भारतीय समाज की विडबंना है कि यह दोहरे मानदंडों पर जीता है। यह अजीब अंतर्विरोध है कि ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के खिलाफ हर व्यक्ति बोलता मिलेगा, वहीं ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला भी दिखाई देगा। नेता, उद्योगपति, अधिकारी, क्लर्क, इंजीनियर, डॉक्टर, मीडियाकर्मी, व्यवसायी, व्यापारी, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, छोटे-मोटे उद्यमी, दस्तकार, कलाकार सभी कहीं न कहीं कदाचार के रोग से पीड़ित भी हैं और लिप्त भी हैं।
राजनीतिक दल अगर पार्टी चलाने और चुनाव लड़ने के लिए बेशुमार काला धन चंदे के रूप में ले रहे हैं तो यह धन उन्हें कार्पोरेट घराने, ठेकेदार, बिल्डर, विदेशी कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों के जरिए ही मिल रहा है जो तमाम सामाजिक समारोहों में भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने सद्विचार देते मिल जाते हैं। करोड़ों रुपए ब्लैक में लेकर आयकर की चोरी करने वाले और फिल्म उद्योग-व्यापार जगत के लोग, हर ठेके में अपना कमीशन (पर्सेंटेज) तय करके फाइल आगे बढ़ाने वाले अधिकारी, तारीखें बढ़वा-बढ़वाकर मुवक्किल की जेबें खाली कराने वाले वकील, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से तनख्वाह लेकर कोचिंग सेंटरों में पढ़ाकर कमाई करने वाले शिक्षक,गांवों में तैनाती के बावजूद शहरों में रहकर निजी प्रैक्टिस करने वाले सरकारी डॉक्टर और इलाज से पहले मरीजों से सबकुछ रखवा लेने वाले निजी अस्पतालों के मालिक डॉक्टर,मिलावट से लेकर जमाखोरी तक करके कीमतें आसमान में पहुंचाने वाले व्यापारी, जमीने कब्जाने वाले भूमाफिया सभी भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा की मुहिम से आंदोलित हैं।
अकेले में नेताओं के आगे बिछ जाने वाले तमाम लोग टीवी चैनलों पर नेताओं को बेभाव गालियां दे रहे हैं और देश की हर समस्या के लिए उन्हें कोस रहे हैं। ऐसा लगता है कि पूरा समाज तो देवभूमि भारत का है लेकिन नेताओं की जमात किसी दूसरे ग्रह से आकर यहां शासन कर रही है और लूट-खसोट कर रही है।
हम यह भूल रहे हैं या इस सच को मंजूर नहीं करना चाहते हैं कि जिन्हें हम भ्रष्टाचार के लिए कोस रहे हैं,वह इसी समाज और हमारे बीच के लोग हैं। उनमें से कितनों का हम सामाजिक बहिष्कार करने का साहस रखते हैं। अण्णा आंदोलन के अगुआ सूचना अधिकार कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल जब टीवी चैनलों पर कई केंद्रीय मंत्रियों का नाम लेकर उन्हें भ्रष्ट बताते हैं तो तालियां खूब बजती हैं लेकिन उन्हीं मंत्रियों से उपकृत न होने का संकल्प कितने लोग ले सकते हैं।
अण्णा के आंदोलन का मनोबल बढ़ाने के लिए मुंबई से बयान जारी करने वाले फिल्मी सितारे क्या यह प्रतिज्ञा कर सकते हैं कि अब वह फिल्मों में काम करने के बदले अपनी सारी कमाई चेक से लेकर उस पर आयकर अदा करेंगे। अण्णा के समर्थन में एसएमएस भेजने वाले वकीलों,डॉक्टरों, इंजीनियरों, युवाओं, कार्पोरेट एक्जीक्यूटिव क्या प्रतिज्ञा करेंगे कि वह अपने पेशों को पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से अंजाम देंगे। क्या शिक्षक कोचिंग में नहीं, विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों में ईमानदारी से कक्षाएं लेने का दृढ़ संकल्प करेंगे।
