शिखा राही का नाम जितना मशहूर फिल्म तारे ज़मीं पर में उनके क्रिएटिव काम के लिए लोग नहीं जान पाये, उतना उनके पिता की रिहाई के लिए संघर्ष के चलते लोग जान रहे हैं। शिखा ने अपने पिता के साथ हुए पूरे घटनाक्रम पर लिखा है। उनका लिखा एक एक वाक्य भारतीय राष्ट्र-राज्य के भीतर न्याय की अवधारणा की पोल खोलता है। इसे उपलब्ध कराने के लिए भाई दिनेश मानसेरा का बहुत बहुत शुक्रिया : मॉडरेटर
उत्तराखंड में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आंतरिक सुरक्षा को लेकर 20 दिसंबर, 2007 को हुए अधिवेशन तक राज्य में किसी भी तरह की नक्सली गतिविधि की एक भी खबर के बारे में मुझे याद नहीं। मुख्यमंत्री को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा – मैं पहले कह चुका हूं कि वाम चरमपंथ संभवतः भारतीय राज्य के लिए अकेली सबसे बड़ी चुनौती है। यह निरंतर बढ़ रहा है और हम चैन से तब तक नहीं रह सकते जब तक कि इस विषाणु का उन्मूलन न कर दें। राज्य की आंतरिक सुरक्षा बेहतर करने के लिए मदद देने का आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा – अपने सभी माध्यमों के जरिये हमें नक्सली शक्तियों की पकड़ को छिन्न-भिन्न कर देने की जरूरत है।
इस अधिवेशन से मुझे यह जानकारी मिली कि उत्तराखंड भी अब उन राज्यों में से एक है, जो लाल आतंक का सामना कर रहे है। जैसा कि राज्य के मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने उन सशस्त्र व्यक्तियों के बारे में कहा, जिन पर माओवादी होने का संदेह था, जो उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में देखे गये थे। खंडूरी के अनुसार, चूंकि उत्तराखंड नेपाल सीमा पर पड़ता है, यह सीमा पार कर आ रहे माओवादियों की ओर से बड़े खतरे का सामना कर रहा है। आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करने के क्रम में और ‘माओवादी शैतानों’ की धमकियों से बचाव के लिए खंडूरी ने केंद्र से 208 करोड़ रुपयों की मांग की।
दिलचस्प है कि 21 दिसंबर, 2007 को अमर उजाला अखबार में छपी एक खबर ने खंडूरी की इस सूचना की पुष्टि की। इसने सूचना दी कि एक दर्जन सशस्त्र व्यक्ति, जिन पर माओवादी होने का संदेह है, उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के हंसपुर खट्टा, सेनापानी और चोरगलिया में देखे गये हैं। इस खबर के बाद सीपीआई (माओवादी) के तथाकथित जोनल कमांडर प्रशांत राही की हंसपुर खट्टा के जंगल में गिरफ्तारी की खबरें आयीं, जो नैनीताल जिले के स्थानीय अखबारों में छपीं और जिन्होंने आंतरिक सुरक्षा के लिए फंड की जरूरत को न्यायोचित ठहराया। अखबार की खबर के अनुसार, 22 दिसंबर, 2007 को राही पांच दूसरे लोगों के साथ एक नदी के किनारे बैठे हुए थे, जब उन्हें गिरफ्तार किया गया। जबकि दूसरे लोग भागने में सफल रहे। कोई राज्य और इसकी पुलिस को इस तरह की उच्च स्तरीय योजना और समन्वय, जो उन्होंने हासिल किया, के लिए श्रेय जरूर दे सकता है। जिस गति से ये सारी घटनाएं एक के बाद एक सामने आयीं, उस पर विश्वास करना कठिन है। पहली बार जब उत्तराखंड में संदिग्ध माओवादी देखे गये और उस दिन में जब उनका जोनल कमांडर गिरफ्तार किया गया, मुश्किल से सिर्फ दो दिनों का फर्क है। इससे भी अधिक, जिस क्रम में ये घटनाएं आंतरिक सुरक्षा पर अधिवेशन के तत्काल बाद सामने आयीं, वह सुनियोजित दिखती है।
