बीजेपी के भीष्म पितामह लाल कृष्ण आडवाणी जबसे भ्रष्टाचार
के विरूद्व रथ यात्रा पर निकले हैं सवाल और संशय उनका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं।
उनकी पार्टी के नेता उनकी इस यात्रा को पीएम पद की दावेदारी के रूप में देखते हैं
तो वे इनकार में सफाई देते फिर रहे हैं। लबोलुआब यह है कि बीजेपी में अंर्तकलह, खींचतान और आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला चरमसीमा पर है और आडवाणी हैं
कि रथ पर हिचकोले खा रहे हैं।
असल में आडवाणी पार्टी में इस समय सबसे सीनियर लीडर हैं और
उन्हें लगता है कि बीजेपी उन्हीं के मजबूत कंधों पर टिकी हुयी है। पिछले आम
चुनावों में बीजेपी ने आडवाणी के व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर ही पीएम पद के लिये
उनको प्रचारित किया था, लेकिन देश की जनता ने आडवाणी के साथ ही साथ बीजेपी के नकार कर साफ संदेश दे दिया था। पिछले दो सालों में पार्टी की
लोकप्रियता का ग्राफ बड़ी तेजी से गिरा है।
पार्टी चाहकर भी यूपीए सरकार को घेर पाने में सफल नहीं हो
पायी थी। सुषमा स्वराज को नेता विपक्ष की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप कर पार्टी ने
साफ कर दिया था कि पुरानी पीढ़ी के नेता केवल मार्गदर्शन दें हस्तक्षेप न करें। आडवाणी भी इस इशारे को समझ
गये थे लेकिन रामदेव और अन्ना के आंदोलन ने देश की जनता को जगाने और यूपीए सरकार के खिलाफ माहौल तैयार करके सुप्त पड़े
आडवाणी के मन में पीएम बनने की चाहत को पुनः जगाने का काम कर डाला है।
आज पार्टी में उठापटक, अंर्तविरोध और खींचतान का माहौल चरम पर है। भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते
बीजेपी को अपने दो-दो मुख्यमंत्रियों को बदलना पड़ा ऐसे में आडवाणी का भ्रष्टाचार
के विरूद्व जन चेतना रथ यात्रा निकालने का तुक समझ से परे है। सच तो यह है कि रथ
यात्रा की आड़ में आडवाणी एक बार फिर देश की जनता और पार्टी के भीतर ये मैसेज देना चाहते
हैं कि उनमें पीएम बनने के गुण और शक्ति की कोई कमी नहीं है।
ऐसे में सवाल ये है कि व्यक्तिगत तौर पर आडवाणी को जो नफा
नुकसान होगा वो तो आडवाणी जो, लेकिन
आडवाणी की रथ यात्रा बीजेपी को कहां लेकर जाएगी ये बात सोचने वाली है। खुद को पाक
साफ बताने वाली बीजेपी के दामन पर भी भ्रष्टाचार के दाग लगे हुये हैं। ऐसे में
आडवाणी की रथ यात्रा से देश की जनता में
क्या संदेश जाएगा ये बात कोई छुपी हुयी
नहीं है। असल में इस बात को पार्टी के नेता भी बखूबी समझते हैं और सोची समझी नीति
के तहत ही वो खुलकर आडवाणी की रथ यात्रा का विरोध नहीं कर रहे हैं।
पार्टी के दूसरे
नेताओं को लगता है कि आडवाणी को घूम घूम कर खुद ही अपनी हैसियत का अंदाजा
लग जाएगा। अभी तक आडवाणी की रथ यात्रा देश की जनता और मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचने में कामयाब नहीं हो पायी है।
वहीं पार्टी के भीतर गुटबाजी के चलते छोटे बड़े नेता नफे नुकसान का हिसाब लगाकर ही
आडवाणी के हमराही बन रहे हैं। असलियत आडवाणी से भी छुपी हुयी नहीं है। आज पार्टी
के भीतर से लगभग आधा दर्जन नेता उनको खुली चुनौती और टक्कर दे रहे हैं।
गडकरी का अध्यक्षता भी उनकी सेहत के लिये खतरनाक साबित हो
रही है तो वहीं मोदी का बढ़ता कद और लोकप्रियता आडवाणी की राजनीतिक सेहत को दिनों
दिन बिगाड़ने में खास भूमिका निभा रही है। तमाम दिक्कतों और परेशानियों के बावजूद
आडवाणी खुद को पीएम की रेस में बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें पता है कि अगर वो थक
हार कर घर बैठ गये तो उनका हश्र वही होगा जो अटल बिहारी वाजपेयी या दूसरे कदावर
नेताओं का हुआ है।
आडवाणी की रथ यात्रा से बीजेपी को राजनीतिक तौर पर कहीं कोई
नफा होता दिखाई नहीं देता है। अगर अन्ना और रामदेव की बोई फसल काटने की आडवाणी
कोशिश कर भी रहे हैं तो देश की जनता इसकी
असलियत बखूबी जानती है। भाजपा ने सत्ता में रहकर क्या गुल खिलाये हैं ये किसी से
छिपा नहीं है। राम मंदिर के लिए जब आडवाणी ने रथयात्रा की थी तो रथ यात्रा की पूरे
देश में धूम और उत्साह था।
अब माहौल बदल चुका है अगर मीडिया न बताए तो जनता को यह पता
ही नहीं है कि आडवाणी का रथ किस सड़क पर दौड़ रहा है। आडवाणी की रथ यात्रा से पहले
मोदी का सदभावना उपवास भी पीएम की दौड़ का मोदी का पहला कदम था। मोदी के उपवास ने
आडवाणी की रथयात्रा का रंग फीका तो किया ही वहीं आडवाणी को खुली और सशक्त चुनौती
भी दी है।
आडवाणी ने ख्वाब तो बहुत ऊंचे और दूर के हैं लेकिन जमीनी
हकीकत यह है कि जनहित से जुड़े मुद्दों की बजाय अन्ना और रामदेव की बोयी फसल काटने
को बीजेपी अधिक उत्सुक नजर आ रही है। मंहगाई ने पिछले कई सालों से आम आदमी का जीना
दूभर कर रखा है लेकिन बीजेपी ने एक बार भी दमदार तरीके से मंहगाई का विरोध नहीं
किया। बीजेपी की कार्यशैली से ऐसा आभास ही नहीं होता है कि देश में कोई दमदार विपक्षी दल भी है।
bahut achha lekh hai
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