसदी से ज़्यादा नहीं रही. वहीं हिंदू दलित जातियां जिन्हें अनुसूचित जाति में शामिल कर आरक्षण का फायदा दिया गया, आज मुसलमानों से कहीं अधिक बेहतर स्थिति में हैं.
आज ज़रूरत इस बात की है कि वह क़ौम, जिसकी 80 फीसदी से ज़्यादा जनसंख्या ग़रीबी रेखा से नीचे जी रही हो, उसकेअधिकारों की बात की जाए, जो कहीं से भी नाजायज़ नहीं है. समानता, न्याय और उन्नति की मांग मुसलमानों के संवैधानिक एवं मौलिकअधिकार हैं. 1935 के भारत सरकार अधिनियम के मुताबिक़ राष्ट्रपति की 1950 की उद्घोषणा अंतरराष्ट्रीय क़ानून की नज़र में सबसे बड़ा काला क़ानून है. वास्तव में यह उद्घोषणा अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लघंन है, जिसमें क्रमश: विधि के समक्ष समता तथा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद के प्रतिरोध की बात कही गई है. दलित मुसलमानों और ईसाइयों को भी अनुसूचित जाति में शामिल कर आरक्षण देना क़ानूनन तर्कसंगत है. हिंदू-मुस्लिम, हिंदू-ईसाई के चश्मे से परे इन समुदायों की मांग को हिंदुस्तानी क़ौम की तरक्क़ी से जोड़कर देखना ज़्यादा मुनासिब होगा. दलित मुसलमान और ईसाई अनुसूचित जाति के अधिकारों की मांग के लिए मुल्क में गुज़िश्ता 64 सालों से संघर्ष कर रहे हैं. अब व़क्त आ गया है कि उनकी मांग पर संजीदगी से विचार हो और उन्हें जल्द से जल्द अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए.

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    1 comment:

    1. sohraab bhaai kongres iske liyen zimmedar hai lekin usse khin adhik hm dusre drje ke nagrik zimmedaar hain hm or hmare neta kuchh nhin kar ske lekin kakaa kelkar ne to istifaa de diyaa thaa aek bhtrin chintn ke liyen bdhaai .akhtar khan akela kota rajsthan

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