क्या व्यापारी घटतोली, मिलावट, कालाबाजारी और जमाखोरी न करने का वैसा ही संकल्प लेंगे जैसा कभी जय प्रकाश नारायण के सामने चंबल के दस्युओं ने लिया था । क्या भू संपत्तियों की खरीद-बिक्री में होने वाले काले धन के लेन-देन को बंद किया जाएगा?आंदोलन के प्रति पूरी सहानुभूति जताने वाले मीडियाकर्मी और मीडिया घरानों को भी क्या यह संकल्प नहीं लेना होगा कि मीडिया कवच का इस्तेमाल वह सरकार और सत्ता प्रतिष्ठानों से फायदे उठाने के लिए नहीं करेंगे।
क्या 'अण्णा' के सत्याग्रह से प्रेरणा लेकर उद्योग घराने गांधी जी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत की भावना पर अमल करते हुए पर्यावरण और देश की संपत्ति से खिलवाड़ न करने का संकल्प लेते हुए यह प्रतिज्ञा नहीं करेंगे कि वह कोई भी काम कराने के लिए रिश्वत नहीं देंगे। भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठाए साधु-संतों से भी देश अपेक्षा करता है कि वह अपने आश्रमों और संस्थानों को राजनीति का अखाड़ा न बनने दें और दान लेने व खर्च करने में पूरी पारदर्शिता बरतें।
वास्तव में अगर भ्रष्टाचार और कदाचार से लड़ना है तो जनलोकपाल कानून के साथ-साथ समाज और व्यक्ति को बदलने का आंदोलन भी चलाना पड़ेगा। महात्मा गांधी ने पहले अपने कथनों को खुद अपने पर अमल किया, इसके बाद उन्होंने दूसरों से वैसा करने की अपील की। इसीलिए बिना टीवी चैनलों के शोर शराबे के कश्मीर से कन्या कुमारी और द्वारका से अरुणाचल तक गांधी के आह्वान पर करोड़ों लोगों ने विदेशी सामान का बहिष्कार किया। खादी पहनी और सादगी का संकल्प लिया ।
जेपी ने भी कुछ ऐसी ही कोशिश की थी लेकिन उनकी संपूर्ण क्रांति बाद में सरकार परिवर्तन पर जाकर अटक गई । अण्णा की मुहिम भी अगर सिर्फ मनमोहन सरकार को हटाने की कवायद बनकर रह जाएगी तो भ्रष्टाचार नहीं दूर होगा बल्कि देश के लोग एक बार फिर छले जाएंगे।
कानून बनाकर सिर्फ डर पैदा किया जा सकता है लेकिन असली सवाल कानून के अमल और बुराई के प्रति समाज में नफरत पैदा करने का है। उपभोक्तावादी और बाजारवादी विकास के मॉडल को अपनाकर हम ईमानदार तंत्र नहीं बना सकते हैं। एक तरफ लोगों को विलासी और ऐशोआराम की जीवन शैली के प्रति आकर्षित करने के अभियान चलाकर कंपनियां महंगा सामान खरीदने,विलासी और भौतिकवादी जीवन के प्रति लालसा बढ़ाकर ज्यादा पैसा कमाने की भूख पैदा कर रही हैं। जायज तरीके से होने वाली कमाई से हर ख्वाहिश पूरी होनी मुमकिन नहीं है,तब भ्रष्टाचार फलता फूलता है. क्या जिस मॉडल की कोख में ही भ्रष्टाचार पलता हो, उस पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए.
एक और यक्ष प्रश्न है, कानून पर अमल का.भ्रष्टाचार और कदाचार के खिलाफ पहले से कानून हैं. जन लोकपाल कानून बन जाने से जनता के हाथ में एक और हथियार आ जायेगा. लेकिन जरूरत है इन कानूनों पर सख्ती से अमल की. अन्ना आन्दोलन सिर्फ जंतर मंतर पर हजारे के अनशन पर खत्मनहीं होना चाहिए. गावं में मनरेगा और दूसरी योजनाओं मन होने वाली पैसे की लूट, तहसील में पटवारी से लेकर तहसीलदार, विकास खंड में विकास योजनाओं के अमल में गड़बड़ी, थाना और जिला स्तर पर आम जनता के साथ रोज होने वाले अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ भी जन जागरण और जन करवाई की जरूरत है.
इस आन्दोलन से प्रेरणा लेकर अगर कार्यकर्ता अपने -अपने प्रभाव क्षेत्रों में निचे के स्तर पर कानूनों के अमल और लोगों के अधिकारों के हनन के खिलाफ स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनायें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ दूसरी आजादी जैसा गाँधीवादी सत्याग्रह हो सकता है. क्या ऐसा नहीं होना चाहिए.
नई दुनिया से साभार
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