जबकि, असली कहानी, जो प्रशांत राही, मेरे पिता ने मेरे सामने रखी, जब मैं उनसे 25 दिसंबर, 2007 को उधम सिंह नगर जिले के नानकमत्ता पुलिस स्टेशन में मिली, वह उससे बिल्कुल अलग थी, जो प्रेस में आयी थी। जब मैं उनसे मिली, मैंने रोने का फैसला नहीं किया, इसलिए मैं उनसे लिपट गयी और कहा – ‘हरेक चीज ठीक है। चिंता मत करो।’ हालांकि मैं उनकी आंखों में थकान देख सकती थी। मेरे पिता ने मुझे एक चौड़ी मुस्कान दी। जब मैं बातें करने के लिए उनके साथ बैठी, उन्होंने अपनी गिरफ्तारी का एकदम अलग ब्योरा दिया – देहरादून में 17 दिसंबर, 2007 की नौ बजे सुबह मैं अपने एक दोस्त के घर पैदल जा रहा था, जब मुझ पर अचानक चार या पांच लोगों ने (जो वरदी में नहीं थे) हमला कर दिया। उन्होंने मुझे एक कार में धकेला, आंखों पर पट्टी बांध दी और पूरे रास्ते मुझे पीटते रहे। लगभग डेढ़ घंटे लंबी यात्रा के बाद एक जंगली इलाके में वे मुझे कार से बाहर खींच लाये, जहां उन्होंने मुझे फिर से पीटना शुरू किया। उन्होंने मुझे हर जगह चोट पहुंचायी, मेरे पिता ने कहा।
मैं धैर्यपूर्वक उन्हें सुन रही थी। बिना उस नृशंसता से खुद को प्रभावित किये, जिससे वे गुजरे थे। मेरे पिता ने कहना जारी रखा, 18 दिसंबर, 2007 की शाम वे लोग मुझे हरिद्वार लाये, जहां प्रोविंसियल आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी (पैक) का अधिवेशन हो रहा था। यहां, उन्होंने मुझे टॉर्चर करना जारी रखा। उन्होंने निर्दयतापूर्वक मेरे शरीर के प्रत्येक हिस्से पर, गुप्तांगों सहित, मारा। अधिकारियों ने भी मुझे मेरे गुदा मार्ग में केरोसिन डालने और बर्फ की सिल्ली से बांध देने की धमकी दी।
[ इससे बदतर क्या हो सकता है कि पुलिस ने मुझे मुंबई (जहां मैं रह रही थी और काम कर रही थी) से बुलाने और अपनी मौजूदगी में मेरे पिता को मुझसे बलात्कार करने पर मजबूर करने की धमकी दी। ]
20 दिसंबर, 2007 को अधिकारी मेरे पिता को उधमसिंह नगर के नानकमत्ता पुलिस थाना लाये। उन्हें शुरू के तीन दिनों तक लगातार पिटाई और पूछताछ के कारण दर्द और निश्चेतना थी। हालांकि पूछताछ जारी रही, पुलिस ने उन्हें फिर से थोड़ा ठीक होने का इंतजार किया और तब दो दिनों के बाद 22 दिसंबर, 2007 को उन्होंने उनकी गिरफ्तारी दर्ज की, जो कि पूरी तरह निराधार और मनगढ़ंत है। मेरे पिता के अनुसार, अधिकारियों ने, जिन्होंने उन्हें टॉर्चर किया, अपनी पहचान उन्हें नहीं बतायी और न ही वे पांच दिनों की उस अवैध हिरासत के बाद फिर कभी दिखे।
प्रशांत राही गिरफ्तारी के 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत नहीं किये गये। यह संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन था। वे मजिस्ट्रेट के सामने 23 दिसंबर को ही प्रस्तुत किये गये। उन्हें वकील, संबंधी या किसी दोस्त से गिरफ्तारी के बाद संपर्क करने की अनुमति नहीं दी गयी। पांच दिनों तक मानसिक और शारीरिक तौर पर यातना देने के बाद वे भारतीय दंड संहिता की धाराओं 120 बी, 121, 121 ए, 124 ए और 153 बी तथा गैरकानूनी गतिविधि (निषेध) अधिनियम की धाराओं 10 और 20 के तहत झूठे तौर पर फंसाये गये।
महाराष्ट्र मूल के मेरे पिता ने बनारस हिंदू विवि से एम टेक किया, लेकिन उन्होंने एक पत्रकार बनना चुना। पहले द स्टेट्समेन (दिल्ली) के संवाददाता रह चुके मेरे पिता अब उत्तराखंड में पिछले कई वर्षों से एक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे थे। पुलिस ने प्रशांत राही के मामले में जिन मौलिक अधिकारों और संवैधानिक सुरक्षा उपायों का खुलेआम उल्लंघन किया है, जिनकी भारत के सभी नागरिकों के लिए गारंटी दी गयी है, इसमें अंतर किये बगैर कि वे कैसी राजनीतिक या विचारधारात्मक दृष्टि रखते हैं और उन पर किस तरह के अपराध करने का आरोप लगाया गया है – वह हैरान करता है। पुलिस द्वारा अधिकारों का इस तरह का भारी उल्लंघन माफ नहीं किया जा सकता। यदि एसी घटना प्रशांत राही के साथ घट सकती है, जो उच्च शिक्षित हैं और यथोचित तौर पर संपर्क में रहनेवाले व्यक्ति हैं, तब पुलिस के हाथों में पड़े थोड़े कमनसीब व्यक्ति की नियति के बारे में सोचते हुए सोचते हुए रोंगटे खडे हो जाते हैं।
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